पक्षीवास / भाग 5 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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अपनी छाती पर से नीचे गिरे हुये पल्लू को ठीक कर लिया था उसने। उसके ब्लाउज के भीतर छिपी हुई निपुण शिल्पकला बाहर से दिखाई नहीं दे रही थी, फिर भी उस आदमी ने खिल्ली उडाते हुए उसकी छाती को जोर से धक्का दिया।

“साली, बाजार खोलकर बैठी है?”फूल की पंखुड़ियों में सिहरन उठने के बदले दर्द-सा घुल गया। दाँत खींचते हुये दर्द को थूक की तरह निगल गयी। इसके बाद साड़ी को फिर से ठीक कर लिया। जैसे कि फूलों के पूरे बगीचे को खरीद लेने की हैसियत रखता हो वह आदमी। किसी का गाल दबा कर लाल कर दे रहा था तो किसी के चूतड़ पर थप्पड़ मार देता था जोर से। सब त्रस्त हिरणियों की तरह अपने-अपने घरों के अंदर छुप जाते थे।

आदमी का नाम था गूड़ा। पूरी बस्ती उसके अधीन थी। उसने बैठायी थी यह बस्ती। टीना चद्दर की दीवारों तथा टीना चद्दर की छत से बने एक कमरे वाले घर का किराया था एक हजार रूपया। बाँस की दीवार और दरवाजा होने पर किराया था सात सौ। मिट्टी से पोता हुआ दीवार वाला, टूटा-फूटा टीना चद्दर और पोलिथीन की छत वाला घर,पांच सौ।

महीना में एक बार पैसा वसूली के लिए गूड़ा खुद आता था। खाने-पीने के बाद पांच सौ रूपया तो इकट्ठा करना मुश्किल था परबा के लिये। हजार रूपये तो उसके लिये बहुत दूर की बात थी।

परबा और झूमरी दोनों ने मिलकर एक टीना छप्पर से बने दरवाजे वाला घर अपने लिये चुन लिया था सात सौ रूपये में। पर उनके व्यवसाय में दो भागीदार होने से बहुत ही दिक्कत होती थी। एक बाहर खड़ा होने से दूसरे का व्यापार चलता था। अलग-अलग खोली लेने के लिये पैसा नहीं था। बाध्य होकर दोनों इसी शर्त पर सहमत हो गये थे। झूमरी ने बहुत बार परबा को समझाने की कोशिश की थी।

“चल, एक दिन सवेरे-सवेरे यहाँ से भागते हैं। रायपुर इतनी बड़ी जगह, इतने सारे बड़े-बड़े घर, इतने सारे लोग। किसी के भी घर में वासन, बर्तन साफ करनेसे क्या दोनों मिलकर हजार रूपया नहीं कमा सकते हैं? चल, इज्जत की जिंदगी जीयेंगे। और कितने दिन यहाँ बेइज्जती के साथ मुँह में मिट्टी दबाकर पडे रहेंगे?”

लेकिन वे लोग कभी भी कहीं नहीं जा सकते थे। जैसे कि उनके दुर्भाग्य ने उन्हें बुलाकर यहाँ फँसा दिया हो। यहीं जीयेंगे, और यहीं मरेंगे। बाहर की दुनिया उनकी नहीं थी। बाहर जाने से किसी न किसी की आंखों में आ जायेंगे। यहाँ पैसों के बदले में जो चीज दे रहे थे उसे वहाँ मुफ्त में देना होगा। लोग उन्हें नोंच-नोंचकर खा जायेंगे। यहाँ तो फिर भी इज्जत के साथ जी रहे हैं पर वहाँ हर गली, हर बस्ती में छीः छीः-थू थू करेंगे। कहीं भी थोड़ी सी जगह भी नहीं मिलेगी। कभी-कभी परबा अपने आप को धिक्कारती थी, कभी-कभी वह खूब रोती थी, अपने माँ-बाप, अपने गांव को याद करके।

अभी गूड़ा बस्ती में घूमेगा। फिर शुरु कर देगा तकादा। झूमरी घर के अंदर में पैसा गिन रही थी। इधर उधर से फटे पुराने नोट निकाल कर चटाई के उपर रखकर हिसाब कर रही थी। परबा के लिये वह बोलने लगी

“ऐ कलमुंही अंदर आ, क्या खूंटे की भाँति वहाँ खड़ी है?”

झूमरी की बात परबा सुन रही थी। सब हिसाब जोड़ने से भी पता नहीं, पांच सौ रूपया होगा भी कि नहीं।

झूमरी काफी चतुर थी। किसी भी तरह वह गूडा को संभाल लेगी जैसे कभी-कभी वह संभाल लेती है परबा को। पता नहीं, झूमरी नहीं होती तो परबा का क्या होता? सखी होने पर भी वह माँ जैसा प्यार देती थी। कहती थी “समझी, परबा, यहाँ हमारा कौन है? न बाप, न भाई, न पति। प्रतिदिन पांच से पचीस पति हमारे होते हैं। चिकनी चुपड़ी बातों से सभी के मन खुश हो जाते हैं। जैसे कि वे नहीं, तो हमारा जीवन बेकार। अपना भंडार खोलकर रख दो उनके सामने जैसे कि वे ही इस भंडार के इकलौते मालिक हो।” कभी-कभी परबा सोचती, भूख जो वहाँ थी, यहाँ भी तो है। जैसे कि भूख ही इसकी सौतन हो। जला-जलाकर उसको मारेगी।

झूमरी घर के अंदर से जोर से चिल्लाकर बोली “अरी ओ, करमजली, चांडालिनी किस आदमी की राह देखने बैठी हो?” अभी गूड़ा आकर पूरे घर भर का सामान फेंक कर बेइज्जत नहीं करे, तो मुझे कहना।”

पिंकी की याद करके परबा का शरीर एक पल के लिए सिहर उठा था।

दूसरे कंगालों की भाँति अगर गूड़ा भी ‘चमडे-मांस’ में लगाव रखने वाला होता तो कोई बात नहीं थी। पूरे बस्ती भर की औरतें उसके पांव पर गिर जाती। गूड़ा बोलता था “तुम जैसी औरतों के मुंह पर, मैं थूकता हूँ। बाहर से जितनी चिकनी हो, अंदर से उतनी ही कमीनी। साली, तरह-तरह के कीटाणुओं से भरा हुआ है तुम्हारा सारा शरीर। तुम्हारे शरीर के इस बाजार में से मुझे कुछ भी नहीं खरीदना है! मेरा तो सिर्फ रूपयों से मतलब है। इसके बाद तुम लोग रंडी हो, या चंडी, मुझे कुछ लेना-देना नहीं। साली लोग, पैसा नहीं दे पारहे हो तो अपनी गठरी पोठली बाँधकर भागो यहाँ से। मैं इसको अच्छे लोगों की बस्ती बनाऊँगा। साली, तुम लोगों को खोली देने से बदनामी ही बदनामी है एक पैसे का फायदा नहीं। उल्टा पुलिस को भी पालो।”

फिर भी आदतों से मजबूर, मूर्ख लड़कियाँ अपनी मूलपूंजी को खोलकर बैठ जाती थी, गूड़ा जैसे अरसिक, पुरूष को रिझाने के लिये। कोई होठों पर लिपस्टिक लगाकर हंस देती थी तो कोई कपड़ों को घुटने से उपर उठाकर गूड़ा को उनकी सुडोल जांघे दिखाती थी। गूड़ा धमकाता था “दूंगा, साली को, खींच के।”

हर बार गूड़ा चेतावनी देकर जाता था कि अगले महिने उन सब को बस्ती में से उठा देगा। लेकिन कभी भी वह अच्छे लोगों की बस्ती नहीं हो पाती थी।

झूमरी आधा रूपया गिनकर उठ आई। “तू क्या बहरी हो गई है, इतने समय से बुला रही हूँ, सुन नहीं रही है क्या?”

परबा कम बोलती थी। झूमरी की बातों का उसने कुछ जबाव नहीं दिया। लेकिन झूमरी ने परबा के आँसूओं से छलकती हुई आँखो से जैसे कुछ भांप लिया हो। पूछी “गूड़ा ने तेरे साथ कोई बदतमीजी की क्या?”

“हाँ, छाती अब तक दर्द के मारे दुख रही थी।”

“तू खूंटे की भाँति खड़ी क्यों हुई थी? चली नहीं आई? गूड़ा के हाथ में कीड़े पड़ जाये, उसका वंश खत्म हो जाय। आ, आ भीतर आ। पहले ये सात सौ रूपयों को उसके मुंह पर फेंकेगे। उसको जाने दो, गरम सरसों का तेल लगा दूंगी तेरे छाती के उपर, तो तेरी पीड़ा खत्म हो जायेगी।”

झूमरी रूपयों को जमाकर कागज में मोड़कर रखी थी। परबा कोयले की सिगड़ी जमाने लगी। तभी पीछे से चिल्ला उठी, झूमरी।

“अरी ओ, मेरी प्यारी दुल्हन! किस दुल्हा के लिये थाली सजायेगी, जो सिगड़ी जला रही हो? समझी रे, परबा, गूडा को जाने दो। दो सूखी इलिश मछली उर्वशी के चूल्हे से भूंज कर ले आना, पखाल खायेंगे।”

परबा सोचती थी कि पहले किसी जन्म में यह झूमरी जरुर कोई रिश्तेदार रही होगी। नहीं तो इतना प्यार, उसके दिल में मेरे लिये नहीं होता। जिस दिन परबा इस नरक में आई उस दिन उसको लाकर झूमरी के जिम्में छोड़ दिया था। बोला था, कि यह लड़की तेरी ही जाति की है। न तो बात करना जानती है, न ही कोई काम-धंधा सीखी है। झूमरी को उस आदमी के उपर खूब क्रोध आया था।

“मैं क्या व्यापार चलाती हूँ? या कोई आश्रम खोलकर बैठी हूँ जो मेरे पास इसको छोड़ कर जा रहे हो। मैं तो अपना पेट भी नहीं पाल सकती हूँ। बेकार में किसी दूसरे का बोझ क्यों उठाऊँ? जा, जा यहाँ से ले जा, इसको।”

उस दिन पहली बार गूडा का नाम सुना था परबा ने “गूडा बोला है इसको कुछ दिन तेरे पास रख ले, ये खर्चा-पानी के लिये दो सौ रूपया। वह जब कमायेगी, तो सब तेरा ही तो होगा।”

“एक महीने की खुराक, सिर्फ दो सौ रूपये में नहीं होगा। तू और पैसा देकर जा। अच्छा बोल तो सही, यह मेरी खोली में रहेगी तो मेरा धंधा बंद नहीं हो जायेगा?”

उस आदमी ने कुछ भी नहीं सुना। और चार सौ रूपया झूमरी को पकड़ाकर वहाँ से चला गया। परबा, झूमरी को और झूमरी, परबा को एक घड़ी के लिये टकटक देखती रहीं। झूमरी, परबा को देखकर बिल्कुल खुश नहीं थी। बासन माँज रही थी। चूल्हा लेप रही थी। मन ही मन वह कुछ सोच कर रही थी। लेकिन, चाय पीते समय, कटोरी भर लाल चाय पकड़ा दी परबा को। पूछने लगी

“तेरा गांव कहाँ है?”

“बीजीगुडा”

“कहाँ है?”

“सिनापाली”

“सीनापाली, कहाँ?”

“मुझे नहीं मालूम”

“तू संबलपुर तरफ से आयी है क्या? मैं गंजाम, आशिका, से आयी हूँ। तू जाति की चमार बोलकर किसी को यहाँ मत बताना। रंडी की नहीं कोई जाति और नहीं कोई पति। फिर यहाँ की औरतें कम खरतनाक नहीं है? कोई पूछने से बोलेगी तुम यादव घर की बेटी हो। ठीक है।”

उसी दिन से झूमरी की किसी भी बात को अनसुना नहीं करती थी परबा। गुडा लौट जाने के बाद, कुछ सूखी हुई ईलिश मछली को धोकर ‘कड़सी’में दो बूँद सरसों का तेल डालकर परबा चली गई थी उर्वशी के घर। उर्वशी आलू काट रही थी, छोटे-छोटे टुकड़े टुकड़े कर। उसका बेटा आलू भूँजा के साथ पखाल खाने को जिद्द कर रहा था। परबा ने पूछा

“बहिना, तुम्हारे चूल्हे में आग है क्या? दो ‘सुखवा’गरम करती।”

“चूल्हें में कुछ कोयला डाल दी थी कब से यह लड़का पखाल खाने के लिये छटपटा रहा है भूँजे हुए आलू के साथ। वकील का बेटा है तो, इसलिये हर बात में इतनी जिद्द।”

उर्वशी अपने बेटे को वकील का बेटा कहकर बुलाती थी। यहाँ आने से पहले, बेचारी किसी वकील के द्वारा गर्भवती हो गयी थी। कसमे-वादे, धोखाधड़ी जैसे धारावाहिक कहानी की पुनरावृत्ति हो गयी थी उसके जीवन में। उर्वशी कहती थी कि यह उसकी भूल थी। वह पाप की थी, जिसका फल उसे मिल रहा है। नौकरानी होकर, वकील की बीवी के नहीं होने का फायदा उठाने के कारण। उर्वशी कहती थी, “मै एक पतिव्रता स्त्री के अधिकार को छीन रही थी। मैं उसका फल नहीं भोगूंगी, तो फिर कौन भोगेगा? वकील का बेटा पेट में था। उसको मारती भी कैसे? मेरे तो और कोई सगे-संबंधी नहीं थे। विधवा मामी ने मुझे घर से निकाल दिया। यहाँ आकर मैने वकील के बेटे को जन्म दिया। वकील के घर का बेटा आलू की भूजिया खाने को माँगेगा, तला हुआ गोश्त माँगेगा। इधर-उधर से लाकर दूँगी नहीं तो और क्या करुँगी?”

उसकी बातें सुनकर झूमरी ने अपना मुंह फेर लिया। वकील घर का बेटा था तो उसके ही घर में छोड़ देती। इस गंदी बस्ती में क्यों रखी हुई हो? यदि घोड़े के सींग होते, तो क्या यह धरती बचती?

उर्वशी का बेटा स्कूल जाता है। स्टेशन प्लेटफाँर्म के बाहर एक बड़ा सा घर है जिसमें बड़े आँफिसरों की बीवियाँ गरीब बच्चों को पढाती है। उर्वशी का बेटा उसी स्कूल में जाता है। इसलिए उस अकेली के ही घर में हर दिन सवेरे-सवेरे चूल्हा जलता है।

परबा ने उस कड़सी को तेज आग पर रखा, सूखी हुई मछलियों को भूनने के लिये।

उर्वशी ने पूछा “वह राक्षस किधर गया? परबा”

“हाँ दीदी, देखो ना मेरी छाती पर कितना जोर से मुक्का मारा था जिसका अभी भी दर्द छूटा नहीं है।”

मुँह में कपड़ा ठूँसने के बाद भी अपनी हँसी को रोक नहीं पा रही थी उर्वशी। बोली “तुम उस नपुंसक को दिखाने के लिये क्यों मर रही थी?”

“मैं क्यों दिखाउँगी। मैं तो अपने आँचल को ढक चुकी थी, उसके देखने के तुरंत बाद।”

“वह मर नहीं जाता? तेरे जैसी सरल लड़की को देखकर उसने ऐसा किया। मेरे को हाथ लगाकर देखता तो दादी-नानी सारी की सारी सब याद दिला देती, हाँ।”

परबा जानती थी कि गूडा की मरजी के बिना यहाँ, किसी के लिये भी रहना संभव नहीं है। परबा यह भी जानती थी कि उर्वशी जितना हाँक रही थी, गूड़ा के सामने असल में कुछ भी नहीं बोल सकती थी। एक छोटी लकड़ी से उलट-पुलट रही थी उन सूखी मछलियों को, तो इसकी गंध ने पेट की भूख को भड़का दिया, जिससे मुंह में पानी भर आया परबा के। कभी-कभी पेटभर पखाल खाने से माँ-बाप की याद आ जाती थी। क्या खाते होंगे वे बूढ़े माँ-बाप? कौन जाने शमिया दुआल की तरह सूख-सूखकर मर गये होंगे? उसका बाप उसे पास बिठाये बिना कभी भी पखाल नहीं खाता था। हर दिन पहला निवाला वह परबा को खिलाता था। बोलता था, “तीन लड़कों के बाद में पैदा हुई है मेरी बेटी। उसकी शादी टिटलागढ़, काँटाभाजी की तरफ करवाऊँगा। उसके कान-नाक के जेवर उसके तीन भाई जुगाड़ नहीं कर देंगे क्या?"

“मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊँगी, बा।”

“अगर तुम शादी नहीं करोगी तो लोग क्या कहेंगे? तीन-तीन बड़े भाई होने के बाद भी तेरे लिए दूल्हा नहीं खोज पाये।” जब पास में मंझला भाई डाक्टर होता था, तब बा उससे कहते, “मेरी बेटी के लिये एक कंठी नहीं खरीद पाओगे तुम?”

“यह कंठी क्या चीज है?“

“सोने का हार है, सुनार के पास बनाना पड़ता है।”

खो गये या मर गये कौन जानता है? सभी भाई स्वार्थी हो गये।

बाप को बार-बार बुखार आता था। उसका एक पैर ठीक से काम नहीं कर रहा था मगर पेट क्या ये सब बातें जानता था? गरीब लोग जिस प्रकार से भूख को जानते है, दूसरे जानते है क्या?

माँ जा रही थी किसिन्डा, रहमन मियां के गोदाम में काम करने के लिये। दिन-भर बरामदा में बैठकर बड़बड़ा रहा था बाप। शक की वजह से वह माँ के बारे में गंदी-गंदी बातें करता था। पेंगा और महनी बूढ़ा बातों में मिर्च-मसाला लगाकर कहते थे। परबा गुस्सा से आग-बबूला हो उठती थी। बोलती थी “आप क्यों काम नहीं करते हो? बा, बैठे-बैठे इतनी गंदी-गंदी बातें बोलते रहते हो। आपको कुछ समझ में नहीं आता है क्या?”

“तेरी माँ तो छिनाल है। रहमन मियां की रखैल!”

“ऐ बा, तुम अगर ऐसी बाते करोगे तो मैं घर छोड़कर चली जाऊँगी।”

“जाना है तो तू भी जा! मैं किसी को भी रोकूंगा नहीं। साले लोग पंख लगने पर सभी उड़ गये, कोई भी नहीं रुका। और तू रहकर और कौनसा निहाल कर देगी?”

बाप की ये बातें सुनकर परबा का मन विचलित हो गया था। दुःख से वह टूट चुकी थी। परबा तो अपने आप को बाप की लाड़ली प्यारी जान मानती थी। उसके बिना उसका बाप एक पल भी जिन्दा नहीं रह सकता था। मगर बाप ऐसी बातें कर रहा था अभी। एक क्षण के बाद, उसे अपनी बाप के मन की व्यथा का अहसास हुआ। वह उसकी नाराजगी का कारण समझ चुकी थी।

इतना गुस्सा और नाराज होने के बाद भी अंतरा ने एक गाना गाया :

“हे किराये का मकान,

न तुम हो इसके, ना यह है तुम्हारा

पंचतत्वों का बना घर,

देह है कुछ दिन का सहारा।”

परबा की आँखे आँसूओं से छलकने लगी। उर्वशी बोली “सब कुछ जला देगी क्या, परबा? तेरा ध्यान कहाँ है? मछली जलने की गंध आ रही है।”

परबा का ध्यान लौट आया। भूनी मछली से भरी कड़सी को लेकर अपनी खोली में वापिस आ गयी

माँ के लिये परबा का मन बहुत दुखी था। कितना मेहनत करके माँ कमाती थी? फिर भी, बाप उसको बदनाम किये जा रहा था। शरीर तो जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। एक पैसे की ताकत नहीं थी। उनको तो चुपचाप बैठना चाहिये था। क्यों ऐसे ऊफनता रहता था?

एक दिन नरेश ने ढोल बाँधने का काम दिया था बाप को। ढोल को कसकर नहीं बाँध पा रहा था वह। इसलिए जिस किसी को देखता था, उसको सहायता के लिए विनती करता था। “आओ तो, बेटा! मेरी सहायता करो।” पता नहीं, कैसे कसकर बाँधा था उस ढोल को बाप ने, कि जब नरेश ने उस पर अपने हाथ से दो-चार बार ढाप मारी, पर ढोल ढंग से नहीं बजा। तो वह नाराज होकर बाप को बुरी तरह से लताड़ने लगा “अगर तुमसे यह काम नहीं होता, तो तुमने मुझे पहले बताया क्यो नहीं? मेरे चमड़े को क्यों बरबाद कर दिया? मैं तुझको एक भी पैसा नहीं दूँगा, बता देता हूँ। आँख से तो दिखाई नहीं देता, और कहता है कि मैं ढोल बनाऊँगा?”

परबा के बाप का ढोल बनाने में बड़ा नाम था। चिकने चमड़े को भी खींच कर अच्छे तरीके से बांध लेता था। बारिश की एक बूँद गिरने से भी ठम-ठम की आवाज निकल आती थी ढोल से। उसको फिर इतना अपमानित किया नरेश ने! इतना गाली-गलौच किया कि बस मारना ही बाकी रह गया था! उसी दिन से पता चल गया परबा को कि बाप और काम नहीं कर पायेगा।

परबा बाप को भी दोषी नहीं ठहरा पाती। भाईयों को दोष देती थी। बड़ा भाई एक लड़की को लेकर भाग गया और ईसाई भी हो गया, बेईजू शबर की लड़की से शादी करने के लिये। मंझला वाला लड़का तो बाप का चहेता था। पर काम करने गया, सो गया ही गया। छोटा वाला क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव का था। गांव के आवारा लड़कों की गलत संगत में पड़कर नक्सल फौज में भर्ती हो गया। गांव की लड़की कुन्द को वह दिल दे बैठा था। न जाने कैसे, सब कुछ भूलकर, वह नक्सल में चला गया। बाप के साथ बिल्कुल भी नहीं पटती थी उसकी। दोनों आपस में झगड़ा किया करते थे। कितनी बार बाप ने उसे अपने घर से निकाल दिया था। घूम-फिरकर वह वापस घर लौट आता था। किन्तु एक दिन वह जब घर छोड़कर चला गया, तो फिर लौटा ही नहीं। एक साल के बाद ही पता चला, वह नक्सल बन गया है।

कुंद की मां विधवा थी। फिर भी उसका बकरा उसको कमा कर देता था। वह केवल बकरा ही नहीं बल्कि कुंद का भाई बोलने से भी चलेगा। पूरे गांव भर में सबसे शानदार, मस्त जीव था वह। किसान हो, प्रधान, अगरिया हो या हलवाई, सब अपनी अपनी बकरियों को ले आते थे उसके घर में गर्भवती करवाने के लिये। उससे कुंद की माँ को दो-चार पैसा मिल जाता था। घोड़े जैसा ऊँचा, उद्दण्ड़ यह जीव लगता था जैसे कि भगवान का अवतार हो। उसके छू देने से भी बांझ पेड़ों में फूल भर जाते थे। लोग जब अपनी अपनी बकरियों को लाते थे तो साथ में सिंदूर, दूब, डाल पत्ते भी लेकर आते थे। घर के पिछवाड़े बंधे हुये बकरा को पहले पहल खाने के लिये डाल के दो टुकड़े देते थे और फिर सिंदूर, दूब लगाकर पूजा करते थे भोलेश्वर महादेव के नाम से। उसके बाद कुंद की माँ के पास छोड़कर जाते थे उनकी अपनी बकरियों को। कुंद की माँ बोलती थी “जा, मेरे बाप, एकाध घंटा छोड़कर आना। महाप्रभु की जब दया होगी, तब ही गर्भ ठहरेगा।”

मानो गर्भधारण एक पवित्र अनुष्ठान हो। किसी के मन में कोई पाप नहीं होता, कोई घृणा नहीं होती। परबा और उसकी सहेलियों ने कई बार देखा था उस सौ पुरुष वाले पराक्रम को एवं उसके ईश्वरीय संभोग को! उन्होंने देखा था कि एक बकरा किस प्रकार भगवान बन जाता था। एक दिन परबा कुंद को इस बस्ती की एक खोली में मिली थी। कहां से आकर, झूमरी ने यह खबर दी थी।

“रे परबा, तुम्हारे गांव बजीगुड़ा से एक ल ड़की आकर यहाँ पहुँची है। वह तुम्हारे बारे में जानती है।”

झूमरी की बात सुनकर परबा धक् सी रह गयी।

“सच बोल रही हो, झूमरी, फिर किसका कपाल फूटा हमारे गांव में?”

उत्सुकता को दबा नहीं पायी और भागने लगी परबा नीचे वाली खोली की तरफ। खोली के बाहर बैठी थी कुंद। कुंद को देखकर परबा को अपने पांव के नीचे की जमीन खिसकती नजर आयी।

“तू तो मेरी भाभी बनती। तू कैसे आगयी इस नरक में?”

परबा की बात सुनकर बिलख-बिलख कर रो पड़ी थी कुंद। सिसकी के बाद सिसकी आ रही थी। परबा के आँखों में भी आंसू आगये। परबा रोने जैसी होकर बोली, “और मत रो कुंद, मैं समझ गयी, तुम्हारे नहीं बोलने से भी क्या मैं नहीं समझ पाऊँगी? बता, तेरे पास कौनसी चीज की कमी थी? तुम्हारा वह बकरा कैसा है, रे?”

वही मर गया, तभी तो यह हालत हुई है। पागल होकर घूमा कुछ दिन तक, किसी की भी बात नहीं मानता था। जो सामने मिलता, उसे मारने दौड़ पड़ता। एक दिन तो किसिंडा चलागया। लोगों ने कहा, रेल्वे लाइन के नीचे छटपटाकर उसके प्राण निकल गये। मेरी मां खोजने गयी थी। कुछ पता नहीं कर पायी उसका।

“तुम जंगल की तरफ गयी थी रे, कुंद?”

कुंद चुप रही।

“हरामजादी, तुम बकरा की बात तो कर रही है, अपनी दुर्दशा की बात क्यों नहीं बताती? वो फोरेस्ट-गार्ड....”

कुंद को जैसे कि बचने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। परबा के मुंह से फोरेस्ट-गार्ड का नाम सुनकर रुका हुआ रोना फिर फफक-फफक कर बाहर निकलने लगा था।

“रो मत मेरी बहिन, ये सब हमारी किस्मत का खेल है। और क्या कर सकते थे? तू किसी को मत बताना कि मैं यहां हूँ। मैं भी किसी को नहीं बताऊँगी। भूख लगे तो मेरे पास आ जाना।”बोलते-बोलते परबा ने रोना शुरु कर दिया। वह तो अभी झूमरी की भूमिका निभा रही थी। संभाल लेगी कुंद को किसी भी तरह। उसने कुंद को अपनी बाहों में ले लिया “मेरी बहिन, मेरी भाभी।”