परंपराएँ जिंदा रहीं, औरत मरती रही / संतोष श्रीवास्तव

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गीता के दसवें अध्याय में कृष्ण ने नारी को अपनी विभूति कहा है। हिन्दी धर्म में भी उसे लक्ष्मी माना गया है। जैसे हीरे की चमक किसी से छिपी नहीं रहती वैसे ही न विभूति छिपती है न लक्ष्मी और जब इन दोनों की कीर्ति फैलती है तो उसमें ईश्वर का वास होता है। कृष्ण ने स्त्रियों में अपनी सात विभूतियों की चर्चा कि है। कीर्ति... कीर्ति सत् चरित्र से फैलती है। स्त्री को चरित्रवान होना चाहिए। दूसरी है श्री... यानी तन और मन का सौंदर्य... तन तो ईश्वर का दिया है लेकिन अपना मन स्त्री को स्वयं गढ़ना है। मन निर्मल हो, निच्छल हो, नि: स्वार्थी हो, दयालु हो और सहनशील तथा संतुष्टि धारण करने वाला हो। तीसरी विभूति है वाणी... स्त्री की वाणी छलकपट से परे हो, धर्मयुक्त हो, करुणा से भरपूर हो... ऐसी न हो कि दुश्मन बनें, ऐसी हो कि दुश्मन दोस्त बन जाएँ... स्त्री की बाकी चार विभूतियाँ उसके चार गुण हैं-स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा। वह अफने परिवार के प्रति, समाज के प्रति कर्तव्यों की याद रखे... परिवार के लिए सुबह से रात तक के अपने कामकाज न भूले, बुद्धिमान हो ताकि दूसरों की बात अच्छी तरह समझ सके, अपनी बात समझा सके। धृति का गुण स्त्री में होना अनिवार्य है। धृति यानी पकड़कर रखना, काबू में रखना... अपनी नींद, भूख, वासना, इच्छा, लालच, क्रोध... इन सबको काबू में रखे और क्षमा तो स्त्री का आभूषण ही है। ऐसी सर्वगुणसंपन्न स्त्री में कृष्ण का निवास है। कृष्ण जो स्वयं अलंकार प्रिय, भोगप्रिय, कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ और आठ पटरानियों और ग्यारह सौ रानियों के पति थे और जिन्होंने ब्रज की गोपियों को ऐसा मोहित किया कि वे बेचारी किसी दीन की नहीं रही... वह बांसुरी की धुनि कानि परि / कुलकानि हियो तजि भाजती हैं।

नारी को आधी आबादी कहा गया है। धर्म में इस आधी आबादी की स्वतंत्रता कि सीमा निश्चित की गई है। उसकी प्रतिष्ठा आध्यात्मिक ग्रंथों तक सीमित रही है... सामाजिक जीवन में तो उसके लिए तयशुदा सीमाएँ हैं, लक्ष्मण रेखाएँ हैं। आदिकाल में नारी के अधिकारों की थोड़ी बहुत प्रधानता अवश्य थी। धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ-साथ पितृसत्तात्मक परिवार प्रतिष्ठित होते गए और इनके बीच फंसकर नारी ने अपने अधिकार और स्वतंत्रता खो दी। शरीर से कोमल नाजुक होने के अलावा वह और किसी भी दृष्टि से पुरुष से हीन नहीं है। परंतु इसी कोमलता और दुर्बलता का पुरुष ने पूरा लाभ उठाया और उस पर हावी हो गया। उसके पुरुषार्थ का मतलब हो गया स्वार्थ।

जैसे-जैसे सभ्यता आगे चली, ज्ञान-विज्ञान का विकास होने लगा। पुरुषों ने स्त्रियों को दबाए रखने के लिए उसकी प्रशंसा में श्लोक और स्तोत्र आदि रच डाले, उसे स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय दिखाया। यह सब इसलिए ताकि वह डरी सहमी, उसके इसारों पर नाचती दासी बनकर रहे। उसने जपतप में रिद्धि-सिद्धि प्राप्त करने में स्त्री को सबसे बड़ी बाधा माना। यहाँ तक कि उसे नरक का द्वार कह घर-परिवार उसके भरोसे छोड़ स्वयं तप करने जंगलों में चला गया। ऐसे तपस्वियों को समाज ने प्रशंसा कि दृष्टि से देखा, मान-सम्मान दिया पर उस स्त्री का तप नहीं देखा जो उसने उस पुरुष की गृहस्थी सम्हालने में स्वयं को स्वाहा किया? आज कौन है जो यशोधरा, को उर्मिला को या मांडवी को याद रखता है। सभी तो गौतम बुद्ध, लक्ष्मण और भरत के आगे नतमस्तक हैं। क्या कोई स्त्री घर द्वार पति के जिम्मे छोड़ तपस्या करने और सिद्धि प्राप्त करने के लिए पुरुष को बाधा मान जंगल या पहाड़ों में गई है? इसका अर्थ यह हुआ कि स्त्री को मुक्ति के लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं। उसकी मुकत् िइसी में है कि वह अपने पति को खइस रखे और गृहस्थी संवारकर रखे या फिर तपस्या करने का अधिकार र्फि पुरुषों को है और वह अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्त्री को कभी भी त्याग सकता है।

इतिहास में तपस्या करके सिद्धि प्राप्त करने या अन्य धर्म चलाने के लिए रावण, मेघनाद, बलि, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर, गौतम बुद्ध, महावीर, दुर्योधन, अर्जुन आदि असंख्य महारथियों के नाम सुनने को मिलते हैं परंतु किसी स्त्री द्वारा भी घोर तपस्या प्राप्त करके सिद्धि प्राप्त करने की घटना सुनने में नहीं आई। हाँ, पार्वती ने ज़रूर तप किया पर न तो रिद्धि-सिद्धि पाने के लिए और न ही धर्म स्थापना के लिए बल्कि शिवजी को पति रूप में पाने के लिए। स्त्री को पति तक ही सीमित रखने की इस मानसिकता के जाल में वह सदियों से जकड़ी है।

शादी ब्याह, यज्ञ, हवन आदि में स्त्री पुरुष के बायीं ओर बैठती है। फेरों के समय बाईं ओर बैठी स्त्री-पुरुष का अनुकरण करती हुई हवन में आहुति डालती है। हर धार्मिक रस्म में उसे पुरुष के पीछे रखा जाता है और कहा जाता है कि वह पुरुष की अनुगामिनी है। जबकि करोड़ों पुरुष मंदिर में दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली, पार्वती माँ की पूजा करते हैं और कन्या को लक्ष्मी रूपा मानते हैं। नवरात्रि के समय हिंदू घरों में क्वांरी कन्याओं के पैर परवार कर, पूजा कर भोजन कराते हैं ताकि उनकी मन्नतें पूरी हो। वही पुरुष घर और समाज में नारी का शोषण करते नहीं हिचकिचाते। उसे अभिशाप मानते हुए अपनी प्रगति में बाधक मानते हैं, सिवाय इस अपवाद के कि पुरुष उससे अपनी वासना को तृप्त करता है तो नारी इस मामले में उत्तम है।

चाहे कर्मकांड हो या शुभ मांगलिक कार्य... स्त्री के प्रति धार्मिक भेदभाव साफ दिखाई देता है। किसी भी कर्मकांड में वह शामिल नहीं हो सकती। दाह संस्कार, पिंडदान, श्राद्ध, बरसी आदि करने की आज्ञा धर्म ने लड़के को, पुरुष को ही दी है। विडंबना देखिए कि नारी की कोख से उसके रक्त मांस से पैदा हुआ नर ही तर्पण करे तो मृतात्मा को मुक्ति मिलेगी।

आज विश्व में जितने भी धर्म हैं... हिन्दू, इस्लाम, कैथोलिक, जैन, बौद्ध, सूफी, यहूदी, सिक्ख आदि... सभी धर्मों के संस्थापक पुरुष हैं स्त्री नहीं... नहीं स्त्री किसी धर्म की संचालिका है। न वह पूजा-पाठ, कथा-हवन कराने वाली पंडित है, न मौलवी है, न पादरी है। वह केवल पतिव्रत धर्म का पालन करने इस संसार में जन्मी है। इस धारणा के साथ कि जिस घर में जन्मी वहाँ से उसकी डोली उठेगी और जिस घर में ब्याही वहाँ से अर्थी। डोली से अर्थी तक की इस यात्रा में, स्त्री कई-कई बार मरी है पर उफ करने का अधिकार उसे नहीं।

जाहिर है कि खुद को सर्वोच्च मानने वाला पुरुष यह सहन नहीं कर सकता कि धार्मिक दृष्टि से स्त्री पुरुष का मुकाबला कर सके। अत: झूठी धार्मिकता एवं संस्कारों का आवरण ओढ़कर वह नारी से श्रेष्ठ ही बना रहना चाहता है। नारी को हीन माना जाना वस्तुत: धर्म के सम्बंध में उसका पिछड़ा होना है।

धर्म को लेकर कई बार उसका अशोभनीय इस्तेमाल भी किया गया। यह घटना अत्यंत विकसित देश आॅस्ट्रेलिया कि है। आॅस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य के छोटे से शहर औयीन में लगातार सूखे से तंग आकर इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए एक नृत्य का आयोजन किया गया। जिसमें करीब पांच सौ निर्वस्त्र महिलाओं ने नृत्य किया। आयोजकों ने बताया कि वर्षा के लिए किए गए इस धार्मिक नृत्य का आयोजन नेपाल के एक पारंपरिक नृत्य से प्रेरित होकर किया गया। आयोजन समिति को पूरा विश्वास है कि ऐसा करने से बारिश अवश्य होगी। अगले कुछ दिनों में या एक सप्ताह में निश्चित ही।

महाराष्ट्र में अहमदनगर के बाहरी हिस्से में बसा एक गाँव है शिंगणापुर। वहाँ के मंदिर में स्त्रियों का प्रवेश निषेध है। इतना ही नहीं इस निषेध को सही ठहराते हुए कुछ आध्यात्मिक समिति के कार्यकर्ताओं ने अहमदनगर में प्रदर्शन भी किया। इस गाँव की औरतों को सूर्य देव को समर्पित इस मंदिर में प्रवेश की अनुमति इसलिए नहीं है क्योंकि रूढ़िवादियों का तर्क है कि वे हर महीने अशुद्ध हो जाती हैं। शनि शिंगणापुर और कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिरों के गर्भगृह में पुरुष तो प्रवेश कर सकते हैं पर महिलाएँ नहीं जबकि हिन्दू धर्म पूजा के मामले में महिला पुरुष में कोई भेदभाव नहीं करता। यह बात दीगर है कि पुरी के शंकराचार्य महिलाओं के द्वारा वेदमंत्रों का पाठ करने पर आपत्ति जताते हैं। कोलकाता महानगर में पुरी के शंकराचार्य की उफस्थिति में कुछ महिलाओं ने वेदमंत्रों का पाठ करना चाहा। इस पर उन्होंने आपत्ति जताते हुए कहा कि धर्म महिलाओं को इसकी आज्ञा नहीं देता।

आज्ञा तो इस्लाम धर्म में महिला के काजी होने की भी नहीं है। काजी ऐसा धार्मिक पद है जिस पर विराजमान व्यक्ति शादियाँ कराता है। लेकिन धर्म की बेड़ियों को काटती महिलाओं की हिम्मत ने उन्हें इस पद पर भी आसीन कर दिया। पश्चिम बंगाल में देश की पहली महिला काजी शबनम आरा बेगम नियुक्त हुई है। दिलचस्प बात ये है कि यह कोई वरिष्ठ महिला नहीं बल्कि 26 वर्षीया युवती है। लेकिन यह पद उसे आसानी से नहीं मिला। शरीयत में औरत को काजी बनाने का प्रावधान नहीं है। कहा जाता है कि जो काम मर्दों का है, उसे औरतें कैसे कर सकती हैं। पर शबनम अपने इरादे पर दृढ़ थी। उसने हर चुनौती का सामना किया। उसके पिता काजी थे और यही सपना उसकी आंखों में पल रहा था। वह अपने पिता कि विरासत को आगे बढ़ाना चाहती थी। लिहाजा उसने समाज से कठिन संघर्ष आरंभ कर दिया। जीत उसकी हुई। अब वह बाकायदा कोलकाता से 160 मील के फासले पर स्थित नंदीग्राम की काजी है और अब तक लगभग 150 निकाह करा चुकी है। साथ ही वह ग्रेजुएशन भी कर रही है। महिला काजी बनकर उसने मुस्लिम महिलाओं का मार्गदर्शन करने में जबरदस्त पहल की है। पहल तो की पर मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं के नित नए फैसलों का वह कहाँ तक मुकाबला कर पाएगी। देश की विभिन्न प्रमुख मुस्लिम संस्थाओं और मदरसों ने एक संयुक्त फैसले में यह निर्णय लिया है कि यदि रमजान के महीने में रोजे के दौरान औरत के गर्भाशय की जांच के लिए योनि द्वारा चिकित्सा उपकरण से दवा डाली जाती है तो उसका रोजा खारिज हो जाएगा लेकिन पुरुष के लिंग की जांच के लिए ट्यूब द्वारा दवा डालने से पुरुष का रोजा खारिज नहीं होगा। इस विषय में उनका तर्क है कि लिंग का रास्ता मेदे तक नहीं जाता जबकि योनि का रास्ता मेदे तक जाता है। जबकि चिकित्सकों का कहना है कि पुरुष या महिला दोनों की जननेन्द्रियाँ मेदे तक जुड़ी हुई नहीं हैं।

कुरान में कहा गया है कि अल्लाह ने औरत को टेढ़ी पसली से पैदा किया है। अल्लाह की इस टेढ़ी रचना के लिए कठमुल्लाओं ने धार्मिक कानून भी अझीबोगरीब बनाए हैं। औरत के लिए इस धरती पर उसका शौहर ही अन्नदाता है। अत: औरत को उसके हर अत्याचार को (पुरुष के अनुसार जो वह करता ही नहीं) सहन करना चाहिए क्योंकि जिसका शौहर नाखइस हो जाए, अल्लाह तो उसकी नमाज कबूल ही नहीं करता। बीवी को शौहर की आँख के इसारे पर ज़िन्दगी बिता देनी चाहिए। शौहर के मिजाज के खिलाफ कभी नहीं जाना चाहिए। औरत परदे में रहने की चीज है। (चीज को रेखांकित मानकर पढ़ें) जब वह बेपर्दा होकर घर से निकलती है तो शैतान उस पर हावी हो जाता है। फिर वह कहीं की नहीं रहती।

ईसाई धर्म ये मानता है कि ईश्वर ने स्त्री-पुरुष एक साथ नहीं बनाए। आदम के निर्माण में जिस मिट्टी का प्रयोग हुआ उसका स्त्री के निर्माण में नहीं। ईश्वर ने प्रथम (आदि) पुरुष के मांसल पार्श्व को लेकर ईव को रचा। ईव का जन्म स्वतंत्र रूप से नहीं हुआ बल्कि वह आदम के एकाकीपन को दूर करने के लिए उसी के शरीर से रची गई। बाईबिल ने तो स्त्री और कोढ़ी को समान दर्जा देते हुए यहाँ तक कहा है कि कोढ़ियों और स्त्रियों पर समान दया भाव रखो।

महाभारत काल वह लांछित काल है जो अब कभी न दोहराया जाए ऐसी हर स्त्री की कामना है। दुष्कर्मों को भी जिस काल में धर्म की संज्ञा दी गई। अपने वंश को बढ़ाने के लिए पांडु जैसे शापग्रस्त पति ने अपनी पत्नी कुंती को अन्य पुरुषों के पास गर्भधारण करने के लिए भेजने में ज़रा भी संकोच का अनुभव नहीं किया। महाभारत गवाह है कि भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर किसके पुत्र थे? पर कहलाए पांडु के और यह पाप नहीं समझा गया क्योंकि इसमें पति की अनुमति थी। आज संतानहीन पुरुष किसी अनाथ बच्चे को गोद लेना ठीक नहीं समझता, इसके लिए वह दूसरी शादी कर लेता है। विधि की यह कैसी विडंबना है कि जो कुंती समाज के भय से सूर्य से पैदा कि अपनी संतान कर्ण को नदी में बहा देती है वही पति के आदेश से अन्य पुरुषों से संतान पैदा करती है और वह संतान जायज कहलाती है। अर्थात् पति अयोग्य तो नियोग पद्धति से संतान पैदा करो और पत्नी अयोग्य तो सीने पर सौत बैठा लो। दोनों ही हालातों में स्त्री की गति नहीं। कुंवारेपन में पैदा हुई औलाद को कलंक मानकर, पाप मानकर स्त्री नदी में बहाने, त्यागने को विवश है किंतु साम्राज्य के लिए पति की मृत्यु के बाद भी धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर जैसे महारथियों को गै पुरुष वेदव्यास से संभोग कराके पैदा करने के लिए अभिशप्त है और यह पाप नहीं है, यह तो धर्म है क्योंकि इसमें परिवार की अनुमति है, आज्ञा है।

धर्म की दुहाई देकर सीता जैसी अग्नि परीक्षा देने को विवश करना आज भी इस आधुनिक युग में भी देखने, सुनने को मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं। मध्य प्रदेश की कंजर जाति में अग्नि परीक्षा कि लोमहर्षक प्रथा पिछले दिनों अखबार की सुर्खियाँ बनीं। एक स्त्री पर परपुरुष से अनैतिक सम्बंध का लांछन लगाया गया था जिसे झूठा सिद्ध करने के लिए उसे अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा। उसके हाथ खौलते तेल में डलवाए गए, जलती सलाखों से पैर गोदे गए, नदी की तेज धार में उसे धकेला गया और यह तमाश देखने भीड़ इकट्ठी की गई। भीड़ इसलिए इकट्ठी की गई ताकि अन्य औरतों को सबक मिले। वे ये याद रखें कि पर पुरुष से सम्बंध रखने का नतीजा क्या होता है। भले ही पुरुष के जीवन में कितनी भी औरतें क्यों न आई हों पर स्त्री को पतिव्रता होना ही चाहिए। इस प्रताड़ना को उचित ठहराते हुए तथाकथित धर्म के ठेकेदारों ने कहा कि जब भगवान राम सीता मइया कि अग्नि परीक्षा ले सकते हैं तो हम तो इंसान हैं। जैन मुनि अन्न जल छोड़कर प्राण त्यागते हैं, मुसमान मुहर्रम में अपने जिस्म की चाकू, छुरी से लहूलुहान करते हैं तो इस स्त्री की शुचिता सिद्ध करने की यह परंपरा कौन-सी अनुचित है?

कितनी अझीब बात है कि जो सीता जिंदा आग में कूदकर अपनी पवित्रता का सबूत देती है... वह जो सदा राम के पीछे-पीछे चली, जिसका अपना कोई व्यक्तित्व ही नहीं... आज भी पुरुष औरतों से इसी कसौटी पर खरी नहीं उतरती तो उसे कोई न कोई बहाना बनाकर पुरुष वर्ग खारिज कर देता है। वह यह भूल जाता है कि यह वही सीता है जिसने राम के साथ अपने जमाने की सारी चुनौतियाँ स्वीकार की थीं और राम के बिना भी। अग्नि परीक्षा के बावजूद जब राम ने सीता को जंगल भिजवाया तब भी सीता ने आत्महत्या नहीं की, न ही गर्भ गिराया, न ही विचलित हुई बल्कि उसने बड़े धैर्य के साथ इस अन्याय के खिलाफ संघर्ष किया। इस संघर्ष में ताप कम, तप ज़्यादा था। उसने यह नहीं कहा कि पति के त्यागने के बाद अब उसकी ज़िन्दगी का कोई अर्थ नहीं। उसने पति के बिना भी अपनी ज़िन्दगी को नया अर्थ दिया। राजसी सुख-सुविधा छिन जाने का जरा-सा भी दु: ख उसे नहीं हुआ।

वह वन में रहकर अपने बच्चों का लालन-पोलन करती रही और ऐसी शिक्षा दी कि एक दिन उसके बच्चे ने राम का मुकाबला किया। वे लव कुश जिन्होंने राम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को रोकने का दु: साहस किया था, वे इसी संघर्षशील, चिंतनशील, सतत् क्रियाशील अकेल सीता... बिना राम की सीता के पुत्र थे। इन पुत्रों ने विवविजय के लिए निकले राजा राम के घोड़ों को रोककर सीता कि साधना को सफल किया। इनके जरिए सीता ने समाज को चुनौती दे डाली। जब तक सीता बाल्मिकि के आश्रम में रही लेकिन जैसे ही लव कुश अयोध्या आए... राम भक्त उस संघर्षशील साहसी सीता को भूल गए और याद रखा उसका सेना, कलपना, अग्नि परीक्षा देना। वे यह भी भूल गए कि इस तेजस्वी सीता का हाल पूछने वन में न तो कोई ससुराल से आया, न मायके से।

राजस्थान के पुष्कर में सीता मंदिर है। इस मंदिर में लव कुश को धनुर्विद्या सिखाती सीता का चित्र है। सीता का यह रूप परंपरा का हिस्सा न बन सका। सच पूछा जाए तो औरतों ने भी सीता से कोई शिक्षा नहीं ली। जब भी ज़िन्दगी में औरतों को घर से निकाला गया, त्यागा गया... वह रोती, कलपती, ज़िन्दगी को अस्वीकार करती, बेचारी, असहाय बनी यही कहती नजर आती है कि सीता ने भी ये दु: ख सहे। वह सीता का अदम्य साहस और चुनौती भरा रूप क्यों नहीं स्वीकार करती? क्यों नहीं सीता कि तरह अकेले रहकर समाज को जी कर दिखा देती। क्यों सीता जैसी मानिनी नहीं बनती कि जिसने दुत्कारने के बाद वापस लौटाने आए राम का हाथ थामने की जगह खुद को धरती में समा लेना अधिक सही समझा?

बंगाली लेखिका चंद्रवती द्वारा रचित मैमानसिंह गीतिका भाग चार में सीता के जन्म की अदभुत कथा वर्णित है-मंदोदरी ने अपनी कोख से संतान उत्पत्ति जल (गर्भजल) एक मटके में रखकर समुद्र में बहा दिया था और प्रार्थना कि थी कि हे सागर... यह जल भरा मटका तुम अपनी लहरों के द्वारा ऐसी उर्वर जगह छोड़ना जहाँ इसमें से उत्पन्न कन्या मेरे अत्याचारी पति रावण की मृत्यु का कारण बने। मैं धरती से भी प्रार्थना करती हूँ कि वह इस घट को धारण करे और मुझे अन्याय से मुक्ति दिलाए। मंदोदरी का यह गर्भ जल केवल उसका था जिसमें उसका पति सहभागी नहीं था। मंदोदरी के ऐसे साहस का चित्रण कर चंद्रवती ने औरत को संपूर्ण शक्तियों से युक्त सिद्ध किया है जहाँ उसे औलाद तक के जन्म में पति के वीर्य की आवश्यकता नहीं।

बार-बार पति के द्वारा लांछित, प्रताड़ित, अफमानित की गई स्त्री अपने दुराचारी, वेश्यागामी, शराबी पति के लिए भी करवा चौथ का व्रत रखती है और सुहागिन मरने का वरदान मांगती है। यहाँ तक कि उसका हर व्रत उपवास केवल मात्र पति के मंगल के लिए, दीर्घायु होने के लिए होता है... फिर चाहे वह करवा चौथ हो, वटसावित्री हो, महालक्ष्मी का व्रत हो, गणगौर का हो, प्रदोष हो, संकष्टि हो। उसमें सीता, मंदोदरी-सा साहस नहीं।

विश्वामित्र द्वारा मांगी गई अनूठी गुरु दक्षिणा को देने की प्रतिज्ञा का पालन करना उनके शिष्य गालव का धर्म है और इस प्रतिज्ञा पालन के लिए औरत की देह का सहारा लेना गालव को पापी नहीं सिद्ध करता। ययाति पुत्री माधवी गालव की इस प्रतिज्ञा पालन में कई राजाओं की यौन पिपासा शांत करती देह के एक लंबे बाज़ार से गुजरती है, बिकती है, टूटती है, आहत होती है और अंत में गुरुदक्षिणा में थोड़ी-सी कमी रह जाने पर विश्वामित्र की भी अंकशायिनी बन जाती है। गालव उसे पितातुल्य गुरु को सौंपते हुए ज़रा भी नहीं हिचकता और गुरु भी बहती गंगा में हाथ धोने को मजबूर हो जाते हैं। क्या करें, गालव को गुरु ऋण से कैसे उबारें। ये वही विश्वामित्र हैं जिनकी कन्या शकुंतला ने दुष्यंत से गंर्ध विवाह किया था लेकिन दुर्भाग्यवश अपनी पहचान चिह्न अंगूठी के नदी में गिर जाने के कारण वह पति द्वारा भुला दी गई। ऐसी विकट परिस्थिति में भी आश्रम से उसके साथ उसे पहुँचाने आए ऋषि गण उसे वहीं छोड़ने को उद्यत थे क्योंकि उन्होंने उसे पतिगृह तक तो पहुँचा ही दिया। अब पति रखे या त्यागे यह औरत का भाग्य... इसमें वे क्या कर सकते हैं? अब तो शकुंतला को ही पति के प्रति कर्तव्य का पालन करना है।

सीता को राम ने त्यागा था तब वह गर्भवती थी... शकुंतला को भी जब दुष्यंत ने भुला दिया वह भी गर्भवती थी। वह भी जंगल में रहकर दुष्यंत पुत्र भरत को जन्म देती है। इसी भरत के नाम पर हिन्दुस्तान का नाम भारतवर्ष पड़ा। सीता, माधवी, शकुंतला देवी विधान की निमित्त बनीं... पुरुष तो हर हाल में पूजा ही... शंकरजी के लिंग को शिवलिंग की उपमा दे पूरे भारत में, विदेशों में भी पूजा जाता है। जहां-जहाँ यह लिंग स्वयं प्रगट हुआ वह ज्योतिर्लिंग स्वयंभू कहलाया पर उस लिंग को इधर उधर लुढ़कने से संभालने वाली पार्वती (स्त्री) की योनि को कोई स्मरण नहीं करता। कोई यह नहीं कहता कि यह शिव पार्वती का मंदिर है... सब उसे शिव का मंदिर ही मानते हैं, पूजते हैं। लिंग को महिमामंडित, पूज्य माना गया और स्त्री योनि को निचले स्तर का मान भुला दिया गया।

कैथोलिक धर्म में भी औरत का वही स्थान है जो अन्य धर्मों में है। पोप जॉन द्वितीय का कहना है प्रभु यीशु ने हिदायत दी है कि चर्च का, धर्म का रक्षक पुरुष ही होगा... स्त्री चाहे तो सांसारिक सुखों का त्यागकर पूर्ण सपस्विनी जीवन का पालन करती हुई मात्र नन बन सकती है। फ्रांस की बहुचर्चित नारीवादी लेखिका सीमोन द बोउवार ने अपनी क्रांतिकारी पुस्तक 'द सेकेंड सेक्स' में लिखा है कि क्लांदे की कैथोलिक आशावादिता यह उद्घोषित करती है कि औरत पाप होते हुए भी अंत में भलाई की ओर अग्रसर हो जाती है... (शायद उसी का प्रतिफल है नन होना) यहूदियों और ईसाईयों की नजरों में हव्वा कि गलती का फल उसकी बेटियों को भोगना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि चर्चा के धर्म पिता कितनी कड़ाई से स्त्री की अवमानना करते हैं किंतु ईश्वर की बनाई हुई इस दुनिया में जब कुछ भी व्यर्थ नहीं तो औरत ही कैसे व्यर्थ हो सकती है? जब वह देवी ही है तो स्वर्ग में सारे सुख भोगे। इस दुनिया में तो वह धर्माचरण करती हुई पुरुष की सेविका ही रहेगी। अत: उसे पुरुष के प्रति पूर्ण समर्पिता होना चाहिए। समर्पण की राह पर चलकर ही तो वह मुक्ति पाएगी। फिर क्यों नहीं वह आरंभ से ही इस राह को अपनाती? यह उसका भाग्य है। उसकी तकदीर कि वह पिता, पति, पुत्र, चर्च और राज्य की सेवा करे, देखभाल करे और पूर्ण समर्पिता हो। यह बुर्जुवा नियुक्ति एक बार फिर औरत को दे दी गई। पुरुष ईश्वर को अपना कर्म अर्पित करता है और औरत पुरुष के माध्यम से खुद को। इस पर धर्म की मुहर लगाकर ईसाइयत ने औरत की दासता को शाश्वत कर दिया।

इस्लाम धर्म यूं तो औरत के प्रति काफी न्यायपूर्ण है लेकिन शरीयत का पालन करने वाले मौलवियों ने हर बार धर्म की हिफाजत के बहाने औरत को पैर की जूती समझा, मर्द की खेती समझा। अब अपनी खेती को वह चाहे जैसे रखे... हरा भरा रखे या बंजर रखे। न तो औरत को बोलने का हक है न अपने अधिकारों के लिए लड़ने का। इस्लाम धर्म में औरतों के मस्जिद जाकर नमाज पढ़ने पर पाबंदी है। भारत के विभिन्न राज्यों में छोटे-छोटे शहरों गांवों में मुस्लिम औरतें इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं। तमिलनाडु के छोटे से गाँव पुदुकोट्टी की मुस्लिम औरतों ने न केवल अपनी अलग जमात बना ली है बल्कि 54 सदस्यीय जमात औरतों के लिए मस्जिद बनाने का लक्ष्य भी रखती है। इस विचारधारा से जुड़ी चार हजार औरतों ने मस्जिद के स्थान को गोपनीय रखा है। औरतों की जमात शुरू करने वाली चालीस वर्षीया शरीफा के मुताबिक वे और उनके सहयोगी धार्मिक संगठनों खासतौर पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से हताश हो गई हैं। टीवी चैनल के साथ एक बातचीत में शरीफा ने कहा कि मुझे कोई नहीं डरा सकता। मैं इन औरतों के हकों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हूँ।

महिला केंद्र स्टेप्स स्थापित करने वाली शरीफा के मुताबिक उनसे जुड़ी महिलाओं को छींटाकशी और समाज से निष्कासन का भी सामना करना पड़ रहा है। मौलवी और इमाम उन्हें इस्लाम विरोधी करार दे रहे हैं इन औरतों की ये लड़ाई धार्मिक नहीं हकों की लड़ाई है। काफी अरसे से सत्ता पुरुषों के हाथ में है। औरत अगर इसमें अपना हिस्सा मांगती है तो तोड़-मरोड़ क्यों? अब तो ये औरतें अपने लक्ष्य को पाने के लिए कटिबद्ध हैं। उनकी बनाई मस्जिद की इमाम भी महिला ही होगी। अब हाल ये है कि इस महिला जमात को कठमुल्लाओं की ओर से जान से मार डालने की धमकी दी जा रही है और यह भी कि महिलाओं के लिए बनने वाली मस्जिद पूरी बनने से पहले ही तोड़ दी जाएगी।

कैथोलिक धर्म, इस्लाम धर्म के बलिस्बत अधिक खुली दृष्टि रखता है। उसने ग्यारह साल पहले महिलाओं को चर्च की पादरी बनने की अनुमति दे दी थी और अब चर्च आॅफ इंग्लैंड की शासकीय इकाई ने महिलाओं को बिशप पद पर नियुक्त करने के प्रस्ताव पर विचार करने की सहमति दी है। इस मुद्दे पर हुई गहन बहस के बाद शासकीय इकाई द जनरल सिनोद ने इसे अपनी मंजूरी प्रदान कर दी। प्रस्ताव को विचार विमर्श के लिए स्वीकार किए जाने को रूढ़िवादियों पर सुधारवादियों की विजय के रूप में देखा जा रहा है। चर्च द्वारा पहली बार 1994 में किसी महिला को पादरी नियुक्त किए जाने के बाद से सुधारवादियों का तर्क था कि महिलाओं को शीर्ष पद से वंचित रखना गैरकानूनी और अनुचित है। रोशेस्टर के रेवरेंड माइकल नाजिर अली ने चर्च हाउस में बहस शुरू करते हुए ये बात स्पष्ट की कि कुछ लोग ये भी महसूस करते हैं कि न्यायिक तौर पर महिलाओं को अब पादरी बनने के योग्य माना जाए लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसके विपरीत सोचते हैं। ऐसे लोगों का नजरिया महिलाओं के प्रति कुंठित है।

वैसे भी महिलाएँ पुरुषों के इस कुंठित नजरिए को सदियों से झेलती आ रही हैं। कभी सती प्रथा के रूप में, कभी विधवाओं के लिए बनाए कठोर धार्मिक नियमों के रूप में कभी देवदासी के रूप में और कभी विभिन्न धार्मिक एवं कर्मकांडी प्रथाओं के रूप में।

पत्नी की मृत्यु पर पति दाह-संस्कार तो करता है पर कपालक्रिया इसलिए नहीं करता क्योंकि वह दूसरी शादी का इच्छुक है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है कि अगर पति ने पत्नी की कपालक्रिया कर दी तो वह दूसरी शादी नहीं कर सकता। विडंबना तो ये है कि पति की मृत्यु पर पत्नी या तो सती हो जाती है (हालांकि सुप्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय के दृढ़ प्रयासों से अब यह प्रथा समाप्तप्राय है फिर भी इक्का दुक्का घटनाएँ अखबार की सुर्खियाँ बन ही जाती हैं) या विधवाओं के लिए बनाए धार्मिक कानून का पालन करती हुई कठोर मरणासन्न जीवन जीती हैं। विधवा विवाह पहले कानूनी अपराध था अब नहीं है। अब नहीं है तो कौन-सी विधवाें की स्थिति सुधरी है। कुछ अपवाद ही हैं जो विवाह कर पाती है, वरना बेटा बहू की छत्र-छाया में निरर्थक, कटु जीवन जीती है, या फिर सगे सम्बंधियों द्वारा ही विधवा आशअरम में भेज दी जाती हैं। उनके लिए धर्म बहुत निष्ठुर सिद्ध होता है। उन्हें उबला हुआ सात्विक भोजन करना पड़ता है। सूती सफेद कपड़े पहनने होते हैं। अलंकारों को हाथ लगाना भी उनके लिए गुनाह है। धार्मिक अनुष्ठानों, मांगलिक कार्यों में वे कभी शामिल नहीं की जातीं। उनका शामिल होना अशुभ माना जाता है। बंगाल में विधवाएँ सिर पर केश भी नहीं रखतीं। विषय वासना से उन्हें दूर रहना पड़ता है भले ही आश्रमों में महंतों, चेले चपाड़ियों द्वारा उनका यौन शोषण होता है। धार्मिक परंपराओं का पालन करती ये पथराई हुई विधवाएँ सब कुछ मूक होकर सहती हुई अपना परलोक सुधारती हैं।

जो स्त्री पति की चिता में सती हो जाती है समाज उसे महान आत्मा, देवी का दर्जा देता है। उसका मंदिर स्थापित होता है या जहाँ वह सती हुई है उस भूमि पर चबूतरे का निर्माण कर सती चौरा बनाया जाता है। उसकी भस्म को स्त्रियाँ माथे से छूकर अमर सुहाग की कामना करती हैं। सती वह है जो सत्य का पालन करती है और पति की चिता में स्वयं को स्वाहा कर लेती है। यह तो परम पुण्य का कृत्य है। भारत की स्त्री जाति का गौरव सतीत्व और मातृत्व में ही है। इसीलिए प्रत्येक विधवा को सतीत्व का पालन करना चाहिए और प्रसन्नतापूर्वक जीती है। वह पग-पग पर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करती है। सती स्त्री अपने पति को यमदूत के हाथों से छीनकर स्वर्ग लोक में स्वयं ले जाती है। ऐसी पतिव्रता स्त्री को देखकर यमदूत थर-थर कांपते हैं।

सती की परंपरा ही लोमहर्षक है। पति की मृत्यु के बाद स्त्री को घर की बड़ी-बूढ़ियाँ अपने कब्जे में ले लेती हैं और लगातार सती का गुणगान कर उसके दिमाग में यह ठूंस-ठूंसकर भर देती हैं कि उसे तो सती होना ही है। श्मशान की ओर ले जाने से पूर्व उसे नशीले पदार्थ खिलाकर उसकी संज्ञा लुप्त कर दी जाती है। चिता पर बैठाकर उस पर कनस्तर भर-भरकर घी उंडेला जाता है ताकि आग जल्दी पकड़ ले। भीड़ में कई लोग बांस लिए खड़े रहते हैं। अगर वह भागने की कोशिश करती है तो उसे बांस से कोंच-कोंच कर चिता में ढकेला जाता है। सती माता कि जय के नारों के बीच उसकी मर्मांतक चएक घुटकर रह जाती है और एक जिंदा औरत सती के नाम पर धर्म का पालन करती हुई राख हो जाती है।

जहाँ एक ओर सती हुई स्त्री को देवी मानकर पूजा जाता है वहीं नेपाल में चार से पांच वर्ष की कन्या को देवी के रूप में मान्यता देने की सदियों पुरानी परंपरा को आज भी कायम रखा गया है। कहने को इस परंपरा में कोई दोष नहीं है लेकिन गहराई में जाने से पता चलता है कि यह चार, पांच वर्ष की अबोध बालिका के टॉर्चर की कहानी है। वह कन्या जन्मजात देवी नहीं होती बल्कि आम बालिकाओं में से ही चुनी जाती है। चयन प्रक्रिया अत्यंत कठिन है। आमतौर पर बौद्ध शाक्य परिवारों की लगभग दस कन्याओं को एक अंधेरे कमरे में बंद कर दिया जाता है अँधेरा प्रगाढ़ होता है और हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता। चमकीले डरावने मुखौटों को उस अंधेरे कमरे में कठपुतली की तरह नचाकर भयानक डरावनी आवाजें निकाली जाती हैं। कई बार इस डरावने माहौल के कारण लड़कियों की घिग्घी बंध जाती है। वे रो-रोकर बेहाल हो जाती हैं। उनकी पेशाब निकल जाती है, वे बेहोश हो जाती हैं और कभी-कभी तो मर भी जाती हैं। इनमें एकाध ही ऐसी मजबूत हृदय की होती है जो भयभीत नहीं होती और जिसमें अकेले रहने की क्षमता होती है। उसे कुमारी देवी के रूप में चुन लिया जाता है। एक और शर्त होती है इस पद के लिए कि उसमें कोई शारीरिक दोष न हो।

चयन के बाद कुमारी देवी को सजा धजाकर दशायन त्यौहार के दौरान देवी के आसन पर बिठा दिया जाता है। उसके देख-रेख परिचारिका करती है। नेपाल में कुमारी देवी राजा से लेकर आम आदमी तक के लिए पूजनीय है। उसका मंदिर और आवास राजधानी काठमांडु के दरबार स्क्वेयर में स्थित है जो कुमारी घर के नाम से जाना जाता है। हनुमान ढोका महल के पास स्थित कुमारी घर श्रद्धालुओं और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। कुमारी घर के छज्जे से देवी थोड़े समय के लिए श्रद्धालुओं को अपने दर्शन देकर आशीर्वाद देती है। वहाँ कुमारी देवी के चित्र खींचने की मनाही है। अलबत्ता त्यौहार के दिनों में कुमारी देवी को पालकी में बिठाकर शहर के एक विशेष हिस्से में घुमाया जाता है। अगस्त-सितंबर में होने वाले इन्द्रजात्रा त्यौहार के समय नेपाल नरेश, महारानी स्वयं कुमारी देवी से आशीर्वाद ग्रहण करते रहे हैं। नेपाल सरकार कुमारी देवी को भरण-पोषण खर्च के रूप में प्रतिमाह छह हजार नेपाली रुपये देती है। जब वे कुमारी देवी का पद छोड़ेगी तो उन्हें आजीवन तीन हजार रुपये पेंशन मिलेगी।

यौवन आरंभ होने पर कुमारी देवी को मुक्त कर दिया जाता है। वह फिर से सामान्य नागरिक बन जाती है और उसका स्थान नई कुमारी देवी ले लेती है। चयन प्रक्रिया से लेकर पद से मुक्ति तक यह अबोध बालिका किस तरह पुरुष समाज को झेलती है और इस अवस्था में उसका मन और दिमाग कितना सामान्य पह पाता है यह जानने की किसी ने अभी तक कोशिश नहीं की क्योंकि औरत से सम्बंधित कोई भी परंपरा स्वस्थ हो, निश्चय ही ऐसा नहीं है। कुमारी देवी को देवत्व काल के दौरान कड़े अनइसासन का पालन करना पड़ता है। वह एक वर्ष में अपने आवास से तेरह से अधिक बार बाहर नहीं जा सकती। वह पैदल नहीं चलती। जब भी वह बाहर जाती है तो या तो किसी की पीठ पर सवार होती है या विशेष तौर पर तैयारी की गई पालकी में बैठती है जिसे कहार ढोते हैं। उसके बाहर जाने पर दो देवता गणेश और भैरव उसके आगे-आगे चलते हैं, जिनकी आयु चौदह वर्ष से कम होती है। कुमारी देवी विशेष तौर से तैयार एक आवास में रहती है जबकि ये दोनों बालक अपने-अफने घरों में रहते हैं। हालांकि इन दोनों बालकों को बागमती और विष्णुमति नदियों के बीच में ही रात गुजारनी होती है। इसका यह भी तात्पर्य है कि ये दोनों बालक रात में काठमांडु शहर में ही रहेंगे। बालक, बालिका का यह देवलोक उनकी आगे की ज़िन्दगी में क्या भूमिका निभाता है यह अस्वाभाविक दिनों की गवाही साफ बता देती है।

नेपाल में देवदासी प्रथा भी मौजूद है। देवदासी यानी मंदिरों में नाचने गाने वाली देवता कि दासी... नन्हीं बालिकाओं से लेकर जवान औरत तक। पूरे भारत में यह प्रथा दसवीं शताब्दी से मौजूद है। उत्तर और दक्षिण में विभिन्न मंदिरों में देवदासियाँ थीं। उन्हें समर्पित तो ईश्वर के लिए, देवता के लिए किया जाता था पर बाद में वे मंदिर में निवास करने वाले इंसानी देवताओं (कामुक भोग विलासी) उपयोग में लाई जाने लगीं। दक्षिण में तंजावर के राज राजेश्वर मंदिर में, गुजरात के सोमनाथ मंदिर में भी देवदासियाँ मौजूद थीं। मध्ययुग में देवदासियाँ नृत्य और संगीत की पारंपरिक शिक्षा लेती थीं और इसी कला के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करती थीं। इन्द्रलोक में अप्सराओं के नृत्य को धरती पर चरितार्थ करती ये देवदासियाँ रात के सन्नाटे में महंतों, पंडों, सामंतों की अंकशायिनी होती थीं। भारत के अलग-अलग राज्यों में ये विभिन्न सम्बोधनों से जानी जाती थीं। केरल में महारीस, असम में नातीस, महाराष्ट्र में मुरलियास, आंध्र प्रदेश में बोगम्स, कर्नाटक में बसावीस, महाराष्ट्र और कर्नाटक के सीमावर्ती इलाकों में येलम्मा, हनुमान और खांडोबा मंदिरों में लाखों की संख्या में देवदासियाँ थीं।

जैसे-जैसे भारत अफगानों, मुगलों के अधीन होता गया उत्तर भारत में यह प्रथा कमजोर होते-होते लगभग समाप्त ही हो गई। किंतु दुर्भाग्य से दक्षिण और महाराष्ट्र में आज भी यह बदस्तूर जारी है। आज भी कर्नाटक के बेलगांव जिले में सोनदत्ती पहाड़ी पर बने येलम्मा देवी के मंदिर में, हनुमान और खांडोबा मंदिर में हर साल होने वाले देवदासी उत्सव में आज भी हजारों बालिकाएँ देवी की भेंट चढ़ाकर उन्हें उम्र भर के लिए शारीरिक शोषण और मानसिक यंत्रणा के गर्त में ढकेल दिया जाता है।

आखिर ये येलम्मा देवी हैं कौन जो नन्हीं बालिकाओं को अपनी सेवा में हाजिर करवाती हैं? पुराणों में एक महाक्रोधी तपस्वी जमदग्नि का उल्लेख है। इन्हीं के पुत्र थे महाक्रोधी परशुराम जिन्होंने अपने फरसे से क्षत्रियों का विनाश किया था। परशुराम की माता ऋषि जमदग्नि की पतिव्रता सती पत्नी थीं रेणुका। कहा जाता है कि उनमें इतनी शक्ति थी कि वे नदी किनारे से रेत लाकर रोज वहीं घड़ा बनाती थीं और उसी में खाना पकाने, पीने का जल भर लाती थीं। एक बार जब वे पानी भरने के किनारे गईं तो देखा नदी के जल में गंधर्व प्रणय क्रीड़ा कर रहे हैं। उनका मन भी डोल गया और गंधर्व चित्ररथ के आमंत्रण पर उसके साथ जलक्रीड़ा करने लगीं। तपोबल की शक्ति से जब इस दुस्साहस की खबर जमदग्नि को लगी तो उन्होंने परशुराम को माता के वध की आज्ञा दे दी।

अपराधी भी पुरुष, सजा देने वाला भी पुरुष और सजा को क्रियान्वित करने वाला भी पुरुष लेकिन सजा भुगतने वाली केवल स्त्री। पुत्र ने पिता कि आज्ञा का पालन करते हुए माता का सिर धड़ से अलग कर दिया। प्रसन्न होते हुए जमदग्नि ने परशुराम से मनचाहा वर मांगने को कहा। परशुराम पितृभक्त भी थे और मातृभक्त भी। उन्होंने माता को पुन: जीवित करने का वर मांगा। लेकिन शापग्रस्त सिर पुन: धड़ पर नहीं लगाया जा सकता। समस्या विकट थी। तभी एक शूद्र नारी वहाँ से गुजरी। इस शुद्रा का नाम येलम्मा था। जमदग्नि ने परशुराम को आज्ञा दी कि वह उसी का सिर काटकर रेणुका के धड़ पर लगा दे। परशुराम ने ऐसा ही किया। जमदग्नि ने रेणुका को भी वरदान दिया कि आज से पृथ्वीवासी तुम्हें येलम्मा देवी का रूप मानकर तुम्हारी पूजा करेंगे। तुम शूद्र जाति की ऐसी कन्याओं का संरक्षण करोगी जिनकी माता उन्हें जन्म देते ही मर जाती हैं या जो बुरे नक्षत्र में पैदा होने के कारण माता-पिता के लिए घातक हो। हालांकि येलम्मा देवी और उससे जुड़ी इस कथारूपी वरदान का जिक्र पुराणों में नहीं है और यह पंडितों द्वारा बनाई दंतकथा ही है। देवदासी बनाने के पीछे सिर्फ़ लालच ही है जो तमाम कानूनों के बन जाने के बाद भी आज भी बदस्तूर जारी है।

शूद्रों में होलर, महार और सभागार जातियों की कन्याएँ यौवन आरंभ होने के पहले ही अबोधावस्था में देवदासी बना दी जाती हैं। उन्हें लाल और सफेद मोतियों की मालाएँ पहनाई जाती हैं। बालों की जटाएँ बना दी जाती हैं और बाजे गाजे से जुलूस में उन्हें ले जाकर गाँव वाले मंदिर को समर्पित कर देते हैं। हर वर्ष कर्नाटक और महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में करीब तीन हजार लड़कियों को येलम्मा देवी को समर्पित किया जाता है। इनमें से बड़ी संख्या में देवदासियाँ बेलगांव जिले की येलम्मा देवी की उपासक हैं।

लड़कियों से पीछा छुड़ाने के लिए परिवार के लोग लड़की के बालों में गोंद आदि का लेप कर खुद ही जटाएँ बना देते हैं और येलम्मा देवी को समर्पित कर देते हैं यह कहकर कि येलम्मा देवी ने जटाओं के रूप में संकेत दिया है कि वे अपनी बेटी को देवी को समर्पित कर दें। कई बार इस तरह की जटाएँ शादी के बाद भी दुल्हन के बालों में पड़ जाती हैं। निश्चय ही यहाँ भी अधिक दहेज की चाह में दुल्हन से पीछा छुड़ाकर बेटे की दूसरी शादी करने का प्रलोभन ही प्रमुख है। दुल्हन से दूल्हा वैवाहिक सम्बंध तोड़ लेता है और दुल्हन के सास, ससुर, पति आदि स्वयं उसे देवी के मंदिर तक लाते हैं और समर्पण विधि संपन्न कराते हैं। गाँव के लोग अन्य देवदासियों के मुकाबले इन देवदासियों का ज़्यादा सम्मान करते हैं।

देवदासी बनने के बाद पहली बार उनके गले में पड़ी लाल, सफेद मोतियों की माला मंदिर या मठ का महंत उतारता है अर्थात् उसके साथ सुहागरात मनाता है जिसका अर्थ यह भी है कि अब बाकायदे देवदासी देवता को समर्पित हो गई। यौवन की दहलीज पर जिन्होंने कदम भी नहीं रखा है ऐसी बालिकाओं को महंत पहली बार कामसुख चखाता है। जिसे ताउम्र चखने के लिए बालिका विवश है। हालांकि उसके लिए यह कामसुख अतीव यातनाप्रद है।

देवदासी प्रथा ने लड़कियों पर कितने जुल्म ढाए हैं, एक तरह से वेश्यावृत्ति ही है जिसे धार्मिक चोगा पहना दिया गया है। जब सरकार का ध्यान इस कुप्रथा कि ओर गया तो सबसे पहले आंध्र प्रदेश में इस प्रथा को कानूनी तौर पर प्रतिबंधित कर दिया गया। कर्नाटक की जनता पार्टी सरकार ने 1983 में देवदासी समर्पण निषेध कानून लागू किया था। इस कानून के अनुसार देवदासी की समर्पण विधि में शामिल होने वालों को प्रोत्साहन देने वालों को पांच साल के कठोर कारावास तथा पांच हजार रुपये जुर्माने की सजा का प्रावधान रखा। लेकिन क्या किया कानून ने? न तो एक भी गिरफ्तारी हुई और न ही प्रथा में रोक लगी। आज भी महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली, सातारा, सोलापुर, पूना, बेलगांव, कर्नाटक के धारवाड़, बीजापुर, गुलबर्गा आदि जिलों में होलर, महार और सभागार जातियों के अतिरिक्त गोंगा, याडरी, चमार, तलवार, गुख और कुरबार जातियों तक इस कुप्रथा ने फैलकर प्राचीन इतिहास को भी मात दे दी है।

कर्नाटक में देवदासी प्रथा को जीवित रखने के लिए लोग अपनी इकलौती बेटी को भी येलम्मा देवी के मंदिर में समर्पित करने से नहीं हिचकिचाते। 70 वर्षीया मेरीना भी अपनी देवदासी माँ की इकलौती बेटी हैं। आठ वर्ष की उम्र में उसे देवी को समर्पित कर दिया था उसकी माँ ने... जो उम्र खाने खेलने की होती है उस उम्र में उसके पैरों में घुंघरू बाँधकर देवदासी बनने की शिक्षा दी उसने। वह अपनी माँ के साथ जोगा मांगने भी जाया करती थी। येलम्मा मंदिर के पुजारी ने आठ वर्ष की उम्र में उसकी मालाएँ उतारकर उसका कौमार्य भंग किया। उसके बाद उसके ही समाज का एक व्यक्ति उसे अपनी दूसरी पत्नी बनाकर ले गया। मैरीना उस व्यक्ति के साथ उसकी मौत होने तक रहीं। मैरीना को इस बात का गर्व है कि वह देवदासी होकर भी ताउम्र अपने पति के साथ रही। मैरीना के जमाने में देवदासियों को आदर और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, उन्हें पवित्र माना जाता था। गाँव वाले उनका आदर करते थे। वे भी मन लगाकर येलम्मा देवी के श्री चरणों में खुद को समर्पित करती थीं। वे अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थीं। ज्यादातर उनके सम्बंध एक ही व्यक्ति से होते थे। वे उस व्यक्ति के बच्चे को भी जन्म देती थीं। बच्चा भी समाज में पिता के नाम के साथ स्वाभाविक ज़िन्दगी जीता था।

लेकिन अब तो धर्म के नाम पर देवदासियाँ पुरुषों के समाज में जिस्मफरोशी के लिए मजबूर हैं।