पत्थर बुला रहे हैं / अंजना वर्मा

Gadya Kosh से
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अपने प्रवासी अनुज के स्नेह-भरे बुलावे पर मेरी इस वर्ष की गर्मी की छुट्टी उसी के लेस्टर स्थित घर में बीती जहाँ रहते हुए हर सप्ताहांत कहीं-न-कहीं जाने का प्रोग्राम बनता रहा और हम घूमते रहे। यह जून का महीना था जबकि अपने देश में सूर्यदेव बिल्कुल निर्मम हो चले थे और सारी धरती को अपनी लाल-पीली नजरों से ताकते हुए जला देने के लिए तैयार थे, पर उसी समय इंग्लैंड में इतने नरम और खुशदिल बने हुए थे कि वहाँ रहते हुए मैं भूल चुकी थी कि जब मौसम का मिजाज गर्म हो तो क्या झेलना पड़ता है! वहाँ ध्ूाप ऐसी कोमल थी मानो अक्तूबर-नवम्बर की धूप हो। इसलिए वहाँ रहते हुए वहाँ के तापमान ने मुझे बहुत सुख पहुँचाया। जिस दिन बरमिंघम पहुँची थी उस दिन इतनी हल्की बारिश हो रही थी जैसे कुहासा बरस रहा हो। भाई-भाभी दोनों एयरपोर्ट पर मुझे रिसीव करने आये हुए थे। बरमिंघम से लेस्टर पहुँचने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा।

मेरे भाई दीप ने पहले ही सप्ताह में मुझे स्टोनहेंज घुमाने का प्लान बना लिया जो पूरे विश्व में अपनी अजीबोगरीब प्रस्तर-रचना के लिए मशहूर है और जिसे देखने के लिए हर दिन पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। इसकी रचना ऐसी है कि कई लोग इसे स्थापत्य नहीं कहना चाहेंगे, जबकि गहराई से सोचने पर निष्कर्ष यही आएगा कि यह उस काल के स्थापत्य का ही एक बेहतरीन नमूना है जब सभ्यता अपने शैशवकाल में थी। 3000 से 2000 ई. पू। की यह अनूठी रचना अनगिनत भूकंप और प्रकृति के अन्य प्रकोपों को झेलकर भी तनकर खड़ी है तथा समय को चुनौती दे रही है। सभ्यता-संस्कृति के पहले पायदान पर खड़े मानव द्वारा निर्मित यह स्थापत्य अपने में ताजमहल से कम नहीं।

हम साढ़े नौ बजे सुबह घर से निकले। उस दिन छः बजे से ही बारिश हो रही थी जो चलने के समय थोड़ी और तेज हो गयी। साथ में भतीजी भी थी और भाभी के माता-पिता भी। सभी कहने लगे कि अब ऐसे मौसम में घूम पाना मुश्किल होगा। पर न जाने क्यों मुझे उम्मीद थी कि बारिश छूट जायेगी और सचमुच ऐसा ही हुआ। कुछ दूर आगे बढ़ने पर जब वर्षा बंद हो गयी तो सबके चेहरे खिल उठे। बादल फिर भी आकाश में छाये हुए थे।

हम छः लोग थे और दो गाड़ियाँ चल रही थीं। सड़क की अगल-बगल की जमीन खूब हरी-भरी थी जैसी कि इंग्लैंड में अमूमन दिखायी पड़ती है। आप जायेंगे तो यह ध्रती आपको बाँधेंगी इसमें कोई शक नहीं। ध्रती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति यदि भौतिक रूप से अपनी ओर खींचती है तो उसकी हरियाली और उसका साहचर्य भी आत्मिक रूप से अवश्य खींचता है। तभी तो लोग अपनी धरती से ऐसे बँधते हैं जैसे वह माँ हो या नानी-दादी हो! सड़क पर दोनों गाड़ियाँ पूरी रफ्तार से दौड़ी जा रही थीं। हाँ, जहाँ गति कम रखने के निर्देश थे वहाँ तो कम करना मजबूरी ही थी।

मैंने अपने मोबाइल को जान बूझकर ब्रिटिश समय के अनुसार सेट नहीं किया था कि भारतीय समय का भी पता आसानी से चलता रहे और मैं सोच सकूँ कि इस समय मेरे देश में वहाँ क्या हो रहा होगा? या यदि मैं वहाँ रहती तो क्या करती होती इस समय? भारतीय समय के मुताबिक अपराह्न के 3ः50 बजे थे और यहाँ समय हो रहा था पूर्वाह्न का 11ः25. हमें कहीं रुकने की ज़रूरत महसूस हुई तो हम एक पेट्रोल पंप पर रुके जहाँ सभी प्रसाधन जाकर तरोताजा हुए. दीप कॉफी, चिप्स, चॉकलेट वगैरह लेकर आये तो हम फिर आगे बढ़े।

विदेशों में लंबी यात्रा में कन्जेशन का भय बना रहता है जो हमें भी घर से निकलते समय घेरे हुए था। पेट्रोल पंप से आगे बढ़े तो ...जिसका डर था बेदर्दी वही बात हो गयी कन्जेशन मिल ही गया। सड़क पर आगे कोई दुर्घटना हो गयी थी जिसके कारण गाड़ियों को धीमी गति से चलना पड़ रहा था। कुछ दूर तक तो हमें भी सरकते हुए चलना पड़ा। खैर! हम एम्सबरी पहुँच गये-एम्सबरी यानी स्टोनहेंज के निकट।

अब हम स्टोनहेंज जानेवाली गाड़ियों की क्यू में लगे हुए थे। आगे बढ़ने पर जब सड़क की दोबगली हरी-हरी झाड़ियाँ कम हुई तो खुला विस्तृत मैदान दिखायी पड़ा और दूर से ही दिखायी पड़ी पत्थरों को खडाकर बनायी गयी एक विचित्र रचना! पर वह काफी दूर थी और हरे-भरे मैदान का विस्तार ऐसा था कि वहाँ जाने में अभी भी समय लगता। स्टोनहेंज आँखों के सामने था पर दूर! हम रोमांचित होकर उसे देख रहे थे।

गाड़ी पार्क करने के बाद पता चला कि वहाँ तक जाने के लिए बस की शटल सर्विस शुरू हो गयी है। दीप ने कहा कि पहले तो गाड़ी बिल्कुल नजदीक में पार्क कर पर्यटक गाड़ी से उतरकर देख लेते थे। परंतु अब नियम बदल गया था। शटल सर्विस शुरू हो गयी थी और उस पुरातन स्थापत्य के चारो ओर फेंसिंग भी कर दी गयी थी जो पहले नहीं थी। मेरे भाई-भाभी यहाँ कई बार आ चुके थे। अतः वे गरिमा पर घुमाने का काम सौंपकर स्वयं कहीं और चले गये। गरिमा सबके लिए टिकट लेकर आयी।

हम सबसे पहले स्टोनहेंज संग्रहालय देखने गये जहाँ स्टोनहेंज के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए कई तरह की चीजें थीं। जैसे-कई तरह के अवशेष, हड्डियाँ, फॉसिल्स, कई प्रकार की आकृति के पत्थर वगैरह, साथ ही इन पर हुए अनुसंधान की जानकारी भी। इससे बाहर निकलते ही कई झोपड़ियाँ दिखायी दीं। दरअसल ये तत्कालीन कबीलों की जीवन-शैली को दिखाने के लिए बनायी गयीं झोपड़ियाँ थीं जो यह जानकारी देने के लिए बनायी गयी थीं कि वे लोग कैसे रहते थे। यह सब उनकी जीवनशैली सम्बंधी खोज और अनुमान पर आधरित था। जब हम झोपड़ी के भीतर गये तो वहाँ बाँस की खाट बनाकर रखी गयी थी जिसे देखकर तत्कालीन जनजाति की सीधी-सादी प्राकृतिक ज़िन्दगी का अंदाज लगाया जा सकता था। यह सब देखना और उस सभ्यता के बारे में जानना इतना अच्छा लग रहा था और उनलोगों के विषय में कई अटकलें लगाना भी कि वे कैसे जीते होगें? क्या करते होगें? वगैरह।

मैं और मेरी भतीजी गरिमा बस की आगे वाली सीट पर बैठ गयीं। तभी स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा दिखायी पड़ा जिसे बस में चढ़ना था। पुरुष ने एक टिबटेन मास्टिफ की चेन हाथ में पकड़ रखी थी। ज़ाहिर था कि वह कुत्ता उसका गाइड था। पुरुष की आँखें पूरी तरह खुली हुई थीं और सुंदर थीं, परंतु साफ पता चलता था कि वह देख नहीं पा रहा था क्योंकि दृष्टि सीधी और स्थिर थी। महिला ने जब उसे उपर चढ़ने में सहारा देना चाहा तो उसने कहा, 'नो, आइल मैनेज माइसेल्फ।'

यह सुनकर वह रुक गयी। वह पुरुष खुद ही चढ़ा, बल्कि यूँ कहें कि पहले कुत्ता बस के अंदर आया तब वह। फिर वह महिला आयी। अब वे तीनों अंदर आकर खड़े थे और बस की सीटें भर चुकी थीं। इन्हें पहले बैठने की ज़रूरत है यह सोचते हुए हम दोनों ने उठकर उन्हें अपनी सीटें दे दीं। उस काले कुत्ते को देखकर मुझे अपना टिबटेन मास्टिफ 'टेडी' याद आ गया जो अब इस दुनिया में नहीं है।

बाद में बस हरे-भरे खेतों के बीच से गुजरती रही। थोड़ी देर में ही जिज्ञासा से लबालब भरे जब हम बस से स्टोनहेंज के पास पहुँचे तो वहाँ काफी भीड़ थी। निर्जन अछोर खेतों के बीच खड़ी है यह रचना जहाँ मीलों तक कोई आबादी नहीं है। गेहूँ या गेहूँ से मिलती-जुलती फसल के खेत थे जिनका धानी विस्तार दृष्टि सीमा तक पसरकर नीले अनन्त से एकाकार हो रहा था।

अब आँखों के सामने थी भारी-भारी आयताकार पत्थरों से बनायी गयी यह रचना जो इन खामोश खेतों की तरह अपने सारे रहस्य दबाये मौन खड़ी थी। एक खास सभ्यता-संस्कृति के विचार-दर्शन-कला की विशिष्टताओं का प्रस्फुटन, अज्ञात इतिहास की साक्षी! भारी-भारी पत्थर आश्चर्यचकित कर देने वाले थे। ये पत्थर इतने भारी थे कि इन्हें देखकर अनायास यह सवाल दिमाग में उठ गया कि जिस काल में क्रेन नहीं थे उस काल में इन्हें निर्माण के क्रम में कैसे उठाया गया होगा? ये दूर से ही लाये गये होंगेय क्योंकि आसपास तो कोई पहाड़ नहीं है और दूर से इन्हें लाया भी कैसे गया होगा? किस सवारी पर? एक-एक पत्थर का वजन 30-30 टन तक है। अभी तक जो शोध हुए हैं उनके आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि ये पत्थर साउथ वेल्स से, 280 कि।मी। दूर से लाये गये होंगे। इन्हें शायद पेड़ों के तनों पर रखकर लुढ़काकर लाया गया होगा जिस काम में सैकड़ों लोग एक साथ लगे होंगे और पूरी निष्ठा व श्रम के साथ इसका निर्माण हुआ होगा जिसका मकसद व्यक्तिगत न रहकर सामूहिक या सामाजिक रहा होगा।

स्टोनहेंज के इन भारी पत्थरों को इस तरह खड़ा किया गया है जैसे बच्चे बिल्डिंग ब्लॉक्स रखकर घर बनाते हैं। दो-दो पत्थरों को बीच में थोड़ा-सा स्थान छोड़कर खड़ा कर उनके ऊपर से एक पत्थर रखकर द्वार जैसी आकृति बना दी गयी है। दो उदग्र पत्थरों को ऊपर से एक पत्थर से पाटकर बने ऐसे कितने ही द्वार एक गोलाई बनाते हुए खड़े हैं। ताज्जुब की बात यह है कि इसमें छत नहीं हैं और न ही ये घर की तरह हैं। एक गोलाई में चारों ओर से सिर्फ़ द्वार-ही-द्वार हैं। कहीं-कहीं ऊपर के पत्थर के गिर जाने से यह क्रम टूट गया है। लगता है भारी भूचाल में ये पत्थर ऊपर से गिर गये होंगे। अब तक की खोज से इसके सम्बंध में कई तरह के निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। इसे तत्कालीन मंदिर माना जाता है या ऐसा स्थान जहाँ लोग एकत्र होते थे और कोई ऐसी पूजा-अर्चना होती हो जिसका सम्बंध सूर्य से रहा होगा, क्योंकि अभी भी वर्ष में एक खास दिन सूर्य की किरणें एक निश्चित कोण पर यहाँ दिखायी देती हैं। एक दंतकथा के अनुसार ये पत्थर 'हीलींग स्टोन' हैं जो अपने इसी गुण के कारण अफ्रीका से लाये गये। यह शांति और एकता का प्रतीक रहा होगा-यह भी कयास लगाया जाता है। इसे कब्रगाह भी माना जाता है, कारण कि यहाँ खोदने पर मानव-अस्थियाँ निकलती रहीं। संभवतः यहाँ बलि भी दी जाती थी। यह अनगढ़-सी दिखनेवाली पत्थरों की रचना अपने जमाने में महत्त्वपूर्ण सामाजिक जगह रही होगी जिसे देखने के लिए आज भी रोज सारे विश्व से भीड़ जुटती है। लोग मोबाइल से सेल्फी ले रहे थे और तस्वीरें उतार रहे थे। हम सबने भी कई कोणों से तस्वीरें लीं।

खुली दिशाओं से आनेवाली तेज खुली हवाएँ ताजगी का तोहफा दे रही थीं और मन-प्राण में समा रही थीं। बाँयी ओर कुछ खूब मोटी तंदुरुस्त गायें आराम से बैठी थीं और वहीं काग की तरह दिखने वाले काले पक्षी जमीन में चोंच डाल-डालकर कुछ खोद और निकाल कर खा रहे थे।

अब हम लौट रहे थे। मैं इस प्रागैतिहासिक काल की पहेली-सी दिखने वाली रचना को देखकर अभिभूत थी और यह भी सोच रही थी कि हमारा अधिकांश इतिहास अज्ञात है। मानव ने अपने विकास के क्रम में जितनी लम्बी दूरी तय की है उसका बहुत छोटा-सा हिस्सा ही प्रकाशमान है। यह अज्ञात अँधेरा मानव जाति के अदम्य साहस और संघर्ष की कथाओं का अक्षय-कोष है जिसका शतांश भी हम कभी नहीं जान पायेंगे और यह उस इमारत की आधारशिला है जिस पर हमारी आज की विकसित दुनिया का शिखर जगमगा रहा है।

हमारे आगे अनगिनत विदेशियों के बीच कई भारतीय भी चले जा रहे थे जिनमें कुछ औरतें भी थीं। सलवार-कुर्ते में उन्हें देखकर माटी की गंध मन को छू गयी। तभी इनमें से एक ने अपने संग चल रही दूसरी महिला से कहा, "लक्खन रुपया फूँक के खाली पत्थर देखै चलन ।" हम अपनी बस की ओर बढ़े जा रहे थे।