नेफ्रटीटी की वापिसी / संतोष श्रीवास्तव

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मैं मिस्र के शहर अमाना से तीन सौ किलोमीटर दूर 'वैली ऑफ़ दि किंग्स' में पिरामिडों को देखने के शौकीन टूरिस्ट दल के साथ भारत से यहाँ 'फ़िल्मेपिया टूर एंड ट्रेव्हल्स' की टूर मैनेजर की हैसियत से आई हूँ। चुलबुलीनीरजा की ख़ास फ़रमाइश है "मैडम, मुझे तो नेफ्रटीटी का मकबरा और उसकी ममी देखनी है।"

"कौन है ये नेफ्रटीटी?" केवल मौज मज़े के लिये आये अधेड़ मारवाड़ी दम्पत्ति ने दूर-दूर तककहीं भी धूप से बचने के लिये छाया को न पा सिर पर के हैट कोसूरज की तरफ़ थोड़ा तिरछाकिया। सचमुच धूपतीखीतेज़ थी और हू-हू करती हवाएँ रेत के थपेड़ों से सीधे शरीर पर ही वार कर रही थीं। इतने सालों से फ़िल्मेपिया में नौकरी करते हुए मैंने कई देशों की यात्रा की लेकिन मिश्र के पिरामिड मेरे लिये भी अजूबा ही थे। ख़ास कर नेफ्रटीटी... तीन हज़ार वर्षों से रेत में दबी अपनेशानदार, रोमांचकारी जीवन को समेटे वह मुझे जैसे किसी चुंबकीय ताक़त से अपनी ओर खींच रही थी। अपनी खूबसूरती में बेमिसाल नेफ्रटीटी, जो एक शक्तिशाली महिला के रूप में मिश्र के इतिहास में उभरी और अपनी क्रांतिकारी हुकूमत, सत्ता प्रेम, विश्वासघात यहाँ तक कि हत्या की त्रासद कथा बन गई।

तीखी तेज़ धूप को अनदेखा कर हमारा काफ़िला 'वैली ऑफ दि किंग्स' पहुँच चुका था। चारों ओर रेतीले पहाड़ और ढूह थे। दूर-दूर तक इतने अधिक पिरामिड थे जैसे मधुमक्खी के छत्ते हो। मेरी गाइड बुक में नेफ्रटीटी के पिरामिड के आगे के. वी. पैंतीस लिखा था।

"तलाशिये... 'के. वी. पैंतीस' टूरिस्ट दल में होड़ लग गई"

"मैडम, देखिए... के.वी. पैंतीस..." वह ख़ुश थी कि उसने पिरामिड ढूँढ निकाला। बीस पच्चीस साल पहले इस पिरामिड में प्रवेश नहीं किया जा सकता था, लेकिन नेफ्रटीटी पर शोध करने वाली महिला डॉ. फ्लेचर ने कोठरी की दीवार तुड़वाकर प्रवेश किया था। टूरिस्ट दल टूटी दीवार से अंदर आ गया। अंदर गहरा अँधेराथा। सबके हाथ में पकड़े टॉर्च जल उठे। मकबरे के रक्षक ने सर्चलाइट जला कर गुफ़ा को जगमगा दिया लेकिन वहाँ तबाही का मँजर था। नेफ्रटीटीकी ममी पर कफ़न तक न था। ममी के चेहरे पर शाही रुआब और अथाह खूबसूरती थी। लेकिन उसके शरीर पर की हर चीज जैसे किसी ने जानबूझकर तबाह कर डाली थी। शाही कफ़न चीथ डाला था। सिर पर से बालों की विग नोच डाली थी। ममी का एक हाथ बाजू में कटा पड़ा था। हाथ की उँगलियों के नाखूनों पर मेंहदी के निशान थे। ममी के अँगों पर शाही गहने तो ज्यों के त्यों थे पर चेहरे को खरौंच डाला गया था। स्पष्ट था कि तबाही नफ़रत की वज़ह से की गई... पर इस नफ़रत का कारण?

पिछली रात काहिरा में अपने होटल के कमरे में मैं रात भर इन सवालों से जूझती रही थी... जवाब के लिये मैंने गूगल में नेफ्रटीटी का इतिहास छान मारा था... बेहद रोमांचकारी इतिहास... तभी कुणाल का फ़ोन आया-"कब लौट रही हो कनु?"

"बताया तो था... तीन दिन बाद... कुणाल, अभी मैं लैपटॉप पर नेफ्रटीटी को पढ़ रही थी। बस यूँ समझो एक अँधड़ भरी उथल पुथल से गुज़र रही हूँ। कल'वैली ऑफ दि किंग्स' जाना है... सब बताना पड़ेगा न टूरिस्ट दल को।"

"मैं भी इस विषय से रिलेटेड सामग्री तुम्हें बस दो मिनट में मेल कर रहा हूँ। शायद तुम्हें नेफ्रटीटीको समझने में और अधिक मदद मिल जाये।"

"थैंक्स कुणाल... डिनर लिया तुमने?"

"आधे घंटे बाद लूँगा। तुम्हें बहुत मिस कर रहा हूँ डियर।"

" मैं भी... हम दोनों के फ़ोन पर थोड़ी देर सन्नाटा रहा। एक दूसरे की मोहब्बत में गिरफ़्त हमने चालीस की उम्र पार कर ली लेकिन एकाकी रहकर... कभी-कभी ख़ुद से सवाल करती हूँ, इसकी वजह?

तेज़ी से फ़ासले तय कर मैं जहाँ पहुँची हूँ... खंडहर हुई हवेली का प्रवेश द्वार है वह। प्रतिष्ठित ज़मींदार घराने का प्रवेश द्वार है वह। प्रतिष्ठित ज़मींदार घराने के अकेले वारिस दिग्विजय ने हवेली की जगह शानदार कोठी बनवाने के इरादे से विशाल ज़मीन को नींव के लिये खुदवाना शुरू किया तो पश्चिम दिशा में रखी भारी चट्टान बड़ी मुश्किल से कई मज़दूरों ने मिलकर सरकाई थी। चट्टान के नीचे पाँच फीट गहरे गड्ढे से एक नरकंकाल निकला। सब डर गये। मज़दूरों ने दहशत की वज़ह से काम रोक दिया। लेकिन जब दिग्विजय की पत्नी सुमन देवी ने कंकाल देखा तो सोच में पड़ गईं। रात्रि के एकांत में दिग्विजय से मिलते ही बोली-"कंकाल का हिंदू विधि से दाह संस्कार करवा दीजिए। न जाने किसका कंकाल है। लेकिन उँगलियों में पहनी ये हीरे की अँगूठी और हाथ का कंगन बतला रहा है कि कंकाल किसी समृद्ध घराने की महिला काहै।"

अँगूठी और कंगन देखकर चौंक पड़े थे दिग्विजय। यादों का अलबम खुल गया था। पचास बरस पुराने पीले, धुँधले चित्रों में वे अपनी माताजी के हाथ के ये गहने बखूबी पहचानते हैं। आँखों में सैलाब उमड़ आया। वे कंगन और अँगूठी को चूमकर रो पड़े-

"सुमन, ये माताजी के ज़ेवर हैं।"

"क्याऽऽऽ" ताज्जुब से भर उठीं सुमन देवी। उन्होंने कभी अपनी सास मालती देवी को देखा नहीं था लेकिन उनके अपार विदुषी होने के किस्से वे सुनती आई थीं...सुनती आई थीं कि उनके ससुर प्रेमनाथ की मृत्यु के बाद उनका दूर-दूर तक फैला साम्राज्य कितना कुशलता से सम्हाला था मालती देवी ने।

समृद्धि प्रेमनाथ के क़दम चूम रही थी। हवेली मानो इंद्र की अलकापुरी और इंद्राणी उस ज़माने के ज़मींदार ख़ानदानकी पुत्री मालती देवी... रूप गुण और बुद्धि की ख़ान। प्रेमनाथके संग बीते दस वर्षों के वैवाहिक जीवन में वे तीन बार माँ तो बनी थीं लेकिन उनके बच्चे जन्म के तीसरे, चौथे महीने में ही चल बसते। न जाने कितनी मन्नतें, गंडा, ताबीज के टोटकों के बावजूद प्रेमनाथ पिता नहीं बन पाये और जब बन पाये तो... ज़मींदारी प्रथा का अंत हो चुका था और सरकार द्वारा जमींदारों, नवाबों के प्रिवी पर्स ही बंद कर दिये गये थे। प्रेमनाथ कारोबार को बढ़ाने में रात दिन जुटे रहते लेकिन अलका पुरी को जैसे किसी की नज़र लग गई थी। चाचा, ताऊ के बेटों ने कारोबार हथियाने की योजना पर विचार करना शुरू कर दिया था। बड़े भाई सोमनाथ के होने के बावजूद प्रेमनाथ कारोबार में अकेले पड़ गये हैं यह बात चाचा ताऊ के बेटे अच्छी तरह समझते थे। सोमनाथ दिन रात रंगरेलियों में डूबे रहते...उनकी एय्याशी पुश्तैनी कारोबार को कहीं ख़त्म न कर दे इसलिए प्रेमनाथ ने कड़ी मेहनत कर अकेले ही कारोबार सम्हाला। सोमनाथ कोसिर्फ़ शराब, औरत और अपने सुरक्षा कवच में नियुक्त किये कारिंदों पर लुटाने के लिए पैसा चाहिए था। पहले इफ़रात लिया फिर मालती देवी के कारोबार में रूचि लेने के बाद उनका मासिक जेब ख़र्च तय कर दिया गया जो सोमनाथ को बर्दाश्त नहीं था।

"देखो प्रेम... घर की लक्ष्मी घर में ही शोभा देती हैं। तुम बहू को क्यों कारोबार में इन्वॉल्व कर रहे हो?"

प्रेमनाथसोमनाथ की बहुत इज़्ज़त करते थे। सरझुकाकरबोले-"भाई साहब, वे अर्थ शास्त्र पढ़ी हैं, सही सलाह देती हैं।"

ठहाका लगाकर हँसे सोमनाथ-"अरे वाह... तुम तो जोरू के गुलाम निकले।"

प्रेमनाथ ने बुरा नहीं माना। ऐसीगुणवती बीवी का गुलाम होना उन्हें स्वीकार है।

हवेली के हर काम में मालती देवी का दख़ल था। नौकर चाकर, नाते रिश्ते, खेत खलिहान, व्रत उपवास, तीज त्योहार... मज़ाल है कुछ उनकी नज़रों से छूट जाये। लँच के बाद वे ऑफ़िस चली जातीं और प्रेमनाथ के संग शाम को घर लौटतीं। ऑफ़िस में उनका अलग केबिन था। संपत्ति का बँटवारा हो चुका था। मालती देवी के कारण प्रेमनाथ की संपत्ति जहाँ एक ओर बढ़ रही थी वहीं सोमनाथ की उनकी रंगरेलियों के कारण घट रही थी। सोमनाथ इस बात को लेकर भी अंदर ही अंदर विद्रोह पाले थे। एक औरत उन पर भारी पड़ रही है और वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं। प्रेमनाथ तो सीधा सादा है इसीलिए वह नहीं समझ पा रहा है कि मालती ने उसे कैसा कठपुतली बनाकर रखा है। लानत है ऐसी मर्दानगी पे। और वे मालती को रास्ते से हटाने की योजना बनाने लगे। बस एक बात से राहत मिलतीउन्हें कि प्रेमनाथ की संपत्ति को कोई वारिस नहीं है।

लेकिन ईश्वर ने उनकी इस सोच को भी नकार दिया था। शादीके दस साल बाद मालती देवी ने दिग्विजय को जन्म दिया। हवेलीतो क्या पूरा शहर आतिशबाजी की चकाचौंध से भर उठा। स्याह आसमान में आग के फूल खिलते और धरती तक पहुँचने से पहले ही गायब हो जाते। दिग्विजय जाड़ों में दिसम्बर मास में पैदा हुए थे। उस साल बेतहाशा ठंड पड़ी, ओले गिरे और बारिश भी हुई। खेतों में लहलहाती फ़सल पाला पड़ने से झुलस गई। खेतों का मुआयना करके लौट रहे प्रेमनाथ को न जाने कैसी हवा ने दबोचा कि बायाँ अंग लकवाग्रस्त हो गया। उनके बिस्तर पर आते ही सोमनाथ ने उनके कारोबार की बागडोर अपने हाथ में लेनी चाही कि मालती देवी ने दखलंदाजी की।

"अभी मैं ज़िंदा हूँ जेठजी... सम्हाल लूँगी सब। आप चिंता न करें।"

सोमनाथ तिलमिला गये लेकिन चूँकि जायदाद और कारोबार में वे अपना हिस्सा पहले ही ले चुके थे इसलिएउन्हें चुप रह जाना पड़ा। लेकिन सूखी हुई घास में चिंगारी तो पड़ ही चुकी थी। उन्होंने चचेरे भाइयों को भी अपनी गिरफ़्तमें लेकर मालती देवी के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया। उनकी कोशिश रहती कि प्रेमनाथ केकारोबारमें नुक़सान पहुँचाए और पूरे ख़ानदान की नज़रों में उनकी जो साख है उसे मिट्टीमें मिला दे। लेकिन मालती देवी का वे कुछ नहीं बिगाड़ सके। उनकी इसी कुशलता ने सोमनाथ के दिल की चिंगारी को लपट देना शुरू कर दिया।

मालती देवी लाख कोशिशों के बावजूद प्रेमनाथ को नहीं बचा पाईं। आठ बरस हलचलविहीन शरीर से बिस्तर भोगकरप्रेमनाथ ने संक्रांति के दूसरे दिन प्राण त्याग दिये।

मालती देवी का संसार उजड़ चुका था। आठ बरस के नन्हे दिग्विजय की परवरिश और प्रेमनाथ का कारोबार... तिस पर ख़ानदानी दुश्मनों की गिद्ध नज़र... लेकिन मालती देवी ने वह कर दिखाया जिसकी सोमनाथ को उम्मीद भी नहीं थी। उन्होंने दिग्विजय को देहरादून पढ़ने के लिए भेज दिया और पूरी तरह कारोबार के लिए समर्पित हो गईं। पुरखों की शानबान को क़ायम रखना और दिग्विजय को उच्च शिक्षा देकर पुश्तैनी कारोबार के लायक बनाना अब मालती देवी का मकसद बन गया। उन्होंने तो जैसे अपने आसपास सुदृढ़ किलेबंदी कर ली थी जिसमें उनकी मर्ज़ी के खिलाफ परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। यह वह युग था जब औरत मर्द की जायदाद समझी जाती थी। ऐसे में मालती देवी के मातहत ज़िंदग़ी गुजारने को विवश नाते रिश्तेदार पंगु कर देने वाली मनःस्थिति से गुज़र रहे थे। एय्याश सोमनाथ धर्म, कर्म भूल अगर कुछ याद रखे थे तो मालती देवी... मालती देवी उनके दिमाग़ में ऐसी छा गई थी कि और कुछ सूझता ही नहीं था उन्हें... मालती देवी उनके दिल का चैन और रातों की नींद ले उड़ी थीं। मालती देवीइस बात से वाकिफ़ थीं। वे ऊपर से चाहे जितनी कठोर और दृढ़ व्यक्तित्व वाली थीं लेकिन प्यार से ओतप्रोत एक कोमल दिल भी तो था उनके पास। जब भी वे कारोबार से थकतीं प्रेमनाथ की तस्वीर के सामने बैठकर ख़ामोश ज़बान में अपने दिल का हवाला देतीं उन्हें लगता जैसे प्रेमनाथ उन्हें तसल्ली दे रहे हैं, आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दे रहे हैं। शायद इस अलौकिक साथ के बल पर वह अपने ख़ानदान की सबसे शक्तिशाली महिला बन चुकी थीं।

यह दिग्विजय की पंद्रहवीं सालगिरह थी। क्रिसमसकीछुट्टियों में दिग्विजय घरआये थे। इस बार मालती देवी कुछ नया करने की योजना बना रही थी।

"माताजी इस बार विदेशी ऑरकेस्ट्रा का प्रोगराम रखिए न।" दिग्विजय भी उत्साह में थे।

"क्यों नहीं... हर बार आतिशबाजी होती है, इस बार ऑरकेस्ट्रा मँगवाते हैं। आप मेहमानों की लिस्ट चैक कर लें... कोई छूट न गया हो।"

मालती देवी ने लिस्ट दिग्विजय के हाथों में थमाई और हवेली की सजावट देखने के लिए चली गईं।

शाम से घर में मेहमानों का ताँता लग गया। ऑरकेस्ट्रा की धुन पर सब नाच थिरक रहे थे। मालती देवी बेटे को खूबसूरत पोशाक में देख सीधी प्रेमनाथ की तस्वीर के सामने जा खड़ी हुईं-"देख रहे हैं बेटे को... बिल्कुल आप ही का प्रतिरूप है। उसकी तालीम में मैंने कोई कोरक़सर छोड़ी हो तो बता दीजिए। अपनी समझ से मैं जो कर रही हूँ वह आपकी मनमर्ज़ी का तो है न?" मालती देवी को लगा प्रेमनाथ इस बार मुस्कुराए नहीं बल्कि उनकी आँखों में खौफ़ की परछाईयाँ थी। फोटो के काँच में मालती देवी ने अपनी ओर बढ़ते उसखौफ को पहचान लिया... ऑरकेस्ट्रा के शोर में उनकी चीख दब गई।

फिर कहीं नहीं मिलीं वे। कहाँ गईं? ज़मींखा गई या आसमाँ निगल गया... तलाश...तलाश... मालती देवी की जगह दिग्विजय ने ले ली। छोटी उम्र के बावजूद उन्होंने सोमनाथ के पैर टिकने नहीं दिये। अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। मालती देवी की शख़्सियत पर रुसवाई के दाग लगाना नामुमकिन था। सोमनाथ ने कारिंदों का मुँह रुपयों से इतना ठूँस दिया था कि कोई न उगल पाया कि सोमनाथ ने मालती देवी की हत्या करवाई है।

देहरादून में पढ़ाई के दौरान ही दिग्विजय का परिचय सुमन देवी से हुआ जो पहले प्यार फिर विवाह में तब्दील हो गया। दिग्विजयछै: साल ऑस्ट्रेलिया में कारपोरेट जगत से जुड़े रहे। जब भारत लौटे तो हवेली को खंडहर में तब्दील पाया। ख़ानदान तितर बितर हो गया था... कुछ ने शहर छोड़ दिया था, कुछ ने दुनिया।

अपने पिता दिग्विजय और माँ सुमन देवी की मैं इकलौती बेटी कनुप्रिया। मैंने दादी को नहीं देखा। पापा ने जब पुरानी हवेली तुड़वाकर नई कोठी बनवाई तो जिस जगह उनका शव मिला था उस पर तुलसी का चौरा बनवाया। मम्मी सुबह शाम वहाँ दीपक जलाती हैं। कोठी के ड्राइंग रूम में उनकी तस्वीर देखकर मैंने मान लिया था कि वे संसार की सबसे रूपवती स्त्री थीं।

रूपवतीनेफ्रटीटी भी थी। नेफ्रटीटी की तस्वीर उसके पिरामिड में लगी देख मैं पलक झपकाना भूल गई। इतनीखूबसूरती? गुफा की दीवारों पर राजघराने के चित्र उकेरे गये थे। एक-एक चित्र नेफ्रटीटीके संग घटी घटनाओं कीगवाही दे रहे थे। मैं उन चित्रों को चलता फिरता महसूस करने लगी।

नील नदी के किनारे बसा बेहद खूबसूरत शहर मलकाटा। सम्राट का विशाल महल। साम्राज्ञी टॉय सम्राट की रखैलों की देखभाल ख़ुद करती थी। नेफ्रटीटी को जन्म देने वाली रखैल की मृत्यु प्रसव के दौरान ही हो गई। नेफ्रटीटी का बचपन महल के रीतिरिवाजों, कायदेकानून के बीच आराम से गुज़र रहा था लेकिन सम्राज्ञीटॉय की पैनीनज़र ने जान लिया था कि नेफ्रटीटी का बेपनाह सौंदर्य, विलक्षण प्रतिभा और अद्भुत सोच रखैलों की अन्य औलादों जैसी नहीं है। उसने नेफ्रटीटी की शादी अपने बेटे एखेनाटन से कर दी। लेकिन शादी के लिए कहाँ बनी थी वह। एखेनाटन सम्राट होकर भी साम्राज्य के प्रति अपने फ़र्ज़ नहीं निभा रहा था। वह सिर्फ़ नेफ्रटीटी के रूप का गुलाम था। लिहाज़ा सम्राट और साम्राज्ञी दोनों की भूमिका वही निभा रही थी। वह एक शक्तिशाली औरत के रूप में उभरी और मिश्र के इतिहास पर छा गई।

अँधेरा घिरने लगा था...हमें काहिरा लौट जाना चाहिए था लेकिन गुफ़ा की दीवारों के चित्र जैसे मुझे पुकार रहे थे-कनुप्रिया... मैं नेफ्रटीटी... लगातार कई बरसों तक मेरे कुशल शासन में रहते हुए मेरे ही सैनिकों ने मेरे ख़िलाफ़ साज़िश रची और एक दिन थीव्स में मुझे निहत्था पा मेरी हत्या कर दी गई। हत्या मेरी दादी मालती देवी की भी कर दी गई थी। दोनों साज़िश का शिकार होकर दुनिया से कूच कर गईं लेकिन दुनिया के लिये एक सवाल छोड़ गईं... आख़िर औरत की सत्ता से इंकार क्यों है?

"येगुज़रे वक़्त की घटनाएँ हैं कनु... इनसे आज का आंकलन नहीं किया जा सकता। समाज कितना बदल गया है, सोच कितनी बदल गई है।" फ़ोन पर समझा रहा था कुणाल और मैं काहिरा में अंतिम डिनर लेते हुए सोच रही थी... नहीं, बदला नहीं है ज़माना... फ़र्क़ बस इतना आया है कि औरत पहले ख़ुद के अंदर थी अब बाहर आई है।