पटनदेवी / शम्भु पी सिंह

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एक कर्मी के लिए रविवार के दिन का महत्त्व कुछ खास होता है। देर से जगना। पेपर को चाट जाने की चाहत, इसी दिन पूरी होती है। बाकी दिन तो पेपर पढ़ने की खानापूरी ही हो पाती है। अभी नींद भी नहीं खुली थी कि श्रीमती जी की आवाज कानों में पड़ी। "क्या बात है, आज उठना नहीं है क्या। सात बज चुका है। तुम मर्दों का रविवार तो पिकनिक डे हो जाता है। उठो चाय चढ़ा दिया है।" कहते हुए पेपर बेड पर पटक दी। साथ में एक उलाहना भी-"कभी सोचा है, औरत का संडे कब होता है। शादी से पहले सारी जिम्मेदारी माएँ निभाती हैं और शादी के बाद पत्नियों के पास ट्रांसफर हो जाता है। एक दिन तो औरत बन कर दिखाओ। सारी मर्दानगी धरी रह जाएगी।" सुबह का जायका ही खराब हो गया। उठना तो अभी भी नहीं चाह रहा था, लेकिन इतना सुनने के बाद नींद की गुंजाइश भी कहाँ थी। आंखें मलते हुए करवट बदला ही था कि देखा श्रीमती जी चाय का ट्रे लिए खड़ी थीं। "ओहो तुम भी न! एक संडे भी नींद तो लेने दो। रख दो चाय टेबल पर, मुंह पर पानी तो मार लूं।" अभी बाथ रूम गया ही था कि मोबाइल बज उठा। सोचा अब लौटकर देखता हूँ किसका है। श्रीमती जी ने बाथरूम का दरवाजा खटखटाया। आवाज आई-"फोन है तुम्हारी चहेती का।" संभावना का नाम डिसप्ले हो रहा होगा। मैंने भी झट से दरवाजा खोला, चश्मा नहीं लगे होने के कारण नाम तो नहीं देख पाया, लेकिन श्रीमती जी के टोन से ही लग गया था कि संभावना का ही होगा। बिना देखे ही फोन उठाते ही बोल पड़ा "हाँ जी बोलो संभावना।" "सर जी! आज आपकी क्या प्लानिंग है। संडे घर में ही इन्जवाय करना है कि कहीं कोई गोष्ठी या आयोजन में भी जाना है।" "नहीं! अभी तक तो ऐसे किसी आयोजन की जानकारी मुझे नहीं है। घर में ही रहना है। बोलो कुछ काम हो तो बताओ।" बात करते-करते बाहर आ चुका था। "मैं बहुत दिनों से एक बात कहना चाह रही थी, लेकिन कह नहीं पाई। इतने दिनों से पटना में हूँ, लेकिन आजतक पटन देवी नहीं जा पाई हूँ। अगर कोई खास व्यस्तता नहीं हो, तो चलिए आज पटन देवी का दर्शन कर लें।" "ख्याल तुम्हारा बुरा नहीं है। तुम्हारे साहब भी चलेंगें न! आज तो संडे है, उनकी भी छुट्टी ही होगी।" "अरे हुजूर! साहब अगर जाते तो मैं कब का हो आती। यही तो रोना है। उनके लिए सबसे प्यारा घर ही है। घर से बाहर जाने में उनकी कोई रुचि नहीं। घूमना-फिरना पसंद नहीं करते।" मैं बात करने में मशगूल था, टेबल पर रखी चाय का कप हाथ में आ गया। मुझे लगा संभावना थोड़ा अपसेट हो गई। इसलिए बात आगे बढ़ाना ठीक नहीं। "ठीक है, चलो चलते हैं। मैं थोड़ी देर में तुम्हें फोन करता हूँ।" कहकर मैंने फोन काट दी। संभावना पेशे से एक पत्रकार है। गाहे-बगाहे सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते किसी न किसी मंच पर मिलती रहती है। घनिष्ठता लगभग दो साल पहले बढ़ी। मैं शहर से बाहर था, बच्चे ननिहाल गए थे। घर पर श्रीमती जी अकेले थी। डायरिया के कारण उसकी तबीयत ज्यादा खराब हो गई। दुर्गापूजा का उत्सव था। शहर ट्रैफिक जाम की समस्या से ग्रस्त था। बहुत प्रयास किया लेकिन कोई डॉक्टर घर पर आने को तैयार नहीं था। अंत में हारकर मैंने संभावना को फोन लगाया। रेस्पॉन्स भी उसने तत्क्षण लिया और खुद गाड़ी ड्राइव कर डॉक्टर से श्रीमती जी का इलाज कराया। तब से दोनों परिवार काफी निकट आ गए। और अब तो किसी न किसी मौके पर दोनों परिवार का मिलना-जुलना हो ही जाता है। मेरा तो कुछ ज्यादा ही। सामाजिक मंच के अलावे भी कभी मैं उसकी दफ्तर के पास से गुजरा तो जाकर एक कप चाय पी ली, कभी संभावना आ जाती। मैं तो बीते दिनों में ही खोया हुआ था, यह ध्यान ही नहीं रहा कि कब से श्रीमती जी सामने खड़ी हैं। "कहाँ की प्लानिंग है आज की।" श्रीमती जी का सवाल तो सीधा था, लेकिन पूछने के अंदाज में ढेर सारा सवाल। कौन, कहाँ, क्यों, कब? जैसे समाचार के सारे तत्वों से भरपूर। अनगिनत सवालों का बस एक ही जवाब हो सकता था, कि श्रीमती को भी सहभागी बना लिया जाए। जान-पहचान तो है ही, दोस्ती हो गई तो आने वाले दिनों में सवाल-जवाब तो नहीं होंगे। "चलना है तुम्हें पटन देवी। वैसे तुम जा चुकी हो, फिर चलना हो, तो चलो।" पूछना मेरी मजबूरी थी, अन्यथा जरूरत थी नहीं, वह पहले भी कई बार जा चुकी है। सोचा! हो सकता है कह देगी, 'आप हो आइए मैं नहीं जा पाऊंगी, घर में बहुत कम है' , लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हाँ सवाल जरूर हो गया। "साथ में संभावना भी जा रही है, क्या?" "हाँ, अभी तो उसी का फोन था, वो कभी गई नहीं है। पूछ रही थी कि फ्री हों तो चलिए।" चाय की चुस्की के साथ कनखियों से मैंने देखा। न कोई खुशी, न कोई गम, वाली बात नजर आई। "चलिये! वैसे मैं तो कई बार जा चुकी हूँ। उसने कहा ही होगा मेरे बारे में?" "हाँ! हाँ! बोली ही। मैंने कह भी दिया है, थोड़ी देर में बात करने को।" "चलना है तो जल्दी चलो, जल्दी लौटेंगे, घर का काम भी बहुत-सा है। तुम्हें तो रविवार मनानी है। हम औरतों का तो जीते जी रविवार आने से रहा।" श्रीमती जी कभी ताना देने से नहीं चूकतीं। "अरी भाग्यवान! तुम भी न। कितनी बार एक ही बात को बोलोगी। एक दिन में तो ऐसा नहीं हुआ है न। वर्षों बरस की बात है। जड़ता टूट रही है जी। धीरे-धीरे जाएगी। एक ही बात बार-बार करने से इरिटेटिंग हो जाती है।" "हाँ अब मेरी बात तो इरिटेट करेगा ही तुम्हें। संभावना की बात कभी इरिटेटिंग लगती है। घण्टों बतियाते हो। सब समझती हूँ मैं। बेबकूफ मत समझना।" "ओहो! अब हमारे तुम्हारे बीच संभावना कहाँ से आ गई। देखो संडे मेरा मत खराब करो। पटन देवी जाने का मूड ही खराब कर दी। छोड़ो अब मुझे कहीं नहीं जाना है।" इधर कुछ दिनों से उसके व्यवहार में काफी परिवर्तन दिखने लगा था। बात-बात पर चिढ़ना, छोटी-छोटी बातों पर उलाहने, ताने देना रूटीन-सा हो गया था। "ओय! मेरे लल्लू लाल! गुस्सा तो जनाब के नाक पर बैठा रहता है। अरे! इसमें बुरा मानने जैसी क्या बात है। पत्नी हूँ मैं! छोटी-बड़ी बातें होती रहेंगी। चिढ़ा मत करो। अब कोई चहेती है तुम्हारी, तो मान लो। नाराज क्या होना। सॉरी। मेरी बातों को दिल पर मत लिया करो। चलो अब उठो, चलने की तैयारी करो। संभावना को भी बोल दो तैयार रहने। ठीक है, उठो।" मेरी थोड़ी-सी नाराजगी कोरामिन का काम कर गई। सारा गिला-शिकवा जाता रहा। ऊपर वाले ने भी कितने सारे गुण औरतों को दिया है, अपनी एक हल्की मुस्कान से भी बड़ा-बड़ा कार्य करवा सकती है। पल में तोला, पल में मासा की कहावत औरतों पर ही चरितार्थ होती है। यह भी सही है कि जो बात न भी हो, बार-बार उन्हीं बातों की ओर ध्यान दिलाते रहने से वही कपोल-कल्पित बातें दिल में बैठ अपनी जगह बनाने लगती है। सच्चाई न होते हुए भी सच्चाई का बीजारोपण होने लगता है। मेरे और संभावना के मामले में भी कुछ-कुछ ऐसा ही होने लगा था। श्रीमती जी भले ही मुझे चिढ़ाने के लिए उसके नाम का सहारा लेती हों, लेकिन मुझे भी लगने लगा है कि उसकी बातों में दम तो है। क्या वजह है कि एक दिन भी हम दोनों न मिलें तो कुछ खोया-खोया-सा लगने लगता है। आखिर कुछ तो बात है। दिमाग पर जितना ही जोर डालता, चीजें सुलझने के बजाय, उलझती ही नजर आती। रिश्तों की दूरियाँ सिमटने को बेताब लगतीं। परिवार और समाज की सारी बंदिशें टूटने के कगार पर दिखतीं। नैतिकता का ताना-बना एक पल में अपने होने को तलाश रहा होता। मैं और मेरा की जगह, मैं और वह की दुनिया अपना अस्तित्व गढ़ रही होती। उम्र के इस पड़ाव पर खुशियों की तलाश के रंग बदलने लगते। भारतीयता की बेड़ियाँ एक बोझ-सी लगने लगती। पाश्चयात्य का आकर्षण बढ़ने लगता। असंभव संभावनाओं में संभावना की संभव संभावनाएँ अपना रूप गढ़ती नजर आती। चाहतों की बाउंड्री लाइन अपना दायरा बढ़ाने को बेताब दिखती। कल्पनाओं के महासमुद्र में गोते लगाते रहने की उत्कंठा शायद कुछ अधिक गहराई तक ले जाए, कल्पना अपना कोई स्वरूप गढ़ पाए, उससे पहले मोबाइल की घण्टी बज उठी। कॉल संभावना की थी। "सर! जी क्या हुआ। आप तो कॉल करने वाले थे। मैं इंतजार करती रही। आपका कॉल नहीं आई। घर में सब ठीक-ठाक तो है न?" संभावना के सवाल में जबाव भी छुपा था, इसलिए मैंने जबाव वह न दिया, जहाँ वह मुझे ले जाना चाहती थी। जबाव मैंने वह दिया, जहाँ मैं उसे ले जाना चाहता था। "हाँ जी! मैं तुम्हें फोन करने वाला ही था। एक घण्टे में मैं तैयार होकर आता हूँ, तुम तैयार रहना।" "ठीक है, आइए। मैं इंतजार करती हूँ, चलते वक्त रिंग कर दीजिएगा, मैं रोड पर आ जाऊंगी।" उसने फोन काट दिया। श्रीमती जी तैयार हो गई थीं। मुझे ही थोड़ा बिलंब हुआ। गाड़ी स्टार्ट हुई ही थी कि याद आया, संभावना को रिंग भी करना है, जैसा उसने बताया था। रिंग बजा भी, लेकिन उसने फोन काट दिया। मतलब साफ था। मेरे चल देने का संकेत उसे मिल चुका था। बीस मिनट से कम ही में मैं उसके दरवाजे के सामने की सड़क पर गाड़ी पार्क करने की सोच ही रहा था कि सामने से वह आते दिखाई दी। मुझपर नजर पड़ते ही एक मुस्कान उसके चेहरे पर बिखर गई। शायद मुहं चिढ़ा रही हो, जनाब जाएंगे कहाँ, संडे है तो क्या हुआ, दफ्तर न सही, पटन देवी ही सही। लेकिन यह मुस्कान बहुत देर तक उसके चेहरे पर विराजमान नहीं रह पाई। दस-पन्द्रह कदम शेष था, उसके चेहरे का रंग उड़ चुका था। पहले तो मेरी समझ में बात नहीं आई कि अचानक ऐसा क्या हो गया। अभी तो कोई बात भी नहीं हुई है। पल में बदलते उसके चेहरे के भाव को मैंने पढ़ने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन किसी क्रिया की ऐसी प्रतिक्रिया का कारण समझ से परे था। हम दोनों को नमस्ते कर वह गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ गई। गाड़ी ने अपनी रफ्तार पकड़ ली। मेरा ध्यान भले ही गाड़ी की स्टेयरिंग की सीध में रोड पर था, लेकिन मन-मस्तिष्क संभावना के अंदर चल रहे किसी अनजाने उथल-पुथल के कारणों की तलाश में व्यस्त रहा। दो महिलाएँ एक साथ हों और चुप हों, पुरुष इसे एक चुटकुला के रूप में आठवें आश्चर्य की संज्ञा देता है। यहाँ भी दोनों ने इसे सार्थक कर दिया। दोनों पुरुष निषेधित गप्प में मशगूल हो गए। आगे-पीछे बैठने की मजबूर दूरियाँ भी बहुत बाधक नहीं बन पाई। बातचीत का स्वर भी उतना ही नपा-तुला, जिसमें दो के अलावा किसी तीसरे को कानो-कान खबर न हो सके। श्रीमती जी ड्राइविंग सीट के पास की सीट पर बैठी हुई थी, फिर भी मेरे पल्ले शायद ही कोई शब्द पड़ा हो। वैसे भी मेरा कॉनसन्ट्रेशन गाड़ी चलाने में ही बना रहा। कभी थोड़ा भंग भी हुआ तो संभावना से आगे की अकेले संभावित मुलाकात में होने वाले असंभावित प्रश्नों के संभावित उत्तर तलाशने में ही खर्च कर दिया। हमलोग अपने गंतव्य पर पहुँच चुके थे। मंदिर के अंदर जाने से पहले हमें क्या तैयारियाँ करनी चाहिए, न भी पता हो तो आसपास के दुकानदार बड़ी बारीकी से उन आवश्यकताओं को समझा देते हैं। आवश्यकतायएँ भी साधारण नहीं, अनिवार्य से ऊपर की श्रेणी की, न भी लेने की इच्छा हो, तो भी देवी माँ की नाराजगी तो मोल नहीं ली जा सकती। फिर इतनी दूर से आना बेकार भी हो सकता है। ऐसे संभावित खतरों को कौन मोल लेना चाहेगा, उससे तो कहीं अच्छा है कि दुकानदार जो कहे, जैसा कहे, करने में ही भलाई है। फिर दुकानदार की इच्छा के अनुरूप माता को चढ़ावे वाली पोटली थामे हम तीनों मंदिर के चौकठ का घण्टा बजाए अंदर प्रवेश कर गए। संभावना आगे चल रही थी, उसके पीछे श्रीमती जी और सबसे पीछे मैं। महिला-पुरुष की अलग पंक्तियों की बाध्यता ने मुझे उन दोनों से अलग कर दिया। पुरुषों की पंक्ति थोड़ी लम्बी थी। समय अधिक लगना लाजिमी था, लेकिन मंदिर के गर्भगृह तक आते-आते पुरुषों की पंक्ति आगे चल निकली। पुरुष के पास देवी माँ से मांगने की फेहरिस्त थोड़ी छोटी होती है, इसलिए दर्शन में समय कम जाया होता है। फेहरिस्त थोड़ी लम्बी होने के कारण महिलाएँ थोड़ा अधिक समय लेती हैं, साथ ही पुरुषों को देवी के साज-श्रृंगार करने का अधिकार नहीं होता, तो बहुत देर तक खड़े होने के बहाने भी नहीं तलाशे जा सकते। मैं आगे आ गया, जब तक मैं गर्भगृह में प्रवेश करता, देखा संभावना मेरे सटे खड़ी है। एक नजर पीछे मुड़कर देखा, श्रीमती जी कहीं नजर नहीं आयीं। इशारे से संभावना से जानना चाहा। -"मुख्य दरवाजे पर अभी रोक दिया गया है, मुझे भी रोक रहा था, लेकिन मैं जबरदस्ती अंदर आ गई। अंदर खाली होने पर फिर से लोगों को आने दिया जाएगा। दीदी भी वहीं रह गई हैं। अब उनको थोड़ी देर होगी।" मैंने राहत की सांस ली। अंदर महिला-पुरूष का कोई भेदभाव नहीं था। हम दोनों साथ-साथ आगे बढ़ने लगे। सोचा तो ऐसा न था, लेकिन कहते हैं न, जहाँ चाह होती है, राह निकल ही आती है। देवी माँ मेरी भावनाओं को शायद ताड़ गई। भक्तों की इच्छा पूर्ती ही तो उनका परम् कर्तव्य है। वो उन्होंने कर दी। अभी तो आमने-सामने दर्शन होना शेष था, शानदार ट्रेलर तो उन्होंने दिखा ही दिया। अब आगे जो मिलेगा वह भी शायद उम्मीद से परे। साथ-साथ बढ़ते हुए हमदोनों देवी माँ के सामने खड़े थे। "बच्चा! आपदोनों की जोड़ी बनी रहे। मां के सायंकालीन आरती के लिए जो भी इच्छा हो, इस पिटारे में डाल दें। बेटी! आप देवी माँ के चरणों की सिंदूर मांग से लगाएँ, सुहाग बनी रहे, आपका।" कभी मुझे, तो कभी संभावना को सम्बोधित आशीष के साथ पंडित जी के कहे अनुसार हमदोनों यंत्रवत विधि-विधान में मशगूल थे। पंडित जी के हर आशीर्वाद में पति-पत्नी के सम्बंध का सम्बोधन छिपा था। हद तो तब हो गई, जब फूल और अक्षत संभावना के हाथों में रखते हुए मेरे हाथ में उसका हाथ रख मंत्रोच्चार कराया गया। दोनों को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था, लेकिन उतने लोगों के बीच बहुत ना-नुकूर की गुंजाइश नहीं थी। हालांकि कुछ सेकेंड की असहजता के बाद रिश्ते को दरकिनार करते हुए ध्यान सिर्फ देवी माँ पर टिकी रही। संभावना ने देवी माँ से क्या मांगा, ये तो पता नहीं, लेकिन मैंने जरूर मन ही मन देवी माँ से गुजारिश की कि पंडित जी का आशीर्वाद हकीकत हो। मां से ध्यान शायद अभी हटता भी नहीं, अगर पीछे से दर्शनार्थियों की आगे बढ़ने की आवाज नहीं आती। पीछे से हूजूम के एक धक्के ने, न चाहते हुए भी पल में हमें बाहर कर दिया। हमदोनों बाहर खड़े श्रीमती जी के आने का इंतजार करने लगे। "पूजा बहुत अच्छे से कर पाए। भीड़ होते हुए भी दर्शन आराम से हुआ?" अनचाही चुप्पी के बाद मैंने शांति भंग की। "जी! ये तो देवी माँ की कृपा ही थी, अन्यथा आपने तो बंटाधार कर ही दिया था।" संभावना मुझसे थोड़ी खफ़ा लग रही थी। मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया, तो पूछ बैठा। "मतलब, मैं समझा नहीं। मैंने क्या किया?" "बेबकूफ मत बनाइए। मुझे सबकुछ समझ में आता है। आज देवी माँ का दर्शन कराने का आग्रह मेरा था। आपने तो मुझे बताया भी नहीं कि आप दीदी को भी साथ में ला रहे हैं। ये तो देवी माँ ने मेरी सुनी, इसलिए अच्छे से पूजा कर पाई, अन्यथा मेरा आपके साथ आना तो बेकार ही होता। आप इतने भोले होंगे, मैंने सोचा ही नहीं।" संभावना का रूप आज कुछ अलग-अलग-सा लगा। अब मेरी समझ में सबकुछ आ गया और वह पूरा दृश्य भी साकार हो उठा, जब उसके घर के सामने कार में सवार होने से पहले का था। पूरे रास्ते मेरे इग्नोरेंस का भी मामला साफ हो गया। "ओहो सॉरी! मैंने इतना सोचा नहीं।" मेरे पास सॉरी के अलावा कोई विकल्प नहीं था। "सोचा करिए सर जी! एक ब्याहता आपके साथ मंदिर जाना चाहती है और आप हैं कि । खैर जाने दीजिए। जो हुआ बहुत अच्छा ही हुआ। देवी माँ ने तो मेरी मुंह मांगी मुराद पूरी कर दी। चलिये अब, दीदी आ रही है।" सामने से श्रीमती जी को आते देख उसने बात बदल दी। "कहाँ अटक गई तुम। काफी देर हुई।" पसीने से तरबतर मेरे इस सवाल पर श्रीमती जी तो बाद में कुछ बोल पाती, संभावना ने गुर्रा कर मुझे देखा। शायद कह रही थी, कि ये कैसा बेहूदा सवाल है। आप सब कुछ जानते हुए ऐसा सवाल कर रहे हैं। काश! दीदी को पता होता कि अभी हम दोनों ने पूजा के दौरान किन सम्बंधों को जीया है। "अरे मत पूछो, संभावना तो धक्का दे आगे निकल गई। मैं फंस गई। अंदर आने ही नहीं दे रहा था। अंदर काफी भीड़ हो गयी थी, शायद। तुम दोनों ने पूजा की न, ठीक तरह से। मेरे साथ तो एकबारगी भीड़ घुस गई। जैसे-तैसे माँ का दर्शन कर पाई। पहले भी आई हूँ, लेकिन ऐसा कभी नहीं देखा। अब मैं नहीं आने वाली।" बोलते हुए श्रीमती जी हांफ रही थीं। "नहीं दीदी! हम लोगों ने तो बड़े आराम से देवी का दर्शन भी किया और पूजा भी। आजतक इतने आराम से मैं किसी मंदिर में पूजा नहीं कर पाई थी। पंडित जी ने भी ढेर सारा आशीर्वाद दिया। मेरी तो मुहं मांगी मुराद पूरी हो गई।" संभावना के बोलने का अंदाज देख मैं तो हतप्रभ था। जितना कुछ उसके दिल में था, सब कुछ बोल गई, लेकिन समझ में तो सिर्फ मुझे ही आया। भूख भी लग गई थी, हमलोग एक यादगार पल को संजोए मंदिर से बाहर निकल गए। संभावना काफी खुश नजर आ रही थी। उसके चेहरे के भाव से भी उसकी खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता था। खुश तो मैं भी था, नए रिश्ते की गांठ का सपना संजोए। बदलते रिश्तों की चाहतें, हमारी कमजोरी बन चुकी थी। रात करवटें बदले गुजरी। शायद संभावना भी न सो पाई हो। चैन से अगर कोई सो रही थी, तो मेरी श्रीमती जी। सारे झंझावातों से दूर खर्राटा भरती, बनते-बिगड़ते रिश्तों से बेखबर, निश्छल, निष्कपट। न कुछ खोया, न कुछ पाया, न कुछ नया हुआ और न कुछ नया होने की उम्मीद के साथ, हर दिन की पहली किरण के स्वागत में बीते आज को ठेंगा दिखाती नींद के आगोश में कैद।