पञ्च पल्लव: (काव्य-विविधा) / पूनम चौधरी
'पञ्च पल्लव' समकालीन भारतीय परिवेश की धड़कनों, उसकी व्यथा, उसकी विडंबनाओं और उसके भीतर पलते प्रतिरोध को जीवंत अभिव्यक्ति देने वाला काव्य संग्रह है पाँच काव्य-विधाओं के प्रयोग से इस काव्य संग्रह का ताना-बाना बुना गया है। यह संग्रह कई दृष्टियों से विशेष महनीय है, विधागत प्रयोग की दृष्टि से यह एक अभिनव और विशिष्ट प्रयोग है। इस संग्रह में संकलित काव्यांश विविध काव्य विधाओं जैसे हाइकु, माहिया, ताँका, सेदोका और क्षणिकाओं में रचे गए हैं, यह सभी काव्य विधाएँ विशिष्ट और प्रयोग की दृष्टि से हिन्दी काव्य-जगत् के लिए नई है जिनमें कवि रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु जी' ने मानवीय जीवन के यथार्थ को अत्यंत सूक्ष्मता और संवेदनशीलता से उकेरा है।
यह संग्रह कई रूपों में विशेष महत्त्व रखता है, ये विधागत प्रयोग की दृष्टि से विशेष है ही साथ ही भाषा, संवेदना और शिल्प की दृष्टि से भी एक साहसी और ज़िम्मेदार दस्तावेज है। इस पूरे काव्य संग्रह में कवि का दृष्टिकोण न तो पूर्णतः रसवादी है न ही पूर्णतः विमर्शात्मक;–बल्कि वह बहुत बारीकी से दोनों का संयोजन कर लेते हैं। कविता एक और जहाँ सामाजिक विकृतियों और अव्यवस्थाओं पर तीखे सवाल उठाती है वही मानवीय करुणा और मानवीय जीवन के यथार्थ को पूरी गरिमा के साथ रेखांकित करती है। कवि की दृष्टि पूरे संग्रह में स्पष्ट और विवेक पूर्ण रूप से उभरती है।
काव्य की दृष्टि से 'पञ्च पल्लव' में अभिव्यक्ति की अत्यंत संक्षिप्त विधाओं का प्रयोग हुआ है; लेकिन उनकी भाषा, अर्थवत्ता और भावगर्भिता असाधारण है। कवि ने कम शब्दों में अधिकतम अनुभूति, अर्थ और प्रभाव को समाहित किया है।
'पञ्च पल्लव' की कविताओं में व्यंग्य गहरा है; लेकिन वह सतही नहीं है। यह व्यंग्य उत्तेजित नहीं करता; बल्कि झकझोरता है। यह परिहास नहीं; बल्कि आत्ममंथन की पीड़ा देता है। काम्बोज जी की कविताओं का कथ्य ही नहीं; बल्कि भाषा की सादगी और तीव्रता भी ध्यान देने योग्य है। रचनाकार क्लिष्ट प्रतीकों की जगह आम आदमी की भाषा में असाधारण प्रभाव उत्पन्न करता है।
'पञ्च पल्लव' का सबसे बड़ा योगदान यह है कि वह कविता को उसकी वास्तविक भूमिका में पुनः स्थापित करता है। उनके यहाँ कविता केवल भावुकता की भाषा नहीं बनती बल्कि वह सामाजिक परिवर्तन और नैतिक पुनर्जागरण का माध्यम भी हो जाती है।
यह संग्रह उन पाठकों के लिए है, जो कविता को केवल मनोरंजन नहीं; बल्कि एक दायित्व, एक संवाद और एक हस्तक्षेप की तरह देखते हैं। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का यह प्रयास हिन्दी काव्य की समकालीन चेतना में एक सशक्त हस्तक्षेप है–जहाँ भाषा, भाव और विचार–तीनों अपनी पूरी शक्ति के साथ उपस्थित हैं।
इस संग्रह में आत्मिक नाद है, प्रकृति का सौंदर्य है, प्रेम की पीर है और स्मृति की नमी है। हर कविता पाठक को रुकने, सोचने और भीतर झाँकने के लिए विवश करती है। यह संग्रह एक दिव्य मौन की तरह है—जो कहता है; लेकिन चिल्लाता नहीं, जो छूता है; लेकिन उघाड़ता नहीं। यह केवल कविता नहीं, आत्मिक संवाद बन उभरता है।
प्रस्तुत संग्रह को कवि ने पाँच खंडो में बाँटकर लिखा है। ये कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी की कवि यहाँ पाँच प्रकार के पुष्पों से अपने इस पंचपल्लव के उपवन को सजाते हैं। हर पुष्प असाधारण है। यह बहुविधात्मकता इस संग्रह की आत्मा है। प्रत्येक की अपनी लय, अनुशासन, संवेदना और सौंदर्य शास्त्र है जिसका निर्वाह कवि ने पूरी निष्ठा और ईमानदारी से किया है।
कविता का काम केवल सौंदर्य अथवा शृंगार नहीं है, उसका प्रयोजन विशद है।
जब कोई कवि अल्प शब्दों में बहुत गहराई तक उतरने का सामर्थ्य रखता है, तब कविता केवल पढ़ी नहीं जाती; बल्कि अनुभूत की जाती है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की कृति पञ्च पल्लव इसी प्रकार का संग्रह है, जिसमें अनुभूतियों के पल-विस्फोट इतनी सघनता से दर्ज हैं कि पाठक कभी भीतर से टूटता है, कभी जुड़ता है।
माहिया-
यह विद्या मूलतः पंजाबी लोकगीतों से उदभूत है। 12-10-12 मात्राओं में बँधी यह रचना शैली सीमित शब्दों में गहन संवेदना के संप्रेषण में समर्थ है। गेयता इसका प्रमुख गुण है। पहली और तीसरी पंक्तियाँ तुकान्त होती हैं। मात्राएँ द्विकल अर्थात् 2-2 / 11-11 के क्रम में होती हैं, 12 / 21 के क्रम में नहीं। काम्बोज जी ने माहिया को मात्र शैल्पिक नहीं; बल्कि भावगत प्रस्तुति का माध्यम बनाया है। इस पुस्तक के माहिया खंड की सभी रचनाएँ–हृदयकी सबसे कोमल, सबसे सच्ची परतों को छूती हैं।
इन रचनाओं की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि वे तीन पंक्तियों के भीतर पूरा ब्रह्मांड समेट लेती हैं। उनमें कोई व्याख्या नहीं, कोई अनावश्यक बिम्ब नहीं, कोई भाषायी चमत्कार नहीं–केवल सत्य है, संवेदना है और वह भी इतनी मार्मिकता के साथ कि वह पाठक को अपने अनुभवों के आइने में उतार लाती है।
मिलकरके रूप सजा
बरसों से बिछुड़े
जी भरकर कंठ लगा।
यह तीन पंक्तियों की कविता प्रेम की उस पूर्णता और फिर उसी की आकस्मिक समाप्ति का दस्तावेज़ बन जाती है। इसमें वह क्षण शामिल है जब कोई बरसों बाद सामने आता है और उसकी उपस्थिति इतने सालों की दूरी को तोड़ने के बजाय और अधिक कचोट पैदा कर देती है। यह पीड़ा की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है?
इस संग्रह की ये माहिया इस मायने में असाधारण हैं कि इनमें भावनाओं की सघनता भी है और मानसिक परिपक्वता भी। यह केवल हृदय की बात नहीं करतीं, यह चेतना की बात करती हैं–सोच की, स्मृति की और अस्तित्व की। उदाहरण के लिए, ये माहिया एक सामाजिक टीका भी है और आत्मालोचन भी:
हम तो इतना जाने
दुनिया नफ़रत की
ये प्यार न पहचाने।
कवि यहाँ केवल शिकायत नहीं करता, वह एक सच्चाई को उजागर करता है–एक ऐसी दुनिया की, जहाँ प्रेम दुर्लभ है और नफ़रत साधारण। यह वाक्य विन्यास में भले सरल हो, लेकिन इसमें छिपी पीड़ा अत्यंत जटिल है।
इस संग्रह के अधिकांश माहिया प्रेम और वियोग की पुरानी कथाओं को आधुनिक मन की सूक्ष्मता के साथ व्यक्त करती हैं। पर यहाँ प्रेम केवल आकर्षण नहीं है–वह स्मृति भी है, प्रतीक्षा भी, आक्रोश भी और आत्म-संयम भी। प्रस्तुत माहिया भी इसका अत्यंत प्रभावशाली उदाहरण है:
जब आप पुकारोगे
हमको ना पाकर
आँसू ही वारोगे।
यह रचना चेतावनी जैसी है, पर करुणा से भरी हुई। इसमें एक खोए हुए सम्बंध की गूँज है, जो तब भी अपने प्रेम को सहेज रहा है जब वह भुला दिया गया हो। इसमें कोई विक्षोभ नहीं, कोई आरोप नहीं–बस एक उदास पूर्वानुमान है, जो अनसुना रह जाना ही मानो उसका भाग्य है।
इन माहियाओं में सबसे अद्भुत बात यह है कि वे पाठक को याचक नहीं बनातीं। वे उसे सहानुभूति के लिए नहीं उकसातीं; बल्कि उसका मौन सहयोग माँगती हैं। वे संवाद करना चाहती हैं, पर चिल्ला कर नहीं, धीरे से कान में कहती हैं–ताकि पाठक ख़ुद अपने भीतर जाए और उन अनुभवों को खोजे जो वहाँ दबे रह गए हैं।
तुम आकर मिल जाओ
पतझर छाया है
हर दिल में खिल जाओ।
अथवा
तुझको ना भूलेंगे
मन में बस जाओ
जब चाहे छू लेंगे।
ये कविताएँ सिर्फ़ प्रेम की व्यथा नहीं हैं, ये प्रेम की साधना हैं। इनमें तड़प है; लेकिन वह अधीर नहीं है। वह तड़प संयमित है और इसी संयम में वह पूजन-भावना उत्पन्न करती है। यह प्रेम अलंकार नहीं है, यह जीवन का केंद्र बन चुका है।
इस संग्रह की कविताओं की एक और विशेषता यह है कि वे बाह्य जगत् की तुलना में अंतर्जगत को अधिक उजागर करती हैं। यहाँ नदी, पर्वत, झरने, जंगल, आँसू–सब प्रतीक हैं; लेकिन उनका प्रयोजन केवल दृश्यात्मक नहीं है, वे मानसिक अवस्थाओं के संवाहक हैं। उदाहरण के लिए,
अब घोर अँधेरा है
क्यों रोता है साथी
नजदीक सवेरा है
'अँधेरा' यहाँ केवल अंधकार का प्रतीक नहीं; बल्कि जीवन की छी नकारात्मकता और दुख का प्रतीक है और नज़दीक 'सवेरा' वह आशा है, जो मनुष्य को दुखों से लड़ने की शक्ति देती है।
जब हम कविता पर पहुँचते हैं, तब तक यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि प्रेम में केवल स्मृति नहीं, दर्शन भी खोजता है:
विधना का लेखा है
आँखें तरस गईं
तुमको को ना देखा है।
यहाँ प्रेम केवल एक व्यक्ति का नहीं रह जाता, वह संसार का केंद्र बन जाता है। 'आँखें चल रहीं' का अर्थ है कि संसार गतिशील है; लेकिन उस गति में कवि की दृष्टि स्थिर है–केवल 'तुम्हीं' पर। यह प्रेम की चरम सघनता है, जहाँ सब कुछ होकर भी कुछ नहीं और कुछ नहीं होकर भी सब कुछ होता है।
इन सभी रचनाओं में एक साझा बात है–इनमें समय नहीं है, काल नहीं है। वे किसी एक क्षण की नहीं, किसी एक युग की नहीं। वे कालातीत हैं। जब कोई रचना समय से बाहर निकल जाती है, तब वह काव्य की पराकाष्ठा पर पहुँचती है। पञ्च पल्लव की ये लघु कविताएँ, उसी पराकाष्ठा की झलक देती हैं।
अब यदि इन रचनाओं को शिल्प की दृष्टि से देखा जाए, तो स्पष्ट होता है कि यह रचनाएँ कोई आकस्मिक भावावेग की उपज नहीं हैं; बल्कि इन्हें गहरी आत्म-संवेदना और काव्य-चेतना से गढ़ा गया है। हर कविता में लय है, गति है और विराम है। ये विराम कोई रुकावट नहीं; बल्कि आत्मा के अंदर उतरने की सीढ़ियाँ हैं।
इन रचनाओं की भाषा साधारण है, पर उसमें एक सांगीतिक प्रवाह है–जैसे कोई पुराना लोकगीत हो, जो पीढ़ियों से चलता आया हो। यह भाषा पाठक को रोकती नहीं, बहा ले जाती है। यह न तो बोझिल है, न ही अति-सजावटी। यही भाषा कविता को अधिक मार्मिक बनाती है,
इसलिए, ये कविताएँ पढ़ने के बाद पाठक केवल शब्द नहीं याद रखता, वह-वह अनुभव याद रखता है, जो उन शब्दों ने उसमें उत्पन्न किया और यही साहित्य की सफलता है।
संवेदनशीलता, बौद्धिकता और सच्चाई का यह त्रैतीय संगम जिस सहजता से इन लघु कविताओं में हुआ है, वह दुर्लभ है। ये कविताएँ किसी भव्य मंच की माँग नहीं करतीं, वे एकांत में बैठकर धीरे से हमारे मन में उतर जाती हैं–और वहाँ से फिर लौटती नहीं। वे पाठक के स्मृति-पटल पर अंकित हो जाती हैं, स्थायी रूप से।
इसलिए पद्य पल्लव केवल एक काव्य संग्रह नहीं है–यह आत्मा के भीतर की यात्रा है। इसमें जीवन के सबसे कोमल भाव हैं–प्रेम, पीड़ा, प्रतीक्षा, पश्चाताप और सबसे बढ़कर–मौन। इस मौन में वह शक्ति है जो शब्दों से कहीं अधिक कहती है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की यह रचनात्मक भेंट न केवल हिन्दी साहित्य को समृद्ध करती है; बल्कि पाठक को भी भीतर से समृद्ध करती है। यह संग्रह हमें भीतर देखने की दृष्टि देता है, सुनने की संवेदना देता है और सबसे अहम–जीवन को समझने की परिपक्वता देता है।
हाइकु-
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी द्वारा रचित उपर्युक्त हाइकु केवल शब्दों की रचना नहीं; बल्कि संवेदना की सघनता का उत्कर्ष हैं। ये हाइकु पाठक को मात्र कुछ पंक्तियों में गहरे भावों की गहराई में ले जाते हैं, जहाँ जीवन, प्रेम, वियोग, अस्तित्व, प्रकृति और मनुष्यता के गूढ़तम स्वरूप अनायास ही उजागर हो जाते हैं। हाइकु, जिसकी उत्पत्ति जापान में हुई थी, हिन्दी में इस विधा को आत्मसात कर उसे अपने परिवेश में ढालना सरल नहीं, किन्तु 'हिमांशु' जी ने इसे आत्मा की भाषा बना दिया है।
इन हाइकु को पढ़ते समय एक अद्भुत बात यह प्रतीत होती है कि हर कविता केवल पाठ के लिए नहीं; बल्कि एक ध्यान की प्रक्रिया है। ये पंक्तियाँ पाठक को क्षण भर के लिए स्थिर करती हैं, जैसे समय थम गया हो और एक अनुभूति उसके भीतर उतर आई हो। उदाहरण स्वरूप:
प्रार्थनारत
अधीर है नयन
की हो दर्शन
यह हाइकु केवल ईश्वर की आराधना नहीं, प्रतीक्षा की तीव्रता है। यह प्रतीक्षा केवल दिव्य की नहीं, मानवीय प्रेम की भी हो सकती है। 'अधीर है नयन'–यह पंक्ति आँखों की उस पीड़ा को स्वर देती है जो किसी अनुपस्थित प्रिय या आत्मीय के लिए टकटकी लगाए बैठी है। यहाँ प्रार्थना भी व्याकुल है और श्रद्धा भी अधीर।
साँझ निहारे
कब आएगा
चाँद उसके द्वारे
यहाँ साँझ प्रतीक्षा की भूमि बनती है, चाँद प्रिय का प्रतीक है और वह दिशा (उसके द्वारा) उस ओर इंगित करती है जहाँ से किसी प्रिय के आने की आशा की जाती है। यह रचना प्रतीक्षा, सौंदर्य और स्मृति का त्रिवेणी संगम है। इसी प्रकार जब कवि लिखते हैं:
भ्रम ना तोड़ो
साँसों की यह डोर
यूँ ही ना छोड़ो
तो यह किसी टूटते रिश्ते की करुण पुकार है। यह केवल प्रेम की अपील नहीं, जीवन की मूलभूत भावना है– 'डोर' यहाँ प्रतीक है उस बंधन का जो दो प्राणों को जोड़ता है। जब वह डोर छूटने लगती है, तो भ्रम भी टूटता है और जीवन की संरचना डगमगाने लगती है। यह हाइकु उस संकट की काव्यात्मक प्रतिध्वनि है।
मेहँदी रची
चाँद डूबा आँगन
आँसू उमड़े
यह चित्र किसी नववधू के सौंदर्य और वियोग जनित दुख का है, जहाँ विवाह की रिवाजे, शृंगार और प्रकृति की कोमल उपस्थिति के बीच दर्द का पहाड़ भी है। आँसू उमड़ते हैं–एक साथ मिलन और विछोह की अवस्था का यह जीवंत दृश्य है।
'हिमांशु' जी के हाइकु में प्रतीकों की अभूतपूर्व गहराई व अनूठापन है। वे चाँद, आँगन, सरिता, त्रिभुज, कंठ, नयन, जैसे प्रकृति के माध्यम से केवल दृश्य नहीं रचते; बल्कि एक दार्शनिक और मानवीय दृष्टि उत्पन्न करते हैं।
क्या है ले जाना
खाली हाथ ही जाना
दम्भ छोड़ दो
यह हाइकु जीवन के सबसे बड़े सत्य को अत्यंत सहज शब्दों में प्रस्तुत करता है। मनुष्य का अहंकार, संचय की प्रवृत्ति और मोह–इन सब पर यह हाइकु प्रश्नचिह्न लगाता है। मृत्यु की अपरिहार्यता के सम्मुख सब कुछ नगण्य है, यह बात यदि कुछ पंक्तियों में कहनी हो, तो इस हाइकु से बेहतर उदाहरण दुर्लभ है।
सुनो परिधि!
व्यास जाए भी कहाँ
तुम्हें छोड़कर
यह गहन बिंबात्मकता का उदाहरण है। व्यास और परिधि गणितीय प्रतीक होते हुए भी यहाँ सम्बंधों की आत्मीय व्याख्या बन जाते हैं। जिस प्रकार परिधि बिना व्यास अधूरी है, वैसे ही किसी गहरे रिश्ते का तात्पर्य है–अधूरेपन की असह्यता।
मिलें, तो चुभे
त्रिभुज के कोण-सी
बातें तुम्हारी
यहाँ त्रिभुज के तीखे कोण, उन व्यंग्य बाणों का प्रतीक हैं जो मिलन के बावजूद दर्द देती हैं। यह प्रेम में स्थित उन क्षणों की ओर संकेत करता है जब समीपता भी दूरी का अनुभव कराती है।
भरा है कंठ
सपने भी टूटे हैं
कहाँ छुपे तुम
यह पुकार नहीं, एक अधीर याचना है। यह हाइकु टूटे स्वप्नों और अधीर मन की करुण अभिव्यक्ति है–जहाँ शब्द नहीं, केवल संवेदना शेष है। यह तलाश भी है और आर्तनाद भी।
आँसू छलके
हथेलियाँ तुम्हारी
आ पहुँच जाती
यह हाइकु पूर्ण रूप से प्रेम की गहराई और उसके स्पंदनों का साक्ष्य है। आँसुओं के साथ किसी की हथेलियों का आ पहुँचना–यह चित्र जितना कल्पनात्मक है, उतना ही भावनात्मक भी। यह करुणा, सहानुभूति और प्रेम की व्याकुलता है।
नैनों में तिरा
जब भी अश्रुजल
तुम थे विकल
यह आत्मिक प्रेम की उत्कृष्टता है–जब एक की पीड़ा दूसरे की आँखों से बहने लगती है और प्रेम अपने सात्विक स्वरूप में आ जाता है।
अच्छा ही हुआ
शाप हमको दिया
जिन्हें दी दुआ
यह कटाक्ष भी है और आंतरिक व्यथा भी। यह विश्वास और भलाई के प्रति उत्तर में मिलने वाले विश्वासघात का अनुभव है। इसमें न कोई आक्रोश है, न क्षोभ–केवल स्वीकरण है।
क्रूर जो मन,
निरर्थक सभी हैं
पूजा-वंदन
यह सामाजिक और मानसिक चेतना का उद्घोष है–यदि हृदय में संवेदना ना हो तो सारे धार्मिक कर्मकांड, पूजाएँ, उपासना सब व्यर्थ हैं। यह हाइकु धर्म के सार को रेखांकित करता है–कि बाह्य अनुष्ठान नहीं; बल्कि आंतरिक शुद्धता ही महत्त्वपूर्ण है।
रातों भटका
तरु पर अटका
थका-सा चाँद
यह चाँद प्रतीकात्मक रूप से जीवन की थकान, तलाश और ठहराव का प्रतीक है। भटकन, अटकन और थकावट–ये तीनों स्थितियाँ व्यक्ति की मानसिक दशा को गहराई से व्यक्त करती हैं।
सन्नाटा घिरा
कहाँ गुम हैं बच्चे
झूले उदास
यह हाइकु वर्तमान समय की सामाजिक विडंबना को उजागर करता है–बच्चों का गुम होना केवल भौतिक नहीं, भावनात्मक अनुपस्थिति भी है। झूले जो हँसी के प्रतीक होते हैं, उनका उदास हो जाना एक सांस्कृतिक करुणा का प्रतीक है।
टूटा घोंसला
ना तोड़ चिड़िया का
आँधी हौसला
यह हाइकु विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष और साहस की सुंदर अभिव्यक्ति है। आँधी ने घोंसला तोड़ा; लेकिन चिड़िया का हौसला नहीं। यह आशा और अडिगता का संदेश है।
कभी तो मिलो / सागर में मिलती / सरिता जैसे
यहाँ प्रेम की उत्कट इच्छा और उसकी परिणति की कल्पना है–जिस प्रकार सरिता अंततः सागर में मिलती है, उसी प्रकार प्रेमी की चाह है अपने प्रिय से पूर्ण मिलन की। यह आत्मा की लौकिक यात्रा है।
गुमान टूटा
जो सगे थे अपने
उन्होंने लूटा
यह विश्वासघात और आंतरिक टूटन का चित्र है। जब पूर्ण समर्पण का प्रतिफल विश्वास और धोखा मिले तो वह पीड़ा हृदय को छलनी कर देती है।
देवता जन्मा,
असुर बना डाला
धन्य हैं लोग
यह सामाजिक व्यंग्य का तल्ख़ उद्धरण है। जो दिव्यता प्राप्त कर सकते थे, उन्हें समाज ने असुर बना दिया। यह हाइकु समाज की विसंगतियों पर करारा प्रहार करता है।
माँगा मिलन,
दे दी क्यों जुदाई,
समझे नहीं
यह अनंत प्रेम की पीड़ा है–जहाँ मिलन के स्थान पर विरह-वेदना मिली। यह हाइकु प्रश्न है, किंतु अनुत्तरित।
इन सभी हाइकु को यदि समग्र रूप में विश्लेषित किया जाये, तो यह स्पष्ट होता है कि कवि की संवेदनशीलता, उसकी सामाजिक दृष्टि, आत्मीयता की गहराई और भाषा पर असाधारण अधिकार है। हाइकु, जो जापानी परंपरा में प्रकृति चित्रण के लिए प्रसिद्ध है, हिन्दी में इस कृति में एक नया रूप लेती है–वह भावनाओं की सूक्ष्मतम छवियों को गढ़ती है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के हाइकु केवल एक बौद्धिक शुष्कता नहीं; बल्कि आत्मिक पुकार है। ये रचनाएँ पाठक के अंतर में एक सन्नाटा रचती हैं–एक ऐसा मौन जो बहुत कुछ कह जाता है। उनका काव्य स्मृति बनकर पाठक के भीतर गूंजता हैं, बहुत देर तक।
इसलिए ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनके हाइकु न केवल काव्य की श्रेणी में अद्वितीय हैं; बल्कि एक सशक्त संवेदनात्मक यात्रा भी हैं–जहाँ शब्द नहीं, भाव गूँजते हैं।
ताँका— पाँच पंक्तियों का एक संक्षिप्त; लेकिन भाव-समृद्ध काव्यरूप। जापानी परंपरा से उत्पन्न होकर जब हिन्दी में रूपांतरित होता है, तब यह केवल रूप नहीं बदलता; बल्कि भावों की स्थानीयता और संस्कारों की नई पहचान भी ओढ़ लेता है। प्रस्तुत तांके इसी रूपांतरण की उत्कृष्ट परिणति है। इस संकलन में जीवन के तमाम रंग—पीड़ा, विस्मृति, प्रेम, खोखले गौरव, आध्यात्मिकता, विरक्ति, अनुकूलन और आत्मान्वेषण—अत्यंत गहन, मार्मिक और विवेकपूर्ण ढंग से प्रस्तुत हुए हैं। संग्रह के प्रारंभिक ताँका , जैसे-
धरा किसी की
गगन किसी का
हमने लूटे
ये क्रुद्ध हुए जब
दर्प सभी का टूटा
यहाँ सामाजिक-सांस्कृतिक स्वामित्व की अवधारणा पर करारी चोट है। धरा और गगन जैसे प्रतीकों को कोई भी अपने अधिकार में नहीं ले सकता—परंतु जब यह 'लूट' का भाव आता है, तब मानव का लोभ और स्वार्थ सबका संतुलन तोड़ देता है। कविता का अंतिम वाक्य—दर्द सभी का टूटा—इस लूट के सार्वजनीन दुष्परिणाम को उद्घाटित करता है। एक अन्य ताँका में,
बालू की भीत
ठहरा तू मानव
दर्प छोड़ दे
रुष्ट है पूरी सृष्टि
ढहेगा दो पल में
यह कविता मनुष्य को प्रकृति के साक्षात सामने खड़ा करती है। 'बालू की भीत' रूपक है उस अस्थिर नींव का, जिस पर मनुष्य ने अपनी तथाकथित सभ्यता खड़ी की है। प्रकृति का रूठना इस बात का प्रतीक है कि हम अपनी सीमाओं को भूलकर सर्वहंता बन चुके हैं और उसका प्रतिशोध तीव्र व सार्वभौमिक होगा।
इन कविताओं में 'मैं' नहीं है, एक व्यापक 'हम' है—यह संग्रह व्यक्ति की आत्मकथा नहीं; बल्कि मनुष्यता का सामूहिक मनोविज्ञान है।
घर पराया
तूने माना अपना
जीभर लूटा
लगी एक ठोकर
गर्व खर्व हो गया
इस कविता में मनुष्य की संक्रामक प्रवृत्ति को दर्शाया गया है—वह पराए को अपना मान लेता है, उसे भोगता है, लूटता है; लेकिन जीवन की एक झटके में उसका सारा गर्व चूर-चूर हो जाता है। यहाँ 'घर' का रूपक मात्र भौतिक संरचना नहीं; बल्कि किसी भी सत्ता, अधिकार या सम्बंध की अस्थिरता को इंगित करता है।
समय और स्मृति की अविरल धार, इस संग्रह की मध्यवर्ती ताँकाओं में एक ख़ास रूप में व्यक्त होती है:
छोड़ न जाना
यह जीवन–वन
बहुत क्रूर
तुम बहुत दूर
पर मन में रमे
यहाँ प्रेम की वह मार्मिक पुकार है जो भौतिक दूरी के बावजूद मानसिक निकटता को बनाए रखने की कोशिश करती है। यह 'अनुपस्थिति में उपस्थिति' का अनुभव है। प्रेम, यहाँ आत्मा की तरह है—शरीर से परे, किंतु मन में बसा।
अपर्णा तुम
एक भरोसा मेरा
साँस-साँस में
तेरा ही है बसेरा
तेरा नैन उजेरा
इस कविता में साँसों में समाया प्रेमी / प्रेमिका एक सार्वभौमिक सत्ता का प्रतीक बन जाता है। प्रेम अब देह नहीं, अस्तित्व है। कविता, बिना शोर के, प्रेम को आराधना के समकक्ष रखती है। यह एक मौन समर्पण है, एक साँस की साधना।
पूर्व जन्म का
कौन था शुभकर्म
छू लिया मर्म
सुरभित स्पंदन
उर भी कुसुमित
यह ताँका पुनर्जन्म की अवधारणा को बड़ी संवेदनशीलता से छूता है। स्मृति के स्तर पर कोई गहरा अनुभव 'मर्म' को छूता है—और यह स्पर्श इतना गहन होता है कि हमारी भीतरी 'कुंभिता' यानी भावों की सुप्त गगरी छलक पड़ती है। कविता का कथ्य अत्यंत दार्शनिक है और इसका असर चुपचाप पाठक को भीतर से हिला देता है।
संग्रह की भाषा बेहद सहज; लेकिन अत्यंत प्रभावशाली है। कोई अनावश्यक अलंकरण नहीं, कोई दुरूह प्रतीक नहीं—बल्कि शुद्ध, पारदर्शी संवेदना की भाषा है यह। ताँका का शिल्प यहाँ केवल छंद नहीं; बल्कि एक दृष्टिकोण है—पाँच पंक्तियों में जीवन के अदृश्य को पकड़ने की जिद।
शब्दों की यत्र-तत्र पुनरावृत्ति जैसे–छोड़ दे, तूने माना, साँस-साँस में—यह भावों के गहरे जड़त्व को उजागर करता है। कविता के कई बिम्ब—जैसे बालू की भीत, छोटा-सा ठोकर, मन–प्रण–संपृक्त, उर घाटी जैसी बड़ी-बड़ी दार्शनिक स्थापनाओं को अत्यंत आत्मीयता से सरल बना देते हैं।
सृष्टि की लय
तेरा प्यार मुझमें
हुआ विलय
सूर्य, चंद्र, तारक
साक्षी बन गर्वित
यहाँ प्रेम और प्रकृति एक-दूसरे में विलीन हैं। यह एक अंतःसंवाद है—आत्मा और ब्रह्मांड के बीच। कविता एक प्रकार की वैदिक अनुभूति से भरपूर है। प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, वह प्रेम की साक्षी बन जाती है। यह ताँका अद्भुत रूप से 'साक्षात चेतना' का भाव जगाताहै।
धरा किसी की
गगन किसी का
हमने लूटे
ये क्रद्ध हुए जब
दर्प सभी का टूटा
यह कविता केवल एक कविता नहीं, यह हमारे समय का दर्पण है। यह बताती है कि जब कुछ को सब मिल जाता है, तो सब कुछ टूट जाता है। सत्ता, स्वार्थ और प्रभुत्व की त्रासदी को इतनी सूक्ष्मता और मार्मिकता से कहने की शक्ति ताँका जैसे लघु छंद में ही संभव है-
कितना प्यार
बिखर गया आज
निर्धन-द्वार
झोली भरती गई
मैं समेट न पाया
यहाँ शहरी जीवन, सम्बंधों की अस्थिरता और प्रेम की 'झर' होती प्रकृति को सूक्ष्मता से पकड़ने की कोशिश है। प्रेम मिलता है, छूटता है, बिखरता है और हम केवल झोली भरते हैं; लेकिन उसे सहेज नहीं पाते।
इस संग्रह के माध्यम से हम यह महसूस करते हैं कि ताँका आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना हज़ार साल पहले जापान में था; लेकिन हिन्दी में, भारतीय भावभूमि पर यह एक नया रूप लेता है—यह ताँका का पुनर्जन्म है।
इस संग्रह में आत्मा की पुकार है, प्रकृति का रोष है, प्रेम की अग्नि है और स्मृति की नमी है। हर कविता पाठक को रुकने, सोचने और भीतर झाँकने के लिए विवश करती है। यह संग्रह एक अलौकिक मौन की तरह है—जो कहता है; लेकिन चिल्लाता नहीं; जो छूता है, लेकिन उघाड़ता नहीं। यह केवल कविता नहीं, आत्मा का संवाद है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के सेदोका जीवन के बहुरंगी स्वरूप का मार्मिक चित्रण करते हैं। इन लघु छंदों में कभी व्यक्तिगत पीड़ा और टूटन है, तो कभी सामूहिक संघर्ष और सामाजिक विडंबना; कहीं प्रकृति का उल्लास है, तो कहीं स्वप्नभंग की करुण गूँज। अल्पतम शब्दों में अनंत भाव व्यक्त करना इन रचनाओं का प्रमुख वैशिष्ट्य है।
छोटी-सी नाव,
तेरा निंदा का सिन्धु
डुबाने वाला लाखों,
फिर भी बचे
प्रिय! आओ यों करें—
कुछ दर्द बुहारे।
यहाँ छोटी नाव जीवन की लघुता का प्रतीक है और महासागर उसके सामने खड़ी कठिनाइयों का। यथार्थ यह है कि नाव डूब भी सकती है, परंतु हौसले जीवित रहते हैं। यही मनुष्य की जिजीविषा है, जो हर संकट के बीच उसे आश्वस्त करती है।
इसके विपरीत एक अन्य सेदोका—
जीवन रहा
चन्दन उपवन,
जलाई थी अगन,
कुछ न बचा,
सब था ख़ाक हुआ,
जीवन राख हुआ।
—जीवन के सबसे असहाय क्षण को सामने रखता है। यहाँ चन्दन के उपवन जैसा जीवन अंततः केवल राख में परिवर्तित हो जाता है। यह रचना अस्तित्व की यातना और उसकी नश्वरता का नग्न बोध कराती है।
समाज और समय की करुण विडंबनाओं का उद्घाटन कवि ने
शोषण बढ़ा
कराह उठी सृष्टि,
हो गई वक्र दृष्टि,
देर न लगी,
शव ढोते नगर,
काँपे आठों पहर
में किया है। यह सेदोका केवल कविता नहीं; बल्कि वर्तमान समाज की कराह है। शोषण से घायल सृष्टि, शवों से भरे नगर और संवेदनहीन आँखें हमारे युग के निर्मम यथार्थ का दर्पण हैं।
व्यक्तिगत संवेदनाओं के स्तर पर कवि का स्वर और भी करुण हो उठता है—
स्वप्न गहन,
अंक में थी चन्द्रमा,
अश्रु-सिक्त नयन,
भीगे कपोल,
स्वप्न क्या टूट गया,
प्रिय ही रूठ गया।
यह कविता बताती है कि जीवन में कितने ही कोमल सपने रात की चाँदनी-सी खिलते हैं, किंतु यथार्थ की जटिलता सब कुछ समाप्त कर देती है। यह केवल स्वप्नभंग नहीं; बल्कि आशा के विलुप्त हो जाने का बिंब है।
किंतु इन करुण छवियों के बीच भी कवि जीवन की सौंदर्यता और आशावाद को नहीं भूलता।
फूल-से झरो,
बिखेर दो सुगंध
बहो अनिल मंद,
किरन तुम,
उजियारा भरदो,
पुलकित कर दो।
यह सेदोका कोमलता और सौंदर्य का अनुपम चित्र है। फूल से झरे पंखुड़ियों की तरह बिखरी सुगंध जीवन में सहजता और माधुर्य भर देती है। मंद समीर का बहना इस सौंदर्य को और गहराई देता है। कवि सूर्यकिरणों से प्रार्थना करता है कि वे उजियारा भरकर जीवन को पुलकित कर दें। संपूर्ण भाव यह है कि प्रकृति के कोमल स्पर्श और प्रकाश के आलोक से मनुष्य का अस्तित्व सौंदर्यमय, पुलकित और जीवनोन्मुख हो उठता है। प्रकृति और प्रेम का उल्लास कवि के लिए संतुलन रचता है।
मुखरित हो
रोम-रोम गा उठे,
प्रतिध्वनि गुंजित,
छू ले अम्बर,
घाटियाँ नहा उठें
मुकुलित हों प्राण।
यह जीवन की उल्लासमयी लय है, जहाँ प्रकृति और प्रेम मिलकर रोम-रोम को गा उठने का अवसर देते हैं। यह कविता मनुष्य की आत्मा को उत्सवधर्मी बना देती है। व्यक्तिगत पीड़ा को भी कवि सौंदर्य में रूपांतरित कर देता है।
संतप्त मन
किए लाख जतन
ना मिटी थी जलन
छली मुदित
छोड़ लज्जा वसन
नग्न नृत्य मगन
यह सेदोका भीतर की पीड़ा और बाहर के छलपूर्ण उल्लास का तीखा विरोधाभास प्रस्तुत करता है। संतप्त मन लाख प्रयासों के बाद भी अपनी जलन से मुक्त नहीं हो पाता, जबकि बाहर छली हुई मुदित दुनिया नग्न होकर नृत्य में मग्न है। कविता का सार यह है कि जहाँ अंतरतम वेदना से जूझ रहा होता है, वहीं समाज का मुखौटा झूठे हर्षोल्लास में डूबा रहता है—यही संवेदनात्मक विडंबना इसका मार्मिक बिंदु है।
उगो सूर्य-से
बहो बन निर्झर
उर हो आलोकित
सिंचित रोम
मन करे नर्तन
मेरे जीवनघन
यह सेदोंका जीवन के उत्सव और नवचेतना का सशक्त बिंब है। सूर्य के उदय से जाग्रत आलोक, निर्झर-सा बहता जीवन, हृदय का प्रकाश और रोम-रोम का नर्तन—मिलकर मनुष्य की आत्मा को उल्लास और आशा से भर देते हैं। अंतिम बिंब जीवन घन जीवन की घनीभूत पूर्णता और करुणा-वृष्टि का प्रतीक है। समग्रतः यह रचना जीवन को आलोक, प्रवाह और आनंद का अखंड उत्सव रूप में प्रस्तुत करती है और अंततः जीवन के उत्सव का स्वर गूँजता है—
अरसे बाद
हुई नेह बौछार
घुला था अवसाद
कानों में पड़ा
मधुमय संवाद
ज्यों कोई मन्त्रोच्चार
यह सेदोंका जीवन के अवसाद भरे सन्नाटे में अचानक आई स्नेह-धारा का चित्रण है। लंबे समय के बाद मिली नेह-बौछार मन को भीगाकर उदासी को धो देती है। कानों में गूँजता मधुर संवाद मानो मंत्रोच्चार-सा पवित्र और जीवनदायी प्रतीत होता है। संपूर्ण कविता यह बताती है कि प्रेम और आत्मीयता का एक क्षण भी जीवन के गहन अंधकार को आलोकित कर सकता है।
निष्कर्ष रूप से कह सकते है कि इन सेदोंका में कवि ने जीवन की सम्पूर्णता को छू लिया है। कहीं वे अपमान और शोषण से दग्ध अस्तित्व का चित्र रचते हैं, तो कहीं टूटे स्वप्नों और रूठे प्रभात की करुण गूँज सुनाते हैं। पर इसी के साथ वे आँधियों में महकते फूलों की तरह जीवन की उज्ज्वल संभावनाओं और उल्लासपूर्ण क्षणों को भी उभारते हैं। यही इन रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है—वे पीड़ा को भी अर्थ देते हैं और आशा को भी गहराई।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के ये सेदोंका न केवल जापानी छंद-विधा की भारतीय पुनर्प्रस्तुति हैं; बल्कि जीवन और समाज की गहनतम संवेदनाओं का मार्मिक आख्यान भी हैं। इन्हें पढ़ना मानो जीवन को उसकी संपूर्ण जटिलताओं, विडंबनाओं और सौंदर्यों सहित जी लेना है।
क्षणिका- हिन्दी कविता की वह विधा है, जिसमें भावों का गहनतम स्वरूप अत्यंत संक्षेप और तीव्रता के साथ प्रकट होता है। यह कविता की सबसे लघु और प्रभावी शैलियों में से एक है। कुछ पंक्तियों में ही पूरा जीवन–अनुभव, व्यथा या व्यंग्य पाठक के सामने सजीव हो उठता है। क्षणिका का मूल सौंदर्य उसकी संक्षिप्तता और मार्मिकता है। पञ्च पल्लव की पाँचवी विधा क्षणिका है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' आधुनिक हिन्दी क्षणिका के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनकी क्षणिकाएँ केवल शब्दों का चमत्कार नहीं बल्कि जीवन, राजनीति, समाज और मानवीय संवेदनाओं का दर्पण हैं। इनमें व्यंग्य भी है, करुणा भी; चेतावनी भी है और गहरी अनुभूति भी। उनकी क्षणिकाओं को हम कुछ उदाहरण के माध्यम से और विस्तार से समझ सकते हैं-
सभाओं में बना करते थे,
वे प्रायः अध्यक्ष,
अब ठूँठ बनकर रह गए।
यहाँ सत्ता और प्रतिष्ठा की क्षणभंगुरता का चित्रण है। जो कभी गौरव के शिखर पर था, समय ने उसे बेमोल कर दिया। यह हमें जीवन की नश्वरता का अहसास कराता है।
देश के नौनिहाल,
बाप-दादा के माल पर,
पढ़ रहे फातिहा।
यह क्षणिका युवाओं की निष्क्रियता और आश्रय–भाव की कटु आलोचना करती है। भविष्य की दिशा खो चुकी पीढ़ी यहाँ मार्मिक व्यंग्य के रूप में चित्रित है।
बहरी कुर्सियाँ,
हुई और बेहया,
लाज घोलकर पी गई।
यहाँ लोकतंत्र की विडंबना और सत्ता की संवेदनहीनता उजागर होती है। जो जनता की आवाज़ सुनने के लिए बने थे, वही सबसे अधिक बहरे और निर्लज्ज हो गए।
गुमराहों को है गुरूर,
नई पीढ़ी को,
सिर्फ़ वे ही रास्ता दिखाएँगे।
मार्गदर्शक स्वयं भटके हुए हों तो नई पीढ़ी की दशा क्या होगी? यह क्षणिका एक गहरी सामाजिक चेतावनी है।
कर्तव्य की होली जलाई,
उन्हें केवल
मौलिक अधिकार की याद आई।
कर्तव्य–विमुख समाज का यह चित्र हमें सोचने पर मजबूर करता है। आज हर कोई अधिकार की माँग करता है; लेकिन कर्तव्य का स्मरण किसी को नहीं।
एक सीमा पर गोली खाए
दूजा उस पर प्रश्न उठाए
ग़द्दारों को शर्म न आए।
यह राष्ट्रभक्ति की पीड़ा और व्यवस्था की विडंबना का सजीव बिंब है। वीरों के बलिदान की उपेक्षा और गद्दारों का सम्मान—यह क्षणिका हमें झकझोर देती है।
यहाँ साहित्य और समाज की वास्तविकता का कटु व्यंग्य है। सच्चा पुरस्कार योग्यता से नहीं बल्कि चापलूसी और पतन से मिलता है।
बेहया होना,
मर जाना—
आँखों के पानी का,
देश के अलम्बरदार हो क्या!
जब समाज की आँख का पानी मर जाए, तब नैतिकता का अंत हो जाता है। यह क्षणिका केवल राजनीति पर नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र–चरित्र पर प्रश्नचिन्ह है।
दफ़्तरों की गुफ़ा में
चिट्ठी जो गई कुँवारी
लौटी नहीं बेचारी।
यह क्षणिका समाज में पहले व्यभिचार और भ्रष्टाचार का मार्मिक प्रतीक है।
पुरस्कार पाना है
कमर को झुकाना है
चरण कमल छूकर
कीचड़ में गिर जाना है।
सम्मान और पुरस्कार केवल बाहरी उपलब्धियाँ हैं; असली तृप्ति आत्मा की शांति में है। यह क्षणिका गहरे व्यंग्य का स्वर लिये है। आज लोक पुरस्कार पाने के लिए किस हद तक अपने आत्म सम्मान के साथ समझौता करते हैं इसी को कवि रेखांकित करना चाहते हैं
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की क्षणिकाएँ समाज और जीवन के उन पहलुओं पर रोशनी डालती हैं, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
सत्ता का छल, समाज का पतन, कर्तव्य की उपेक्षा और मानवीय संवेदना का क्षरण—इन सबको वे बहुत थोड़े शब्दों में अत्यंत मार्मिकता और व्यंग्य के साथ कह जाते हैं। उनकी क्षणिकाएँ पढ़ते हुए लगता है जैसे एक चुभन हृदय में उतर गई हो और एक आइना सामने खड़ा हो गया हो—जिसमें हम अपनी ही सच्चाइयों से मुठभेड़ करने को विवश हो जाते हैं।
पञ्च पल्लव (काव्य-विविधा) : रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , प्रथम संस्करण-2022, मूल्य: 260 रुपये, पृष्ठ: 104, अयन प्रकाशन, जे19 / 39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059