नौजवान का रास्ता / मुकेश मानस

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गुलामी से आजादी की कहानी साम्राज्यवादी अंग्रेज़ हमारे देश में व्यापारी बनकर आए थे। वे अपनी राजनीतिक रणनीतियों व सैनिक शक्ति के बल पर यहां के शासक बन बैठे। धीरे-धीरे उन्होंने हिन्दुस्तान को गुलाम बनाकर उसका भयानक रूप से सामाजिक-राजनीतिक व आर्थिक शोषण किया। साम्राज्यवाद के चक्के में पिसती जनता ने भी तरह-तरह से गुलामी के खिलाफ आवाज़ उठाना शुरू किया। 1857 में भारत के किसानों, असंतुष्ट सामंतों, हिन्दू-मुस्लिम गरीब जनता और सैनिकों ने संगठित होकर बहुत बड़ी बगावत की थी। भारतीय जनता की आजादी के लिए यह पहली जबरदस्त कोशिश थी। इस कोशिश को मार्क्स ने भारत का पहला स्वतत्रता संग्राम कहा था।

भारत में उभरते पूंजीपति वर्ग ने हिन्दुस्तानी व्यापार क्षेत्र में अपने लिए व्यापार की छूट मांगने के लिए 1885 में खुद को कांग्रेस नाम के एक संगठन में संगठित किया जो बाद में कांग्रेस पार्टी बनी। अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद को कमजोर होते व देश भर में उठ रहे क्रांतिकारी जनांदोलनों के तूफान को उठते देख जब पूंजीपति वर्ग को भारत की सत्ता अपने हाथ में आने की संभावनाएं दिखीं तो कांग्रेस पार्टी भी आजादी की लड़ाई में कूद पड़ी। मगर सत्ता हथियाने का उसका रास्ता समझौतावादी था। कांग्रेस अंग्रेजों से बार-बार समझौता करती थी, अंग्रेजों के आगे बार-बार झुकती थी। जनता बार-बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का विरोध करने सड़कों पर उतरती थी मगर कांग्रेस असहयोग और अहिंसा के रास्ते से आजादी प्राप्त करने के सिद्धांतों का वास्ता देकर उसे रोकती थी।

आजादी की लड़ाई में सबसे ज्यादा अहम भूमिका क्रांतिकारी नौजवानों और छात्रों ने निभाई थी। सन~ सत्तावन की बगावत के बाद से ही उन्होंने खुद को अलग-अलग क्रांतिकारी दलों में संगठित करना शुरू कर दिया था। ऐसे संगठनों में युगांतर, अनुशीलन और हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ प्रमुख थे। क्रांतिकारी नौजवानों ने भारतीय जनता की संपूर्ण आजादी की मांग उठाते हुए अंग्रेजी साम्राज्यवाद पर तरह-तरह से हमले किए।

1917 में रूस में एक ऐसी क्रांति हुई जिसने मनुष्य का शोषण करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था का नाश करके समाजवादी समाज की स्थापना की। इस क्रांति का भारत के नौजवानों पर गहरा असर पड़ा। आजादी की लड़ाई में समझौतावादी कांग्रेस और उसके लीडरों के सामने कुछ ऐसे प्रतिबद्ध क्रांतिकारी नौजवान भी थे जिनके विचारों की गर्मी और दूरगामी दृष्टि जनता को लगातार प्रेरित कर रही थी। इनमें आगे-आगे थे भगवतीचरण वोहरा, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव और शहीदे-आजम भगतसिंह। भगतसिंह और उनके साथियों के विचार मेहनतकश जनता और नौजवानों में बड़ी तेजी से पैफल रहे थे। भगत सिंह और उनके साथियों के बाद देश में क्रांतिकारी ताकतों का एक ऐसा उभार आया जिसने किसानों और मजदूरों को संगठित करके तेलंगाना कृषक संग्राम जैसे महान आंदोलन को नेतृत्व दिया, जिसने समझौतावादी शक्तियों पर एक दबाव बनाए रखा और उसे देश की संपूर्ण जनता की पूरी आजादी की लड़ाई लड़ने पर मजबूर किया, जिसने पशोपेश में पड़ी जनता को प्रेरित किया कि वह भारत में रूस की तरह समाजवादी समाज के निर्माण के लिए आगे आए।

भगत सिंह को क्यों याद करें? भगत सिंह और उनके साथियों के आगे इस बात का नक्शा एकदम साफ था कि आजादी के बाद का हिंदुस्तान कैसा होना चाहिए। वे हिन्दुस्तान से न सिर्फ शोषण और दमन पर टिके अत्याचारी साम्राज्यवादी अंग्रेजों को भगाना चाहते थे बल्कि पीढ़ियों से चले आ रहे भारतीय महाजनों, जमींदारों और नए-नए उभर रहे पूंजीपति वर्ग के चंगुल से भी भारतीय जनता को मुक्त कराना चाहते थे। उनके सामने यह एकदम साफ था कि कांग्रेस व्यापारियों, सामंतों और पूंजीपतियों की पार्टी है। उसमें और उसकी नीतियों में इसी वर्ग के लोगों के हितों का वर्चस्व है इसलिए अगर आजाद भारत की सत्ता की बागडोर इसके हाथ में आई तो गरीब जनता को इससे कोई लाभ नहीं होगा, उल्टे वह साम्राज्यवाद के चंगुल से छूटकर पूंजीवाद के चक्के में पिसने लगेगी।

अप्रैल 1927 में अंग्रेज़ी सरकार दो दमनकारी काले कानून पास करना चाहती थी। अगर यह कानून पास हो जाते तो अंग्रेज़ी हकूमत को यह अधिकार मिल जाता कि वह किसी भी भारतीय को बिना कोई कारण बताए गिरफ्तार कर सकती थी। इन कानूनों के पास हो जाने से ज्यादा नुकसान क्रांतिकारी ताकतों को होता। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बहरे साम्राज्यवादियों और भारतीय पूंजीपतियों को जनता की आवाज सुनाने और दमनकारी कानूनों के खिलापफ विरोध जाहिर करने के लिए असेंबली में बम पेंफका। यह बम जान माल को नुकसान न पहुंचाने वाला दिखावटी बम था यह बम इस तरीके से पेंफका गया था कि इससे किसी व्यक्ति को कोई नुकसान न हो। गौरतलब बात ये है कि इसी असेंबली में अनेक महत्वपूर्ण कांग्रेसी लीडर हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। जिस मंच पर कांग्रेसी लीडरों को इन दमनकारी कानूनों के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए थी वहां वे चुप थे।

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा असेंबली में बम फैंके जाने की योजना पूर्व निर्धारित थी। ये क्रांतिकारी साथी कचहरी के मंच के जरिए कांग्रेस द्वारा अपने बारे में फैलाये जा रहे दुष्प्रचार का खुलासा करना चाहते थे और जनता एक अपने विचार खुले व प्रमाणिक रूप से पहुंचाना चाहते थे। वे भागना चाहते तो भाग सकते थे मगर उन्होंने वहीं खड़े होकर साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद, इंकलाब-जिंदाबाद के नारे लगाये, साम्राज्यवादी नीतियों के विरोध में पर्चे बांटे और गिरफ्तारी दी। उन्होंने कचहरी में दिए अपने बयानों के जरिए जनता को क्रांति (इंकलाब), मेहनतकशों का राज और समाजवादी समाज के निर्माण के अपने कार्यक्रम से वाकिफ़ कराया। वे मानते थे कि भारत (राष्ट्र) केवल कांग्रेस के लाउडस्पीकर (कांग्रेस के नेता) नहीं हैं बल्कि वे मजदूर किसान हैं जो भारत की 95वें प्रतिशत आबादी हैं। इंकलाब का मतलब बताते हुए उन्होंने कहा कि इस सदी में क्रांति का केवल एक ही अर्थ हो सकता है-जनता के द्वारा जनता के लिए राजनैतिक सत्ता हासिल करना। उनके लिए इंकलाब का अर्थ था- ऐसा इंकलाब जो ऐसी आजादी लाएगा जिसमें मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण असंभव होगा। यह इंकलाब किस रास्ते से आएगा? इसके बारे में उन्होंने बताया कि बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते बल्कि इंकलाब की धार विचारों की सान पर तेज होती है। इंकलाब लाने के लिए उन्होंने खासतौर से नौजवानों को ललकारा और कहा कि नौजवानों ने इंकलाब का संदेश फैक्ट्रियों में काम कर रहे लाखों मजदूरों, झुग्गी-झोपड़ियों और देश के कोने-कोने में पहुंचाना है।

किसको मिली आजादी? दूसरे विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों की आर्थिक हालत काफी कमजोर हो गयी थी। भारत में चारों तफ से क्रांतिकारी जनांदोलनों का सैलाब उठ रहा था और भारतीय सेना भी छुटपुट तरीके से इनमें हिस्सा लेने लगी थी। अंग्रेज़ी हुकूमत इसका सामना करने को तैयार नहीं थी और न ही उनकी ऐसी हालत थी। साम्राज्यवाद का पूंजीवाद से चोली दामन का साथ होता है और साम्राज्यवाद पूंजीवाद के कंधों पर ही जीवित रह सकता है। इसलिए साम्राज्यवाद अंग्रेजों ने पूंजीवादी कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरित करने का निश्चय किया। दूसरी ओर, कांग्रेस भी समझौते के लिए तैयार थी। बढ़ते हुए क्रांतिकारी जनांदोलनों को देखकर उसे डर था कि आजादी के आंदोलन की बागडोर उसके हाथों से छूट न जाए। इस प्रकार, सन 1947 में भारत को जब राजनीतिक आजादी मिली तो सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथ में थी।

आजाद भारत में नौजवान और आम जनता की दुर्दशा कांग्रेस ने सत्ता अपने हाथ में आते ही हिंदुस्तान के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए पूंजीवादी माडल का चुनाव किया और उसी रास्ते पर देश को आगे बढ़ाया। आजादी की लड़ाई में जनवादी और क्रांतिकारी ताकतों ने भी हिस्सा लिया था और एक हद तक उसका दबाव भी बना हुआ था। इसलिए शासक वर्ग ने अपने आपको जनवादी और प्रगतिशील दिखाने के लिए पूंजीवादी माडल को समाजवादी मुलम्मे में पेश किया और सोवियत रूस की तर्ज पर सार्वजनिक औद्योगिक क्षेत्र व पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की। बाद में यह साबित हो गया कि समाजवादी मुलम्मा केवल दिखावा था। सार्वजनिक क्षेत्र को खड़ा करना उस वक्त की जरूरत थी क्योंकि भारतीय पूंजीपति वर्ग तब आर्थिक रूप से काफी कमजोर था और अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता था। इसलिए मेहनतकश जनता की कमाई पर खड़े किए सार्वजनिक क्षेत्र ने निजी क्षेत्र की सेवा की और उसे बढ़ने के लिए आधारभूत ढांचा खड़ा किया। जैसे-जैसे निजी क्षेत्र मजबूत होता गया वैसे-वैसे सार्वजनिक क्षेत्र को कमजोर किया जाने लगा। अब तो हालत यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र को बीमार और गैर-मुनाफे का क्षेत्र घोषित करके उसे पूंजीपतियों के हाथों कौड़ियों के दाम बेचा जा रहा है। सार्वजनिक परिवहन सेवा, रेलवे, डाक-तार, विद्युत आदि इसी नीति के शिकार बनाए जा रहे हैं।

शासक वर्ग ने जिस हद तक जरूरी समझा सामंतवादी शक्तियों पर अंकुश लगाया। एक हद तक भूमि सुधार किए गए। सामंतवाद को खोखला करके बचे-खुचे हिस्से को अपना सहयोगी बना लिया। धीरे-धीरे शासकवर्ग का पूंजीवादी चरित्रप सामने आता गया। कहने को उसने हरित क्रांति, गरीबी हटाओ, सबको शिक्षा-सबको काम, विकास का बीस सूत्री कार्यक्रम जैसे नारे दिए मगर हकीकत में गरीब किसानों, मजदूरों, नौजवानों पर उसका शिकंजा कसता चला गया। शहादत से कुछ दिन पहले भगत सिंह ने अपने साथियों से कहा था कि अंग्रेजों की जड़ें हिल चुकी हैं। वे पन्द्रह साल में चले जाएंगे। समझौता हो जाएगा मगर इससे जनता को कोई लाभ नहीं होगा। गोरे अग्रेजों की जगह काले अंग्रेज़ आ जाएंगे पर इससे गरीबों, मजदूरों और दलितों का कोई भला नहीं होगा।¸ आजाद भारत पर कांग्रेस ने लगातार कई दशकों तक शासन किया और अपनी पूंजीवादी नीतियों को अमल में लाकर जनता की हालत बद से बदतर कर दी।

भारतीय शासक वर्ग ने नित नयी नीतियां बनाकर कभी विकास के नाम पर, कभी पर्यावरण के नाम पर गरीबों पर तरह-तरह के कहर ढ़ाए हैं। गरीबों को हर जगह ठोकरें मारी गयी है। विकास के नाम पर बड़े-बड़े बांध व बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बनाकर लोगों को व्यापक पैमाने पर उजाड़ा गया है। बड़े-बड़े शहर बसाए गए, रोजगार के सारे अवसर भी शहरों में केन्द्रित किए गए जिससे मजबूरन रोजगार की तलाश में लाखों की तादात में लोगों को पलायन करके शहरों में आना पड़ा है। रोजगार के नाम पर लोगों को कारखानों का धुंआं और आवास के नाम पर तंग झुग्गी बस्तियों और फुटपाथ मिले। जिनको यह भी नहीं मिला वे बेवसी और लाचारी में दिन गुजारने को मजबूर हुए।

पिछले कुछ सालों से नई आर्थिक नीति के तहत वे शासक वर्ग ने शिक्षा जैसी मूलभूत नागरिक सुविधा से हाथ खींचना शुरू कर दिया। यह शासक वर्ग की अपनी ही चाल थी कि इसने शिक्षा को मौलिक अधिकार कभी माना ही नही और न ही इस क्षेत्र में उसने ज्यादा सक्रियता ही दिखाई है। शुरू से ही शासक वर्ग ने पूरे बजट का बहुत ही कम हिस्सा शिक्षा में लगाया और धीरे-धीरे इसमें कटौती करता गया। शिक्षा पर खर्च होने वाला पूरे बजट का 6 प्रतिशत खर्च अब 2 प्रतिशत पर आ गया है। शिक्षा के निजीकरण के कारण गरीब और पिछड़े बच्चों को स्कूल नसीब ही नहीं हो रहा है। वैसे भी प्राथमिक कक्षा में अगर 100 बच्चे दाखिला लेते हैं तो कालेज तक आते-आते केवल दो ही रह जाते हैं। आधे से ज्यादा बच्चों को स्कूल से बाहर धकेल दिया जाता है। माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा इतनी मंहगी कर दी गई है कि गरीब बच्चों तक इसकी पहुंच ही नहीं है, पढ़ना-लिखना तो दूर की बात है।

आज देश भर में बेरोजगारों की संख्या अठारह करोड़ से भी ज्यादा है और इस संख्या में लगातार बढ़ोतरी ही हो रही है। शिक्षा और रोजगार का कोई सीधा तालमेल नहीं है। आजादी के बाद से ही रोजगार की गारंटी का कोई ठोस प्रयास शासक वर्ग ने नहीं किया है। जो थोड़े-बहुत प्रयास किए भी गए वे एकदम ढीले ढाले तरीके से किए गए। इस देश में अभी भी इतने संसाधन हैं कि हरेक आदमी को रोजगार मुहैया करवाया जा सकता है मगर सरकार जान बूझकर बेरोजगारी को बढ़ावा देती है। बेरोजगारी का सबसे ज्यादा असर युवाओं पर होता है। बेरोजगारी की अवस्था युवाओं की प्रगतिशील चेतना और क्रांतिकारी क्षमता को कुन्द करती है। युवाओं में लड़कियों और महिलाओं को तो रोजगार की दौड़ में शामिल ही नहीं किया जाता है। बेरोजगार और आर्थिक रूप से गुलाम युवतियों और महिलाओं का भरपूर शोषण किया जाता है। उन पर तरह-तरह के तरीकों से अत्याचार किया जाता है। युवा वर्ग सुरक्षा और आत्मविश्वास के अभाव में अंधियारी गलियों में भटकने को मजबूर होता है। शासक वर्ग युवा वर्ग को अपना पालतू बनाने के लिए उसे ऐसी अवस्था में रखने के लिए बेरोजगार रखने की नीति अपनाता है ताकि वह सर उठाकर न जी सके, अन्याय को चुपचाप सहता रहे और शासक वर्ग के खिलाफ आवाज़ न बुलंद कर सके।

इधर अपनी आर्थिक हालत कमजोर होते देख भारतीय पूंजीपति वर्ग ने विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों से हाथ मिलाया है और उनसे आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलाव लाने शुरू कर दिए हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवाद ने अपनी कार्यशैली में लगातार बदलाव किए हैं। आज यह अपना पुराना उपनिवेशी चोला काफी हद तक बदल चुका है। विश्व साम्राज्यवाद ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए विकासशील देशों और खासकर तीसरी दुनिया के देशों में अपनी पैठ बना रहा है। भारतीय आर्थिक विकास की रेलगाड़ी आजकल वैश्विक साम्राज्यवाद की जिस पटरी पर चल रही है उससे एक ओर पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ा है तो दूसरी ओर जनता के शोषण में तेजी आई है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का असर सबसे ज्यादा नौजवानों पर पड़ा है। साम्राज्यवादी संस्कृति ने भारतीय युवाओं को सांस्कृतिक पतन की कगार पर ला खड़ा किया है। आज वह अपनी असली समस्याओं को पहचान इनके खिलाफ आवाज़ उठाने की बजाए साम्राज्यवाद द्वारा फैलाई जा रही विभ्रम और मोह से पूर्ण संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहा है।

सत्ता के चटखारे लेती अवसरवादी राजनीतिक पार्टियां आज यह बात साबित हो चुकी है कि भारत की तमाम बुर्जुआ पार्टियों का चरित्र एक सा ही है। आज न सिर्फ कांग्रेस बल्कि भारतीय जनता पार्टी, समता पार्टी, जनतादल आदि सभी पार्टियां पूंजीपति वर्ग के हितों की ही रक्षक हैं। ये पूंजीपतियों से प्राप्त धन पर चलने वाली पार्टियां गरीबों व दलितों के विकास की बात जरूर करती हैं मगर हकीकत में ये साम्प्रदायिकता और जातियता के नाम पर मेहनतकश जनता की एकता को खंडित करने का प्रयास करती रहती हैं ताकि पूंजीवादी शोषण बदस्तूर जारी रह सके। देश की जनता अब समझ चुकी है कि सारी की सारी पार्टियां अवसरवादी हैं और सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकती हैं। पार्टी संगठनों में पदों का लालच देकर व युवा वर्ग के हित में नीतियां बनाने का वायदा करके युवा वर्ग को सभी पार्टियां अपने हित के लिए इस्तेमाल करती हैं मगर हकीकत में युवा वर्ग की वास्तविक समस्याएं इनके अजंडे पर केवल दिखावा हैं। वोट मांगने के लिए रचा गया ढोंग है।


आज का भारत आज देश में चारों तरफ बदहाली है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी फैल रही है। सरकारी आंकड़े गरीबों की संख्या को लगातार कम करके दिखाते हैं। मगर हकीकत में लोग इतने गरीब हैं कि अपने बच्चे तक बेचने को मजबूर हो रहे हैं। सरकारी सहायता के अभाव किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मंहगाई ने गरीबों और मजदूरों की कमर तोड़ डाली। रोज़मर्रा की आम जरूरत की चीजों की कीमतें इतनी बढ़ रही हैं कि आम आदमी इन्हें खरीद नहीं पाता है। बाजार में कार, टी.वी., फ्रिज आदि की भरमार है। कोने-कोने पर पेप्सी और कोका कोला बिक रही हैं मगर लाखों लोगों को पीने का पानी तक नहीं मिल पा रहा है।

शिक्षा इतनी मंहगी है कि आम परिवारों के बच्चे यहां तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। करोड़ों लोगों को अपने ही देश में रहने को घर नहीं है जो फुटपाथ और झुग्गी बस्तियों में सर छुपा कर जी रहे हैं वहां लाखों लोगों को शहरीकरण और सुन्दरता के नाम पर बड़ी तादात में उजाड़ा जा रहा है। इसके बावजूद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बड़ी तादात में सस्ते दामों पर भारत के कोने-कोने में जमीन देकर बसाया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कम आदमियों की जरूरत वाली तकनीक के साथ बड़ी संख्या में भारत की सरजमीन पर उतर रही हैं और सरकारें उनके कदम चूम रही हैं। सरकारी नौकरियां इतनी कम की जा रही हैं कि उनमें आरक्षण का कोई मतलब नहीं रह गया है। कारखानों को, पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए सुंदरता के नाम पर, बंद किया जा रहा है और उनमें 10-15 सालों से काम कर रहे मजदूरों को लाखों की संख्या में निकाला जा रहा है। आजाद भारत में भी आम जनता का पेट खाली है, तन नंगा है और सर पर छत नहीं है। क्या ऐसी आजादी के लिए मेहनतकश जनता और नौजवानों ने अपना खून-पसीना बहाया था। भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी नौजवानों ने क्या ऐसे आजाद भारत का सपना देखा था?

नौजवान का रास्ता इन हालातों का असर सबसे ज्यादा युवा वर्ग पर पड़ रहा है उसे न सही शिक्षा मिल पा रही है, न रोजगार। वह लगातार उदासी और निराशा के शिकंजे में जीने को मजबूर हो रहा है। उसको कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है इसलिए वह अवसरवाद और स्वार्थ से भरी अंधेरी सुरंग में भटक रहा है। आज हमारा देश एक संकट के दौर से गुजर रहा है। चारों तरफ शोषण और दमन का राज कायम है। हम जानते हैं कि नौजवानों में असीम ताकत है, जोश है और कुछ कर गुजरने की ललक है। इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे जब युवाओं ने ही संकट की घड़ी में संघर्षशील जनता को प्रेरणा दी है। उसने हमेशा अन्याय के खिलाफ न्याय की लड़ाई लड़ी है और दुनिया बदल कर रख दी है। नौजवानों में त्याग और बलिदान की भावना तीव्र होती है। वे मानवता के भले के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। हम आपकी इसी ताकत को ललकारते हैं।

आज चारों तरफ, युवाओं में व्यक्तिवादी, अवसरवादी और अलग-अलग रहने की मानसिकता छाई हुई है। यही मानसिकता उसकी शोषण के खिलाफ, लड़ने की ताकत को कम करती है। शासक वर्ग भी यही चाहता है कि नौजवान अवसादों से घिरा रहे ताकि वह अपनी मनमानी बेरोक टोक चलाए रख सके। केवल और केवल नौजवान ही उसके शोषण के पहिए को जाम कर सकता है। आइए, हम अवसरवाद और व्यक्तिवाद को त्याग कर चुप रहने के इस खोल से बाहर निकलें। जरा समाज और दीन-दुनिया के बारे में भी सोचें। सिर्फ खुद में बदलाव लाने, खुद को अच्छा बनाने से ये समाज, देश और दुनिया अच्छे नहीं हो जाएंगे। गुलामी के सभी बंधनों को तोड़ते हुए, खुद को बदलने के साथ-साथ समाज और दुनिया को भी बदलना पड़ेगा।

भगतसिंह ने कहा था कि अगर कोई सरकार जनता को उसके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दे तो उस देश के नौजवानों का यह कर्तव्य ही नहीं बल्कि अधिकार भी बन जाता है कि ऐसी सरकार की सत्ता को पलट दे। भगतसिंह ने ही कहा था कि नौजवान खुद संगठित होकर और जनता को जागरूक व एकजुट करके ही ऐसी दुनिया बसा सकते हैं जिसमें आदमी, आदमी का शोषण न कर सके।¸ जिस पूंजीवादी व्यवस्था में हम जी रहे हैं वह ही हम सबकी मुसीबतों की जड़ है। पूंजीवादी व्यवस्था का जवाब संगठन, जनवाद और समाजवाद ही हो सकता है। हम संगठित होकर ही इस अत्याचारी पूंजीवादी व्यवस्था से लड़ सकते हैं और अपने आक्रोश को संघर्ष और निराशा को आशा में बदल सकते हैं। यह लेख प्रगतिशील युवा संगठन के लिए 1996 में लिखा गया था।