पड़ोसी / सुधाकर राजेन्द्र

Gadya Kosh से
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गोडिहा दबंगों का गाँव था, पर वहाँ कुछ घर मुसहर भी बसते थे। विपत मांझी की झोपड़ी और सुअर का बखोर मोहन बाबू के घर के पास था। मुसहरों को बसने से मोहन सिंह को कोई परेशानी नहीं थी, पर उनके पड़ोसी लाला सिंह परेशान थे। मुसहरों को उजाड़ने के लिए लाला सिंह ने मोहन सिंह को उकसाया "मोहन बाबू आपके पास विपत मांझी के सुअर का बखोर ओैर झोपड़ी आपके लिए कलंक है। उसे वहाँ से उजाड़ क्यों नहीं देते ?

मोहन सिंह ने कहा "मेरा क्या बिगाड़ा है बिपत मांझी ने। क्यों हम उसे उजाड़ दें? वह मेरा अच्छा पड़ोसी है। आप ऐसा क्यों सोचते हैं?"

इसीलिए मोहन बाबू की आपके पास उसकी झोपड़ी, सुअर का बखोर, गंदगी, रहन-सहन सब विपरीत है। उसके बच्चे आपके दालान के पास नंग धड़ग खेलते रहते हैं। यह सब ठीक नहीं है।

पर हमें और हमारे परिवार को तो बुरा नहीं लगता।

तो आप भी मुसहर बन जाइए।

हम मुसहर बने या न बने आदमी तो जरूर हैं। वह भी आदमी है। हम भी आदमी हैं। फिर उससे नफरत क्यों?

वह नीच जाति का है। उसके रहन सहन गन्दे हैं।

पर विचार तो उत्तम हैं, वह मेरा भक्त है हनुमान की तरह। कोई भी काम अरहाते हैं तो झट से कर दिखाता है।

पर आप कुछ भी कहिए उसके सुअर का बखोर आपके लिए कलंक है।

आप नहीं जानते लाला बाबू। वह मेरा अच्छा पड़ोसी है। इसी प्रकार मोहन बाबू और लाला सिंह दोनो गोतिया में बहस चलता रहा।

रात बीत चुकी थी, मोहन बाबू सवेरे शहर गये सो अभी तक लौट कर नहीं आये। जाड़े की रात, दस बज रहा है। मालिक की आशा में बिपत मांझी उनका बाट निहार रहा है। पर अंधेरी रात में कुछ पता नहीं चलता। उसने मोहन बाबू की पत्नी से टॉर्च मांगते हुए कहा ‘‘मलकिनी जरा टॉर्च देहु न, आगे बढ़ के रोड पर मालिक के देख हिअई । मालकिन से टॉर्च लेकर बिपत मांझी मोटा लाठी लिये पहुँचा गाँव से मील भर दूर पक्की सड़क पर। वहीं मालिक के आने का इन्तजार करने लगा। उनके आने की दिशा में जरा भी आहट होती वह टॉर्च भुकभुकाने लगता।

मोटर गाड़ी के इन्तजार में मोहन बाबू को काफी अबेर हो गया। वे पैदल ही चल दिये शहर से अपने गाँव की ओर। इधर बिपत मांझी मोहन बाबू के इन्तजार में सड़क पर बैठा इन्तजार कर रहा है। पूस की रात, ठन्डी पछुआ हवा हड्डियाँ बेध् रही है। पर हनुमान को अपने राम को आने का इन्तजार है।

बहुत देर के बाद एक आदमी को आने की आहट हुई। आदमी तेजी से बिपत की ओर चला आ रहा था। बिपत ने टॉर्च भुक-भुका दी। मोहन बाबू को चोर का अंदेशा हुआ, और उन्होंने चोर-चोर का शोर मचाया । बिपत भी जोर से चिल्लाया। हम बिपत ही मालिक, अपने के बनिहार-बिपता। आवाज समझकर मोहन बाबू चुप हो गये। उधर चोर-चोर के शोर सुनकर गोडिहा के लोग सड़क की ओर दौड़ पड़े। सड़क पर पहुँचने पर लोगों ने देखा कि बिपत मांझी और मोहन बाबू चले आ रहे हैं। पुरी बात जानने पर दबंगों ने बिपत मांझी की मालिक भक्ति की सराहना की।

बिपत मांझी के प्रति मोहन बाबू का प्रेम और बढ़ता गया। मोहन बाबू ने बिपत के बेटा धनेसर को अपने घर पर रख लिया। अब धनेसर स्कूल भी जाता और जानवर की सेवा भी करता। मोहन बाबू को संतानहीन होने के कारण लगता धनेसर उनके बेटा की तरह है। धनेसर मांझी को दलान की चौकी पर बैठा देखकर मोहन बाबू के पड़ोसी लाला सिंह के कलेजे पर साँप लोट जाते। बिपत और धनेसर मुसहर होकर भी मोहन बाबू को हनुमान की तरह साथ देनेवाल अच्छा पड़ोसी था । जबकि लाला सिंह सजातीय होकर भी मोहन बाबू के अच्छे पड़ोसी नहीं थे। वे दलितों और महादलितों के खिलापफ मोहन बाबू को भड़का कर उन्हे उजाड़ना चाहते थे।