पंडित नेहरू का 125वां जन्मदिन और सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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पंडित नेहरू का 125वां जन्मदिन और सिनेमा
प्रकाशन तिथि :12 नवम्बर 2015


चौदह नवंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरू का 125वां जन्मदिन है और सरकार इस अवसर पर उदासीन है परंतु नेहरू की किताबों को पढ़ने वाले अनगिनत लोग उनकी विलक्षण प्रतिभा के कायल हैं। उनकी किताबों के प्रकाशन के क्रम से भी हम उनके विराट नज़रिये को जान सकते हैं। पहले उन्होंने 'ग्लिम्प्सेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री' लिखी, फिर 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' अर्थात विश्व इतिहास बोध के साथ उन्होंने अपने देश की उदात्त संस्कृति को जाना। हाल ही में उनके द्वारा सभी प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्रों का संकलन प्रकाशित हुआ है। वे प्रतिमाह दो पत्र लिखते थे। उन्होंने भारत में अनेक बांध बनवाए, एटॉमिक एनर्जी कमीशन की स्थापना की, टेक्नीकल शिक्षण संस्थाएं प्रारंभ की और इसके साथ ही साहित्य एवं कला परिषद की स्थापना की। उनके लिए विकास का अर्थ केवल भौतिकता तक सीमित नहीं था। साहित्य एवं कलाओं के विकास के साथ अन्य तरह के विकास का अर्थ होता है। नेहरू ने पूना में फिल्म संस्थान की भी स्थापना की।

उन्हें किसी मित्र द्वारा जानकारी मिली कि चेतन आनंद की 'नीचा नगर' को अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला है परंतु वितरकों की उदासीनता के कारण फिल्म के पूंजी निवेशक ने फिल्म के निगेटिव को प्रयोगशाला के सुरक्षित कक्ष से निकालकर अपने कपड़ा गोडाउन में पटक दिया है। नेहरू ने व्यक्तिगत प्रयास से 'नीचा नगर' को गुमनामी की गर्त से निकाला और दिल्ली में एक प्रदर्शन रखा, जिसमें विख्यात अलेक्जेंडर कोरबा मौजूद थे। यह सारी जानकारी चेतन आनंद की पत्नी उमा आनंद द्वारा लिखी और प्रकाशित किताब से ली गई है, जिसका नाम है 'चेतन आनंद पोएटिक्स ऑफ सिनेमा।' 'नीचा नगर' मैक्सिम गोर्की के नाटक से प्रेरित थी। यह फिल्म अंग्रेजों के दौर में बनी थी। अत: सेन्सर से बचने के लिए इसमें प्रतीक और पैराबल का सहारा लिया गया। फिल्म में सरकार नामक निर्मम रईस पहाड़ी पर रहता है और नीचे बस्ती के लोग रहते हैं। सरकार की बेटी माया नीचे नगर में जाकर जन-आक्रोश को शांत करने का प्रयास करती है। वहां जाकर उसे ज्ञान होता है कि सरकार ने ऊपर टंकी से आने वाले पानी को रोक दिया है और नीचा नगर के निवासी गंदी गटर का पानी पीने के लिए बाध्य हैं। हकीकत जानने के बाद माया जन-आंदोलन से जुड़ जाती है।

यह फिल्म 1946 में प्रदर्शित हुई थी और 1983 को चेतन आनंद के एक पत्र से जानकारी मिलती है कि किस तरह नेहरू की सहायता से फिल्म प्रदर्शित हो पाई और सर लॉर्ड माउंटबेटन ने भी फिल्म की सराहना की। आज फिल्म प्रदर्शन के लगभग सत्तर वर्ष पश्चात भी हुक्मरान ऊंचे नगर में रहते हैं और आम जनता 'नीचा नगर' में नर्क की तरह जीवन जीने को बाध्य है। हकीकत यह है कि इन सत्तर वर्षों में कई क्षेत्रों में बहुत प्रगति हुई है परंतु गरीब और अमीर के बीच की खाई आज और चौड़ी हो गई है। इस खाई से आती भांय भांय की आवाज बंद निर्जल कुएं से आती ध्वनी से मिलती है। यह भूखों के पेट से निकली आवाज की तरह भी है।

नेहरू की प्रेरणा व पहल से पहला भारतीय अंतरराष्ट्रीय समारोह 1951 में मुंबई में हुआ और पहली बार भारतीय फिल्मकारों को अमेरिका के अतिरिक्त अन्य देशों की फिल्में देखने का अवसर प्राप्त हुआ। इटली के 'डी सिका' के नवयथार्थवाद के प्रभाव में भारत में अनेक फिल्में बनीं। बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' और राज कपूर की 'बूट पॉलिश' तथा 'जागते रहो' के साथ ही बलराज साहनी अभिनीत जिया सरहदी की 'हम लोग' मेहबूब की 'आवाज' इत्यादि फिल्में बनीं। उसके बाद अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह भारत में आयोजित होते रहे हैं और तब से ही परम्परा रही है कि डायरेक्टोरेट ऑफ फिल्म फेस्टीवल अपनी संचालन समिति में फिल्म उद्योग की सर्वमान्य प्रतिनिधि एवं शीर्ष संस्था फिल्म फेडरेशन के सदस्यों को आमंत्रित करती है और नियमित बैठकों में गोवा फिल्मोत्सव की पूरी रूप-रेखा बनाई जाती है। परम्परा यह भी रही है कि उत्सव के उद्‌घाटन और समापन समारोह में फिल्म फेडरेशन अध्यक्ष का भाषण होता है। इस वर्ष संचालन समिति से फेडरेशन को बाहर रखा गया। सरकार का यह रुख तो विगत वर्ष गोवा में जाहिर हो गया जब फेडरेशनके अध्यक्ष रवि कोटायकरो को सरकार का लिखा संदेश पढ़ने को कहा गया और उन्होंने इनकार कर दिया। बहरहाल, इस वर्ष 27 अक्टूबर को फेडरेशन की मीटिंग में डॉयरेक्टोरेट ऑफ फेस्टिवल के अधिकारी आए थे। वेस्टर्न फिल्म वर्कर्स संगठन के अध्यक्ष ने उन्हें बताया कि विगत वर्ष उनके कामगारों को फिल्म देखने की इज़ाजत नहीं दी। इस वर्ष फेडरेशन द्वारा 'सविनय असहयोग आंदोलन' किया जा रहा है। सरकार अपने मसल्स से कुछ कलाकारों को बुला लेगी। इसके अतिरिक्त वे कुछ चाहते भी नहीं।

बहरहाल, 1958 में रिचर्ड एटनबरो ने अपनी फिल्म 'गांधी' की पटकथा पढ़ने को दी थी और नेहरू ने उन्हें सुझाव दिए थे। 1964 में फिल्म के पूंजी निवेशक पटेल की मृत्यु के बाद फिल्म स्थगित हो गई और 1980 में एटनबरो इंदिरा गांधी से मिले और उन्होंने भारत सरकार का सहयोग उपलब्ध कराया, जिस कारण सर रिचर्ड एटनबरो की महान 'गांधी' बन पाई। नेहरू ने इलाहाबाद में अपना विशाल 'आनंद भवन' कांग्रेस को दे दिया। अपनी इंदौर यात्रा में उन्होंने आला अफसरों से मांडू जाने की इच्छा व्यक्त की और उनकी मांडू यात्रा के बाद उस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के प्रयास हुए। नेहरू भारत की उदात्त संस्कृति के साथ भारत में आधुनिकता और टेक्नोलॉजी की पहल के लिए जाने जाते हैं।