पक्षीवास / भाग 1 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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बसन्त ऋतु के आने से वन उपवन और पर्वतों पर महोत्सव-सा छा गया। सभी के मन हर्ष-उल्लास से भरे थे। सभी खुशी के मारे मदमस्त से थे। जाने-अनजाने, कितने फूलों की खुशबू पूरे वातावरण को सुवासित कर देती थीं। मधुर खुशबू की महक पाकर कोयल नींद से जागती तथा पेड़ो के झुरमुटों से कूकती तथा कहती- “बसंत आ गया, बसंत.” कोयल की कूक से, मानों आम के पेड़ों को नवयौवन मिल जाता था तथा चांद की श्वेत-धवल चांदनी की भाँति आम के पेड़ मंझरी से ढ़क जाते थे। जब मंझरी सूखती, छोटे फल आते, उसी समय महुआ के फूल अपनी पंखुंड़ियों को टिप-टिप करके खोलते। महुआ के फूल वन्य-भूमि को मदमस्त कर रहे थे। जिस प्रकार शहद की बूंदे टपटप कर गिरती है, उसी प्रकार रातभर महुआ के फूल गिर रहे थे मानो अंतरिक्ष से तारे टिमटिमाते हुए, एक दूसरे को बुलाते हुये गिर रहे हो। यही तारा-फूल पहाड़ी मनुष्यों तथा जंगली जानवरों को पागल-सा बना देते थे। गाँव के आसपास के आठ-दस ग्राम्य बस्तियों में नशे की खुमारी छा जाती थी। महुआ के फूलों के लोभ से गाँवों में कभी-कभी भालू घुस आते थे। कभी-कभी महुआ के फूलों को इकट्ठा करती हुयी गाँव की युवतियाँ बेसुध-सी जंगल के मध्य तक चली जाती थी। जब नशे की खुमारी टूटती थी तो वे अपने आपको अकेले पाकर अपनी जान बचाने के लिये गाँवों की तरफ भाग जाती थी।

महुआ फूलों की महक से आकर्षित होकर गाँवों की तरफ हाथियों के झुण्ड आ जाते थे। तब सब कुछ समाप्त होता हुआ नजर आता था। छत खप्पर दरवाजे आदि हाथियों के लिये कुछ भी नहीं थे। वे किसी के छोटे बच्चे को अपने पांव से रौंदकर आगे निकल जाते थे, तो किसी को अपनी सूंड से उठाकर धरती पर पटक देते थे। दुर्दांत डकैत की भांति मिट्टी के बरतनों को तोड़कर महुआ के फूल चुराकर खा जाते थे। इतना होने के बावजूद भी ‘महुली दारु’ बनाई जाती थी। महुआ के फूलों की महक वातावरण में फैलती थी तथा मनुष्यों एवं हाथियों को मतवाला बनाती थी।

जब जंगल में महुआ के पेड़ पर फल आने लगते थे, तो दूसरी तरफ जंगल में पकी हुयी चिरौंजी तथा तेंदू से पेड़ लद जाते थे। ज्येष्ठ मास की असह्य ग्रीष्म में मीठे रस से भरपूर तेंदू झर-झरकर गिरने लगते थे। अगर आठ-दस तेंदू इकट्ठा करते, तो एक समय का भोजन हो जाता। जब तेंदू के फूल अपनी आख़िरी पड़ाव पर होते थे, तब जामुन के फल अपना रंग बदलना शुरु कर देते थे। एक के पश्चात एक अलग-अलग प्रबंध जंगल ने कर रखा था। आम, जामुन, चिरौंजी, अनेक प्रकार के फल ही नहीं, बल्कि पलास के फूल जलते हुए अंगारे की भाँति आकाश में झूल रहे थे। मानों आस-पास का संपूर्ण क्षेत्र उन्हीं धधकते हुये, दहकते हुये अंगारों के उजाले से रोशन हो रहा हो।

आनन-फानन में तेंदू की नवकोपलें इर्द-गिर्द की झाड़ियों में प्रस्फुटित होती। फिर एक बार जंगल के वाशिन्दे कमर में थैला बांधकर, झुक-झुककर तेंदू के पत्तों को तोड़ते, अपने दाना-पानी के प्रबंध में जुट जाते। पत्तों के पीछे पत्तों को सजाकर ठेकेदारों को बेचते- सरकारी मूल्य से भी कम मूल्य पर। खुदरा-व्यापारियों से वे ‘तैयार पत्ता ’ लाते, बीड़ी बांधकर मेहनताना पाते।

खजूर के पत्तों से औरतें झाडू एवं अन्य चटाई बनाती, तो मर्द खस की टट्टी बनाकर कांटाभाजी, नुआपाड़ा तक बेचने जाते।

इस प्रकार साल के बीज से तेंदू के पत्ते तक, झाडू से माकंड पत्थर तक, जंगल ने दानापानी की व्यवस्था कर रखी है। कभी मधुमक्खी के छत्ते को तोड़कर मिली हुई मधु को किसी फोरेस्ट गार्ड को भेंट देकर एवज में घर सजाने के लिये दो बल्लियों की आमदनी से कुछ नमक तथा कुछ रूपया मिल जाता था।

जंगली सुअर, सांभर, हिरण, चीतल हिरण इत्यादि कई जंगली जानवर कई काल से गायब हो गये हैं, नहीं तो पूर्णिमा के पर्व तथा शादी के उत्सव आदि शानदार ढंग से मनाये जाते। आजकल जंगल तो सरकार का है ! जंगल में रहने वाले मनुष्यों को सरकार किस प्रकार का जीव है, इस बात का पता नहीं है। फोरेस्ट गार्ड कहता है कि हम सरकार के आदमी हैं, अगर जंगल से लकड़ी चोरी करोगे तो सरकार जेल में डाल देगी, तब जेल में चक्की पीसोगे और कोड़े खाओगे। एक-दो टुकड़ा लकड़ी जलाने के लिये भी जुर्माना लगता है एक मुर्गा या पचास और सौ रूपये। जंगल में रहने वाले लोगों ने सरकार को तो देखा नहीं है, परन्तु आधी रात को बड़े-बड़े ट्रक जंगल में आते हैं, बड़े राक्षस की तरह उन्हें चट कर जाते हैं।

ताज्जुब की बात है कि इन लोगों ने सरकार को देखा नहीं है, वरना अवश्य पूछते कि इसका रहस्य क्या है ?

अब सघन वन नहीं है। पहले था जंगल को घेरते हुये नाला, ‘बूडी-जोर,’पहाड़ी नदियाँ आदि। अब दस-पन्द्रह गांव पांव पसारकर बैठे हैं। कितने सारे खेत-खलिहान थे नदी के किनारे! कितने हल-बैल, गायें, महाजन जमीनें तथा जमींदार लोग थे !

अब गांव के किसी ऊँचे टीले पर खड़े होकर देखें तो दिख पड़ता है चक्कर काटते हुये गिद्दों का झुण्ड़। उन गिद्दों के झुण्ड़ का पीछा करते हुये कोस-कोस तक नंगे पांव चले जाते थे ‘भवघूरा’ (बंजारा) लोग। बहुत दूर से दिखाई पड़ रही थी बूढ़े की भांति वह झुका हुआ एक गिद्ध। आधा कोस दूरी तक सडांध वाली बदबू आ रही थी। कुछ ही दूरी पर बैठे मिलते थे भवघूरा लोग। र्इंट के तीन टुकड़ों को जोड़कर चूल्हा बनाकर आग लगाते थे, हांडी बैठाते थे, पानी उबालते थे तथा चावल पकाते थे। मुर्दे की दुर्गंध के माहौल में भी सही समय पर भूख लगना नहीं भूलती। गिद्ध मुर्दा शरीर को छिन्न-भिन्न करने में लगे हुए थे। नोच-नोचकर खाने में उनको कभी डेढ़ दिन का समय लगता तो कभी दो दिन का। इधर उधर कुत्ते-सियार भी घूम रहे थे। पके हुये चावल खाकर, बोरे की भांति पड़े रहते थे वे पेड़ों के नीचे। दुर्गंध से नाक फटी जाती थी परन्तु वे धीरे-धीरे दुर्गंध सहने के आदी हो गये। उस समूह में से एक जन बैलगाड़ी जुगाड़ करने के लिये निकला हुआ था, तो दूसरा पत्थर पर रगड़-रगड़कर अपने छुरे की धार तेज कर रहा था। दुर्गंध को वे भूल रहे थे। सावधानी से चमड़े को छिल रहे थे। आखिर में कंकाल को चार छः आदमी बैलगाड़ी पर लादते। बैलगाड़ी ऊँची-जाति के मालिक की थी, उसकी थी एक हजार शर्तें। जैसे बैलगाड़ी अपवित्र नहीं होनी चाहिये, इसलिये बैलगाड़ी के ऊपर पुआल बिछाया जाता था। इसके ऊपर कंकाल को रखा जाता। मांस का एक कतरा भी कंकाल पर चिपका हुआ नहीं था, फिर भी दुर्गंध हड्डियों में कूट-कूटकर भरी थी। गांव के बाहर वाले दूसरे रास्ते पर बैलगाड़ी को ढकेलते हुये ले जाना पड़ता था। सीधा ‘किसिन्ड़ा’के तीन कुनिया हाट पर रहने वाले रहमन मियां के गोदाम तक। रहमन मियां भी ठहरा बड़े कायदे-कानून वाला।

“ कब की लाश ? ”

“ इतनी कच्ची क्यों ? ”

“ वजन बढ़ाने के लिये पानी में डुबाये होंगे ? ”

“ साले, चालाकी करते हो ? ”

“ आधा पैसा काट दूंगा। ”

“ जा ले जा, महीने बाद लाना। ”

बेचारे भवघूरा असहाय दिखते।

“ एक महीना बाद ? ”

“ बैलगाड़ी कहां से मिलेगी ? ”

“ रूपया कहाँ से मिलेगा ? ”

एक गाय की लाश के बदले कितना पैसा मिलेगा जो उसमें से बैलगाड़ी मालिक को दोगे और बचे हुये को बाँटा जायेगा ?

रहमन उसके गोदाम में ताला डालने का स्वांग भरता था। वे लोग इमली के पेड के नीचे बैठे रह जाते थे। सांझ ढ़ल रही थी। उनको गांव वापस जाना होगा- बैलगाड़ी मालिक को उनकी गाड़ी वापिस करनी होगी। रहमन उनकी तरफ पीठ करके अपने घर की तरफ चला जाता । वे लोग ऐसे ही बैठे रह जाते , इस इमली पेड के नीचे ।