पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ / राजकमल चौधरी

Gadya Kosh से
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यह कहानी एक दंत-कथा पर आधारित है। एक राक्षस होता था ‘महाभारत के युग में। अपनी बीवी को जुए के दांव पर चढ़ानेवाले पांडव-राजाओं ने उसके दोनों हाथ पत्थर की एक काली चट्टान के नीचे दबा दिए थे। सिसिरा की तरह, अथवा क्षत्रियों के शत्रु परशुराम की तरह, वह राक्षस अब भी उस काली चट्टान के नीचे दोनों हाथ दबाए, कराहता हुआ, अपने मुंह से आग और गलत अफवाहें उगल रहा है। समाजशास्त्र पढ़ानेवाले लोग कहते हैं--सारा बाजार बिकनेवाले समानों से भरा पड़ा है, कविताओं की किताब से लेकर 1,00,00,000 (यानी एक करोड़ टन) इकाइयों की शक्तिवाले हाइड्रोजन बम तक बिक रहे हैं, लेकिन हमारे पास खरीदने की शक्ति नहीं है।

हमारे हाथ पत्थर के नीचे दबे हैं। उन्हें किस ताकत से ऊपर उठा लिया जाए? जो लोग बिल्लियों को अपना मसीहा बना रहे हैं, देशी बिल्लियों को, विलायती बिल्लियों को, उनसे मेरा यह एक सवाल है। जवाब मिलना चाहिए। आप सही जवाब नहीं देंगे, तो मैं ‘महाभारत‘ के यक्ष की तरह, आप लोगों को अपने साथ कुएं में खींच लूंगा।

इस कुएं में शंख, सीपियां और उर्वशी अप्सराएं नहीं हैं। अमृत घट इस कुएं से नहीं निकला था। इस कुएं में कुछ नहीं है। हवा तक नहीं। सिर्फ मैं हूं, और बाकी सारा-का-सारा अंधेरा है। अंधेरा और खालीपन! सिर्फ मौत नहीं; बाकी सारा कुछ है यहां इस खालीपन में!!


गोलबाजार के एक किनारे, विश्वनाथ पानवाले की दुकान के सामने, एक गाड़ी रुकी। नए मॉडल की स्टैंडर्ड-टेन, सफेद रंग की। पीछे की सीट पर बैठी हुई दोनों लड़कियां बहुत छोटी और बहुत परेशान दिख रही थीं। लेकिन ड्राइवर ने बगल का दरवाजा खोला। लड़कियां बहुत संभल-संभलकर उतरीं। फ्रॉक और स्कार्फवाली लड़की जरा झटका खाकर, अपनी सहेली की बांहों में झुक गई। अचानक दोनों लड़कियां बहुत बड़ी हो गईं, औरतों की तरह-उन औरतों की तरह, जो पति के दफ्तर चले जाने के बाद, कपड़े बदलकर, आईने के सामने, अपने भारी-भरकम शरीर को तंदुरुस्त करके, किसी एक सहेली के साथ, शहर चली आती हैं। बड़ी दुकानों में रुकती हैं।

किसी अच्छे और ‘शान्त‘ रेस्तरां में बैठकर, कॉफी या कभी-कभी छिपकर ‘बियर‘ पीती हैं, और इस मौसम के लिए खुदा को तस्लीम पेश करती हैं। इलाचन्द जोशी ने हम लोगों को बताया है कि फ्रायड महाशय ने कई बातें गलत कही हैं। औरतें किस मौसम में दुनिया और सभ्यता के साथ क्या सुना करेंगी, यह फ्रायड को पता नहीं था। औरतों में ‘लॉजिक‘ काम नहीं देता है। तर्क सड़े आलुओं की तरह सड़ने लगते हैं। काम देती है दिव्य-दृष्टि, यानी ‘इंट्यूशन!‘ और यह दृष्टि लेखकों के सिवाय, फरिश्तों और वैज्ञानिकों तक के पास नहीं होती है। लेखक के पास आंखें होती हैं, और वह अंदर की चीजें देख लेता है।

लेखक कितनी देर चुप रहेगा? आखिर वह लेखक क्यों है? क्या दाय है उसका? कवि कुंवरनारायण के नचिकेता ने हजारों साल बाद जो सवाल दुहराए हैं, उनका जवाब कौन देगा? सभी चुप है। सभी विश्वनाथ के कठघरे के नीचे खड़े हैं और आदमकद शीशों में अपने पड़ोसियों के चेहरे देख रहे हैं। अपना चेहरा नहीं देखते, क्योंकि इन लोगों के पास अपना कोई चेहरा नहीं है।

फ्रॉक और आंखों पर नीले चश्मेवाली औरत का नाम है, मिस आचारी। न इससे ज्यादा, न इससे कम। बस, मिस आचारी! पहले नर्स थीं, अब नर्स नहीं है। श्रीकृष्णपुरी में अपना मकान बनाकर रहती है। पूरे बाईस साल की उम्र एक मकान बनाने में बीत गईं अपनी कार नहीं है। लेकिन छोटा सा प्यारा मकान है, जिसके पीछे के हिस्से में मिस आचारी ने मॉडल लगा रखा है। यह मकान, और बाकी कोई सपना नहीं। वह इतनी समझदार पहले भी थीं, कि शादी की बात कभी उनके ख्याल में नहीं आई।

स्टैंडर्ड-टेन से उतरने के बाद, अपने पांवों पर खड़ी होकर वह मिसेज गुलदस्ता से बोलीं, “सुनो गुल, मैं तो भाई, पहले पान खाऊंगी!“ रोज ऐसा ही होता है। मिसेज गुलदस्ता पान मंगवाती हैं, और उनका ड्राइवर मगही पान की मसालेदार, तबक चढ़ी गिलोरियां ले आता है। आसपास गुजरते हुए चंद और फैशनपरस्त औरतों की निगाहें घूम-घूमकर इन्हीं दो औरतों पर चिपकने लगती हैं। मिसेज गुलदस्ता साड़ी पहनती हैं। लेकिन, पहनकर भी, साड़ी नहीं पहनती हैं। पकी हुई देह की सांवली-पीली रेखाएं उजागर नहीं हुईं, तो आखिर इतनी कीमती साड़ी पहन लेने का फायदा क्या है? वह अपनी पुरानी सहेली मिस आचारी से कहती है, “भाईचारी, तूने ‘ग्लेमर‘ वालों के यहां वह ‘ग्रे‘ और ‘पिंक‘ की प्रिंटवाली वायल की साड़ी देखी है? एकदम ‘लेटेस्ट‘ आई है। चल, देखेगी?“

“मैं साड़ी नहीं पहनती। इट लुक्ज़ सो सैड! साड़ी तुम्हें फबती है। तुम पहना करो!“

“मगर देखने में क्या हर्ज है?“

“तुम देखो जाकर, मैं जरा ‘शू-इम्पोरियम‘ से हो लेती हूं। कई दिनों से जाने की बात थी।“

मगर गुलदस्ता ने इसरार किया और आचारी मान गई। वह हर आदमी की हर बात मान जाती हैं। मिस्टर जायसवाल को किसी मिनिस्टर के पास कोई पैरवी करनी हो, तो आचारी साथ चली जाएंगी। इनकार नहीं करेंगी। आपका हर कोई काम करवा देंगी। लोग कहते हैं, वह समाजसेवी महिला हैं। दो-एक ‘सांस्कृतिक‘ संस्थाओं की चेयरमैन भी हैं।

मिसेज गुलदस्ता बनर्जी और मिस आचारी की दोस्ती कैसे हुई, यह एक लंबी और सुनते-सुनते दूसरी सुबह हो जानेवाली कहानी है। मिसेज गुलदस्ता का असली नाम है, मिसेज करुणा बनर्जी। जुपिटर नर्सरी कंपनी के मालिक निखिल बाबू के परलोकगत बड़े भाई की विधवा हैं। अखिल बाबू मरने के वक्त सारा कारोबार, और अपने बीवी-बच्चों का भाग्य अपने छोटे भाई पर सौंप गए हैं। करुणा, यानी गुलदस्ता, अपने एकमात्र देवर बाबू के साथ ही रहती हैं।

नर्सरी के मालिक की बीवी का नाम, मिस आचारी ने बड़े प्यार से पहली ही बार मिलने पर, मिसेज गुलदस्ता रख दिया था, क्योंकि करुणा थोड़ी मोटी थी, गुलदस्ते की शक्ल में। और भारी रंगों के लाल और नीले कपड़े पहनती थी। रंगों का, तीखे और तेज रंगों का, उसे भारी शौक है।

आंखों के सामने जो भी चीज आ जाए, उसका नाम बदल डालने की बीमारी है मिस आचारी को! वह नाम बदल देती हैं। विलायती शराब की दुकान ‘जगमोहन ब्रदर्स‘ के मालिक की बीवी का नाम उन्होंने रखा है, श्रीमती मधुशाला! और, लोग चाहे नाराज ही क्यों न हो जाएं, वह पटना-अस्पताल के ‘मेटर्निटी-वार्ड‘ को ‘कोप-भवन‘ जरूर कहेंगी। जो कोई आदमी पहले उन्हें गंगा-किनारे टहलने के लिए साथ ले जाता है, फिर एक दिन नाव की सैर का निमंत्रण देता है, उसे वह हर हालत में ‘पनडुब्बा‘ कहती हैं, और कहकर यों ही शरमाती रहती हैं।

इस शर्माने की अदा, और अदा की असलियत के बारे में, साफ और सच लिखा जाए, तो लोग मुझ पर मुकदमा चला देंगे। लोगों के पास इन दिनों सबसे बड़ी दो ताकतें हैं -कानून और अस्पताल! आप कानून से नहीं डरेंगे, तो ये लोग, जिनके पास ताकत है, आपको बीमार करके, गरीब करके, पागल करके अस्पताल भेज देंगे। अस्पताल यानी ‘कोप-भवन‘...

अपने पहले बच्चे के बाद, मिसेज गुलदस्ता कभी ‘कोप-भवन‘ नहीं गईं। पति के मरने के पहले ही वह चार महीनों के लिए दार्जिलिंग गई थीं। एक परिचित डॉक्टर से मंजूरी लेकर, उन्होंने ‘आपरेशन‘ करवा लिया था। यह काम अब आकर आसान हो गया है। ‘ऑपरेशन‘ न सही, आप ‘लूप‘ लगा सकती हैं। लेकिन, पहले ‘लूप-सिस्टम‘ नहीं था। ‘आपरेशन‘ में बड़ी तकलीफ उठानी पड़ी। गुलदस्ता तकलीफ सह गईं। पीठ दिखाकर ‘आपरेशन टेबल‘ से भागी नहीं।

“तू पहले ही बच्चे के बाद चीर-फाड़ क्यों करवा बैठी, गुलदस्ता भाई?“

“और, तूने क्यों करवाया है?“

मिस आचारी पान चबा रही थीं, तभी उन्होंने गुलदस्ता की बात का कोई जवाब नहीं दिया। सामने के स्टॉल पर लगातार बच्चों के बाबा-सूट, फ्रॉक, जुराबें, रिबन, राइफल-कोट, नहाने के ‘किट‘ कतारों में टंगे हैं। हर तरह के रंग। हर तरह के फैशन। मिसेज गुलदस्ता का लड़का, मास्टर संजीत बनर्जी। मसूरी में पढ़ता है। जूनियर में है। विन्सेंट हिल स्कूल की अमरीकी पढ़ाई में वह मस्त रहता है। छुट्टियों में भी घर नहीं आता। साल में एक बार गुलदस्ता वहां हो आती हैं। अकेली। किसी होटल में कमरा लेकर रुकती हैं। पिछले साल मिस आचारी भी साथ हो गई थीं। अच्छा खेल जमा था, ‘मसूरी-क्लब में, और हैप्पी-वेली के बर्फानी रास्तों पर!

बीटल-कट बाल उगाए हुए एक जवान लड़का मिसेज गुलदस्ता की दाईं बांह के करीब से गुजर गया, तो वह मुस्कुराई। अपनी दोस्त से बोली, “मसूरी की बर्फ तुम्हें याद है? हाय, क्या बर्फ थी!“ पहले मुस्कुराना और बाद में ‘हाय‘ कहना-गुलदस्ता ने ये दोनों बातें मिस आचारी से सीखी हैं। मिस आचारी ‘कत्थक‘ की बनारसी शैली में नाचनेवाली लड़कियों की तरह मुस्कुराती हैं। संगत करने वाला तबलची ‘तत्कार‘ बोलता है। नाचनेवाली पांव और कमर के काम दिखाती हुई मुस्कुराती है। जैसे बिजली के लट्टुओं की दूधिया रोशनी की तरह ‘मुस्कुराहट‘ उसके जगमगाते चेहरे पर ‘फिक्स‘ हो गई हो।

चौगुन लय में, तीन साल की ‘तत्कार‘ चलती रही है, ताऽ थेई तत् ता थेई थेई तत् ताऽ थेई थेई तत्! और ठेका साथ दिए जाता है, धाधिंधिंधा धाधिंधिधा धातिंतिंता ताधिंधिंधा! ताऽ थेई धाधिं थेई तत् धिंधा, ताऽथेई, धाधिं, थेइधिंग, तत्धा, तत्धा! तीन ताल की ‘तत्कार‘ चौगुन लय में, और इसके बाद, शुरू की जाती है तिगुन लय में कहरवा ताल की तत्कार! नचनेवाली अपनी तालियों पर लय को दुहराती हुई, ताल की मात्राएं गिनती हुई नाचने लगती है। मिस आचारी की मुस्कुराहटें थक गई हैं, ‘फिक्स‘ हो गई हैं; हल्के लिपस्टिक से सुलगते हुए उनके होठों पर मुस्कुराहट जम गई हैं। ताऽ थेई थेई, तत् ताऽ, थेई थेई तत्, ताऽ थेई थेई, तत् ताऽ थेई, थेई तत्, ताऽ थेई थेई तत्! ठेका साथ दे रहा है। एक दायां और दूसरा बायां। दोनों बजते हैं, दोनों बर्फानी हवा के झोकों में संगीत में थिरकते हैं, धागेन, तिनक, धिनधा, गेनति, नकधि, नधागे, नतिन, कधिन। एक दायां और दूसरा बायां। लेकिन दोनों का हक बराबर है। दोनों बजते हैं। संगीत की हवा में थिरकते हैं।

ठेका बजता है, और मिस आचारी की आंखों में मसूरी-हिल की बर्फ पहाड़ों के पीछे डूबते हुए सूरज की किरणों में सात रंग, चौरासी रंग हो जाती है। शाम उतरने लगी है। ‘ग्लैमर‘ की दुकान में औरतें बैठी हुई हैं, और अपनी औरतों के पीछे मर्द खड़े हैं। भीड़ है। तमाशा हो रहा है। मिसेज गुलदस्ता जरा आगे झुककर अपनी साड़ी की पटरियां दुरुस्त करने लगीं। एक ओर पटरियां थोड़ा ऊपर उठाई गई हैं। बंबई की ‘कॉस्ट्यूम‘ फिल्मों के मुताबिक फैशन यही है। एक तरफ की पटरियां थोड़ी ऊंची रहें। साड़ी बांधी जाए, सामने की तरफ ‘नाभि‘ से जरा नीचे; और पीछे की तरफ जरा ऊपर ‘हिप‘ लाइन को उजागर करने के लिए।

मिसेज गुलदस्ता ‘आम्रपाली‘ डिजाइन की चोली पहनती हैं; लेकिन उनका जूड़ा बिल्कुल आधुनिक होता है, जिसके लिए जूड़े में प्लास्टिक की दो कटोरियां बांधनी पड़ती हैं। दो कटोरियां न हों, तो जूड़े की सूरजमुखी बनेगी नहीं। और, कटोरियों के बाद गुलदस्ता कहती है, “हाय, मेरे को संभाल भाईचारी! हम तो गए! बस, चले गए।“

मिस आचारी चौंक पड़ती हैं। क्या हुआ? कुछ नहीं हुआ। कुछ भी नहीं होगा। बात सिर्फ इतनी सी है कि पंजाबी चाटवाले के स्टॉल पर आर.डी.बंसल की फिल्म ‘मोरे मन मितवा‘ का फोरसीटर पोस्टर टंगा है और पोस्टर में सीधे तनकर खड़ा है अभिनेता सुजीत कुमार, साफा बांधे हुए, ताबीज पहने हुए, साढ़े पांच हाथ की भोजपुरी लाठी कंधों में लगा, गंवई ठाठ में हंसता हुआ। और, उसकी बगल में छोटी सी, शरमाई हुई सी अभिनेत्री नाज कुमारी खड़ी है, मदमाती हिरनी की तरह! मिसेज गुलदस्ता यह पोस्टर देखकर मोमबत्ती की तरह पिघलने लगती हैं।

हाय, क्या शानदार पर्सनालिटी है, इस आदमी की! जैसे, बड़ी-से-बड़ी दीवार को चूर-चूर-चूर कर देगा! हू इज ही? कौन है यह आदमी? कौन है? मिसेज गुलदस्ता यह सवाल पूछ ही नहीं सकीं, क्योंकि मिस आचारी ने उनकी बांह झटककर, नकली गुस्से की आवाज में कह दिया, “स्टुपिड मत बनो, गुलदस्ता! नो, नो यहां नहीं! लोग क्या कहेंगे? चलो, ‘ग्लेमर‘ में चलते हैं। लौटते वक्त ड्राइवर से कह देंगे, इस फिल्म की दो टिकटें ले आएगा...“


देश को पिछले तीन हजार वर्षों से परंपरा और पाणिनी, कामसूत्र और राजदंड से बंधी-चिपकी हुई भारतीय संस्कृति की आवश्यकता है, हीरो-हीरोइन के ऐसे एक फिल्मी जोड़े की-जो मिसेज गुलदस्ता को ‘अन-एडल्टर्ड‘ असली घी से काढ़कर निकाली गई लोक धुनों की लय पर बसाए गए प्यार का तमाशा दिखा सके। ‘मेक्सिकन आर्ट‘ यही है। ‘बीट‘ साहित्य, बिटलों के गाने, पिकासो, गोर्की, ‘जैज‘ संगीत और ऐसी सारी चीजें इसी प्यार से बनी हैं। लोकधुनों की लय पर बांधा गया प्यार एक बेहद बुरी सूरत में सतीश गुजराल के पास है, क्योंकि उसने अमृता शेरगिल के गांव की घूंघटदार औरतों को, संस्कृत-पाठ रटते हुए अल्पवयस्क ब्राह्मण बालकों को, और अपने खेतों में क्यारियां बनाने के लिए एक सिलसिले में खड़े हलवाहों को मेक्सिकन आदिम आर्ट के काले और बदसूरत मुखौटे पहना दिए। लेकिन जामिनी राय की बड़ी-बड़ी ‘काली-घाट‘ आंखोंवाली तस्वीरें? लेकिन, कीचड़ और कूड़े में उम्र बितानेवाले, गोर्की के पात्र!

पात्रों को मिसेज गुलदस्ता जैसी पात्रियों को फिल्म ‘तीसरी कसम‘ का हीरामन और हीराबाई चाहिए, और चाहिए ‘पूरबी‘ शैली के जन्मदाता महेन्दर मिसिर के लहरदार गीत-हजार जान मरिहें राम, टिकुलिया तरके बिदिंया...! लेकिन अंततः यह बात भी फैशन से रिश्ता रखती है, क्योंकि फैशन चांदी के लंबे झुमकों और चांदी के चौड़े बाजूबन्दों का है। इस नए फैशन में गुलदस्ता का चेहरा ज्यादा लंबा और ज्यादा सलोना लगता है। लोग उनकी भारी-भरकम ‘डाइटिंग‘ के बावजूद भरते जाते हुए शरीर को नजरअंदाज करके उनके सलोनेपन की जासूसी करने लगते हैं।

“थैंक्यू भाईचारी, तुमने मुझे संभाल लिया!“

“यह तो मेरी ड्यूटी थी!“

“फिर भी, इस बाजार में...“

“कोई बात नहीं, गुल-बेगम, कोई बात नहीं!“

“लोग क्या कहते?“

“कहते क्या, हंगामा खड़ा हो जाता...“

“ह न?“

“हां जी, लोग तमाशा बना लेते!“

“अच्छा?“

मिस आचारी एक बार फिर ‘कत्थक‘ वाली मुस्कुराट में गिरफ्तार होकर शरमाई और ‘ग्लैमर‘ में घुस गईं। दोनों बाजुओं में दो ‘मॉडल‘ औरतें खड़ी हैं और टेरेलिन के प्यारे-प्यारे कपड़े पहने हुए, अपने ग्राहकों का स्वागत कर रही हैं-सफेद प्लास्टर की दो औरतें। आचारी अंदर बैठे हुए, खरीद-फरोख्त करते हुए लोगों का मुआयना करने के लिए, एक क्षण रुक जाती है। नहीं, कोई उसका परिचित नहीं है, न कोई मर्द, न कोई औरत। सभी उसके लिए अजनबी हैं। मिसेज गुलदस्ता साड़ियों की कतारें देखने लगीं। कहां है ‘ग्रे‘ और ‘पिंक‘ फूल पत्तों के प्रिंट की वह साड़ी वायल की?

साड़ी नहीं है। ‘लेटेस्ट‘ डिजाइन की वह साड़ी कहीं नहीं है। मिसेज गुलदस्ता एक खाली कुर्सी पर इस तरह ‘धम्म‘ की आवाज के साथ बैठ गईं, जैसे अगले क्षण वह बेहोश हो जाएंगी। दुकान के मालिक सेठ चरनदास ने कहा, “एक ही ‘पीस‘ आई थी, सर। नारायण बाबू डिप्टी मिनिस्टर की लड़की ले गई...! मगर माल फिर आएगा, सर! इसी महीने आएगा...“

मिसेज गुलदस्ता कई बार चरनदास पर गुस्सा कर चुकी हैं कि वह साहब और मेमसाहब, दोनों को ‘सर‘ कहता है, मेमसाहब को ‘मैडम‘ नहीं कहता। आज उन्हें गुस्सा नहीं आया। गुस्सा आया भी, तो अपनी मूर्खता पर आया। आखिर उस दिन जब साड़ी देखी थी, तो खरीद क्यों नहीं ली? पैसे उस दिन थे नहीं। निखिल मक्खीचूस आदमी है, बार-बार पैसे नहीं देता। कहता है, “देखो करुणा, जमाना बहुत बुरा आनेवाला है। पैसे बचाकर रखने चाहिए। मुझे गलत मत समझो! मेरा क्या है, यह सारा कारोबार तो तुम्हारा ही है...।“

लेकिन वायल की वह साड़ी? डिप्टी मिनिस्टर की लड़की वही साड़ी पहनकर, अपने ‘दोस्त‘ के साथ शहर घूमने निकलेगी? दिस इज वेरी सैड। कितने दुख की बात है! मिसेज गुलदस्ता ने अपनी आंखें बंद कर लीं और पत्थर की बुत बन गईं। चेहरा सफेद से पीला और पीले से सफेद होने लगा।


जेनेवा में छियानबे शांतिप्रेमी राष्ट्रों की बैठक हुई। टोकियो में अणु-शस्त्रास्त्रों के विरोध में ग्यारहवां अंतर्राष्ट्रीय शांति-सम्मेलन किया गया। हिन्देशिया की प्रवक्ता श्रीमती उत्तमी सूर्यदर्मा ने कहा, “विकासशील देशों के परमाणु-शस्त्र आजादी की सुरक्षा के साधन हैं, और साम्राज्यवादियों के शस्त्र और युद्ध नरसंहार के साधन!“ अमरीकी राष्ट्रपति जॉन्सन ने संसद में 1956 का ‘सामाजिक सुरक्षा संशोधन बिल‘ पारित कराया, जिसके अनुसार अमरीका के दो करोड़ वृद्ध नागरिकों के लिए सरकार की ओर से जीवन-यापन, चिकित्सा और ऐश-आराम का प्रबंध किया जा सकेगा, और अमरीका की काली जातियों को सफेद जातियों के समान मतदान, शिक्षा, व्यवसाय के अधिकार दिए जाएंगे।


थाई देश की सुंदरी, कुमारी अप्सरा हंसकुल ने, कियामीबीच (फ्लोरिडा) में की गई, छप्पन देशों की स्त्री-सौंदर्य-प्रतियोगिता में इस वर्ष प्रथम स्थान प्राप्त किया। अखबारों के अनुसार इस परंपरा का परिचय इस प्रकार है-उम्र 18 साल; कद 5 फुट 4 इंच; वनज 116 पौंड; वक्ष 35 इंच; कमर 22 इंच और नितंब 35 इंच। ‘35-22-35‘ ही अप्सरा हंसकुल का असली परिचय है।


मिसेज गुलदस्ता का परिचय है-‘46-32-46‘ और इस परिचय पर उन्हें थोड़ा-बहुत घमंड भी है। लेकिन मिस आचारी ने, फिर भी एक हल्का-सा मजाक ठोक ही दिया, “तू क्यों फालतू एक साड़ी के लिए जी खराब करती है, गुल रानी? कुल इक्यावन इंच मोटी तो तेरी कमर है, इस पर तो चाहे जो साड़ी बांध ले, तुझे फिट आ जाएगी...“

गुलदस्ता नाराज हो गईं। बोली कुछ नहीं। नाराज होने पर उनके नथुने फूल जाते हैं, मगर वह बोलती कुछ नहीं। नाराजगी में बोलना मना है। अतएव मिसेज गुलदस्ता कुर्सी से उठ खड़ी हुईं। मिस आचारी की ओर उन्होंने देखा तक नहीं। सेठ चरनदास से बोलीं, “एक गिलास सादा पानीं मंगवाइए, सेठ साहब!“ और हैंडबैग से उन्होंने पीले रंग के तीन ‘केपसोल‘ निकाले। पानी के साथ, एक-एक कर तीनों टिकियां खा गईं। मुंह पोंछ लिया। सेठ साहब को नमस्ते करके दुकान से बाहर आ गईं। चुपचाप, अकेली सुर्ख होती हुई।

जब तक मिसेज गुलदस्ता अपनी गाड़ी के पास पहुंच गई और ड्राइवर ‘स्टीयरिंगव्हील‘ पर बैठ गया। मिस आचारी ‘ग्लैमर‘ के बरामदे में खड़ी होकर दोनों ‘मॉडल‘ लड़कियों को ही देख रही थीं। मिसेज गुलदस्ता का गुस्सा तेज हो गया। बोलीं, “गाड़ी बढ़ा लो। वह अभी जाएगी नहीं!“

स्टैंडर्ड-टेन धचका खाकर जरा ऊपर उठी, फिर सीधी होकर सामने की चौड़ी सड़क पर चली गई। मिस आचारी प्लास्टर की दोनों लड़कियों के बीच में खड़ी, मुस्कुराती हुई यह सोचने लगी कि अपने लिए एक स्टैंडर्ड-टेन का इंतजाम करना चाहिए या नहीं। अंत में उन्होंने निर्णय लिया-चाहे मकान ही क्यों न बेचना पड़ जाए, गाड़ी लेना जरूरी है।

नई कहानियां, मई, 1966