पक्षीवास / भाग 7 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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सवेरे उठते समय सरसी का सिर दुख रहा था। भारी होकर सिर ऐसा लग रहा था जैसे पीछे की तरफ कोई खींच रहा हो। बांस की बनी चटाई से उठकर वह दीवार के सहारे बैठ गयी। सवेरे से ही सिर दर्द ने इतना जोर पकड़ा कि उसे लगा कि कहीं उसे बुखार न हो जाये। चूड़ियों की खनखनाहट सुनकर कब से उठकर बाहर बैठा अंतरा, बोला

“जरा, चाय-पानी तो पिला”

सरसी सुनकर भी चुपचाप ऐसे ही बैठी रही। सिर के अंदर जैसे कोई हथौड़ी मार रहा हो। पिछले रात की बात उसे याद हो आई। अंतरा के उपर गुस्सा होकर खाना छोड़कर उठ गई थी एवं शुरुकानी के घर जाकर दस रूपये का दारु पीकर आई थी। वैसे भी सरसी देशी दारु नहीं पीती थी। थकान मिटाने के लिए कभी-कभी एकाध गिलास महुली पी लेती थी। बचपन से आज तक उसने कभी देशी दारु छुई तक नहीं थी। उसको याद आया, जब वह पांच-छः साल उम्र की थी, देशी दारु पीने से उसके गांव के पन्द्रह-सोलह आदमी छटपटाकर मर गये थे। उनमें से एक उसके ताऊजी भी थे।

सरसी का बाप दो-चार घर से इसलिए वापिस आगया था, कि उसका स्वागत-सत्कार दारु के साथ नहीं किया गया था। वापिस आकर कहने लगा था “वे लोग भूखमरे है, कंगाल हैं। दारु पीने के लिये पास में पैसा नहीं है, तो मेरी बेटी का क्या भरण-पोषण करेंगे, जो मैं उनके घर रिश्ता करुँगा? जब मैं गया था उनके घर, तो दारु के लिए पांच रूपये भी नहीं निकाल पाये थे। मेरी कटोरी में कुसना दारु डाल दिये थे।”

सन्यासी का बाप उस समय हट्टा-कट्टा, बड़ा ही सुंदर दिख रहा था। बाहें थी दोनों खंभे के जैसी। सिर्फ दो आदमी, मरी हुई बड़ी भैंस की लाश को किसिंडा तक अपने कंधों के बल से लाद कर ले जाते थे। सरसी का बाप उस समय ‘सिडिंगागुड़ा’ गया हुआ था। इतनी बडी भैंस को, सिर्फ दो लड़के उठाकर ले जाते हुये देखकर वह आश्चर्य-चकित होकर एक घड़ी तक उन्हें देखता ही रह गया। सरसी का बाप पूछ रहा था

“तुम दोनों लड़के किसके हो?”

सन्यासी का बाप मसखरी करते हीं-हीं कर दाँत निपोरते हुए हँसने लगा। बोला

“क्यों, अपनी लड़की से शादी करवायेगा क्या?”

“साला, लपंगा कहीं का! मेरी बेटी को दूंगा या नहीं, यह तो बाद की बात है। पहले तेरे बाप का नाम तो बता?”

“क्या मेरे बाप से दोस्ती करोगे?”

साथ कंधा देने वाला लड़का मुस्कराते हुये बोला,

“अरे, यार, क्यों इतना परेशान कर रहा है? बाबा के साथ क्यों उलझ रहा है? चुपचाप बता देने से तो बात खत्म।”

“बाबा, इसके बाप का नाम निकस सतनामी है। मरे हुये एक अर्सा हो गया है। आपका कोई काम था क्या, उनसे?”

“इस भैंस को कहां लेकर जा रहे हो।”

“बीजीगुड़ा, हमारे गांव”

दो दिन के बाद सरसी का बाप आ पहुँचा था अंतरा के घर। अंतरा की मां बरामदे में बैठकर झाडु बांध रहीं थी। साथ में आंगन में सूख रहे भैंस के मांस की तरफ भी देख रही थी। ये घर जरुर निकस सतनामी का ही होगा। सरसी के बाप ने पहचान लिया।

“यह निकस सतनामी का घर है क्या?”

बूढ़ी अचरज के साथ मेहमान की तरफ देखने लगी। इतने दिन बाद उसके आदमी का नाम किसी ने पुकारा था। गांव वाले ‘अंतरा का घर’, ‘अंतरा की माँ’ के नाम से पुकारते थे। यह कौन है जो निकस सतनामी को खोज रहा है। एक अर्से पहले ही वह मर चुका है। लोग तो उसका नाम भी भूल चुके थे।

“तुम कौन से गाँव से आये हो? क्या काम है?-”

“तेरे बेटे का नाम अंतरा है ना?” भैंस को अपने कंधे पर लादकर ले जाते हुये मैने उसको देखा था। “वाह! बड़ा सुंदर हट्ठा-कट्टा नौजवान है।”

अंतरा की माँ को ताज्जुब हुआ। यह अनजान आदमी उसके बेटे के ऊपर डोरे डाल रहा है क्या?

“क्या बात है, मेरे बेटे के उपर तुम्हारी इतनी नजर क्यों? नहीं, नहीं बोलकर इतनी बड़ी बात बोल रहे हो?”

जलती हुई बीड़ी को दीवार पर रगड़कर, बुझाकर कान के ऊपर रख दिया था सरसी के बाप ने।

“इतना गुस्सा क्यों कर रही हो? तुम्हारे बेटे के उपर कोई डोरे-वोरे नहीं डाल रहा हूँ। उसके लिये शादी का प्रस्ताव लेकर आया हूँ।”

“तुम कौनसे गांव के हो? किसकी बेटी के लिये प्रस्ताव लेकर आये हो।”

“वह मेरी बेटी है।”

“क्या तुम ठूंठ हो? गांव में तुम्हारा कोई सगा-संबंधी नहीं है, जो यहां अकेले आये हो?”

“गुस्सा क्यो कर रही हो? मैं तो सिंडिगागुडा जा रहा था। तुम्हारे बेटे से रास्ते में मुलाकात हुई। वह लोग भैंस ढोकर आ रहे थे।”

“अच्छा, अच्छा, तुम बैठो यहाँ। मैं अपने पास-पडोसियों को बुला लेती हूँ। उनके साथ तुम बात कर लेना।”

बाप के मुंह से ये सब बाते सरसी ने सुनी थी। अंतरा का खूब गुणगान कर रहा था। घोड़े के बच्चे की तरह चंचल व ताकतवर। काम करेगा, खायेगा। उसको कभी भी किसी चीज का अभाव नहीं होगा।

‘बिजीगुडा’ से सगे संबंधियों को लेकर अंतरा की मां आयी। और संबंध की बात पक्का कर गयी। कुछ महीनों बाद, शादी होकर सरसी बीजीगुड़ा आयी थी। सचमुच, बहुत ही शक्तिशाली था वह। कहां-कहां दूर-दूर के गांव जाकर भैंस की हड्डी लाकर बेचता था रहमन मियां के गोदाम में। सतनामी लोगों का वह अगुआ था। जो ज्यादा किया, धरा, वह ही अगुआ होगा ना।

सन्यासी के जन्म वाले साल में, अगर उसका पैर नहीं टूटता तो उसकी यह अवस्था नहीं होती। पैर तुड़वाकर वह अकर्मण्य हो गया। बैठा रहता था। इसलिए तो सरसी को दौड़ना पड़ रहा था किसिंडा। किसिंडा जाने के पीछे सरसी का और एक उद्देश्य भी था। उस अंचल में आश्विन से मार्गशीष महीने के बीच मुर्शिदाबादी पठान डेरा डालते थे। उस समय वे लोग बूढ़े, निठल्ले या जवान बैल का, मोल-दाम लगाकर खरीदते थे। वे लोग दिन के समय खरीदी हुई गायों की टोली को चराने के लिये पहाड़ के नीचे तक ले जाते थे। लगभग पचास गायों की टोली हो जाने पर, वे लोग तीन-चार अलग-अलग समूहों में बँट जाते थे। और उनको हाँकते हुये ले जाते थे कोलकत्ता, मालदा और मुर्शिदाबाद की तरफ। गायों के साथ-साथ वहाँ चमड़े की भी खरीददारी होती थी। ये सब सामान लेकर, उनका एक दल, ट्रक बदल बदलकर ले जाते थे उनके देश।

आजकल मुर्शिदाबादी पठान लोग आना-जाना कम कर दिये थे। आ रहे थे केवल पांच-सात आदमी। पहले जैसी आमदनी भी तो नहीं रही। लोगों का गाय पालने का शौक भी घट गया था। केवल कुछ पुराने खानदानी लोग, गांव में अपनी शान-शौकत के लिए गुवालों मे, गौशालाओं में कुछ गायें बाधकर रखे थे. गांव में गाय के बदले आजकल घूमते थे फटफटिये।

उसी मुर्शिदाबाद पठान लड़के के उपर, सरसी को बड़ा संदेह होता था। उस साल वह लड़का किसिंडा आया था। फिर बाद में कहां गायब हो गया, पता नहीं चला? पतली-पतली मूँछे, बड़ी-बड़ी आंखें, पतले-पतले होंठ, तलवार की धार जैसी नाक, ठुड्डी पर निकल आयी थी बबरी दाढ़ी।

उस लड़के को खोजने हर साल, आश्विन से मार्गशीष महीने तक, रोज पाच-छ कोस रास्ता पैदल चलकर सरसी आ जाती थी रहमन मियां के गोदाम तक। वहीं सब पुराने लोग होते थे, जो हर साल आते थे। लेकिन वह लड़का, और नहीं आता था। अहमद हारुक लियाकत से सरसी उस लड़के के बारे में पूछती। वह उस लड़के के बारे में कुछ बता नहीं पाते। लड़के का नाम मुराद, अबुबकर का भांजा। अबुबकर तो कब से अतिसार की बीमारी से मर चुका था। इधर से लौटते समय पुरूलिया में उसका देहान्त हो गया। सब मिलकर गड्ढा खोदकर रास्ते में ही दफना दिये थे। बूढ़ा निसंतान था। मुराद के अलावा उसका कोई और नहीं था।

सरसी पूछती थी “मुराद कहाँ रहता है, बाबू?”

लियाकत मियां अचरज से पूछता “उससे तुम्हारा क्या काम है?”

“तुम पहले बताओ ना, वह किधर चला गया? इसके बाद मैं तुमको बताऊंगी।”

लियाकत समझ नहीं पाता था. सरसी क्या बोलना चाह रही थी। पर बेचारी औरत का मन तोड़ नहीं पाया एवं कहा कि मुराद तो सीमा-पार कर बांग्लादेश चला गया।

“कहाँ है वह देश? तुम लोगों के गांव से वह कितना दूर पड़ता है? उस देश में वह क्यों चला गया? जाते समय उसके साथ और कौन-कौन गये? बताओ ना!”

“तू इतना सब कुछ क्यों पूछ रही है? बता, उसके ऊपर तुम्हारी कोई उधारी है क्या?”

“मैं, गरीब, कहाँ से पाउंगी रूपया पैसा जो उधार दूंगी। एक मुट्ठी खाने को तो नसीब नहीं होता है। पर वह लड़का मेरी एक बड़ी संपत्ति चुरा कर ले गया है। किस देश में चला गया है, बताओ, ना! कहाँ है वह देश? रेल में जाने से कितना पैसा लगता है?”

“तू वहाँ जायेगी क्या?” हीं-हीं करके हँस दिया था लियाकत। “जा, यहाँ से पगली”

सरसी को गुस्सा आता था। वह पागल नहीं थी। सब उसे पागल क्यों सोचते हैं? अपने बेटे-बेटियों की खबर लेना क्या पागलपन है? अगर हाँ तो, वह जरुर पगली है। उसके चार-चार बच्चे कौन किधर चले गये कि वह पता भी नहीं लगा पायी।

“हे भगवान! तीन-तीन मेरे लड़के कमाकर लाते और मैं बैठकर खाती। देखो रे, मेरी फूटी किस्मत! इस पेट के लिये दो मुट्ठी खाना जुगाड़ नहीं कर पा रही हूँ। किस हालत में होंगे मेरे बच्चे लोग? पता नहीं। और मेरी बेटी? ओ मेरी परबा तू कहाँ है रे! मेरी बच्ची?” भावुक होकर सरसी रो पड़ी।

बरामदे में बैठकर हुक्म चला रहा था अंतरा। धमकाने के स्वर मे पूछा “दिन में सपने देख रहीं है क्या? मेरा सिर दुःख रहा है। इसलिये चाय-पानी पिलाने को कह रहा था। अनसुनी कर, तुम जागते-जागते सपने देख रही हो क्या, अभी तक?”

सरसी चटाई समेटने लगी थी। वह आज किसिंडा नहीं जा पायेगी। उसका सिर भारी-भारी लग रहा था। मुंह धोकर चूल्हा लीपना शुरु कर दी थी। दांतुन दाँतों के बीच दबाकर, पूरे घर का झाडु की। एक लुत्था गोबर बाहर से खोज कर लायी और पानी में घोलकर आंगन में छींटने जा रही थी, तभी गुस्से से तम-तमाकर अंतरा बाहर बरामदे से उठकर आगया। पूछने लगा “तुझे कुछ सुनाई नहीं देता है क्या? बहुत लापरवाह हो गयी है तू? दूंगा खींच के दो घूंसा, तो पता चलेगा। ”

“मारेगा, मार। मेरे उपर इतना गुस्सा क्यों हो रहा है? मारना ही था तो फोरेस्ट-गार्ड को क्यों नहीं मारा? तू अगर मर्द होता तो गार्ड को दो घूंसा नहीं मार देता।”

अंतरा की मर्दानगी को जैसे, किसी ने झकझोर कर घायल कर दिया हो। गुस्से में आग-बबूला होकर अंतरा सरसी की तरफ झपट पड़ा। “साली, देखेगी?” अंतरा में और पहले जैसी ताकत नहीं रही। फिर भी उसने धड़ाक से एक घूंसा तान दिया था सरसी की पीठ पर। ऐसे भी सरसी का सिर दुःख रहा था। ऊपर से इस घूँसे ने सरसी को हिला सा दिया था।

“साले, जंगली, जिन्दा लाश, तू मुझे क्यों मार रहा है बे? मैने तेरा क्या बिगाड़ा था?” जोर से एक धक्का मार दिया अंतरा को। अंतरा लडखडाकर नीचे गिर गया था। और उसके हाथ की लाठी फिसल कर तीन हाथ की दूरी पर गिर गयी। सरसी की आँखे पश्चाताप के आंसूओं से भर उठी। आंसू भरी आँखों से उसने अपने नीचे गिरे आदमी को उठाया।

सरसी का सहारा पाकर अंतरा उठा, पर अभी भी उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ था। नाग साँप की भाँति फुफकार रहा था। बोल रहा था “मैं शहर में जाकर भले ही भीख माँग लूंगा, पर तेरे हाथ से पानी भी नहीं पीऊँगा। साली, शरीर बेचकर खा रही है। वैश्या कहीं की! रहमन की रखैल, कहीं की!”

सरसी और अपने आप को संभाल नहीं पायी। नागिन की तरह फुंफकारते हुये झपट पडी। और बोलने लगी “निकल, निकल, तू इस घर से! भाग, नहीं तो मैं जा रही हूँ। जहर खाकर मर जाऊँगी। लेकिन इस घर के आंगन में पांव नहीं रखूंगी। तू मेरा आदमी होकर, मुझे बदनाम कर रहा है। मैं और यहाँ किसी भी हालत में नहीं रहूंगी।” गाली देते-देते जमीन पर बैठ गई, जोर-जोर से रोने लगी सरसी।

“सुबह-सुबह, बिना बात का हल्ला-गुल्ला कर रही हो। मैं बोल देता हूँ तो तुझे लग जाती है। गांव के सभी जब मेरा मखौल उड़ाते हैं, तो उस समय कुछ नहीं होता।”

“सच्ची में, तू क्या अलग बोल दिया जो?” रोते-रोते बोली सरसी।

“सीता माता को भगवान राम ने भी तो बदनाम किया था। अग्नि-परीक्षा ली थी। घर से निकाल भी दिया था। अरे! लोग तो कुछ भी करने से कुछ न कुछ बोलेंगे। जब अपना आदमी उनकी बातों में विश्वास करेगा तो सीने में चक्कू चलाने जैसा लगता है।”

जब चरित्र पर एक बार कलंक लग जाता है, तो छूटता नहीं है। कितनी भी कोशिश कर लो, कितना भी देते-लेते रहो। सब बेकार। सरसी के सिर में आधासीसी दर्द हो रहा था। इस घटना के बाद उसका सर दर्द न जाने कहाँ गायब हो गया, मानो यह दर्द उस दर्द से कई गुणा बढ़कर हो। सुबह के चूल्हे-चौके का काम कर किसिंडा जाने की सोच रही थी। गरीब आदमियों के शरीर में कितनी भी पीड़ा हो, घर में कितनी भी दिक्कतें हो, पेट के खातिर उन्हें काम पर जाना ही पड़ता है। अंतरा के मुख से उगलते हुए जहर को सुनने के बाद सरसी में जाने के लिए हिम्मत नहीं थी। अभी-अभी अंतरा ने उसको रहमन मियां की रखैल बोल कर गाली दी थी। अब किस मुंह से वह जायेगी रहमन के गोदाम की तरफ? वह तो सिर्फ गोदाम में काम नहीं करती, गोदाम के नजदीक जो बगीचा था, जिसमें किस्म-किस्म के पेड़-पौधे थे, उसकी रखवाली का भी काम करती थी। जिस दिन जैसा काम करने का हुक्म दिया जाता था वह उस काम को करती थी। अगर उसे दो रूपया और दो मुट्ठी चावल नहीं मिले तो उसका घर कैसे चलेगा?

उसने तय कर लिया था कि अब कभी किसिंडा नहीं जायेगी। घर में चूल्हा जले या ना जले,उसको उससे क्या मतलब? जब पेट में आग लगती है, तब पता चलता है कि कहने और करने में कितना अंतर है? मिट्टी और पुआल लाकर रसोई घर के बरामदे को लेपने का काम करने लगी। इस बीच अंतरा अपनी लाठी लेकर कहीं चला गया था। अचानक सरसी को याद आगया कि लियाकत बता रहा था मुर्शिदाबाद की तरफ से पठान लोगों का एक और दल किसिंडा आयेगा। तभी से उसके मन में मुराद को लेकर आशा की किरण जाग उठी। हो सकता है उस दल में मुराद भी हो? उसका मन शंकित हो उठता था, कहीं वे लोग आकर काम कर दूसरी जगह तो नहीं चले जायेंगे। जल्दी-जल्दी से अपना काम पूरा कर थोड़ी-सी नमक वाली चाय बना दी। उसने देखा कि अंतरा घूम-फिरकर बरामदे में आकर बैठा हुआ था। एक कटोरी चाय और दो मुट्ठी ‘मूढी’ लाकर रख दी थी अंतरा के सामने। और बोली कि “मैं किसिंडा जा रही हूँ, उसके बगीचे में पानी देना है। उसके गोश्त की दुकान भी धोनी है।”

अंतरा ने सरसी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। चाय के साथ मूढी मिलाकर फूँक-फूँककर पी रहा था। सरसी जाते समय बोली “बरतन में पखाल रखा है, मन होने से खा लेना। रहमन मियां के बगीचे की घेराबंदी के तार एक तरफ से खुल गये है, उसे बनाना पडेगा।”

पता नहीं क्यों आज सरसी ने काम के बारे में कुछ ज्यादा ही बताया था। शायद वह मुराद को ढूंढने जा रही थी, इस बात को छुपाने के लिये, या फिर अभी-अभी अंतरा ने उसके चरित्र पर आरोप लगाये थे इसलिए। वह घर से दबे-दबे पाँवों से जा रही थी। सरसी को मालूम था कि वह चाय के साथ बरामदा में बैठकर मूढी खा रहा था। उसके सामने से जाते वक्त उसके पाँव एक दूसरे में उलझ गये थे। वह अपने आप को असहाय अनुभव कर रही थी।

बरगद वाले मोड़ को पार करने के बाद थोड़ा अच्छा लग रहा था सरसी को। सन्यासी का बाप जो सोचना चाहें, सोचें पर जब तक उसके हाथ पाँव चलेंगे, वह सब के लिये करेगी, ढूंढेगी, सोचेंगी, व चाहेंगी। कोई न कोई दिन ऐसा जरुर आयेगा, जब उसके घर वालें सभी मिल जायेंगे। बेटे, बेटी, नाती, नातिन के हल्ला-गुल्ला, हँसी-मजाक से खिल उठेगा वह घर। इतना ही तो वह चाहती थी!

आज वह मुराद को पूछेगी, “कहाँ लेकर रखा है उसकी बेटी को? जब ले गया था तो एक बार तो लौटा लाना चाहिये था उसे अपने मायके को।” तीन भाइयों के पैदा होने के बाद में इकलौती लाड़ली बेटी, क्या खाती होगी? क्या पीती होगी? उसकी सास कैसी होगी? वह आज मुराद को पूछेगी कि अलग जाति, अलग देश का होकर उसकी बेटी को लेकर क्यों भाग गया था? कौन जानता है पठान लोगों के रहन-सहन, वेशभूषा, चाल-चलन से वह परेशान न हो? मुराद का चेहरा उसकी आंखों के सामने आ जाता था। पतली मूंछे, बबरी दाढ़ी, धारीदार लूंगी के ऊपर एक पंजाबी कुर्ता पहना हुआ वह लड़का उसकी बेटी को फुसला रहा था।

सरसी किसिंडा में पहुंचकर रहमन के गोदाम में जायेगी क्या? वह तो सीधी चली गई थी पठानों के डेरा तक। लियाकत वहाँ पर नहीं था। सरसी कभी-कभार उसके साथ अपने सुख-दुख की बातें करती थी। हारुफ सिगड़ी पर खाना पका रहा था। सरसी ने पूछा,

“भाई, और कौन-कौन आने वाले थे तुम्हारे देश से? वे लोग आये क्या?”

हारुफ प्याज काटते हुये बोला

“हाँ, सोलेमान और शौकत आये हैं। सिर्फ, दो लोग ही आये हैं और कोई नहीं।”

“क्यों? तुम्हारा कुछ काम था? तुमको क्या रहमन ने भेजा है?”

“नहीं, उस लड़के के बारे में पूछ रही थी।”

“तुम मुराद के पीछे भागते-भागते एक दिन पागल हो जाओगी। तुम क्या पागल हो गयी हो, जो मुराद तुम्हारी बेटी को ले कर भागेगा? हम में से किसी ने भी तेरी बेटी को ले जाते हुये नहीं देखा, समझी? अब तुम घर जा।”

“तुम सच बोल रहे हो, भाई?”

“अरे मुराद तो हमारे साथ मुर्शिदाबाद लौटा था। वहीं से सीमा पार कर अपने छोटे मामा के घर चला गया था। सभी को पता है।”

“तब मेरी परबा? परबा कहाँ गई?”

हारुफ कुछ नहीं बोला। वह इतना ही जानता है कि यह काम उसके रिश्तेदार नहीं कर सकते थे।

सरसी का मन मान नहीं रहा था। उस दिन ऐसे ही साप्ताहिक हाट लगा था। सरसी काम करके रहमन के घर से लौट रहीं थी। उसने देखा था कि मुराद के साथ उसकी बेटी हँस-हँसकर बातें कर रही थी। अचानक सरसी को देखकर कहाँ गायब हो गया था वह लड़का? सरसी ने परबा को पूछा था

“क्या बोल रहा था वह लड़का?”

“कौन?”

“वही, पठान।”

गंभीर मुद्रा में परबा ने जबाब दिया था “अपने देश के बारे में बता रहा था।”

“तू हीं-हीं कर रही थी।”

“क्या बोल रही है?” चिडचिड़ा गयी परबा

सरसी तुरंत कुछ बोल नही पायी थी। मगर कुछ दूर जाने के बाद बोली थी “परदेशियों से बात मत करना।”

“क्यों? वह क्या मुझे खा जायेगा?” हँस रही थी परबा।

“बता रही हूँ न, उससे बात मत करना।”

“उसके साथ सभी लोग बात करते हैं। वह बड़ा मजाकिया है। सबको पान खिलाता है। बड़ा अच्छा आदमी है। तुम उस पर क्यों गुस्सा कर रही हो? देख, मेरे लिये क्या लाया है वह?” साड़ी मे से गाँठ खोलकर हरे रंग के पत्थरों से जड़ा हुआ एक जोड़ी कान का झूमका दिखाया।

“कितने रूपये का है?”

“पैसा क्या? वह पैसे नहीं लेगा।” हँस रही थी परबा।

सर्वनाश। सरसी के मन में डर पैदा हो गया। वह इकलौती बेटी थी। पान के पत्ते की तरह गोल-सा चेहरा, नाक-नक्श, आँखे अति सुन्दर। अभाव होते हुये भी शरीर से शुष्कपन नहीं झलकता था। खूब इच्छा थी सरसी की कि बेटी को किसी अच्छे घर, अच्छे लडके के साथ शादी करायेगी। भले नौकरी पेशा वाला न हो, पर कम से कम हर महीने दो हजार कमाता हो। आजकल के लडके तो अपना जातिगत पेशा नहीं करते हैं, छोड चुके हैं। ऊची जाति वाले लोगों के साथ मिलकर कितने-कितने प्रकार का काम करने लगे हैं आजकल। शहर-कस्बों में जाकर कारखानों में काम करने लगे हैं। अपनी लड़की के लिए वह एक ऐसा लड़का ढूंढेगी, जो उसको दोनों वक्त का भरपेट खाना दे पायेगा। मगर उसकी बेटी कब से दूसरे जाति वालों से मेल मिलाप बढ़ा चुकी थी, उसे इस बात का पता नहीं था।

उसने गुस्से में परबा के हाथ से कान के झूमकों को लेकर फेंक दिये थे।

“तुम मुझे क्या इस बस्ती में रहने नहीं दोगी? तुम्हारे भाई शबर की लड़की को शादी करके गाँव छोड़कर चला गया। इसलिये दूसरों के घर में शरण लेनी पड़ी थी हमको। तुमने भी वही रास्ता चुन लिया क्या? मालूम पड़ेगा तो तेरा बाप क्या बोलेगा? अगर तेरे बाप को मालूम पड़ गया तो किसी लूले-लंगड़े, बूढ़े के साथ शादी करवा देगा। तुमको किसने यह दुर्बुद्धि दी?” परबा को खींचते हुये ले जा री थी सरसी। मानो हाथ छोड़ते ही वह पठान लड़के के साथ भाग जायेगी। रास्ते भर हजारों सवाल पूछती रही थी “सिर्फ बात कर रही थी या क्या-क्या कर रही थी, सच-सच बता।”

“और क्या करुँगी?” पलट कर पूछा था परबा ने।

अब सरसी एकदम चुप हो गयी। क्या उत्तर देती ऐसे प्रश्नों का? दोनों चुपचाप चलने लगे. लग रहा था मानो अंदर ही अंदर झंझावात उठ रहे हो। सरसी ने परबा का हाथ इतने जोर से पकड़ रखा था कि परबा अपमानित महसूस कर रही थी।

“मेरा हाथ तो छोड।”

जैसे ही सरसी को इस बात का ध्यान आया , उसने धीरे से उसका हाथ ढ़ीला कर दिया। अचानक क्या सोचते हुये उसने पूछा “तुझको कहीं अकेले में ले गया था वह लड़का?”

परबा को माँ के इस तरह के सवाल-जबाव अच्छे नहीं लग रहे थे। वह गुस्से में थी, पर कुछ नहीं बोली।

“पूछ रही हूँ ना, क्या वह लड़का तुझको जंगल की तरफ ले गया था?”

“क्यों बेकार की बातें कर रही हो? हाँ, मैं गयी थी उसके साथ, तो क्या हो गया?”

“छिनाल! तू मरी क्यों नहीं? खुद का सर्वनाश खुद कर रही हो?”

परबा को सरसी पीटने लगी, जैसे कि परबा के शरीर पर बहुत धूल-धंगड जमा हुआ हो। सरसी पीटते-पीटते कहने लगी “तुमने ऐसा काम कर दिया रे, मेरी बेटी!”

“ऐसा क्या कर दिया मैने? क्यों मुझे बेकार की गाली दे रही हो?”

सरसी ने और कुछ नहीं कहा। उसे लगा कहीं वह झूठ-मूठ से अपनी बेटी पर लांछन तो नहीं मढ़ रही थी। भगवान करे उसकी बेटी को कुछ न हुआ हो। बेटी के लिये उसने अपना पेट काट-काटकर मिट्टी के गड्ढे में पैसा बचाकर रखे थे ताकि नाक के लिये दो तारा-फूल और पांव के लिये एक जोड़ी पायल बनवायेगी। मगर बेटी जैसे हाथ से निकली जा रही थी।

गाली सुनने से बेजार होकर माँ के हाथ की मुट्ठी से निकलकर परबा बड़े-बड़े कदम बढ़ाकर आगे निकल गयी। अनवरत बहने वाले स्रोत की भाँति, उसे रोक नहीं पायेगी सरसी। “हे परबा! हे परबा!” पीछे से आवाज दे रही थी, पर उसे पकड़ नहीं पा रही थी।

घर पहले पहुँच कर बाप के सामने इस बात की शिकायत की परबा ने। मानो परबा अंतरा की जान हो। बेटी के आँखों में आसू देखकर उसका दिल पसीज जाता था। जैसे ही सरसी घर पहुंची, अंतरा ने बेटी की तरफदारी करते हुये सरसी के साथ झगड़ना शुरु कर दिया।

अंतरा के मुँह से गंदी-गंदी गालियों को सुनकर चुपचाप सहन कर लिया था सरसी ने; मगर सही बात नहीं बतायी थी। सही बाते जानने के बाद, अंतरा उसकी बेटी को या तो मार देगा या काट देगा, इसी बात का उसे डर था। माँ होना कितना कठिन होता है, उस दिन सरसी को इस बात का अहसास हो गया। इतना दिन ध्यान रखने के बाद भी बेटी एक दिन भाग जायेगी, इस बात का ख्याल तक न था। उस दिन से सरसी का शक मुराद पर होने लगा था। जितना भी समझायें, उसके मन से साप्ताहिक हाट का वह दृश्य हट नहीं पाता था। वह किसी के सामने मुंह खोलकर इस बात को बोल भी नहीं पाती थी।

“परबा रे, कहाँ चली गई, मेरी बेटी?” वह अपने आप में बड़बड़ा रही थी।

सरसी रहमन मियां के बगीचे में गोभी और मूली की क्यारियों में पानी दे रही थी। देखा था पत्तों के बीच में से छोटे-छोटे फूल दिखने लगे थे. बाड़ से सट कर लगे हुये थे एक कतार में अरहर के पौधे। पीले फूलों से लद गये थे। कुछ दिन बाद इन पर कच्चे फल आयेंगे। पतली नली की तरह पेड़ के उपर झूल रहे थे मूंगा के लंबे-लंबे फल। एक तरफ थी बैंगन की क्यांरी, उस तरफ से किसी ने पांव से दबाकर बाड़ को सुला दिया था। उसको नहीं उठाने से गायें-भैंसे घुसकर सब चट कर जायेंगी। रहमन मिया बाड़ी-बगीचे में कोई रुचि नहीं रखता था। गोदाम के पीछे एक छोटा-सा आधा कमरा था उसका। उसी में सब कूड़ा-करकट रखा करता था। सन्यासी जब बेईजू शबर की बेटी को भगाकर ले गया था, उसी समय बस्ती वालों से बचने के लिये सरसी उसी कमरे में डेरा डाले हुई थी। अपने हाथ से मिट्टी काटकर, पत्थर जोडकर टुटे हुये आधे कमरे को उसने पूरी तरह सजा लिया था कुछ ही दिनों में। बच्चों को लेकर कितने दिन तक इस कूड़े-करकट के ढेर में वह रह भी पाती? कितनी ही फालतू की चीजों को फेंक कर कमरे को रहने लायक बना लिया था उसने। रहमन ने देखा कि वह बड़ी मेहनती औरत थी, घर के छज्जे के ऊपर लौकी की लता भी चढ़ा चुकी है। अंतरा को बोला था इस छोटी सी जमीन को घेर कर तुम अपना बाड़ी-बगीचा कर लो, बेकार क्यों बैठे रहोगे?

पति-पत्नी दोनों ने मिलकर झाड़ी, घास आदि लाकर इस जमीन के चारों तरफ बाड़ बना लिया था। मिट्टी खोदी। बाजार से बीज खरीद कर लाये तथा गोबर वगैरह डालकर मिट्टी को उपजाऊ बनाया था। रहमन के गोदाम के पास एक पुराना बिना काम का कुंआ था। खारा पानी होने से उस कुंआ का पानी कोई नहीं पीता था। कुंआ साफकर चारों तरफ की जंगल-झाड़ी साफ की थी उन दोनों ने। पानी पाकर खिल उठा था वह बगीचा। रहमन मियां ने देखा एक गोचर जमीन को सोना बना दिया है इस औरत ने। खुश होकर एक जोड़ा साड़ी और धोती भेज दिया था अपने नौकर के हाथ।

साग-सब्जी जो भी निकलता था, सब रहमन मियां के घर जाता था। रहमन का बड़ा परिवार था फिर भी सब्जी-बाजार आना नहीं पड़ता था। सब सरसी दे देती थी। और जो कुछ बच जाता था, वह उसका अपने परिवार के लिये रख लेती। बिना दो दाना चावल के क्या सिर्फ साग-सब्जी से पेट भर पाता था? सरसी पूछती थी “दुकान में मेरे लायक कोई काम है क्य़ा?” “तेरे लिये और कहाँ से काम लाऊँगा, सरसी?” झल्लाकर कभी-कभी बोलता था रहमन मियां।

“दो दाना चावल घर में नहीं होने से कभी इच्छा होने पर दो-चार रूपया देता था रहमन। लेकिन हर रोज देना उसके लिये भी संभव नहीं था। तब भी सरसी बगीचा में पानी देती थी, मिट्टी कूरेदती थी। उसको लगता था वह रहमन का बगीचा नहीं, सरसी का बगीचा है। जिस दिन वह आँख बंद कर लेगी, यह बगीचा भी हमेशा-हमेशा के लिये सूख जायेगा।

मन होने पर रहमन मियां, दुःख-सुख, इधर-उधर की बातें भी किया करता था। उसकी पहली बीवी ‘वात’ की बीमारी से उठ-बैठ नहीं पारही थी। वह चिन्ता करने लगता था। सरसी बोलती थी “भईया, भाभी को कहियेगा, मैं आकर हाथ-पांव पर तेल मालिश कर दूंगी।”

“धत्, चमारन! तुझे क्या तेरी भाभी घर में घुसने देगी?”

“हाँ, ठीक, ठीक बोल रहे हो” सिर हिलाती थी सरसी। रहमन पूछता था “तेरे बड़े बेटे की क्या खबर है? नाती-पोता हुआ कि नहीं? पढ़ाई-लिखाई करके बाबू होकर बैठा है। उसको तो माँ-बाप का ख्याल रखना चाहिये।” यह बात सुनने से सरसी की आँखे भर आती थी। एक-एक करके सभी बच्चों के चेहरे याद हो जाते थे। परबा की याद आने से वह व्याकुल हो उठती थी। छाती भर जाती थी। बेटे तो जैसे-तैसे कमाकर अपना पेट भर लेंगे, पर उसकी बेटी परदेश में क्या कर रही होगी? पता नहीं।

सरसी पूछती थी “भईया पिछले सालों में वह जो पठान लड़का आपके गोदाम में आया करता था, उसका अता-पता मुझे दे पायेंगे?”

रहमन को मालूम था सरसी के शक की सब बातें। कहता था किसके बारे में पूछ रही हो? वह जो मुराद, उसके बारे में? अरे! इस लड़के के न कोई आगे है न कोई पीछे। तू उसके पीछे बेकार में लगी हुई है।

अब रहमन मियां के ऊपर भी सरसी को शक पैदा होने लगता था। रहमन की दो बीवियाँ। उसकी बेटी को ले जाकर मुराद के सौतन के गले में तो नहीं बाँध दिया? बड़ी वाली सौतन अगर परबा को खाने को दो मुट्ठी चावल नहीं देती होगी तो? सरसी का मन हुं-हुं करने लगा। “मेरी परबा, मेरी बेटी, कहाँ चली गयी रे तू?”

कभी-कभी बेटी के बारे में सोचते-सोचते पति-पत्नी के बीच झगड़ा शुरु हो जाता था। रोते थे वे। दुख भूलने के लिये सरसी शुरूकानी के पास से महुली खरीद कर पीती थी और अंतरा जाता था कलंदर किसान की दारु की दुकान पर।

वापस आकर दोनों नशे में धुत्त् होकर रोते थे। रोने से नशा और प्रगाढ़ होता था। अंतरा कहता था, देखोगी! एक दिन यह पूरा गांव सूना हो जायेगा। जवान लोग काम खोजने के लिये परदेश गये और लड़कियों को पता नहीं, रातों-रात कोई चुरा कर ले जा रहा है। सवेरा होते ही दो चार लड़किया गायब। देखना, एक दिन यह गांव पूरा का पूरा ठूंठ हो जायेगा।

नशे में रोते-रोते सरसी पूछती है, “रात को कौन ले जाता है इन लड़कियों को?”

“कौन ले जाता है? पता नहीं!” अंतरा खोज नहीं पाता था इसका उत्तर। बातों-बातों में दोनों को नींद आ जाती थी।