पंजाबी और हिन्दी लघुकथा का तालमेल / अशोक भाटिया

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पंजाबी में हालाँकि मिन्नी कहानी (लघुकथा) के नाम पर पहला संग्रह सतवन्त कैंथ का 'बरफी का टुकड़ा' (1972) माना जाता है, लेकिन मिन्नी कहानी के इतिहास का प्रस्थान-बिन्दु 'तरकश' (1973) से मानना चाहिए। प्रसिद्ध कथाकार ओम्प्रकाश गासो द्वारा चयनित और रोशन फूलवी द्वारा संपादित यह मिन्नी कहानी-संकलन उपेक्षा का शिकार रहा है। योगराज प्रभाकर ने इसे खोजकर 2022 में पुनर्प्रकाशित किया। इसमें 48 लेखकों की 79 मिन्नी कहानियाँ शामिल हैं, जिनसे कुछ बिन्दु उभरते हैं-

1. 'तरकश' में ओम्प्रकाश गासो, अजमेर सिंह औलख, गुरबचन सिंह भुल्लर, जोगिंदर सिंह निराला, मित्तरसेन मीत, राम सरूप अणखी जैसे मुख्यधारा के कथाकार शामिल थे। वे मिन्नी कहानी-लेखन क्यों छोड़ गए, इसमें लिखना कठिन लगा या इस रूप में अभिव्यक्ति की अपर्याप्तता लगी-कारणों की खोज और उन पर चर्चा की जानी चाहिए।

2.सन् 1973 में 48 मिन्नी कहानी-लेखकों के होने का अर्थ है कि इससे कुछ या कई वर्ष पहले से मिन्नी कहानियाँ लिखी जा रही थीं। उन सबको खोजकर उनकी वस्तु व शिल्प के धरातल पर पड़ताल की जानी चाहिए।

लघुकथा-संकलन 'लावा' (1987, सं। विक्रम सोनी) में प्रकाशित अपने आलेख 'पंजाबी मिन्नी कहानी की यात्रा' में मैंने लिखा था-"देखा जाए तो 1950 के आसपास से पंजाबी की पत्रिकाओं में इस रूप को स्थान मिलने लगा था। 'पंज दरया' (लुधियाना) , 'जीवनप्रीत' (चंडीगढ़) और 'कँवल' (अमृतसर) आदि पंजाबी पत्रिकाएँ तब से अब तक (यानी 1986 तक) मिन्नी कहानियाँ प्रकाशित कर रही हैं।"

इसकी एक झलक सुरिंदर कैले द्वारा संपादित 'अणुरूप' (त्रैमासिक, जुलाई 1972 से) के शुरुआती अंकों में भी मिल जाती है, जिसमें सुरिंदर कैले की 'अन्तर' (जुलाई 72) , जगजीत सिंह दाद की 'भोग' (नवंबर 72) , दविंदर दीदार की 'क्रांतिकारी' (नवंबर 72) , तेजवंत मान की 'भूत' (मई 82) आदि के साथ कुछ हिन्दी लघुकथाएँ भी छापी गई हैं, जिनमें अवधनारायण सिंह की 'मुखौटे' (अगस्त 1972) , मार्कण्डेय सिंह की 'ट्राम के इन्तजार में' (अप्रैल 1975) प्रमुख हैं। यह हिन्दी लघुकथा का बढ़ता प्रभाव था, जिससे वह पंजाबी पत्रिकाओं में भी स्थान पा रही थी।

तालमेल का ऐतिहासिक अंक

सन 1985 का वर्ष पंजाबी-हिन्दी लघुकथा के तालमेल के लिहाज़ से ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। पटियाला से डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, दविंदर बिमरा और बलवन्त चौहान ने सौ हिन्दी लेखकों की एक-एक लघुकथा लेकर 'अस्तित्व' (हिन्दी पत्रिका) का लघुकथा-विशेषांक (शत कथाएँ) निकाला। पंजाब से हिन्दी लघुकथा विशेषांक का आना हिन्दी-पंजाबी लघुकथाकारों को आपस में जोड़ने व विमर्श की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण था। इस विशेषांक में रमेश बत्तरा, सिमर सदोष, विक्रम सोनी, कमलेश भारतीय, बलराम अग्रवाल, अशोक वर्मा, अशोक लव, अशोक भाटिया, गंभीर सिंह पालनी, माधव नागदा, सतीशराज पुष्करणा, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , शहंशाह आलम, रामकुमार घोटड़ आदि तब के लगभग सभी सक्रिय लघुकथाकार शामिल थे। 'अस्तित्व' अपने सभी ग्यारह अंकों में हिन्दी लघुकथाएँ छापती रही। दरअसल हिन्दी लघुकथा और पंजाबी की मिन्नी कहानी में स्वरूपगत कोई अन्तर नहीं है। इस कारण भी इनमें इतना तालमेल बन पाया है।

अनुवाद का पुल

अनुवाद, विशेष रूप से भारतीय संदर्भों में, भाषाओं के माध्यम से विभिन्न संस्कृतियों के बीच पुल का काम करता है। अनुवादक वे कबूतर होते हैं, जो अनुवाद का रचनात्मक और ज़रूरी, लेकिन कठिन काम करके ऐसी 'चिट्ठियाँ' एक से दूसरे क्षेत्र / प्रदेश / देश में निरन्तर पहुँचाते हैं, लेकिन बदले में किसी 'दाने' की माँग नहीं करते।

मार्च 1977 में रमेश बत्तरा कहानी की केन्द्रीय पत्रिका 'सारिका' (हिन्दी मासिक) में उपसंपादक बनकर आ चुके थे। तब से 1995 यानी 'सारिका' के बंद होने तक रमेश बत्तरा और सुरजीत ने पंजाबी से अनेक मिन्नी कहानियों का अनुवाद कर 'सारिका' में प्रकाशित कराया। तालमेल का यह प्रेरक उदाहरण है।

इधर पंजाबी में मिन्नी कहानी-लेखन गति पकड़ने लगा था जिसका प्रभाव नवें दशक के उत्तरार्ध में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में दिखाई पड़ता है। इन्दौर से विक्रम सोनी लघुकथा की केन्द्रीय पत्रिका 'लघु आघात' (त्रैमासिक) जनवरी 1981 से नियमित प्रकाशित कर रहे थे। पंजाबी मिन्नी कहानी के उभार को देखते हुए विक्रम सोनी ने जनवरी 1987 में हिन्दी-पंजाबी लघुकथाओं का मिला-जुला संकलन 'लावा' नाम से संपादित किया। इसमें पंजाबी के चौदह और हिन्दी के 27 लेखकों की लघुकथाएँ शामिल थीं। पंजाबी के हमदर्द वीर नौशहरवी, सुलक्खन मीत, पांधी ननकानवी, शरन मक्कड़, जगदीश अरमानी, भूपिंदर सिंह, गुलवंत मलौदवी, कर्मवीर सिंह आदि की मिन्नी कहानियों का मेरे द्वारा अनुवाद प्रस्तुत हुआ, तो हिन्दी लघुकथा-लेखकों से सतीश दुबे, बलराम अग्रवाल, विक्रम सोनी, कमल चोपड़ा, कथाकार संजीव, अशोक लव, पवन शर्मा, अशोक भाटिया आदि की लघुकथाएँ शामिल थीं। इस प्रकार हिन्दी-पंजाबी लघुकथाकारों के तालमेल में निरन्तरता बनने लगी थी।

अक्टूबर 1988 में रामपुराफूल मंडी (जिला बरनाला) में रोशन फूलवी ने मिन्नी कहानी सम्मेलन कराया, जिसमें जगदीश अरमानी, जगरूप दातेवास, डा. श्याम सुन्दर दीप्ति, श्याम सुन्दर अग्रवाल, निरंजन बोहा, मेहताब-उद-दीन, योगराज प्रभाकर आदि पंजाबी का, तो अशोक भाटिया आदि हिन्दी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

हिन्दी में पंजाबी मिन्नी कहानियों के संकलन

इसकी शुरुआत 1990 से होती है। उस वर्ष पंजाबी के तब तक के प्रमुख 35 लेखकों की 86 मिन्नी कहानियों का अनुवाद और संपादन कर मैंने 'श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएँ' नाम से पुस्तक प्रकाशित कराई थी। इसमें सुखबीर, भूपिंदर सिंह, सुलक्खन मीत, जगदीश अरमानी, पांधी ननकानवी, प्रीतम बराड़, हमदर्द नौशहरी, गुरमेल मडाहड़, डा. श्याम सुन्दर दीप्ति, श्याम सुन्दर अग्रवाल, दर्शन मितवा, आर. एस. आजाद आदि प्रमुख लेखक शामिल थे। अपनी भूमिका 'दो बातें' में मैंने भाषायी तालमेलको रेखांकित करते हुए लिखा था-"भाषायी सीमाओं से ऊपर उठकर साहित्य के ज़रिए परस्पर निकटता तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान की आवश्यकता आज के वातावरण को देखते हुए बहुत बढ़ गई है। इससे विचार और संवेदना को विस्तार मिलता है तथा परिपक्व एवं व्यापक राष्ट्रीय दृष्टि निर्मित होती है।" यह पुस्तक हिन्दी में किसी हिन्दीतर भाषा की प्रतिनिधि लघुकथाओं पर संभवतः पहली पुस्तक थी।

इसी क्रम में 1991 में सुभाष नीरव ने दिल्ली से चक्रमुद्रित (साइक्लोस्टाइल्ड) हिन्दी पत्रिका 'प्रयास' का आठवां अंक 'मिन्नी कहानी विशेषांक' निकाला, जिसमें पंजाबी लघुकथा के सभी प्रमुख हस्ताक्षर शामिल थे। अंक अब उपलब्ध नहीं है।

अक्टूबर 1990 से मिन्नी कहानी मंच की ओर से वार्षिक सम्मेलनों की शुरुआत हुई। पहली बैठक से ही मंच द्वारा पंजाबी और हिन्दी लेखकों के संयुक्त सम्मेलन की परम्परा शुरू की गई, जो अब तक चली आ रही है। विगत दिनों अक्टूबर 2022 के अमृतसर सम्मेलन में लगभग साठ पंजाबी लेखकों के साथ करीब तीस हिन्दी लेखक शामिल थे। यह जुगलबंदी स्वयं में समग्र भारतीय भाषाओं में अद्वितीय उदाहरण है। इन सभी अट्ठाईस वार्षिक सम्मेलनों में हिन्दी-पंजाबी के लघुकथाकार मिलकर लघुकथा की रचना, संवेदना, सरोकारों, शिल्प आदि पर विमर्श करते रहे। इतना ही नहीं, मिन्नी कहानी लेखक मंच द्वारा बेहतरी व आदान-प्रदान के दृष्टिकोण से पंजाब के अलावा अन्य प्रदेशों में भी वार्षिक आयोजन होते रहे हैं। इनमें करनाल, दिल्ली, इन्दौर, डलहौजी, बनीखेत, धर्मशाला, सिरसा शामिल हैं।

अक्टूबर 1990 से अक्टूबर 2022 तक मिन्नी कहानी लेखक मंच के कुल 28 वार्षिक सम्मेलनोंमें से बीस-इक्कीस सम्मेलनों का मैं साक्षी रहा हूँ। पंचकूला में 2017 में हुए पच्चीसवें सम्मेलन में लगभग चालीस हिन्दी लघुकथाकार आए। हिन्दी के लगभग सभी प्रमुख लघुकथाकार इनमें आते रहे हैं। इनमें रमेश बत्तरा, भगीरथ, सूर्यकांत नागर, बलराम, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , सुभाष नीरव, सतीशराज पुष्करणा, मधुदीप, विभा रश्मि, जसबीर चावला, रूप देवगुण, शील कौशिक, सुरेश शर्मा, योगराज प्रभाकर, अशोक जैन, रामकुमार घोटड़, शोभना श्याम, कान्ता रॉय, सीमा जैन, अन्तरा करवड़े, वसुधा गाडगिल आदि प्रमुख रूप से शामिल रहे। यह मिन्नी कहानी लेखक मंच का समावेशी भाव है, खुल्ला वरतारा, जिसने दोनों भाषाओं के लघुकथा-लेखकों को साझा विमर्श के लिए निरन्तर अपना मंच प्रदान किया है। इसलिए दोनों भाषाओं के लघुकथा-साहित्य का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ना हीथा।

पंजाबी लघुकथा की केन्द्रीय पत्रिका 'मिन्नी' (त्रैमासिक) अक्टूबर1988 से नियमित रूप से प्रकाशित हो रही है। पहले अंक से ही पत्रिका 'मेहमान मिन्नी कहानियाँ' शीर्षक के अन्तर्गत, विशेष रूप से, हिन्दी लघुकथाओं को निरन्तर स्थान देती आ रही है। इसके अतिरिक्त 'मेहमान रचनाकार' शीर्षक से सन् 2018 से प्रत्येक अंक में एक हिन्दी लघुकथाकार का परिचय व पाँच-छह लघुकथाएँ दी जा रही हैं। यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक अनुकरणीय धरातल है। गंगा-जमुनी संस्कृति का भी यह शानदार उदाहरण है। इतना ही नहीं, सन 1992 (अंक 17) से अब तक मिन्नी कहानी लेखक मंच अपने वार्षिक सम्मेलनों में विषय-केंद्रित लघुकथाओं की लगभग डेढ़ दर्जन पुस्तकें रिलीज़ कर चुका है। इनमें अक्स पंजाब से प्रारंभ कर स्त्री जीवन (मर्द दी माँ) , बाल-जीवन (साऊ दिन) , किसान जीवन (मिट्टी दे जाए) , बुजुर्ग जीवन (आखरी पहर) जैसे ज़रूरी विषयों पर केन्द्रित लघुकथाएँ हैं। इन सभी पुस्तकों में पंजाबी और हिन्दी-दोनों की लघुकथाओं को बराबर महत्त्व के साथ स्थान दिया गया है।

साहित्यकार भाषायी सीमाएँ नहीं मानता; उसका लक्ष्य समग्र समाज और उसका भविष्य होता है। इसीलिए 'मिन्नी' ने प्रेमचन्द, हरिशंकर परसाई और सआदत हसन मंटो की लघुकथाओं पर पंजाबी में तीन विशेषांक निकालकर 2008 में इन्हें एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किया।

यहाँ पंजाबी मिन्नी कहानी के दो स्तम्भों-डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति और श्याम सुन्दर अग्रवाल का उल्लेख करना अनिवार्य है। 'मिन्नी' (त्रैमासिक) को प्रारंभ करने वाले ये दोनों संपादक हिन्दी-पंजाबी दोनों भाषाओं की लघुकथाओं का परस्पर अनुवाद निरन्तर करते आ रहे हैं-कभी 'मिन्नी' के लिए, कभी पंजाबी व हिन्दी की अन्य पत्रिकाओं के लिए, तो कभी पुस्तकों के रूप में। इन सब कामों का यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं है, किन्तु ऊपर उल्लिखित डेढ़ दर्जन पुस्तकों के पीछे यही दो लेखक-अनुवादक सक्रिय रहे हैं। दोनों लेखकों ने अभी भी अनुवाद के ज़रिए सांझी छबील लगा रखी है। दोनों ने मिलकर पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद करते हुए 'पंजाबी लघुकथाएँ' (1994) , 'बीसवीं सदी: पंजाबी लघुकथाएँ' (2005) , 'विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएँ' (2011) दी हैं, तो हिन्दी से पंजाबी में 'मेहमान मिन्नी कहाणीयाँ' (1991, देश-विदेश की सभी भाषाएँ) , 'चोणवीयाँ मिन्नी कहाणीयाँ' (2000) , 'वीहवीं सदी: श्रेष्ठ हिन्दी मिन्नी कहाणीयाँ' (2000) , 'मुंशी प्रेमचंद, खलील जिब्रान, मंटो दी मिन्नी कहाणीयाँ' (2008) जैसे नायाब रत्न लघुकथा-साहित्य को दिए हैं। ये दोनों लेखक-अनुवादक अलग से भी अनुवाद का महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं। जहाँ श्याम सुन्दर अग्रवाल ने 'आखरी सच' (सतीश दुबे) , 'डरे हुए लोग' 'ठंडी रजाई' (सुकेश साहनी) , 'कैक्टस ते तितलियाँ' (बलराम अग्रवाल) नामक पुस्तकें पंजाबी में अनूदित कीं, वहाँ डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति ने हरभजन खेमकरनी की मिन्नी कहानियाँ 'जागती आँखों का सपना' नाम से हिन्दी में अनूदित कर प्रकाशित कराईं। ये सभी काम संवेदना, सोच और साहित्य को बृहत्तर आयाम देने के उद्देश्य से किए गए। 'पंजाबी लघुकथाएँ' (1994) पुस्तक में 'अपनी बात' के अन्तर्गत डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति लिखते हैं-' इस संग्रह का मकसद अब तक लिखी गई श्रेष्ठ लघुकथाओं को, पंजाबी भाषा क्षेत्र से बाहर ले जाने का है। " (पृ। 6)

'लघुकथा डॉट कॉम' मासिक ई पत्रिका (सं: सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ) सन 2000 से ही हिन्दी के साथ-साथ पंजाबी व अन्य देशी-विदेशी भाषाओं की लघुकथाओं को समुचित स्थान देती आ रही है। इन दोनों के द्वारा संपादित पुस्तक 'लघुकथाएँ: जीवन-मूल्यों की' स्वयं में हिंदी-पंजाबी लघुकथाओं का साझा मंच है। सुकेश साहनी द्वारा संपादित 'समकालीन भारतीय लघुकथाएँ' के बारे भी यही सच है। दोनों पुस्तकों में सजगता से किया गया श्रेष्ठ लघुकथाओं का चयन भी ध्यान खींचता है।

अनुवाद के नए पुल

पंजाबी-हिन्दी लघुकथा के बीच दो नए लघुकथा-सेतु बने हैं। पहले सेतु जगदीश राय कुलरियाँ हैं। 2015 में अशोक भाटिया द्वारा संपादित पुस्तक 'पंजाब से लघुकथाएँ' में पंजाबी लघुकथाओं का अनुवाद जगदीश राय कुलरियाँ द्वारा किया गया। फिर 2016 में अशोक भाटिया की चुनिन्दा लघुकथाएँ अनूदित कीं, जो 'तारा मंडल' नाम से प्रकाशित हुई। इनकी ही बाल लघुकथा-पुस्तक 'बालकांड' का भी पंजाबी में अनुवाद किया।

जगदीश राय कुलरियाँ अब तक लगभग 500 हिन्दी लघुकथाओं का पंजाबी में अनुवाद कर चुके हैं। राम कुमार घोटड़ (2017) , शील कौशिक (2018) , रूप देवगुण (2022) की चुनिन्दा लघुकथाओं का इनके द््वारा किया अनुवाद पुस्तकों के रूप में आ चुका है। 'प्रतिमान' पत्रिका के लघुकथांक में हिन्दी लघुकथाओं के पंजाबी अनुवाद सहित जगदीश राय कुलरियाँ अनेक पंजाबी पत्रिकाओं में हिन्दी लघुकथाओं का नियमित रूप से अनुवाद करते हैं।

'लघुकथा कलश' के संपादक योगराज प्रभाकर का अनुवादक रूप हिन्दी-पंजाबी दोनों भाषाओं में साधिकार आवाजाही करता है। कलश में वे पंजाबी लघुकथाओं को शेरे-पंजाब, पंचनद, पंजाबी एकादश आदि नामों से 2017 से नियमित रूप से अनुवाद कर छाप रहे हैं। लघुकथा-क्षेत्र में एक धमक के साथ आए योगराज प्रभाकर सन 2019 से प्रारंभ कर 2022 तक लघुकथा की दस अनूदित पुस्तकें दे चुके हैं। इनमें पंजाबी से हिन्दी में चार पुस्तकें हैं-'पल-पल बदलती जिंदगी' (निरंजन बोहा, 2019) , 'सूरज की परछाई' (सुरिंदर कैले, 2019) , 'चिड़ियाँ' (डॉ. प्रदीप कौड़ा, 2019) और 'मिट्टी के जाए' (सं। डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, जगदीश राय कुलरियाँ, 2022) । इसी प्रकार हिन्दी से पंजाबी में छह पुस्तकें है'-सन 2021 में मधुदीप और अनिल शूर आजाद की तथा सन 2022 में हरभगवान चावला, प्रताप सिंह सोढ़ी, सुकेश साहनी और डॉ. अशोक भाटिया की' चोणवीयाँ मिन्नी कहाणीयाँ' शीर्षक से प्रभाकर ने चयनित और अनूदित कर स्वयं ही प्रकाशित की हैं। इन तमाम अनुवादों से सिद््ध होता है कि प्रादेशिक भाषा कही जाने वाली पंजाबी भाषा और उसके लेखकों का दिल बहुत बड़ा है।

परस्पर प्रभाव

पंजाबी मिन्नी कहानी और हिन्दी लघुकथा का यह निरन्तर सान्निध्य और सह-अस्तित्व एक-दूसरे को अप्रभावित किए बिना नहीं रह सकता था। इनमें से कुछ प्रभाव इस प्रकार रेखांकित किए जा सकते हैं-

1.हिन्दी लघुकथा की, बढ़ते हुए बाह्य आकार की प्रवृत्ति, विशेष रूप से सन् 1990-95 से बाद के वर्षों में देखी जा सकती है। लगभग उसी समय से पंजाबी और हिन्दी लघुकथा-लेखक निरन्तर सम्पर्क और विमर्श में रहे। हिन्दी में कभी दो-ढाई सौ शब्दों तक स्वयं को व्यक्त करती लघुकथाएँ विगत बीस-पच्चीस वर्षो में अपने बाह्य आकार को, कथ्य और कहन की आवश्यकतानुसार, बढ़ाती रही हैं। अपनी पुस्तक 'लघुकथाः आकार और प्रकार' के दूसरे संस्करण में मैंने ऐसी 81 चुनिन्दा लघुकथाएँ संकलित की हैं, जो पाँच सौ से ग्यारह सौ शब्दों तक फैली हैं। इस विस्तार से यथार्थ के ऐसे अनेक आयाम इन लघुकथाओं में सामने आए, जो इससे छोटे आकार मेंसहजता से व्यक्त नहीं हो सकते थे।

पंजाबी की मिन्नी कहानी लम्बे समय तक बाह्य आकार के एक निश्चित पैमाने को लेकर चलती रही है। बढ़ते आकार की दृष्टि से हिन्दी लघुकथा का कुछ प्रभाव पंजाबी में देखा जा सकता है। सुरिंदर कैले और डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति आदि कई लेखकों की लघुकथाएँ अन्तर्वस्तु की आवश्यकतानुसार बाह्य आकार की बनी हुई लकीर के पार जाती हैं। डॉ. दीप्ति की 'शीशा' , 'सपने की बुनियाद' , 'यादों के झरोखे' आदि और सुरिंदर कैले की 'भयानक बीमारी' , 'पगली मर गई' , 'बस वैसे ही' , जगदीश राय कुलरियाँ की 'वर्जित दिन' आदि मिन्नी कहानियों को उदाहरणस्वरूप देखा जा सकता है। हरभजन खेमकरनी, प्रदीप कौड़ा आदि कुछ अन्य मिन्नी कहानीकारों ने भी इस दायरे से बाहर निकलकर रचना की सामर्थ्य को बढ़ाया है।

दरअसल 1990-95 के आसपास पंजाबी में मिन्नी से मिन्नी कहानी (छोटी से छोटी लघुकथा) लिखने का मानो कंपीटीशन चल पड़ा था, जिससे रचनाकार की सामाजिक जिम्मेवारी उपेक्षित हो रही थी। इस कारण भी बाह््य आकार की लकीर से बाहर आने में समय लगा। छोटा आकार सरलता का पर्याय भी समझा जाता है, जो रचनाशीलता के ह्रास का कारण बनता है।

2.हिन्दी लघुकथा में काल-दोष की बात को संतुलित रूप में न कर, व्यक्तिगत श्रेय लेने के लिए लाउड रूप में उछाला गया। इसी कारण नए लघुकथाकार अक्सर इससे भयभीत दिखाई दिए और विभिन्न आयोजनों में वरिष्ठ लेखकों से इसके स्वरूप और इससे बचने के उपाय पूछते रहे।

इसका पंजाबी मिन्नी-कहानी लेखन पर भी अच्छा-खासा विपरीत प्रभाव पड़ा। मंच की त्रैमासिक गोष्ठियों में अक्सर काल-दोष के प्रेत की चर्चा की जाती रही। इस घुटन से हिन्दी और पंजाबी मिन्नी कहानी-दोनों की रचनात्मक क्षति हुई।

यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि यदि कोई व्यक्ति किसी विषय पर (ठीक या गलत) मजबूत धारणा बनाए बैठा है, तो उसकी सोच को बदलना बड़ा कठिन होता है। इसलिए काल-दोष के प्रेत ने अनेक लघुकथाकारों का अभी तक पीछा नहीं छोड़ा। अब भी काल-दोष के अंधभक्त मिल जाते हैं।

3.पंजाबी मिन्नी कहानी में पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों को लेकर अनेक श्रेष्ठ रचनाएँ मिलती हैं, जिनमें मानवीय धरातल और रिश्तों की गर्माहट को बड़े सलीके से उभारा गया है। सुलक्खन मीत की 'रिश्ता' मिन्नी कहानी कई वर्षों तक चर्चा के केन्द्र में रही, जिसमें पंजाब की सौंधी बास कोई भी पाठक महसूस का सकता है। पंजाबी सभ्याचार और नैतिक तथा मानवीय मूल्यों से संचालित ऐसी मिन्नी कहानियों में 'रिश्ते का नामकरण' (दलीप सिंह वासन) , 'टूटी हुई ट्रे' (श्याम सुन्दर अग्रवाल) , 'रिश्ता' (डा. श्याम सुन्दर दीप्ति) , 'रिश्ते' (जसबीर ढंड) , 'रिश्तों की नींव' (जगदीश राय कुलरियाँ) , 'सूली लटके पल' (कुलविंदर कौशल) आदि अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं। हिन्दी लघुकथा-लेखन पर निश्चित ही ऐसी श्रेष्ठ मिन्नी कहानियों का संवेदना और मूल्यगत धरातल पर प्रभाव पड़ा है।

4.पंजाबी मिन्नी कहानी में सक्रिय रहे एक-दो लेखकों-आलोचकों द्वारा रचना के 'मैसेज' के प्रति विशेष आग्रह रहा है। हालाँकि इसके पीछे सामाजिक सोद्देश्यता की स्वस्थ सोच काम कर रही थी। किन्तु 'मैसेज' सरल-सपाट हो और पाठक समझ सके-इस आग्रह का मिन्नी कहानी-लेखन पर दो प्रकार से विपरीत प्रभाव पड़ा। एक तो मिन्नी कहानी (मुख्य रूप से) स्थूलता और सपाटता की सीधी वर्णनात्मक रेखा पर चलती रही। दूसरे, कई रचनाएँ इस कारण भ्रूण-हत्या का शिकार हो गईं कि उनका 'मैसेज' एकदम सपाट नहीं था। किसी लेखक-आलोचक ने भी इस थोपी गई व्यर्थ अवधारणा का विरोध नहीं किया।

हिन्दी लघुकथा के विमर्श में ऐसा कोई पक्ष सामने नहीं आया, बल्कि मिन्नी कहानी के सम्मेलनों में इस दृष्टि से खुली लघुकथाओं पर सवाल भी उठाए गए। चर्चा-परिचर्चा से गुजरकर अब पंजाबी मिन्नी कहानी की हवा इस लिहाज़ से कुछ बदली है।

5.किसी भी साहित्य-रूप में अर्थ की गहनता व सूक्ष्मता को उभारने के लिए अनेक साहित्यिक युक्तियों (Literary Devices) का प्रयोग करना उपयोगी रहता है। लघुकथा के लिए यह और भी आवश्यक है, क्योंकि इसके केवल बाह्य विस्तार से ऐसी अर्थगर्भिता और व्यंजना संभव नहीं। बाह्य विस्तार की अपनी सीमा भी है। हिन्दी लघुकथा-साहित्य में प्रयोगों की विविधता ने रचना को अर्थगत और कलागत-दोनों प्रकार से समृद्ध किया है। दूसरी तरफ पंजाबी मिन्नी कहानी मंच की त्रैमासिक गोष्ठियों में प्रयोग करने का मुखर विरोध अनेक वर्षों तक होता रहा। इसके पीछे रचना में सीधे-सपाट मैसेज का दुराग्रह काम कर रहा था। इस प्रकार कुछ लेखकों द्वारा अपनी सीमाएँ लादने की ज़िद से पंजाबी मिन्नी कहानी को रचनात्मक क्षति पहुँची है।

इधर कुछ वर्षों से हिन्दी की प्रयोगात्मक लघुकथाओं से प्रभावित होकर पंजाबी मिन्नी कहानी में भी आवश्यकतानुसार प्रयोग होने लगे हैं। इससे रचना में रोचकता, भाषायी टटकापन (ताज़गी) और पाठकीय आकर्षण बढ़ा है।

6.हिन्दी लघुकथा और पंजाबी मिन्नी कहानी के क्षेत्र में, आपसदारी निभाते हुए, एक भाषा की योजनाओं को दूसरी भाषा में भी लागू करके रचनाधर्मिता को उभारने के प्रयास होते रहे हैं।

मधुदीप (व अन्य) ने 'पड़ाव और पड़ताल' सीरीज़ के तीस से अधिक खंड निकालकर हिन्दी लघुकथा के सभी आयाम सामने लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इसके पहले पन्द्रह खंडों में प्रत्येक में छह लेखकों की ग्यारह-ग्यारह लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल की गई है। पंजाबी में इससे प्रेरित होकर डा. श्याम सुन्दर दीप्ति, श्याम सुन्दर अग्रवाल, विक्रम जीत सिंह नूर और हरभजन खेमकरनी (संपादक-मंडल) द्वारा 'पड़ा ते पड़चोल' नाम से तीन खंडों में कुल इक्कीस मिन्नी कहानीकारों की सात-सात लघुकथाएँ देकर उनकी समीक्षा करवाई गई है।

इसी प्रकार मिन्नी कहानी लेखक मंच पंजाब द््वारा दस प्रमुख मिन्नी कहानीकारों की प्रतिनिधि रचनाशीलता को चालीस-चालीस पृष्ठों में बहुत कम मूल्य पर पाठकों के लिए प्रकाशित किया गया। कभी अस्सी के दशक में राजकमल पेपरबैक्स द्वारा ऐसा ही सफल प्रयास किया गया था। हिन्दी लघुकथा-क्षेत्र में सुकेश साहनी ने 'जनसुलभ पेपरबैक्स' के रूप में ऐसा ही सफल प्रयास किया था।

अब पंजाबी मिन्नी कहानी के नए प्रयास से प्रेरित होकर भगीरथ, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, माधव नागदा (संपादक मंडल) ने लगभग दस पुस्तिकाएँ इसी आकार-प्रकार में 'जलसा' (जन लघुकथा साहित्य) की ओर से प्रकाशित कीं, जिनमें उभरते हुए लेखक अधिक रहे हैं। पंजाबी-हिन्दी लघुकथा के क्षेत्र में यह नया प्रयास पाठक के द्वार पर नई दस्तक की तरह है, बशर्ते उन तक ये पुस्तकें पहुँचाई जा सकें।

समग्र भारतीय भाषाओं में लघुकथा लेखन की सबसे समृद्ध परंपरा हिन्दी और पंजाबी में मिलती है। लघुकथा-क्षेत्र में इन दोनों भाषाओं के जानकार लेखक दोनों के मध्य रचनात्मक जुड़ाव और विस्तार का काम करते रहे हैं। इस तालमेल के परिणामस्वरूप परस्पर अनुवाद, प्रकाशन और सक्रिय विमर्श की गौरवशाली परम्परा स्थापित हो गई है। इससे रचनात्मक और भाषायी समृद्धि के नए द्वार खुले हैं। अब यह रचनाकारों पर है कि इस आलोक को वे कितनी दूर तक फैला पाते हैं। -1882, सेक्टर-13, करनाल-132001

(28वें अन्तर-राज्यीय मिन्नी कहानी सम्मेलन अमृतसर में 16.10.2022 को प्रस्तुत किया गया आलेख)