पं. देवीदत्त शुक्ल के नाम 5 पत्र / प्रेमचंद

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पहला पत्र

पत्रांक 9

भार्गव पुस्तकालय,

गायघाट, बनारस सिटी

1-9-1926

श्रीमान् संपादक सरस्वती प्रयाग

प्रिय शुक्ल जी।

‘काया कल्प’ और ‘प्रेम-प्रतिमा’ की एक एक प्रति सेवा में भेज रहा हूँ और आशा करता हूँ कि निकट के किसी अंक में इनकी आलोचना कराने की कृपा करेंगे।

उपाध्याय जी का लेख तो अभी चखा जा रहा। क्या सचमुच उन्होंने किताब ही लिख डाली है क्या? खैर, अगर रबिन्द्र बाबू उसी पाप के अपराधी हैं जिसका मैं हूँ तो मुझे कुछ संतोष है।

एक कहानी आपके लिये लिख रहा हूँ।

भवदीय

धनपतराय


दूसरा पत्र

पत्रांक 10

2ए भ्मूमजज त्वंक

स्नबादवू

28-2-29

प्रिय देवीदत्त जी,

वंदे।

यह मुझ पर क्या ख़फगी है कि विशेषांक की कापी मेरे पास नहीं भेजी गई? इतने दिनों तक उसकी प्रतीक्षा करके तब यह तकाजा कर रहा हूँ। क्षमा कीजिएगा।

सेवक

धनपतराय

तीसरा पत्र

पत्रांक 11

लखनऊ

23-6-31

प्रिय शुक्ल जी।

वंदे।

क्या ‘गबन’ की आलोचना ‘सरस्वती’ में न निकालियेगा। अब तो लगभग दो महीने हो गए। मुझे तो आशा थी पहले ही महीने में आलोचना हो जायगी। पर दिन गुजरते चले जाते हैं। हिन्दी लेखकों के लिये यों ही क्या कम बाधाएँ हैं फिर आप लोग भी हतोत्साह करने लगे।

आशा है आप प्रसन्न हैं।

भवदीय

धनपतराय


चौथा पत्र

पत्रांक 12

Lucknow

ता. 21-7-1931 ई.

प्रिय बंधुवर

वंदे।

फिर याददिहानी कर रहा हूँ। जरा फिर खटखटाइए।

मेरी कहानियों की एक बृहद आलोचना किसी सज्जन ने कलकत्ता के स्पइमतजल में की थी। उसके अनुवाद का एक अंश ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ सेवा में भेजता हूँ। यदि स्वीकार करेंगे तो कृपा होगी। मगर बहुत इन्तजार न कराइएगा।

आपके यहाँ तो साहित्य सम्मेलन के विषय पर झगड़ा खूब चल रहा है।

भवदीय

धनपतराय


पाँचवाँ पत्र

पत्रांक 13

जागरण-कार्यालय

सरस्वती प्रेस, काशी

सं. 1276 12-12-1932 ई.

प्रिय देवीदत्त जी

वंदे।

आशा है ‘कर्मभूमि’ और अन्य पुस्तकों की आलोचना ‘सरस्वती’ में अबकी निकलेगी। किसी योग्य आलोचक को दीजिएगा।

मैंने अपनी पुस्तकों का एक पृष्ठ का विज्ञापन बनाकर ‘सरस्वती’ के लिए भेजा था। पहुँचा होगा। कृपया उसे ‘सरस्वती’ में दें। जो छप रहा है उसमें कई पुस्तकें नहीं हैं और न आकर्षक है। आशा है, आप प्रसन्न हैं।

भवदीय

धनपतराय