पगडंडियों की आहटें / जयनन्दन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं कुबेर प्रसाद। भुखमरी की ज़मीन से चल कर आज वातानुकूलित कक्ष और हवाई जहाज़ तक की यात्रा को मुड़कर देखता हूँ तो पीछे छूटी हुई सारी पगडंडियाँ, कँटीली, सर्पीली, डरावनी, सुहावनी, एक-एक कर उभरने लगती हैं। स्कूली जीवन की पहली ही पगडंडी दंश देनेवाली साबित हुई थी। मैं एक सवर्णबहुल मास्टरों और विद्यार्थियों वाले स्कूल में अक्सर आगे की बेंच से धकियाकर पीछे की बेंच पर पहुँचा दिया जाता था। मैं गलचुटका और सीकिया-सा असहाय दिखनेवाला कमज़ोर लड़का इसका अभ्यस्त हो गया था। मुझे बाउजी ने कहा था कि किसी भी दुत्कार-फटकार और दाँव-पेंच का बुरा नहीं मानना है और सिर्फ़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है। मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे रहा था और कक्षा में अव्वल स्थान पर पहुँच गया था। आंतरिक दशा भले ही अव्यक्त थी लेकिन मन में जातीय सड़ाँध और भेद-भाव पर एक घृणा समाती जा रही थी।

मैं मानकर चल रहा था कि जातीय वैषम्य की हिकारत मुझे स्कूल में प्रोत्साहन और प्रशंसा का कोई अवसर नहीं आने देगी। मैं इसी रेगिस्तान मन:स्थिति में था कि एक मास्टर रितुवरन बाबू की आँखों में मुझे आर्द्रता दिखने लगी। उन्होंने पितृत्व भाव से बुलाकर मुझे कहा कि अगर कुछ समझने में दिक्कत हो तो निस्संकोच मेरे पास आ जाना। तुममें ललक है पढ़ने की और साथ ही स्पार्क भी है आगे बढ़ने की, इसे कम न होने देना।

इसके बाद उन्होंने मेरी हालत देखकर किताबें और कॉपियाँ दीं, मुफ़्त में ट्यूशन दिए, चूतड़ों पर फटे पैंट तथा पेट झाँकते शर्ट को सिलाने के पैसे दिए तथा खाली पैर को कई बार अपनी पुरानी चप्पलें दीं। इन सबसे बढ़कर एक बड़ी चीज़ भी उन्होंने दी और वह था संरक्षण...उन दबंग, शरारती और ज़ालिम लड़कों तथा पक्षपाती-जातिवादी शिक्षकों से जो मुझे चिढ़ाते थे और नीचा दिखाते थे। मैंने उसी समय समझ लिया था कि दुनिया में रितुवरन बाबू जैसे कुछ आला इंसान हमेशा होते हैं जो किसी भी खेमा और सीमा से ऊपर होते हैं। उनकी यह सदाशयता भला टुच्चे लोगों को कहाँ रास आ सकती थी! उनके कद को छोटा करने के लिए एक शरारतपूर्ण चर्चा फैला दी गई कि रितुवरन बाबू ने कुबेरवा को अपना लौंडा बना लिया है। यह दुष्प्रचार एक तेज़ बदबू की तरह फैलते हुए मेरे गाँव में बाउजी तक पहुँच गया। इसमें निहित जातीय पेंच वे समझ गए और बहुत दुखी हुए। उन्होंने मुझे एक पंक्ति की हिदायत दे दी कि इस बदनामी के कीचड़ से निकलने का उपाय यही है कि मन पर पत्थर रखकर मास्टर जी से एक दूरी बना लो। संभवत: उन्होंने रितुवरन बाबू से खुद भी मुलाकात कर ली थी और उनसे हाथ जोड़ लिया था कि मेरे बेटे को इस बदनामी से बख्श दीजिए। कैसी विडंबना थी कि एक बाप किसी कृपालु मास्टर से अपने बेटे को उनकी छत्रछाया में रखने की विनती करने की जगह उनसे अलग रहने का आग्रह कर रहा था। मेरा अंतस एकदम लहूलुहान हो गया। मास्टर जी अपने स्टाफ़ में और मैं अपनी कक्षा में बिल्कुल अलग-थलग और बहिष्कृत-सा हो गया था।

मैंने यहीं से एक बागी भ्रूण अपने दिमाग़ में प्रवेश करते पाया। वह भ्रूण पूरी दास्तान लिखने के लिए मुझे बेचैन करने लगा। चूँकि यह ऐसा प्रसंग था कि मैं किसी से कह भी नहीं सकता था। फिर इस सारे प्रकरण को मैंने रो-रोकर काग़ज़ पर उतारा था, जिस पर स्याही की लकीरें कम थीं और आँसुओं के धब्बे ज़्यादा थे।

मैं अपने उस जाति संक्रमित विद्यालय से मैट्रिक में शामिल डेढ़ सौ छात्रों में अकेला प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था। रितुवरन सर अपनी खुशी व्यक्त करने से खुद को रोक न सके थे और किसी की मार्फ़त मेरे घर पेड़े से भरी एक बड़ी खोचड़ी भिजवा दी थी। मिठाई मेरी पसंदीदा चीज़ कभी न रही, चूँकि अभावों ने मिठाई की सोहबत में जाने के मौके ही नहीं दिए। ज़्यादा क़रीबी नमक-मिर्च से ही रही। ग़रीबों के भोजन में नमक-मिर्च सबसे सुलभ और सस्ता व्यंजन होता है। फिर भी उन पेड़ों ने मुझे एक अजीब अलौकिक आस्वाद दिया था। आज भी, जब उम्र के दो हिस्से बीत चुके हैं और अब मैं गुरबत की ज़िंदगी से लगभग निकल आया हूँ, मिठाई में मेरी बहुत दिलचस्पी नहीं है, उन पेड़ों की जब मुझे याद आ जाती है तो ऐसा लगता है जैसे मैंने उन्हें अभी-अभी खाए हैं। मैं कह सकता हूँ कि वैसी स्वादिष्ट मिठाई मैंने आज तक नहीं खाई।

स्कूल से निकलने के बाद रितुवरन सर से मेरी दोबारा न कभी मुलाक़ात हुई और नाहीं कोई पत्राचार हुआ। लेकिन मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि वे मुझसे दूर हैं। मन में हमेशा उनसे एक अप्रत्यक्ष संवाद जारी रहा। आज भी लगता है कि वे आसपास ही कहीं हैं जो मुझे कदम-कदम पर निर्देशित कर रहे हैं, मेरी सफलताओं और उपलब्धियों पर प्रसन्न हो रहे हैं तथा मेरी बेवकूफ़ियों और ग़लतियों पर फटकार लगा रहे हैं। रितुवरन सर ही मेरे जीवन के पहले और आख़िरी गुरु रहे गए।

अधूरे इंटर तक यानी सिर्फ़ सत्रह साल ही रहा मैं गाँव में...लेकिन इतने ही समय में गाँव ने मुझे इतने जलवे दिखाए कि ये सत्रह साल सत्तर साल जितने अनुभव देने की प्रतीति करा गए। क्या-क्या नहीं भोगा, सहा और झेला मैंने! गाँव में चलने वाले किस मेहनत-मशक्कत और लानत-मलामत के धंधे से मेरा वास्ता न पड़ा! पिता के पाँच भाइयों वाला संयुक्त परिवार जब ईर्ष्या, द्वेष, असहयोग, अविश्वास और नीयत में खोट की ग्रंथियों के कारण बँटने लगा तो डेढ़-दो साल तक घर महाभारत का मैदान बन गया और वहाँ ज़बर्दस्त गाली-गलौज, मारपीट और थूकम-फजीहत का हार्रर दृश्य उपस्थित रहा। बाउजी सबसे बड़े थे, अत: उम्रदराज थे और दुर्बल भी। घर वे ही चलाते रहे थे, इसलिए फटेहाली और भुखमरी का उन्हें ज़िम्मेदार ठहराकर उनके छोटे भाई उन्हें अपने वहशीपन का निशाना बना लेते। बाउजी के निश्छल और बेबस आँसू मेरे भीतर एक बाग़ी तेवर और कठोर सतह सृजित करने लगे। मैंने अपनी छोटी उम्र को बड़ा कर लिया और पिता की तरफ़ से खुद को करारा जवाब बना लिया। अब उनपर किसी भी आक्षेप से मैं सीधी टक्कर लेने लगा। आज सोचकर मुझे ताज्जुब होता है कि उस छोटी उम्र में भी कैसे मैं अपने निष्ठुर चाचाओं से भिड़ जाया करता था!

घर जब बँट गया तो हिस्से में सिर्फ़ डेढ़ बीघा ज़मीन आई और आठ हज़ार का कर्ज़ लद गया। अपने खेत पर आश्रित होकर पूरा साल गुज़ारना मुश्किल था। कम से कम दो बीघा खेत हमें बँटाई के जुगाड़ करने पड़ते थे। मुझे अपनी उम्र थोड़ी और बड़ी कर लेनी पड़ी...अब मैं हल जोत रहा था...लाठा चला रहा था...बोझा ढो रहा था...कुदाल पार रहा था...मड़ुआ, मकई, धान, गेहूँ, सरसों, आलू, करेला आदि बो रहा था...काट रहा था...उन्हें घर ला रहा था...बाज़ार ले जा रहा था।

विडंबना थी कि उन दिनों मेरे गाँव में बँटाई की खेती भी आसानी से उपलब्ध नहीं थी। जिनके खेत थे उनके सौ नखरे उठाने होते थे। गाँव के हज़ारों बीघा ज़मीन एक ही आदमी पूर्व ज़मींदार रऊफ मियाँ के पास थी। इनसे बहुत थोड़ी ही बची ज़मीन गाँव के लोगों में दस-दस, पाँच-पाँच बीघों में बँटी थीं। इसलिए दो-चार को छोड़कर गाँव में ज़्यादातर लोग बँटाईदार थे। रऊफ बाबू अपना ज़्यादातर खेत बराहिल-मुंशी और नौकर-चाकर रखकर खुद ही आबाद करवाते थे तथा रौब एवं धाक बनाए रखने के लिए सौ-दो सौ बीघा बँटाई या मोकर्रिर पर मेहरबानी करने की मुद्रा में बाँट देते थे। इन मेहरबानी की ज़मीनों को हासिल करने के लिए गाँव में होड़ और मारामारी मची रहती थी। मुंशी का भाव बढ़ा रहता था...रऊफ बाबू की जी-हुजूरी एवं चिरौरी में लोग खुद को बिछा देते थे। ज़मींदारी जाने के बाद से रऊफ खुद रांची में रहने लगे थे। साल में सिर्फ़ दो बार गाँव आते थे, एक तो रमजान में पूरे एक महीने के लिए और दूसरा कभी भी अपनी सहूलियत देखकर।

रऊफ बाबू के आने-जाने और ठहरने में ऐसी नफ़ासत और शानो-शौकत समाई होती थी कि तंगी-फटेहाली में रहनेवाले, दुनिया की रईसी और ठाट-बाटवाले जीवन से अपरिचित मुझ जैसे गंवई लड़के उन्हें दूर से कौतूहलपूर्वक देखते और उनके भाग्य पर बहुत ईर्ष्या करते रहते। रऊफ साहब बहुत मोटे-थुलथुले थे। मोटा आदमी उन दिनों मुझे बहुत अच्छा लगता था। मैं सोचता था कि मोटा आदमी होना एक गौरव की बात है जो बहुत पौष्टिक, महँगा और बढ़िया भोजन करने से ही मुमकिन होता होगा। मुझे अपने इस दुर्भाग्य पर कोफ्त होती थी कि हमें ज़्यादातर मडुआ-खेसाड़ी जैसे मोटे और सारहीन अनाज खाने होते हैं, अत: ऐसा मोटा होने का सौभाग्य हमें कभी नहीं मिल सकता। रऊफ बाबू को कई नौकर-चाकर मिलकर कार से उतारते और चढ़ाते थे। वे अपने इस्टेट के भव्य दालान में गलीचोंवाली एक आलीशान आरामकुर्सी पर बिठाए जाते थे। बाबर्चीखाने में कई खानसामों की सक्रियता बढ़ जाती थी। पूरा गाँव घी, मसाले और सालन की तेज़ गंध से गमगमा जाता था। किसी के लिए यह खुशबू साबित होती थी तो किसी के लिए बदबू।

गाँव के प्राय: लोग हिंदू-मुसलमान सभी उन्हें सलाम करने जाते थे। ख़ासकर वे जिन्हें मुकर्रिर या बँटाई पर खेत चाहिए होते थे। वहाँ हरेक को अपना दुखड़ा रोकर फरियाद करना पड़ता था, जैसे कोई खैरात माँगने आए हों। मुंशी की जिसे तरफ़दारी मिल जाती थी उस पर रऊफ बाबू पसीज जाते थे।

घर बँटने के बाद मजबूरन बाउजी भी पहली बार सलाम करने गए थे। मुंशी ने पता नहीं किस खुंदक की वजह से पक्ष लेने की जगह लंघी मार दी थी। कहा था, इससे खेती नहीं होगी हुजूर, देह में ताकत कहाँ है इसके पास। देखिए न कैसा सुखंडी लगता है। बाउजी ने घिघियाते हुए कहा था, मेरा बेटा है सरकार...वह सब काम कर लेता है। मुंशी ने भेड़िए और मेंमने की कहावत चरितार्थ करते हुए फिर लंगड़ी लगा दी थी, इसका बेटा तो अभी बहुत छोटा है हुजूर। ऐसे भी यह आदमी ठीक नहीं है। इसका बैल पिछले महीने हमारे एक कट्ठा गेहूँ चर गया था।`` रऊफ ने बाउजी को खा जानेवाली नज़रों से घूरते हुए हिकारत से कहा था, क्यों बे मरदूद, बैल को बाँधकर रखने में क्या तेरे हाथ की मेंहदी छूटती है? आइंदा ऐसी शिकायत मिली तो हाथ-पैर तुड़वाकर रख दूँगा....जा भाग हरामी यहाँ से।

बाउजी बहुत अपमानित और उदास होकर घर लौटे थे और बड़े भारी मन से मुंशी की मक्कारी का बयान करते हुए कहा था, चलो हम तो इसी में संतुष्ट हैं कि बाबू साहेब ने हमें ज़्यादा जलील नहीं किया। बाउजी की सरलता और मासूमियत पर मैं अचंभित रह गया था...भला वह दुष्ट और क्या ज़लील करता! यों मुझे पता था कि रऊफ मियाँ खुद को गाँव का भाग्य-विधाता समझता है और अभी भी हुक्मरान वाले रौब में जीता है। किसी के खिलाफ़ अगर उसके पास चोरी, बेईमानी या छिछोरेपन की शिकायत मिल जाती, ख़ासकर अपने बँटाईदारों अथवा जन-मजूरों की, तो वह उन्हें बँधवाकर जूते एवं कोड़े तक लगवा देता था। मैं अपने हमउम्र लड़कों के साथ सहमा-डरा दूर से वह हौलनाक नज़ारा देखता रहता था। मुझे उसकी वह कार्रवाई बहुत बर्बरतापूर्ण और नृशंस लगती थी। बाउजी के साथ उसने जो बर्ताव किया था, उसके बाद तो उससे मुझे सख़्त घृणा हो गई थी।

उसी रोज़ रात की निस्तब्धता में उसकी कार के सामनेवाले शीशे पर किसी ने एक ज़ोरदार पत्थर दे मारा था। शीशा टूटने की झन्न की आवाज़ सुनते ही उसके अर्दलियों और बराहिलों ने काफ़ी भाग-दौड़ शुरू कर दी थी, पर कोई पकड़ा न जा सका था। सुबह गाँव के मुख्य-मुख्य लोगों को बुलाकर रऊफ मियाँ ने खूब गाली-गलौज की थी और भरपूर लथाड़ लगाई थी। गर्दन झुकाकर सब सुनते रहे थे। इस अनर्गल फजीहत के खिलाफ़ किसी को होंठ तक फड़फड़ाने की हिम्मत नहीं हुई थी।

पत्थर किसने चलाया, किसी को ज्ञात न हो सका। आज तक वह राज़ ही रह गया। आज मैं उस राज़ को उज़ागर कर रहा हूँ कि कार पर पत्थर मैंने चलाया था। किसी जुल्म के खिलाफ़ यह मेरा पहला प्रतिरोध था, जिसकी कहानी काग़ज़ पर नहीं वायुमंडल में उसी समय दर्ज़ हो गई थी। आज वायुमंडल से निकालकर मैं उसे काग़ज़ पर लिख रहा हूँ।

बुढ़ापे और बीमारी के चलते जब रऊफ मियाँ की अशक्तता बढ़ती गई तो हर चीज़ पर उनकी पकड़ ढीली होती गई। उनके भाई-भतीजे आपाधापी करके लूट-खसोट मचाने लगे और ज़मीनों पर कब्ज़ा जमा करके उन्हें औने-पौने बेचने भी लगे। गाँव में जो ख़रीदने लायक था उसकी चाँदी हो गई।

सबसे ज़्यादा ज़मीन जगदीश गोप ने ख़रीद ली और देखते ही देखते गाँव का वह एक बड़ा काश्तकार बन गया। अब गाँव पर रौब और हैकड़ी गाँठने का उसने खुद को एक अधिकृत सरगना बना लिया। वह अपनी धाक इस तरह फैलाता गया कि लोग उसे रऊफ मियाँ से भी खूंखार और बहशी समझने लगे। गाँव में कोई भी ज़मीन ख़रीदता या नया घर बनाता, उसकी छाती दुखने लगती। गाँव में वह एकछत्र बड़ा आदमी बनकर रहना चाहता था। कोई एक कोठरी भी उठाए तो यथासंभव टाँग अड़ाने का वह कोई न कोई बहाना ढूंढ लेता था।

घर बँटने के बाद बाउजी भी जैसे-तैसे दो कोठरी उठाने की जुगत में लग गए थे। जगदीश के पेट की मरोड़ शुरू हो गई थी। वह दसियों बार कोई न कोई नुक्स निकालकर लफड़ा खड़ा किए रहा और इस प्रकार हमें दो कोठरी उठाने में दो बरस से भी ज़्यादा वक्त लग गया। हम दोनों बाप-बेटे तंग-तंग हो गए। मैं उससे बेइंतहा नफ़रत करने लगा था, लेकिन अफ़सोस कि मैं उसका कुछ भी बिगाड़ने के लायक नहीं था। मैं क्या पूरे गाँव में आज तक कोई उसका कुछ न कर सका। जबकि शायद ही कोई छाती छूटी हो जिस पर उसने मूँग न दली हो। क्रूरता और तानाशाही वरतने में वह रऊफ मियाँ से कई गुना आगे निकल आया।

अपने घर में ही एक पट्टीदार चाचा के दो लड़कों को उसने गायब करवा दिया ताकि घर-खेत में उन्हें हिस्सा-बखरा न देना पड़े। उसके एक अन्य चाचा के जो दो-एक लड़के किसी तरह बच गए, उन्हें भी मार-पीट और लांछित-प्रताड़ित करते हुए विभिन्न मुकदमों में फँसवाकर उसने पस्त करवा दिया और फिर ख़ैरात देने की तरह टांड़-टिकुल में कुछ ज़मीन दे दीं।

खेत कब्जाने का तो जैसे उस पर नशा छा गया था। जैतुनियाँ मसोमात की बारह कट्ठा ज़मीन पर उसने ज़बर्दस्ती हल चढ़ा दिया। बेचारी को वह ज़मीन रऊफ मियाँ के एक दामाद ने उसकी बीमार बेगम की घनघोर तीमारदारी करने के एवज़ में उसे बतौर बख़्शीश दी थी।

रऊफ के हल जोतनेवाले कुछ हरिजन मजूरों ने उनकी दो बीघा ज़मीन पर अपनी विनम्र दावेदारी रोप दी थी कि ज़िंदगी भर उन लोगों ने उनकी चाकरी की...अब जब सारा कुछ बिक रहा है तो वे कहाँ जाएँगे और कैसे गुज़ारा करेंगे? रऊफ मियाँ के बेटों और कतिपय रिश्तेदारों की इस कार्रवाई पर मूक सहमति थी...चलो, जाने दो, दो बीघा की तो बात है, सब दिन गुलामी की है बेचारों ने, सिर छुपाने की झोपड़ी तो कम से कम बना लेंगे।

जगदीश को भला कहाँ हज़म होनेवाली थी यह उदारता! उसने इस सहानुभूतिपूर्ण दावेदारी पर भी अपना अतिक्रमण जाल बिछा दिया। रऊफ के एक बहनोई को पटाकर उसने उसका दस्तखत ख़रीद लिया, जबकि बहनोई का इस पर कोई हक नहीं था। मगर उसे तो बस एक पेंच चाहिए था। लड़ाई बहुत दिनों तक चलती रही। कभी उस ज़मीन पर लगी फसल हरिजन काट लेते...कभी भाड़े के गुर्गे की मदद से जगदीश काट लेता। अंतत: जगदीश ने मामला अदालत में पहुँचा दिया। सुनवाई चल रही है...वर्षों गुज़र गए सुनवाई अब भी पूरी नहीं हुई।

उस ज़मीन पर आज भी हरिजनों के कब्ज़े की और गाँव की छाती पर बैठे जगदीश जैसे असुर के संहार की मुझे प्रतीक्षा है। अगर ऐसा हुआ तो जीवन की चंद हसीन खुशियों में से यह मेरे लिए एक बड़ी हसीन खुशी होगी। उसे जब वाजिब सज़ा मिल जाएगी तभी मैं गाँव में अपनी दो कोठरी बन जाने का इत्मीनान कर पाऊँगा। अन्यथा अब भी मुझे अपना घर अधबना लगता है और गाँव में जाकर भी मुझे उसमें ठहरना अच्छा नहीं लगता। बाउजी अब रहे नहीं, वहाँ सिर्फ़ माँ रहती है, वह भी माटी के पुराने घर में। अपनी बहू से वह त्रस्त और आतंकित न होती तो माँ को मैं अपने साथ ही रखता और जगदीश की छाया तक उस पर पड़ने नहीं देता।

जगदीश ने एक और बड़ा कहर ढाया था जो याद आकर मेरे दिमाग़ पर हथौड़े की तरह चोट करता है। गाँव में एक नौटंकी टीम थी जिसका नेतृत्व रफू मियाँ करता था। रफू मियाँ मेरी ही औक़ात का एक मामूली आदमी था, जो राजमिस्त्री का पेशा करके अपनी रोटी चलाता था। हमलोग अकसर छठ पूजा के समय तीन रात नौटंकी का आयोजन करते थे। हमारी टीम पूरे इलाके में मशहूर थी और हमारे शो देखने वालों की भारी भीड़ उमड़ पड़ती थी। रफू मियाँ हमारा डायरेक्टर था। वह एक हरफ़न मौला कलाकार था। वह नगाड़ा भी बजा लेता था, हारमोनियम भी और अभिनय भी कर लेता था। बहरेतवील, चौपाई, दौड़, दोहा, कजरी आदि कहने का ढंग हमें वही सिखाता था। नथाराम गौड़ और कृष्ण पहलवान की लिखी नौटंकी उसकी ख़ास पसंद थी। हमलोग कई बार नौटंकी खेलने दूसरे गाँवों द्वारा सट्टे पर बुलाए जाते थे। उस समय तक दाढ़ी मूँछ नहीं होने की वजह से रफू मियाँ अक्सर मुझे जनानी पाठ दे दिया करता था।

नौटंकी चूँकि रात भर चलती थी, इसलिए लोगों को बाँधे रखने के लिए बीच-बीच में प्रहसन एवं लौंडा-नाच की व्यवस्था भी रखनी पड़ती थी। रफू अगर मुख्य भूमिका में नहीं होता था तो प्रहसन (कौमिक) करने एवं लौंडे के साथ जोकरई करने की ज़िम्मेदारी उसी की होती थी। वह हँसाने-गुदगुदाने की कला में गज़ब का कमाल रखता था। गाँव की सामयिक घटनाओं पर प्रहसन के बहाने वह धारदार व्यंग्य कर लेता था। जगदीश के चरित्र और रवैये पर उसने एक प्रहसन रच लिया। इस प्रहसन में जगदीश को जगढीठ कहते हुए बताया गया कि इसने अमेरिका के राष्ट्रपति से गाँव की बगलवाली सकरी नदी को अपने नाम लिखवा लिया है। लिहाज़ा अब यह नदी इसकी व्यक्तिगत संपत्ति है। गाँव का कोई भी आदमी अब नदी में स्नान-ध्यान या दिशा-फरागत करने के लिए नहीं जा सकता।

इस प्रहसन का लोग हँसी से लोट-पोट होकर आनंद उठा रहे थे। इसी बीच जगदीश ग़ुस्से से आग बबूला होकर मंच पर चढ़ आया और सारे दर्शकों के सामने अपने जूते निकालकर रफ़ू मियाँ को पीटने लगा। नौटंकीवाले हम सभी लड़के भौचक्के रह गए। क्या करें...क्या न करें, इस पशोपेश में घिरे ही थे तभी दर्शकों के एक समूह की ओर से प्रतिकार में जगदीश पर कुछ रोड़े-पत्थर बरसने लगे और उसे भागना पड़ा। नौटंकी यहीं रुक गई और ऐसी रुकी कि फिर कभी शुरू नहीं हुई। गाँव को जोड़ने के लिए जो एक सांस्कृतिक आयोजन की परंपरा थी, वह अंतिम रूप से ख़त्म हो गई। रफ़ू मियाँ ने अब नौटंकी से मुँह मोड़ लिया। गाँव की समरसता और सामाजिक सौहार्द्य के लिए यह एक बड़ी क्षति थी। लेकिन सुर-ताल रफ़ू की साँसों में बसा था, अत: वह इससे अलग नहीं रह सकता था। लिहाज़ा अपने गाँव में कभी प्रदर्शन न करने की शपथ लेकर दूर जाकर प्रदर्शन करने के मंसूबे के साथ उसने एक नाच पार्टी बना ली जिसमें हमारे हाई स्कूल के चपरासी गनौरी कान्हू का बेटा सौखी नचनिया बन गया। सौखी ने आगे चलकर पूरे ज़िले में काफ़ी नाम कमाया।

गाँव की ये कुछ ऐसी घटनायें थीं जिनसे मेरा पूरा जीवन प्रभावित रहा। मैं यह मान चुका था कि गाँव मेरी तक़दीर है, जो जैसा भी श्याम-श्वेत है, मुझसे अलग नहीं हो सकता। लेकिन अप्रत्याशित रूप से नियति को शायद मुझ पर तरस आ गया और उसने मुझे तकलीफ़ों के भँवर से निकाल कर शहर में आने का मौका दे दिया। एक प्रतियोगिता परीक्षा पास करने में मैंने सफलता पाई और सिजुआ (धनबाद) की एक कोलियरी में मेकेनिकल अप्रेंटिस में मेरी बहाली हो गई। आज मैं सोचता हूँ कि अगर मुझे यह अवसर न मिला होता और गाँव में रहने को ही मुझे मजबूर होना पड़ता तो क्या मैं यों ही शांत, शरीफ़ और चुपचाप बना रहता? मुझे बाउजी या अन्य परिवारजनों की तरह भूख ज़्यादा बर्दाश्त नहीं होती थी। मुझे वे लोग आँख में बहुत चुभते थे जिनके घर में इफ़रात अन्न रखे हुए सड़ रहे होते थे अथवा जिनके अनगिनत खेतों में फसलें लहलहा रही होती थीं। इस मानसिकता में ज़ाहिर है या तो डकैती या फिर नक्सलवाद का रास्ता मुझे बहुत आकर्षित करता था।

मैं शहर आ गया, यह मेरी अद्भुत कायापलट थी। अब मैं जूते पहन सकता था, रोज़ साबुन लगा सकता था, पतलून पहन सकता था, हर दिन चपाती और चावल खा सकता था। मुझे वे दिन नहीं भूलते कि मैं एक मटमैला पाजामा, एक घिसा हुआ बुशर्ट और एक टुटही हवाई चप्पल पहनकर लिखित परीक्षा देने आया था और अपने गोतिया घर के एक चचेरे भाई के यहाँ ठहरा था। मेरा हुलिया देखकर मेरे भाई को कतई उम्मीद नहीं थी कि मैं किसी प्रतियोगिता परीक्षा में पास हो सकता हूँ। उसके अनुमान को धत्ता बताते हुए रिटेन में मैं पास हो गया। मेरा वह भाई अचंभित रह गया। उसके पास-पड़ोस में उसके कई साथियों के साले और भाई आदि कई महीनों से यहाँ रहकर तैयारी कर रहे थे और वे पास नहीं हो सके थे। भाई की आँखों में मेरे लिए गर्व उभर आया था। उसने इंटरव्यू में बैठने के लिए मुझे अपनी पतलून और शर्ट दी, ताकि मैं ज़रा ठीक-ठाक और थोड़ा स्मार्ट दिखूँ। मेरे दिमाग़ में उस पतलून और शर्ट के रंग स्थायी रूप से दर्ज़ हो गए थे, चूँकि मेरे जिस्म पर चढ़नेवाली वह जीवन की पहली पतलून और शर्ट थी, जो पहले की पहनी हुई और उधार की थीं। मैं अपने उस भाई का आज भी कर्ज़दार हूँ।

शहर में एक साल तक मुझे एकदम मन नहीं लगा था और गाँव मुझे बेतरह याद आता रहा था। रोज़ शाम होते-होते मुझे ऐसा लगता था कि आज मैं निश्चित रूप से गाँव वापस लौट जाऊँगा। अब माटी जोतने-कोड़ने वाले हाथ लोहे छिलने, काटने और तराशने के हुनर सीखने लगे थे।

गाँव की तरह अब कारखाने की नब्ज़, नीयत, नाइंसाफ़ी और नासूर मैं पहचानने लगा था। मैंने बीस वर्षों तक लेथ, शेपर, स्लॉटर, ड्रिलर, ग्राइंडर आदि मशीनों पर लोहे छिले। मशीनों के शोर में दबे और दफ्न हुए कई ऐसे किरदार मुझे मिले जो भुलाए नहीं भूलते और मन में एक जुगनू की तरह हमेशा टिमटिमाते रहते हैं।

मैंने गाँव की तरह कारखाने और कोलियरी को भी अपनी तक़दीर मान लिया था, लेकिन जैसे गाँव से मुझे मुक्ति मिल गई, वैसे ही कारखाना और कोलियरी ने भी अपनी जकड़न से मुझे मुक्त कर दिया। वहाँ मुझ जैसे लोगों के लिए आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं था। एक बार आपने मज़दूर में नाम लिखा लिया तो फिर उम्र भर पसीने, कालिख और कड़े शारीरिक श्रम का दायरा ही आपकी नियति बन गया। अगर आपकी कोई सिफ़ारिश नहीं है या किसी बड़े साहब के आप रिश्तेदार नहीं हैं तो आपका कुछ नहीं हो सकता। मैं वहाँ व्याप्त नाइंसाफ़ियों और अनियमितताओं से जूझने के लिए यूनियन का चुनाव लड़ने लगा और एक बड़े जन-समर्थन की तरफ़ बढ़ने लगा।

वहाँ का एक पुराना दबंग यूनियन नेता मुझे अपने अस्तित्व पर ख़तरा समझने लगा और खुद को सुरक्षित रखने के लिए मेरा वहाँ से एक ऑफ़िस में तबादला करवा दिया। मेरे लिए तो यह तबादला एक लॉटरी साबित हुआ, लेकिन मुझे समर्थन देने वाले साथियों-सहकर्मियों पर यह बहुत नागवार गुज़रा। उन्होंने यही समझा कि यूनियन से अलग होने के लिए मुझे कीमत दी जा रही है, यानी मै बिक गया हूँ।

ख़ैर जो भी हो, एक चमत्कार की तरह पसीने, कालिख और शोर-शराबे से निकलकर मैं इत्मीनान एवं चमक-दमक से परिपूर्ण एक वातानुकूलित चौहद्दी में पहुँच गया। लोहे छिलने, काटने और तराशने वाले हाथ को अब कलम पकड़ने की ऑफ़िशियल मान्यता मिल गई थी। यहाँ मुझे प्रेस विज्ञप्ति आदि बनाने का काम सौंपा गया। मतलब मुझे अब तनख़्वाह कलम की बदौलत मिलने जा रही थी। गाँव से शहर आने के बाद मैंने प्राइवेट से एम. ए. तक पढ़ाई पूरी कर ली थी, जो आज नई जगह पर काम आ गई थी।

ऑफ़िस की चकाचौंध ने मेरी आँखें चुंधिया दी थी। यह एक तरह से सलमा-सितारों की एक आलीशान दुनिया थी, जहाँ सुख, वैभव और ठाट की सरिता में सारा कुछ सुंदर ही सुंदर और मादक ही मादक था। एकबारगी मुझे ऐसा लगा कि यहाँ किसी भी असहमति, द्वंद्व या शिकायत की कोई गुँजाइश नहीं रह गई। मगर इस मुग्धावस्था और यूटोपिया में थोड़े ही दिन बीते होंगे कि सलमा-सितारों वाली इस दुनिया की आंतरिक बदसूरती नग्न होकर मुझे दिखाई पड़ने लगी। मेरा मन दहल उठा। मैं समझ सकता था कि पसीने और कालिख वाले लोग कठोर श्रम द्वारा उत्पादन में ईमानदार भागीदारी शामिल करके अंदर से पूरी तरह श्वेत और स्वच्छ थे, जबकि यहाँ के गैरउत्पादक लोग कंपनी का भला करने के नाम पर ज़्यादातर उसे नुकसान पहुँचाते हुए अंदर से काले और गंदे थे। हम बहुत छोटे पद के लोग भी स्पष्ट देख रहे थे कि यहाँ एक भयानक लूट, अराजकता, व्यभिचार और निकम्मापन फैला है। महिला कर्मचारियों के उपयोग एवं प्रोन्नति के मामले में भी यहाँ एक विचित्र तरह की दुराचारसंहिता लागू थी।

मैं वहाँ मज़दूर होकर लोहा छिलने के दौरान मैनेजमेंट को नीचे से देख रहा था और इस हाई प्रोफ़ाइल तथा ग्लैमरस विभाग में आकर मैनेजमेंट को ऊपर से देखने लगा था। मैं हैरान था - नैतिकता, उसूल और सेवा के मेकअप लिए हुए प्रबंधन के चेहरे बहुत सारे धब्बे, दाग और गड्ढों से भरे हुए थे।

मेरे साथ पता नहीं ऐसा क्यों है कि परिस्थियाँ लंबे अंतराल तक अनुकूल कभी नहीं रहीं। प्रतिकूलताओं में ही ज़्यादातर बसर करना मेरा नसीब रहा। बाहर तो मुझे कई तल्खियों से गुज़रना पड़ा ही, घर ने भी मुझे नहीं बख़्शा। प्रारब्ध के इस गणित का क्या कहा जाए कि जब आप बेहद ग़रीबी में थे तो ख़ैर फाँकाकशी करनी ही पड़ती थी...आज जब आपके पास अपना घर है और घर में सब कुछ है, फिर भी जब आप बाहर से लौटें तो घर की बत्तियाँ बुझी हों...दरवाज़े अनसुना करके बंद रहें और रसोई के चूल्हे ठंढे हों।

आज मैं कह सकता हूँ कि ये सारे तरद्दुद, जो मेरे साथ घटित हुए और जिन्हें मैंने सहे, तो इससे ऐसा नहीं है कि मैंने कोई असाधारण आचरण जीकर बहुत सहनशीलता का परिचय प्रस्तुत कर दिया, बल्कि सच यह है कि जोख़िम उठाने के प्रति मुझमें साहस का बराबर अभाव रहा कि जो मिला हुआ है कहीं वह भी छिन न जाए। गाँव वाली तकलीफ़ें अब भी मुझे याद आकर डरा जाती थीं। यह डर ही था कि मैं अपनी पेशागत और पारिवारिक यथास्थिति को बदल न सका।

बुरा हो मेरे आसपास की आवोहवा और तहजीब-तरक़ीब का कि स्त्री की चारित्रिक रहस्यमयता और उसकी बौद्धिक हदों ने मुझे एक भी मौके नहीं दिए कि स्त्री के बारे में मैं एक अच्छी धारणा बना सकूँ। पत्नी ही नहीं, माँ, बहन, चाची, मौसी आदि रिश्तों की भी कोई अच्छी नसीहतें मैं हासिल नहीं कर सका। प्रेम की तलाश ने मुझे बहुत भटकाया...बहुत थकाया। स्त्री की वह सनातन छवि कि वह अपने हरेक रूप में दयामयी, ममतामयी, स्नेहमयी, तरल, उदार और शुभेच्छू होती है, मैं ढूंढता रहा हर मोड़ पर, हर गली में। मैं अपनी माँ का इकलौता बेटा...माँ मुझे ज़रूर ही बहुत प्यार करती रही होगी...लेकिन मैं अपनी स्मृति में उसके वात्सल्य का कोई एक भी सघन पल ढूंढ नहीं पाता। माँ के रूप में जो तस्वीर उभरती है मेरे अंदर...उसमें उसका हमेशा बीमार रहना...बिस्तर पर पड़ा रहना...देह जतवाने का अहर्निश अनुरोध करना...दवा की शीशियों में उलझी रहना और बाउजी से हरदम पैसों के लिए खिच-खिच करना आदि ही शामिल है। मेरे ठिठके-ठिठुरे शैशव को प्यार-दुलार की थोड़ी मेंह मिल सकी तो उसे बाउजी ने ही दिया।

स्त्री के रूप में एक और सहोदर रिश्ता दीदी का उपस्थित था। मुझे क्लेश होता है यह लिखते हुए कि दीदी के साथ भी कोई घनिष्ठ और सुखद लम्हा मेरी स्मृति में कायम नहीं है। याद पड़ता है कि ज़्यादातर हम एक-दूसरे को मारते-पीटते ही रहते थे। दीदी ने एकबार मुझे ऐसा दौड़ाया था कि मैं संयुक्त परिवारवाले एक वीरान आँगन के अनुपयोगी कुएँ में गिर गया था। दीदी ने किसी को इसकी ख़बर तक नहीं की, शायद डर से। लेकिन मेरा बचना बदा था। कुछ डूबने-उपराने के बाद मैं एक लोहे की कुंडी को पकड़ लेने में कामयाब हो गया। जोर से हाँक लगाई तो दादी ने आकर मुझे बाहर निकाला।

घर में चाचियों को या आस-पड़ोस की जनानियों को देखता था तो वे अक्सर किसी न किसी से गाली-गलौज, उकटा-पुरान, थूकम-फजीहत और चुगली-शिकायत में मसरूफ़ दिखती थीं। नारीगत करुणा और कोमलता की छाया उनमें कहीं से भी लेश मात्र प्रतिबिंबित नहीं थी।

गाँव में रागात्मकता या प्रेम का एक नन्हा ठौर मुझे मिला था, मगर उसकी मियाद बहुत छोटी थी। अस्मां आठवीं में पढ़ती थी और मैं मैट्रिक पास कर चुका था। उसके मामा ने मुझमें ट्यूशन पढ़ाने की काबिलयत देख ली। वे बड़े लोग थे। मुझे पता भी नहीं चला कि ज़रा-सी आत्मीयता के लिए खानाबदोश-से भटकते मेरे हृदय को कब अस्मां ने अपने हृदय में एक खास जगह दे दी। उसने मेरे लिए अपने हाथों से एक कमीज़ सिली थी। मैं हैरत में था कि घर की भीड़-भाड़ में रहकर उसने कैसे इतना एकांत ढूंढ लिया! दोस्ती कायम होने के बाद जब पहली ईद आयी तो वह बुखार में थी और नमाज़ पढ़ना उसके लिए मुमकिन नहीं था। उसने फिर भी नमाज़ नहीं छोड़ी। मेरे बहुत पूछने पर उसने बताया कि इस बार उसे एक बड़ी और ख़ास मुराद के लिए दुआ माँगनी थी और वह मुराद यह थी कि खुदा मुझे यानी कुबेर प्रसाद को ग़रीबी और गुरबत से निकालकर एक अच्छी जिंदगी बख्शे।

शायद सच्चे दिल से निकली हुई अस्मां की वह दुआ ही थी जो मुझे फल गई और मैं गाँव से शहर आ गया। जब उससे आखिरी विदाई ले रहा था तो वह मुस्कराने की कोशिश कर रही थी, मगर उसकी आंखों से जार-जार आंसू बह रहे थे। जुदाई की यह पहली चुभन थी जिसे मैंने जिगर में महसूस किया था। अपनी रुलाई भी मुझसे थम न सकी थी। जानता था कि अस्मां से यह मेरी आखिरी मुलाकात है। आगे गाँव आकर भी उससे मिलना संभव नहीं हो सकता था। चूँकि पर्दे में रहने के रिवाज़ की वह पाबंद थी जिसे बेधने का मेरे पास कोई बहाना नहीं हो सकता था।

इसके बाद लंबे समय तक एक रिक्तता, उचाटपन और नीरसता बनी रही। मेरी बीमार मां ने अपनी सुश्रुषा कराने की चाहत से, अपने मायकेवालों के बहकावे-फुसलावे में आकर, बहुत कम ही उम्र में एक ऐसी जगह मेरे कुंवारेपन को हलाल कर दिया जिसकी शिष्टाचार, शिक्षा और संस्कृति से पुश्तैनी दुश्मनी थी। शुरू से ही संशय, अविश्वास और मूर्खता के अटपटे और अनाड़ी तीर चल-चलकर मुझे बींधने लगे और दाम्पत्य एक गलीज अदावत बन गया और घर एक बदबूदार मछली बाजार। आज सोचकर बड़ा ताज्जुब होता है कि अदावत और मछली बाजार सदृश दोजख में भी एक-एक कर चार बच्चे हो गये। इसे ही कहते हैं बिना किसी पसंद-नापसंद के कहीं भी एषणा को बुझा लेने का पागलपन। बहरहाल, ये बच्चे खटारा दांपत्य को भी चलाते रहने की एक अनिवार्य शर्त बनते गए। आज भी हम उसी दांपत्य के जर्जर धागे से बंधे हैं तो इसका श्रेय इन बच्चों को ही जाता है।

मैं यह मान चुका था कि प्रेम और मैत्री का अवसर बार-बार नहीं मिलता। मुझे एकबार मिल चुका जिसे मैंने यों ही गँवा दिया। मगर शायद बर्बादियों के कुछ और मंज़र दिखाने के लिए भूकंप के कुछ और झटके अभी बाकी थे। मन में तो कहीं एक खालीपन था ही...एक चाह थी ही कि किसी से खूब अंतरंगता होती, एक दूसरे के दुख-सुख में साझीदार होते, एक-दूसरे के हम राज़दार होते...एक-दूसरे पर हम पूरी तरह निछावर होते। मेरी यह चिरसंचित आकांक्षा थी कि सृष्टि के तमाम मर्दजात जिस औरतजात के लिए मरते, मिटते और पागल होते रहे हैं, उस औरत सदृश बहुआयामी और बहुअर्थी महाकाव्य को मैं एकदम पास से पूर्णता में पढ़ सकूं, समझ सकूं, महसूस कर सकूं...उसकी कोमलता, उसका सौंदर्य, उसकी अदायें, उसकी भंगिमायें, उसका मातृत्व, उसका त्रियाहठ, उसका सम्मोहन, उसमें बसा प्रेमतत्त्व...। मैं औरत के बारे में अपनी राय ईमानदारी से बदलना चाहता था।

अफसोस, मैं कामयाब न हो सका। शायद मुझमें ही कोई खोट रही हो। अपने पति से संबंध विच्छेद कर लेने वाली एक बोल्ड सी विदुषी महिला से मेरी नजदीकी बढ़ गयी। लगा कि तलाश पूरी हो गयी। मैं इस खुशफहमी में एक साल ही रहा हूंगा कि अचानक उसकी तरफ से उत्साह मंद पड़ने लगा और उसकी रुचि भटकने लगी। हैरान रह गया जानकर कि प्रेम की उसकी परिभाषा में निर्वाह के समय की परिधि उतना ही तय है, जितना में ऊब महसूस न हो। उसके अनुसार प्रेम के नाम पर तमाम उम्र का समर्पण एक बोरियत भरी बेवकूफी है।

मैंने देखा कि उसमें अनेक गाँठें हैं, एक खोलो तो दूसरे में उलझ जाओ...अनेक चौराहे हैं, एक रास्ते जाओ तो पता चले कि गंतव्य दूसरे रास्ते में शिफ्ट हो गया...अनेक मुखौटे हैं, एक से परिचय बढ़ाओ तो दूसरा मुखौटा अपरिचय लेकर हाज़िर। स्थिति मेरी आज भी यही है कि मैं अब भी गाँठों में उलझा हूँ, चौराहे पर उजबक बना गंतव्य तलाश रहा हूँ और मुखौटों के भीतर झाँककर उसकी असलियत चिन्हने की कोशिश कर रहा हूँ। मुझे पता है कि मैं अपने मकसद में कभी कामयाब नहीं हो पाऊँगा, फिर भी मृगतृष्णा कम नहीं होती। मैं रेगिस्तान में दौड़ रहा हूँ और दौड़ता चला जा रहा हूँ...।