नौटंकी / अमृतलाल नागर

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जमाना नाजु‍क है मीर

दोनों हाथों से थामिए दस्‍तार॥

नौटंकी पर बातें छेड़ते ही मैं अपनी बात से अधिक आप सबके मूडों का ध्‍यान कर रहा हूँ-नौटंकी आमतौर से आधुनिक भद्र वर्ग के लिए बहुत पिछड़ी हुई, सस्‍ते, भद्दे मनोरंजन की चीज हो गई है। इस नाम के साथ कुछ एक ऐसी ओछी किंवदंतियाँ हमारे-आपके मनों में बस गई हैं। हमारी-आपकी कही-सुनी हुई सभ्‍य शिकायत नौटंकियों के प्रदर्शन के सम्बंध में गिरावट देखकर चाहे कुछ भी हों, मगर उस माध्‍यम की शक्ति को भी हम एकाएक नजरंदाज नहीं कर सकते जो कि अनजाने काल से अटूट परंपरा में अपने रूप विकसित करती हुई भी आज तक हमें प्राप्‍त है। नौटंकी शोमैनशिप अर्थात प्रदर्शन कला की कठिन से कठिन कसौटी पर कसी हुई एक महान सांस्‍कृतिक शक्ति भी है।

सन-संवत को लेकर पंडितों में थोड़ी बहुत खींचतान भले हो, फिर भी यह सर्वमान्‍य बात है कि भरतमुनि का नाट्यशास्‍त्र हर सूरत से कुछ हजार बरस पुराना है। नाट्यशास्‍त्र में रंगमंच बाँधने और विघ्‍न बाधा निवारण के लिए इंद्र का जर्जर ध्‍वज स्‍थापित करने के पहले खुले रंगमंच का भी पता लगता है। जैसे आज नौटंकी या उसकी किस्‍में होती हैं, रामलीला होती हैं, रासलीला होती हैं।

यह होते हुए भी मुझे बारहवीं-तेरहवीं शती वाले तांत्रिक युग की छाप लिए पुरानी कहानियाँ मिलती हैं-वह भी दुबारा लिखी हुई. हिंगलाज की देवी ललाटाक्षी, कामाक्षी, मीनाक्षी, ज्‍वालाजी आदि सभी मातृतीर्थों की वंदना पूरे विस्‍तार के साथ गणेशवंदना के बाद आरंभ होती है।

पंद्रह-सोलह वर्ष पहले आगरा के किनारी बाज़ार में अकस्‍मात एक छोटी-सी किताबों की दुकान में दुकान में पहुँच गया। बहुत-सी व्रत-कथा की पोथियों के अतिरिक्‍त बड़े कौतूहल और चाव से मैंने कई नौटंकियाँ भी खरीदीं। दुकानदार चौंक कर मुझे देखने लगा। न रहा गया तो पूछा, 'क्‍यों साहब, आपकी क्‍या किताबों की दुकान है?'

मैंने कहा, 'जी नहीं।'

बोले-'तो आप इतनी सारी नौटंकियाँ क्‍यों खरीद रहे हैं?'

मैंने कहा, 'पढ़ने के लिए'-वह न जाने क्‍या समझता रहा होगा।

लेकिन मैं आपसे सच कहता हूँ शब्‍द का जादू बाँधना-रंगमंच होते हुए भी कान को ही अधिकतर आँख बनाना-नौटंकी की खास कला है। अब तो नए जमाने की छाप लिए पुराने पारसी 'ठेठर' के पर्दे, बैट्री से परिचालित छोटे बल्‍बों से सजी एक या कई परियों का नाच इत्‍यादि बहुत कुछ और ही नजर आता है, परंतु मूलरूप से बिना किसी सैटिंग विशेष के एक साधारण रंगमंच पर नौटंकी लगभग साढ़े छह घंटे तक तो जमती ही है। फिल्‍मी कहानी की तरह नौटंकी कहानी में भी अनंत वातावरण या सैटिंग हो सकते हैं-कहानी पहाड़ों पर चढ़ती है, गंगा किनारे आती है। कहानी आकाश-पाताल कहाँ नहीं पहुँच सकती। इस दृष्टि से नौटंकी दिखाने वाला नए और पुराने किस्‍म के नाटक दिखाने वालों से हर हालत में हीन होकर भी मीर है। कम से कम साजोसामान के साथ वह हर संभव दृश्‍य की कल्‍पना को सामूहिक रूप से साधे रहने की सामर्थ्‍य रखता है। इस जगह पर नौटंकी फिल्‍म से भी मीर है, कुल सवा दो-ढाई घंटों के मनोरंजन के लिए कम से कम छह महीने और अधिक से अधिक चौदह बरसों में फिल्‍में बना करती हैं, लेकिन नौटंकी लगातार छह या सात घंटे तक आठ-आठ, दस-दस हजार की भीड़ को थामे रहती है-जी हाँ, मैं आज की कहता हूँ-सन 1962 की-नौटंकी में बैठने की जगह पाने के लिए आज भी लट्ठ चलते हैं। नौटंकियों में हजारों तरह के हड़बोंग होते हैं और तरह-तरह के अच्‍छे-बुरे तमाशे हो जाते हैं। इस समय तो सच यह है कि अकेले सिनेमा ही नहीं वरन नौटंकी प्रदर्शनकारियों के लिए भी सेन्‍सर-बोर्डनुमा कोई जिम्‍मेदार कदम उठाना चाहिए. नौटंकी कलाकारों का प्रशंसक दल आज भी हजारों की संख्‍या का होता है।

खैर! बातों के बहाव में अधिक न बहकर कुछ नौटंकियों के सहारे इस महान परंपरा के पीछे निहित शक्ति का जो रूप मैंने समझा है, प्रस्‍तुत करता हूँ। इतिहास के चक्‍कर में ज़रा देर के लिए न पड़ें, देखिए मंगलाचरण आरंभ हो रहा है।

पंडित नथाराम शर्मा गौड़ रचित सांगीत स्‍याहपोश उर्फ पाक मुहब्‍बत का एक अंश प्रस्‍तुत है:

मंगलाचरण

दोहा: सिफ्त खुदा के बाद में, हो सबको मालूम।

सिम्‍त मगरबी एशिया, मुल्‍क खुशनुमाँ रूम॥

चौबोला: मुल्‍क खुशनुमा रूम तख्त वारिस महमूद तहाँ का।

बयाँ सिफत कर सकूँ न इतना रुतबा मेरी जबाँ का॥

था फय्याज हुस्‍न यूसुफ इन्‍साफी शाहजहाँ का।

रय्यत रहे अमन में कुल अजहद शौकीन कुराँ का॥

कड़ा: प्‍यारे जी रखे नबी की याद खुदा हाफिज पहिचाने।

नेक बशर को शाह फिसर से ज़्यादा माने॥

मंगलाचरण के आगे-पीछे आपसे एक-एक बात अर्ज करता चलूँ तो मेरे विचार से कुछ अनुचित न होगा। आजादी पाने के बाद रेडियो से सुनते रहने के कारण नौटंकी का नगाड़ा अब आपके कानों के लिए अपरिचित तो न रहा होगा-उसकी कल्‍पना कर लीजिए. सच तो यह है कि नौटंकी का मजा ही कल्‍पना करने में है। साथ में बातों का जादू भी है-बातों का जादू यानी कानों का जादू है, थोड़ा-बहुत तो आँखों को भी सुख प्राप्‍त हो रहा है-यह सोने में सुहागा-सा है। अस्‍तु, इस तथ्‍य के साथ-साथ हम एक बार फिर दुहरा कर नौटंकी में नगाड़े या दुंदुभी का महत्‍व पहचान लें। आज लाउडस्‍पीकरों के समय में आवाज पहुँचाने की वे कठिनाइयाँ लोगों के सामने से हट गई हैं जिनसे सदियों तक मनुष्‍य को जूझना पड़ा है।

नाटक का प्रदर्शन आरंभ करते हुए भरतमुनि चौरासी या छयासी मृदंगों का नाद गुंजरित करवाते हैं। नाटक या नौटंकी आरंभ होने से पहले जनता में ठसाठस भीड़ के मेले में जो गड़बडी हो सकती है, उसकी कल्‍पना आप सब कर सकते हैं। देखने-बैठने की जगह पाना, ऊँचे-नीचे भीड़ का सरकना-खेल आरंभ होने के पहले की हुड़दंग-भरी जन‍-क्रियाएँ हैं। जो बेचारे दूर बैठते या खड़े होते हैं उन्‍हें देखने के नाम पर कलाकारों की सूरतों की झलक-भर ही मिलती है, वे कानों का मजा लेकर ही झूमते हैं। नौटंकी कलाकारों को वहाँ तक अपनी आवाज पहुँचानी है। इसलिए सामूहिक जनरव से टक्‍कर लेने वाला कोई संगठित बड़ा नाद होना चाहिए. इससे सबके ध्‍यान खिंच आते हैं, दिमाग शांत होने लगते हैं, अपने-अपने पचड़े थमने लगते हैं। मंगलाचरण होते न होते तक भीड़ का मन जैसे ही तनिक सावधान होता है, वैसे ही हजारों के मजमें को साधता हुआ नौटंकी का सिनेरियो शास्‍त्री, प्रदर्शक या रचयिता एक क्षण भी गँवार बिना कहानी के तार बिछाने लगता है। तनिक सोचिए तो सही कि रात के लगभग ग्‍यारह बजे से लेकर सुबह के सात-आठ, कभी नौ-दस बजे तक भी तरह-तरह की कहानी के नाटकीय क्रम को साधते हुए सुनने वालों की कल्‍पनाशीलता को नौटंकी अपने से बाँधे रखती है। मैं यह निःसंकोच कह सकता हूँ कि कहानी की नाटकीय शक्ति को हमारे परंपरागत नौटंकीकार ने जिस प्रकार से पहचाना है, उस प्रकार से स्‍वार्थ की बात होते हुए भी फिल्‍म सिनेरियो शास्‍त्री आजकल नहीं पहचान पा रहे।

मंगलाचरण के बाद एक सूत्रधार आता है, जिसे रंगा कहते हैं। रंगा कहानी के सूत्र छोड़ता है। संगीत यशवंतसिंह नामक नौटंकी का एक अंश प्रस्तुत है:

दोहा: चाची को सती करा, सुभट रामसिंह ज्‍वान।

ले प्रदक्षिणा चिता की कर जमुना स्‍नान॥

चौबोला: कर जमुना स्‍नान शोक शशपंज रंज में छाया।

नर शहबाज पठान करबले में जा दफन कराया।

मातम करने जगा कुँवर जल आँखों में भर आया।

नबी रसूल रामसिंह को समझा नौ महले आया।

नौटंकी स्‍याह पोश में रूम की शहजादी से छिपकर प्रेम करने वाला एक गबरू पकड़ा जाता है। उसे हथकड़ी-बेड़ी, तौक, हर तरह से कसा जाता है। गबरू पूछता है:

दोहा: कैद किया क्‍यों आपने, परदेशी को आए.

ऐ साहिब तुम कौन हो, दीजै ज़रा बताए॥

लावनी: हो कौन आप क्‍यों कर मुझको पकड़ा है

यह नरम बदन किसलिए सख्त जकड़ा है॥

महाराज क्‍यों किया मुझको मुफ्त असीर।

क्‍या कसूर मेरा जो भरी हैं दस्‍त पाँव जंजीर॥

बादशाह का

लावनी: क्‍यों मकर करे मक्‍कार न मुझको जाने।

इकबाल रौब मेरा कुछ रय्यत माने॥

सुन शोदे शहर सारे का हूँ कुतवाल।

रहूँ नैक पर खुश मिजाज, बदमाशों का हूँ काल।

इस तरह गरमा-गरमी शुरू हुई, जवाब-सवाल लड़ने लगे, जनता का दिल उछलने लगा। जवाब-सवाल में मूड के हिसाब से तर्जे़ं बदलने लगीं। कुछ गायकी पर निहाल किया, कुछ और बहुत कुछ सवाल-जवाब की तेजी और पैनेपन पर इस तरह साधा कि जनता वाह-वाह कह उठे, तड़प-तड़प उठे। कहानी का जोश देखने वालों पर अजब जादू बन कर छाता है। हर देखने वाला कहानी के दिल की धड़कनों में जुड़ जाए, यही दिखाने वाले की जीत होती है। जनता हर पात्र और पात्री के सम्बंध में पूरी जानकारी चाहती है, हर चरित्र को क्रम से कहानी में लय होना चाहिए, नाटकीय रस का परिपाक होना चाहिए, इनसान के दिल से सहज जुड़े हुए हँसी-खुशी, मिलन-विरह, लड़ाई-नफरत, वीरता-वफादारी का नतीजा, बेईमानी का नतीजा, अत्‍याचारियों का नतीजा, हँसी-गुदगुदी, प्रेम, श्रृंगार, भक्ति, देश-प्रेम। कहने का मतलब है कि हर भाव का लगाव जनता आप से माँगती है। हर भाव को एक मानव-कथा के घटना-क्रम द्वारा साधकर सही अंदाज से, दाल में नमक-मिर्च-मसालों की तरह नौटंकी लेखनकला को भी अलिखित शास्‍त्रीय नियमबद्ध किया गया है। नौटंकीकारों में गुरु-शिष्‍य परंपरा का खरा महत्‍व आज तक माना जाता है-यही इनकी जीत है।

नौटंकी में कहानी की तीव्रगति उसकी सराहनीय विशेषता है-यह बात और है कि प्रचलित नौटंकियों में जनता कहानी के साथ-साथ अभिनय करने वाले किसी खास स्‍त्री या पुरुष कलाकार के गायन, भाव प्रदर्शन या सौंदर्य पर भी मुग्‍ध हो जाती है। ऐसी हालत में कहानी की गति रोक कर भी जनता अपने प्रिय कलाकार के अधिक गायन की माँग करती है। कौतूहल बराबर जागृत रखा जाता है-कहानी के घटनासूत्रों को लेकर एक क्रम पूरा होते ही दूसरे क्रम का आरंभ होने में देर नहीं लगती।

दोहा: छूटा यार को ले गया, महलन कमरुद्दीन।

तब दिल अंदर सोचते शाहन्‍शाह प्रवीन॥

लीजिए एक दोहे में सीन बदल गया। सैटिंग बदलने या पर्दा उठाने-गिराने की झंझट का पुराने नौटंकीकार से आमतौर से खास कुछ मतलब न था। उसी तख्त पर हजारों सिपाहियों की सेना आपकी कल्‍पना की दृष्टि से गुजर जाती थी, उसी पर महल, पहाड़, झरने, जंगल, उद्यान कहानी के क्रम के हिसाब से बनते-बिगड़ते थे। अपने कल्‍पना-चित्र से आपकी आँखों और मन को बाँधकर नौटंकीकार और कुछ देखने सोचने की फुर्सत नहीं देता।

एक और रंग देखिए, रहमान नामक एक गुंडा शहजादी के महलों में छिपकर आता है, शहजादी की सहेली से उसका सामना होता है। नौटंकीकार तीव्र गति का ध्‍यान नहीं छोड़ता। सहेली और रहमान की बात-चीत में गरमा-गरमी उठती चलती है। सरासर बात हल्‍की छेड़छाड़ से गहरी बनती जाती है:


सहेली

बेशक दीखे तू हैवान। जो आय गुलशन दरम्‍यान॥

क्‍यों रहा अपनी-अपनी तान। कहना मान-मान मान॥


रहमान

गर इस गुलशन में गए आन। तो क्‍या है इसमें नुकसान॥

हैंगे परदेशी इनसान। हो जा चुप चुप॥

सहेली

हो कोई कैसा भी इनसान। आवे नहीं बाग दरम्‍यान।

इसको चमन जनाना जान। कहना मान-मान मान॥

रहमान

ठानै मत ये मुझसे ठान। हैगा नाम मेरा रहमान।

हंटर मारूँ तुझे मैं तान। हो जा चुप-चुप चुप॥

सहेली

लूँ मैं बुला अभी रजपूत। मारे तान-तान के जूत।

तेरा उतर जाए सब भूत। वरना भाग-भाग भाग॥

रहमान

जबरन पकड़ तुझे मक्‍कार। मारूँगा कोड़ों की मार।

कहें मत कड़े सखुन बदकार। कहना मान-मान मान॥

सहेली

जो छु लेवे मेरा हाथ। क्‍या रखता है तू औकात॥

उल्‍लू बदतमीज बदजात। यहाँ से भाग-भाग भाग॥

नौटंकी के सम्बंध में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। छैल-छबीले, चटक-मटक लड़के को भी नौटंकी की उपाधि दी जाती है। नौटंकी किसी राजकुमारी का भी नाम बतलाया जाता है, जिसकी प्रेम कथा की सफल तर्ज पर बाँधी जाने वाली अन्‍य सांगीत कथाएँ भी तर्ज नौटंकी पर कही जाने लगीं और होते-होते एक विधा का नाम ही नौटंकी पड़ गया। एक दलील मैंने यह भी कहीं पढ़ी-सुनी है कि नौटंकी प्रदर्शन स्‍थान के अंदर-प्रवेश पाने की फीस पुराने समय में नौटंकी यानी नौ टके होने के कारण इसका नाम नौटंकी पड़ा। लखनऊ में इससे मिलते-जुलते संगीत नाटक हुआ करते थे, जो भरथरी कहलाते थे। इससे लगता है, उस क्षेत्र में भर्तृहरि की कथा पर बाँधी हुई कोई नाट्य-कथा कभी बहुत सफल हो चुकी होगी। इसीलिए उस शैली को भरथरी नाम से ही बुलाने लगे। यहाँ वाजिदअली शाह के काल में इंदरसभा भी खूब चमकी। इटावा, आगरा, हाथरस, मैनपुरी, अलगढ़, आदि में भगत के नाम से ही यह संगीत-नाट्य शैली प्रचलित है। इनमें बड़ी सजावट होती है, मंडप बनते हैं, बड़े आडंबर के साथ होती है। अवध का सपेड़ा और सहारनपुर का स्‍वाँग भी प्रायः इसी गोत्र का नाट्य-शैलियाँ हैं।

अवध के भंड़ौआ और ब्रज के भंड नामधारी हास्‍य-विद्रूप नाटक अवश्‍य ही अपना अलग स्‍थान रखते हैं। रामलीला और रासलीला के बाद नौटंकी या उसकी शैली से मिलती-जुलती नाट्य-कथाएँ हमारे लोक मन-रंजन का प्रबल साधन रही हैं और अब भी उनकी शक्ति घटती नहीं मालूम पड़ती।

नौटंकी की प्रदर्शन-कला की शक्ति पहचान कर यदि उसे नई संगीत गायन शैली में ढाला जाए तो भद्र-वर्ग के लिए भी संगीत-नाटकों की एक अत्यंत स्‍वस्‍थ एवम रोचक परंपरा स्‍थापित की जा सकती है।

(आकाशवाणी, लखनऊ से प्रसारित वार्ता: 1962)