परदे के इधर उधर / विमलेश त्रिपाठी

Gadya Kosh से
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यह अंतिम संशय था। और दुख के अंतिम क्षण। जैसे एक ही चीज की बारंबारता उसके सारे आकर्षण को नष्ट कर देती है। चीज वही रहती है बस हमारे आँखों की भूख खत्म हो जाती है। इस तरह आकर्षण चीजों का नहीं जाता, होता यह है कि हमारे देखने का एक अध्याय समाप्त हो जाता है। कि जैसे एक कहानी पढ़ ली गई हो और कुछ देर हमारी तंतुओं में बजकर कहीं अदृश्य हो गई हो और अब किसी दूसरी कहानी की तलाश हमारे भीतर कहीं शुरू हो गई हो। कहानी कुछ संशय छोड़ जाती है जिसे हम कई बार अपनी बदौलत सुलझाने का जोखिम लेते हैं और कई बार यह संशय किसी गहरे स्मृतिक क्षणों में हमेशा के लिए सुरक्षित होकर अदृश्य हो जाते हैं।

कहानी से याद आया कि यह कहानी के नाम पर एक कोरा बकवास है जो मैं शुरू कर चुका हूँ। हो सकता है कि आप इसके कुछ अनुच्छेदों को पढ़ने के बाद अपने मुँह बिचका लें। या यह कि आपको लगे कि यह कहानी किसी फिल्म के किसी खास घटना की सीधी नकल है या यह आपके पड़ोस में रहने वाले एक चुपचाप और सिरफिरे आदमी की जीवनचर्या का मसालेदार आख्यान है। और भी बहुत कुछ सोचने का अवकाश है। आप भरपूर सोचते हैं और सोच सकते हैं। समय ने यह कला सबको बक्सी है बिना किसी कंजूसी के। आप यह सोच सकते हैं कि जार्ज बुश इराक पर आक्रमण करने से पहले आपका कीमती मशविरा ले रहे हैं। हर अकेली रात ??? के भीतर एक नायिका आपसे मिलने के लिए आती है जिसकी शक्ल हूबहू एश्वर्या राय से मिलती है ?? साहित्य का नोबिल प्राईज लेकर जब आप एक बदनसीब देश में लौटे रहे हैं तो आपके ऊपर करोड़ों रुपए की बरसात की जा रही है, गरीबों और गरीबी के बारे में कविताएँ लिखकर आप बाप-दादाओं के समय से चले आ रहे एक अभिशाप से मुक्त हो गए हैं। आप यह सोच सकते हैं कि एक दिन आप उदास बैठे हुए हैं कि अचानक अमिताभ बच्चन की गाड़ी आपके समीप रुकती है और करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करने वाला अमिताभ बच्चन आपके साथ काम करने की इच्छा जाहिर करता है। आप हक्के-बक्के से सोच रहे हैं कि यह सपना है या हकीकत। सोचते हुए आप अपनी सोच पर खुश हो सकते हैं, -झुँझला सकते हैं या उसकी व्यर्थता पर मन ही मन ठहाके लगा सकते हैं। कहने का आशय यह जनाब कि उसको भी यह सोच कुदरत से विरासत में मिली थी और समय और परिस्थतियों ने उसमें तमाम स्पेस भर दिए थे। उसको, यानि कथा-नायक को। तो आइए उससे आपका परिचय करा देते हैं।

आपकी खिड़की के आईने में मुख्य सड़क से होती हुई एक पतली सी गली जहाँ खत्म होती है उसके पास में जो टाली बाड़ी दिखाई पड़ती है न वहीं वह रहता है। वह यानि जिसके बारे में बकवास की भूमिका मैं तैयार कर रहा हूँ। वह यानि कि दुर्लभ भट्टाचार्या या दुरलभ भट्टाचार्जी या दुलभ वल्द गोविंद चंद्र भट्टाचार्या वल्द सुधांशु शेखर भट्टाचार्या वल्द...। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि इसके आगे तक जाने की एक सीमा है। यह हमारी स्मृति की सीमा है जो नायक की भी यादाश्त की सीमा हो सकती है। जैसे अपने जीवन से चले गए लोगों को हम बहुत दिन तक याद नहीं रख पाते। जैसे भूलने के क्रम में हम चले गए लोगों के नाम सबसे पहले भूल जाते हैं। वैसे ही।

अच्छा आप बताइए तो पिछली गर्मियों में जब आप छुट्टी मनाने के लिए कश्मीर गए थे तो जिस घोड़े वाले ने आपको गुलमर्ग की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचाया था उसका नाम क्या था? जरा याद कीजिए आपने ही रास्ता और समय काटने के लिए उससे उसका नाम पूछा था। देखा, अब आपको याद नहीं कि उसका नाम गौस खान था, करीम मियाँ था या नैमू दीन। अलबत्ता उसके चेहरे के भूगोल की कुछ लकीरें आपको जरूर याद होंगी। पर साबुत चेहरा और नाम नहीं। अब आप इस बात से इनकार तो नहीं ही करेंगे कि कठिन रास्तों और उबड़-खाबड़ पगडंडियों से गुजरते हुए वही आदमी आपको बर्फ की बची हुई ठंढक तक ले गया था। जरा दिल पर हाथ रख के कहिए कि बकवास करने की फिराक में यह भी क्या कोरा बकवास ही है?

खैर तो बात चल रही थी दुर्लभ भट्टाचार्या की और उसे भी इतना भर ही याद था कि उसके पिता के पिता का नाम सुधांशु शेखर भट्टाचार्या था कि वह अखंड भारत के किसी ढाका जैसी जगह में बहुत बड़े जमींदार थे। पर बेहाला के इस टाली बाड़ी में जमींदारी के परंपरा का कोई निशान न था। विभाजन के समय सबकुछ ढाका में छोड़कर पूरे भट्टाचार्या परिवार को भागना पड़ा था। कई वर्षों के कठिन संघर्ष के बाद गोविंद चंद्र यानि नायक के पिता ने बेहाला की यह बाड़ी खरीदी थी। दुर्लभ उस समय 5 वर्ष के रहे होंगे। तो जाहिर है कि एक जमींदार परिवार का संघर्ष उनकी आँखों के सामने से नहीं गुजरा था। लेकिन पता नहीं क्यों अतीत की संपन्नता दुर्लभ के मन में किसी खो गए दुर्लभ क्षण की तरह टीस मारती थी। हो सकता है कि माँ अक्सर बचपन में दुर्लभ को पुराने बीत गए दिनों की कथा सुनाती रही हो और यह टीस उन्हीं कथाओं के कारण हो। लेकिन दुर्लभ भट्टाचार्या के बारे में कुछ भी ठीक से कहना जोखिम से कम नहीं है। फिर भी मैंने यह जोखिम लिया है।

देखते हैं क्या होता है...

कहने की शुरुआत हम ऐसे भी कर सकते हैं कि एक फिल्म चल रही है। फिल्म में एक हीरो है जो देखने में बहुत खूबसूरत है। गरीबी की एक भी सिकन, जो अक्सर गरीबों के चेहरे पर दूर से ही फ्लैश मारती रहती है, और उनके कपड़े से एक खास तरह की जो दुर्गंध निकलती रहती है, उसमें नहीं है। लेकिन है वह बहुत गरीब। गरीब हीरो का एक झोंपड़ीनुमा घर है जिसमें उसकी माँ बीमार पड़ी हुई दिन-रात खाँसती रहती है। हीरो अपनी माँ का इलाज कराना चाहता है पर उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं है। वह रोज सुबह नौकरी के लिए दफ्तर-दफ्तर भटकता रहता है पर कोई उसे नौकरी नहीं देता। फिर एक दिन वह पार्क में उदास बैठा हुआ अपनी बेबसी का रोना गाता है। एक लड़की उसके गाने के सम्मोहन से खींची हुई उसके पास चली आती है। वह फिल्म की हीरोइन रहती है। फिर हीरो-हीरोइन में प्यार हो जाता है। हीरोइन बड़े घर की लड़की है, अपने पिता से कहकर हीरो को नौकरी दिला देती है। फिर अमीरी गरीबी का एक संघर्ष होता है, दुख के गाने होते हैं और थोड़े बहुत कॉंप्लिकेशन्स, मारपीट के साथ हीरो-हीरोइन की शादी हो जाती है। और वे दोनों हनीमून मनाने के लिए कश्मीर की फ्लाईट पर उड़ान भरते हैं। पार्श्व में सुरीली धुन में पिरोया एक खुशनुमा गीत गूँजता है और इसी के साथ चमचमाते स्क्रीन पर द एंड का एक लेबल टंग जाता है।

दुर्लभ दा अब उठो फिल्म खत्म हो गई - तारक की आवाज आती है।

तारक बेहाला के उसी गली में रहता है जिसमें गोविंद चंद्र यानि दुर्लभ के पिता की बाड़ी है। उसके पिता जूटमिल में काम करते-करते दमा के मरीज हो गए थे। जब तक नौकरी थी इलाज और काम दोनों साथ-साथ चलते थे। फिर जब एक सिरे-से मिल बंद होने लगे तो एक दिन हनुमान जूट मिल के बंद होने की भी बारी आई और उनकी जिंदगी में बस एक परिवार का बोझ और दमे की बीमारी ही बची रह गई। तब तारक टटिया स्कूल में पढ़ता था। स्कूल बाँस के टाट लगाकर बनाया गया था इसलिए उसका नाम टटिया स्कूल था या यह भी हो सकता है कि स्कूल के पास ही पैखाने की बड़ी टंकी लगी थी जो जर्जर अवस्था में थी और उससे हमेशा ही टट्टी की एक अजीब दुर्गंध निकलती रहती थी, इसीलिए उसे टाटिया स्कूल कहा जाता था। खैर तो पिता की नौकरी छूटने पर तारक का स्कूल भी छूट गया। उसकी माँ ने बर्तन-बासन कर के घर की गाड़ी को किसी तरह खींचना शुरू किया। लेकिन पिता की बीमारी खाँसते-खाँसते एक दिन रुक गई। तब से तारक दुर्लभ दा के साथ ही रहने लगा था। उसे विश्वास था कि एक दिन दुर्लभ दा बहुत बड़े आदमी बन जाएँगे और तब उसके जीवन में भी किसी चीज की कमी नहीं रह जाएगी। दुर्लभ दा उसकी नजर में बहुत गुणी आदमी थे और सबसे बड़ी बात यह थी कि उनके साथ रहने से दिन-दुनिया की खबर मिलती रहती थी, बीड़ी की कमी कभी नहीं होती थी और पैसे खर्च न करके फिल्म देखने को भी मिलती ही थी।

दुर्लभ दा आराम से सिनेमा घर की कुर्सी पर बैठे हुए थे। आँखें शून्य में कुछ देख रही थीं। ऐसा अक्सर होता था जब फिल्म खत्म हो जाती थी और दुर्लभ दा के मन में नए सिरे से एक फिल्म की भूमिका शुरू हो जाती थी। और वे ऐसे ही शून्य में देखने लगते थे। तारक समझ जाता था कि अब पूरे रास्ते दुर्लभ दा चमत्कारी बातें करेंगे। वह एक ऐसी उम्र में था जब कोई भी आसानी से किसी चमत्कारी व्यक्तित्व को अपना गुरु और आदर्श समझ लेता है। तिस पर उसके मन का विकास आम बच्चों की तरह नहीं हुआ था। दुर्लभ दा उसके लिए किसी भी फिल्म के हीरो से कम न थे।

दादा चलिए देर हो रही है? - इस बार आवाज में आधिकारिक आग्रह था। दुर्लभ दा धीरे से हिले। एक लंबी जम्हाई लिया। और अफसोस से लबरेज एक आह छोड़कर उठ गए। जैसे फिल्म के हीरो के नसीब और अपनी किस्मत की तुलना कर के दुखी हो गए हों। हालाँकि अब तक के साथ में तारक ने उन्हे कभी दुख के बारे में कुछ कहते हुए नहीं सुना था। अलबत्ता तारक जरूर उदास हो जाता था, जीवन और जगत के दुख कई बार उसको चारों ओर से घेर लेते थे और जब कहीं से भी छुटकारा मिलता हुआ दिखाई नहीं पड़ता था तो उसे गुरू की याद आती थी। गुरू के पास सारे दुखों का इलाज था।

बाहर सड़क पर रोशनियों के कतरे बिखरे हुए थे। दुर्लभ दा चुपचाप और थके हुए कदमों से चल रहे थे। बाहर भागते हुए लोग, बाहनों की चिल्ल-पों। सबको कहीं न कहीं पहुँचने की जल्दी। एक असहनीय शोर। पर चौरंगी के फुटपाथों की भीड़ में चुपचाप चल रहे दो आकृतियों को कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं थी। तारक को लगा कि उसके और दुर्लभ दा के बीच का सन्नाटा बाहर की चीख और शोर से ज्यादा है, और दुर्लभ दा इस सन्नाटे की धड़कन गिन रहे हैं।

दादा आप कुछ सोच रहे हैं? - तारक ने हकबकाकर सन्नाटे के तिलस्म को तोड़ दिया। वह बहुत देर तक सन्नाटे को नहीं सह सकता। गरीबी और गरीबों के लिए जरूरी धैर्य का उसमें अभाव है।

जानते हो तारक आज से बहुत जमाने बाद जब बाहर रोशनियाँ बढ़ जाएँगी तो उसी अनुपात में हमारे अंदर का अँधेरा बढ़ जाएगा, शायद तब हम न हों। लेकिन जीवन बाहर से जितना आसान दिखेगा भीतर से उतना ही कठिन होता जाएगा। - दुर्लभ दा के चेहरे पर हमेशा की तरह दार्शनिकों का सा भाव तैर गया। उन्होंने अपनी गंभीर और उदास आँखें तारक के काले और पिचके चेहरे की ओर घुमा दिया। फिल्म के रंगीन रौशनी से मिचमिचाई उसकी आँखें उसकी नासमझी का परिचय दे रही थीं। उसमें गुरू के प्रति एक झीना सा सम्मान भी था। दुर्लभ दा यह समझ गए। उन्होंने आगे कदम बढ़ा दिया।

सामने सिगरेट-पान की एक दुकान थी।

बीड़ी पिओगे? - दुर्लभ दा ने पूछा और तारक के हाँ-ना का इंतजार किए बिना ही जेब से दो बीड़ी निकाली। एक तारक को दिया और दूसरी को सुलगा लिया।

अब दोनों बीड़ी की कश लेने लगे थे। चौरंगी के सड़क को छोड़कर वे अब मैदान के अपेक्षाकृत कम भीड़भाड़ वाले इलाके में आ गए थे। यहाँ अपेक्षाकृत शांति थी। लेकिन कौन कह सकता है कि उन दोनों के भीतर जो शोर था, उसके आयाम किन छोरों तक जाते थे।

- दादा देर हो रही है, क्या हम बस नहीं पकड़ेंगे? तारक को अब माँ याद आने लगी थी।

दुर्लभ ने अपनी कलाई आँखों की ओर घुमाई। कलाई में घड़ी नहीं थी। वह अक्सर समय की बात चलने पर अपनी कलाइयों को देखते है, यह जानते हुए कि समय की मशीन वहाँ नहीं है। एक जमाने पहले समय उनके लिए एक कीमती चीज था। सोते समय भी कलाई में घड़ी बँधी होती थी। माध्यमिक का इम्तिहान और समय के संबंध को पहचानने के लिए ही माँ के कहने पर पिता ने पूरे तीन सौ पच्चीस रुपए में राधा बाजार से घड़ी खरीद कर दिया था। समय से उठना समय से पढ़ना कुछ दिनों तक के लिए एक रोमांचकारी अनुभव की तरह था जो बाद में एक ऊब की शक्ल में ढल गया था। पिता के साथ बातें और कम हो गईं थीं। दूरियों की लकीर थोड़ी और लंबी हो गई थी।

दादा, आज आप इतने चुप क्यों हैं? दुर्लभ ने देखा कि तारक की आँखें सचमुच बेचैन हो रही थीं। शायद वह समझ गया था कि आज फिर चौरंगी से बेहाला तक का सफर पैदल ही तय करना है। दादा के पास जरूर पैसे नहीं हैं?

तुझे ज्यादा देर तो नहीं होगी न? - दुर्लभ ने बीड़ी को अंतिम रूप से निचोड़ कर पिया। और उसके टुकड़े को ऐसे उछाल दिया जैसे अपने अकर्मण्यता का मजाक उड़ा रहे हों। तारक चुप था। हफ्ते में एक-दो बार ही फिल्म देखने का मौका मिलता था। हर वह समय तारक के लिए साँसत का समय होता था क्योंकि फिल्म देखने बीड़ी पीने और प्यास बु्झाने के लिए निंबू पानी पीने के बाद दुर्लभ दा की जेब खाली हो जाती थी। तारक को तो याद नहीं कि कब उसके जेब में चवन्नी आई थी। सारा जिम्मा दुर्लभ के सिर ही होता था। और फिर तारक की उम्र ही कितनी थी।

ऐसे में वह अक्सर देर से घर पहुँचता था। माँ पूछती - कहाँ से आ रहा है इतनी रात को? और तारक कहता कि दुर्लभ दा के एक मित्र हैं, उनसे काम करने की बात करने के लिए गया था। कहते-कहते तारक का चेहरा ऐसा रुआँसा हो आता था कि माँ और कुछ नहीं बोलती थी और पोंई साग की तरकारी और बासी भात जस्ते के छीपे में दे देती थी। वह खाते-खाते फिल्म के हीरो की बदली हुई किस्मत के बारे में सोचता रहता। और उसे विश्वास हो जाता था कि एक दिन दुर्लभ दा जरूर बड़े आदमी हो जाएँगे। तब उसकी किस्मत भी पलट जाएगी। फिर माँ को भात-माछ के जुगाड़ में दूसरे के घर काम नहीं करना पड़ेगा। दुर्लभ दा को कितना ज्ञान है रे बाबा, वे चाहें तो क्या नहीं कर सकते? उनकी जब फिल्म बनेगी, तब वह उसमें कॉमेडी का रोल करेगा। दुर्लभ दा ने वादा किया है।

दुर्लभ दा अब भी गहरी सोच में थे।

दादा एक बात पूछूँ? - तारक कुछ सकुचाया हुआ था।

- हूँ ।

- आप इतनी देर से घर जाते हैं, क्या घर में काकू कुछ नहीं बोलते?

- नहीं रे, अब अपन इन चीजों से उपर उठ गए है। दुर्लभ दा की आँखों में एक गहरी पीड़ा उतर आई है जिसे रात के झुटपुटे अँधेरे में भी तारक देख लेता है। बहुत पहले जब दुर्लभ देर से घर लौटते थे तो बहुत फटकारे जाते थे। पिता कई बार झापड़ भी चला देते थे। माँ बाद में शांत मन से समझाती थी। पर दुर्लभ दा फिर वही गलती दुहराते थे। पिता ने एक दिन हारकर कुछ भी कहना छोड़ दिया था। पहले से ही संबंधों की खत्म हो रही ऊष्मा तब लगभग खत्म हो गई थी। लेकिन माँ का दिल माँ की तरह ही बना रहा। थोड़े रोष और गुस्से के बाद सब कुछ माफ। कई निराश क्षणों में माँ का चेहरा ही उनके लिए सबसे बड़ा सहारा बना था। लेकिन अब तो खैर...

- दादा पाड़ा में सब आपको आवारा कहते हैं।

- मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला। इस बार दुर्लभ दा पहली बार तारक को किसी छटपटाती आत्मा की तरह लगते हैं। तारक को याद आता है राजकपूर का वह चेहरा जब पुरी दुनिया उसे आवारा कहकर पुकारती है। दुर्लभ दा की आँखें बिल्कुल राजकपूर की तरह लगती हैं, गोरा पतला चेहरा... ओह, कोई भी एक बार देखे तो बस देखता रह जाय। जिस दिन वे पहली बार पैराडाईज के चमचमाते परदे पर पूरे ग्लैमर के साथ उतरेंगे, पूरी दुनिया देखती रह जाएगी। तारक सोचता चला जाता है।

और दुर्लभ दा राह चलते हुए अतीत की सुरंगों में कहीं खो गए हैं।

कुछ दिनों से दुर्लभ भट्टाचार्या का एक और सपना मर गया था। तेजी से बदलते इस समय में सपनों का मरना कोई बड़ी बात नहीं। इस गरीब देश के करोड़ों लोग इन्हीं सपनों के सहारे जीते हैं। एक के टूटने पर खाली हुई जगह को दूसरे सपने से भर लेते हैं। जीवन भर सपने जन्म लेते हैं और मरते हैं। कितने अधूरे हमारी स्मृतियों के पिटारे में हाँफते रहते हैं। फिर भी सपने रहते हैं। लेकिन जनाब, दुर्लभ दा उन हजारों करोड़ों लोगों से विशिष्ट इस मायने में थे कि एक सपना यदि शुरू होता था तो वह कुछ दिन अनवरत चलता रहता था। दुर्लभ दा उस समय सिर्फ उसी स्वप्न के लोक में विचरते थे। फिर दूसरे सपने के आने के ठीक पहले कुछ ऐसी घटनाएँ घटती थीं कि पहले की महत्ता कम हो जाती थी या वह या तो परिस्थति की भेंट चढ़ जाता था या कई बार आवेश में दुर्लभ दा ही उसका वध कर देते थे। फिर उनके लिए पुनः वह महत्वपूर्ण नहीं हो सकता था। पता नहीं कितने ऐसे सपने रहे होंगे जो मर गए थे या मार दिए गए थे। कितने भीतर कहीं पैदा होने के लिए फड़फड़ा रहे थे। वे मरते थे, मारे जाते थे और फिर पैदा होते थे। क्या गोलमाल है यार। लेकिन घबराइए नहीं जनाब हम यहाँ उन्हीं सपनों की बात करेंगे जहाँ तक हमारी दृष्टि की कमजोर और लिजलिजी शक्ति पहुँच पा रही है। खैर, उदाहरण के लिए दुर्लभ दा के एक सपने को लेते हैं।

सपना मुहल्ले के क्लब में चलने वाली श्वेत-श्याम टेलिविजन पर टेलिकास्ट हो रही एक फिल्म की हीरोइन से जुड़ा हुआ था। उस समय उस हीरोइन का नाम उन्हें मालूम न था। जो मालूम था वह यह कि उसकी आँखें बहुत सुंदर थीं। उसकी हँसी ऐसी थी कि लगता था कि उसे देखना बंद कर दें या अचानक वह हँसते-हँसते रुक जाय तो फेफड़ें के लिए जरूरी हवा मिलनी बंद हो जाएगी। वह ऐसा समय था जब माँ-बाप अपने बच्चों के हाव-भाव पर अधिक ध्यान देने लगते हैं। उनके पिता भी अपवाद न थे। हालाँकि वे अपनी दुकान से रात के 9 बजे तक लौटते थे। माँ अक्सर बीमार रहती थीं। और यही वह समय होता था जब क्लब की खिड़की से खड़े-खड़े फिल्म देखी जा सकती थी। इस समय का सदुपयोग कर दुर्लभ अक्सर क्लब की खिड़की के सामने खड़े हो जाते थे। और फिल्म के शुरू होने का इंतजार शुरू करते हुए देखे जा सकते थे। उस दिन हीरोइन की हँसी ने जैसे उनके हृदय की कोमल जमीन पर एक सुंदर फूल खिला दिया और उसी दिन एक सपने ने जन्म लिया। बिल्कुल उसी हीरोइन की तरह की हँसी वाली एक लड़की की जरूरत महसूस हुई।

तब पहली बार उन्होंने अपनी माँ से सकुचाते हुए पूछा - माँ मेरी शादी कब होगी? और पड़ोस में रहने वाली एक गोरी और दुबली लड़की की हँसी भी हीरोइन से कुछ मिलती जुलती हुई लगनी शुरू हुई। दुर्लभ के लिए दुनिया न बदली थी। हुआ यह था कि घर में सुबह-शाम गूँजनेवाले मंत्रों के अर्थ बदल गए थे। देर रात गए एक पागल तान अँधेरे के साँवल कपोलों का फेनिल स्पर्श करती थीं। बसंती झकोरों में मदहोश पेड़ की एक-एक पत्तियाँ लयबद्ध नाचती थीं। चाँद चुपचाप तकिए के पास आकर कोई एक गोपनीय बात कहता था। नींद पुरबारी खिड़की से चलकर खुलती थी कि सुबह का सूरज कानों को सहलाता था और माँ के पैरों का आलता झनझन फैल जाता था पूरे आँगन में। दरअसल वह ऐसा समय था कि एक कविता उनकी मुट्ठी में धधकती थी। वे दौड़ते थे घर की देहरी से मुहल्ले की एक अधखुली खिड़की तक कि सौंप दें उसे एक मासूम और कोमल हथेली में। सूरज डूबता था और वे दौड़ते थे। रात होती थी और वे दौड़ते थे। और अंततः हार तक थक गए बेतरह से दुर्लभ दा अपने स्कूल की डायरी में एक नाम लिखते थे और अपने चेहरे पर उग आई रौशनी के कतरे को काँपते पन्नों में छुपा लेते थे।

फिर एक दिन जैसा कि अक्सर होता है - कहानी में, फिल्म में और थोड़े बदले हुए संदर्भ में जीवन में भी - पिता एक दिन शाम को जल्दी घर वापस आते हैं और दुर्लभ को पढ़ते हुए न देखकर उनकी खोज में बाहर निकलते हैं। दुर्लभ वहीं मिलते हैं - क्लब की खिड़की से टेलिविजन देखते हुए। दुर्लभ टेलिविजन में चल रहे एक गाने में खोए हुए हैं - ये मुलाकात एक बहाना है... प्यार का सिलसिला पुराना है...। ...कि एक तेज झापड़ उनकी कनपट्टी पर लगता है। अचकचाकर जब देखते हैं तो सामने पिता का गुस्से से लाल चेहरा दिखाई पड़ता है। आस-पास खड़े कुछ फटेहाल-गंदे बच्चों का भी सम्मोहन टूटता है और दृश्य में एक नई फिल्म शुरू हो जाती है। दुर्लभ एक बेबस बाल कलाकार और पिता एक क्रूर खलनायक। फिल्म की शुरुआत में खलनायक खूब गुस्से में एक बच्चे को पीटते हुए सरे राह चला जा रहा है। बच्चा बेबसी से पिता की ओर देखता है और शर्म से फिल्म देखने वालों को। उस दिन घर की दूरी बेहद बढ़ी हुई और असह्य लगती है। फिल्म की टर्निंग प्वायंट उस गोरी-दुबली लड़की को यह दारुण दृश्य देखते हुए दुर्लभ का देखना है। और क्लाइमेक्स एक बंद कमरे में गहन चिंतन, क्षोभ और निराशा में आत्महत्या के सामान जुटाने के बाद भी बचे रहने की लालसा और एक कविता का जन्म। जिसमें एक सपने के मरने की कथा। हालाँकि यह संशयहीन होकर नहीं कहा जा सकता कि सपना मर गया था। कई बार हम जिंदा होने के बावजूद भी मरे हुए हो सकते हैं और मर कर भी साबुत जिंदा। मरने और जीने की क्रिया दैहिक न होकर संपूर्ण रूप में मानसिक क्रिया है - यह सत्य दोनों पर ही समान रूप से लागू हैं - चाहे सपना हो या आदमी। यह अलग बात है कि हमारा मन इसे प्रायः समझ नहीं पाता। दुर्लभ के लिए दृश्य में एक सपना मर गया था। और दृश्य के बाहर एक नई कविता प्रसव के लिए छटपटाने लगी थी। दूसरे सपने की शुरुआत यहीं हुई थी।

पार्क स्ट्रीट से विक्टोरिया तक फैला हुआ मैदान और उसपर बनी पगडंडी दुर्लभ दा को बेहद पसंद थी। तारक इसे बखूबी जानता है। इस पगडंडी पर पता नहीं कितनी बार वे चल चुके हैं। यहाँ से विक्टोरिया मेमोरिअल अँधेरे समुद्र के बीच रौशनी के एक द्वीप की तरह लगता है। तारक विक्टोरिया के पास से गुजरते हुए कई-कई चोर नजरों से आस पास बैठे प्रेमी युगलों को देख लिया करता है। ऐसा करते हुए एक बार दुर्लभ दा की आँखों का मुयायना भी वह करता है। ऐसे समय में हो सकता है कि उसके नादान मन में कुछ अदृश्य सपने उभरते हों। लेकिन यह लेखक का सिर्फ अनुमान है। अनुमान से अलग सच्चाई में दुर्लभ दा अपने एकांत में खोए रहते हैं। हमेशा की तरह बाहर की समस्त चीजों से निरपेक्ष।

वे दोनों अब विक्टोरिया तक जाती उसी पतली पगडंडी पर चल रहे थे।

दादा, आपने अभी तक शादी नहीं की...? तारक बीच में टहर गई उदासी से मुठभेड़ के लिए रास्ता बनाता हुआ पूछता है।

दुर्लभ दा तारक की ओर देखकर रह जाते हैं।

फिल्मों ने तारक को कम से कम प्रेम के मामले में थोड़ा एक्सपर्ट बना दिया था। वह थोड़ा लजाते हुए पूछता है - अच्छा, आपने कभी किसी लड़की से भालोवासा किया है?

इस बार दुर्लभ भट्टाचार्या को एक गोरी-दुबली लड़की की हँसी चीरती हुई निकल जाती है। वह अंतिम बार आपाद-मस्तक गहनों से लदी लाल चुनरी पहने, माँग में सिंदूर लगाए कहीं दूर चली जा रही है... उस समय उसके उदास चेहरे में भी एक जमाने पहले की हँसी का एक फँसा रह गया कतरा कौंधता हुआ सा लगता है और धीरे-धीरे दृश्य से ओझल हो जाता है। चलते-चलते वे अचानक रुक जाते हैं। जैसे तारक ने वर्षों से उनकी आत्मा में दफन मुर्दे को उखाड़ दिया हो और वे उसकी हड्डियों के ढाँचे को देखकर बेतरह डर गए हों। दुर्लभ दा कोई जवाब नहीं देते।

वे एक छोटे से झुरमुट के पास निढाल हो कर बैठ गए हैं।

तारक, तुम मुझपर कितना विश्वास करते हो? एक प्रश्न हवा में तैरता हुआ उन दोनों के बीच में बैठ जाता है। अब तारक असमंजस में। क्या कहे वह दुर्लभ दा से कि उनका अस्तित्व ही उसके लिए सबसे बड़ा विश्वास है। वह कहना चाहता है कि दुर्लभ दा अपने आप से ज्यादा मैं आपपर विश्वास करता हूँ। कि मैंने पिता को नहीं देखा मैंने सिर्फ आपको देखा है... और आपके जैसा बनने का प्रयास किया है लेकिन मैं अबोध हूँ इसलिए जो विश्वास मुझे अपने उपर होना चाहिए वह आपके ऊपर है। या ऐसा ही कुछ वह कहना चाहता है। लेकिन ऐसा कहना उसके बूते की बात नहीं, भाषा नहीं और समझ भी नहीं।

तारक कुछ नहीं बोलता। वह प्रश्नों को हवा में तैरता हुआ ही छोड़ देता है और एक गहरी पीड़ा और सहानुभूति में दुर्लभ दा के पास आकर बैठ जाता है।

- तुमने सपने देखे हैं? ...और अब दूसरा ही प्रश्न जिसका जवाब तारक को देना है।

- अक्सर रात में सपने आते हैं। ...और उन सपनों की कुछ यादें रह जाती हैं। उन कुछ यादों में आपकी उपस्थिति रह जाती है। ये कैसा ही आश्चर्य है कि मेरे सपने में कहीं न कहीं से आप आ ही जाते हैं। - तारक जैसे सपनों के बिखरे तिनकों की याद में खो जाता है।

- नहीं रे पागल, मैं जागती आँखों के सपने की बात कह रहा था।

- मतलब?

- मतलब, वे सपने जो मेरे जैसे लोग देखते हैं। ...यह वाक्य दुर्लभ दा ऐसे कहते हैं जैसे जैसे किसी मोड़ पर छूट गए कितने आत्मीय रहे चेहरों की उपासना कर रहे हों। यही तो किया था दुर्लभ दा ने अब तक की अपनी यात्रा में।

उदाहरण के लिए दूसरे सपने की शुरुआत की बात करते हैं।

दुर्लभ दा की हथेलियों से एक सपना फिसला और वहीं से कविताओं का दौर शुरू हुआ। पिता पर क्रोध के कारण पहली कविता में जीवन की निरर्थकता के बाद एक गोरी पतली लड़की के मरने की घोषणा हुई। दूसरी-तीसरी में प्रेम की असफलता पर आँसू बहे। कुल मिलाकर धीरे-धीरे आलम यह हुआ कि दुर्लभ दा अपने मुहल्ले के दोस्तों के बीच कवि के रूप में चर्चित होने लगे। लेकिन यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि लेखक बनने का एक सपना पीछे लग गया।

उससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि सपने में दुर्लभ दा लेखक बने। पहली कहानी पर शहर की एक संस्था का युवा कवि का पुरस्कार मिला। देखते-देखते कई काव्य संग्रह छपे। कई भारतीय भाषाओं में उनके अनुवाद भी हुए। फिर एक दिन रास्ते में चलते हुए एक गोरे आदमी ने दुर्लभ भट्टाचार्या को आवाज दी - जेंटलमैन, इफ आएम नॉट रौंग, यू आर दुर्लभ भट्टाचार्या? ...वह आदमी कोई और नहीं लंदन के किसी बड़े पब्लिशिंग कंपनी का मालिक था। और यही वह समय था जब पहली बार अंग्रेजी में उनकी प्रेम कविताओं का अनुवाद हुआ। फिर एक दिन वे अपने नए संग्रह की भूमिका लिख रहे थे कि किसी ने आकर खबर दी कि दुर्लभ अखबार देखो तुम्हें इस वर्ष का बुकर पुरस्कार मिला है। ...खबर सुनाने वाले पिता ही थे क्योंकि दुर्लभ दा की राय में सबसे अधिक वे ही दुर्लभ की कविताओं से नफरत करते और उसे नक्कारखाने की तूती कहते थे।

एक बार नोबेल पुरस्कार पाने की खबर भी सुनी गई। यह खबर माँ ने सुनाया था। और एक बड़े चमचमाते भवन में दुर्लभ का भावुक भाषण भी हुआ। बिल्कुल 'बागबान' के नायक अमिताभ बच्चन की तरह। यह क्रम रात-दिन, चलते-फिरते सोते-जागते चलता रहता था। ...और चलती रहती थीं दुर्लभ भट्टाचार्या की कविताओं की सपनीली दुनिया।

और एक दिन की खबर यह है कि पिता ने आकर यह सूचना दी कि दुर्लभ भट्टाचार्या स्नातक की परीक्षा में फेल हो गए हैं। फिर पिता के हिकारत भरे संवाद... माँ के दुख... सब कुछ एक साथ फिल्मी पर्दे पर टंग गए। और एक झटके के साथ जैसे दुर्लभ भट्टाचार्या एक लंबी नींद से हड़बड़ाकर उठ गए।

यह सपनों से मोह भंग होने का समय नहीं था। बड़े लेखक सदैव ही परीक्षाओं में फेल होते रहे हैं। हिंदी विषय पढ़ाने वाले गुरु जी कहा करते थे कि रवींद्रनाथ टैगोर ने कभी कोई अकादमिक परीक्षा पास नहीं की। निराला जैसा कवि नौवीं कक्षा में फेल हो गया था। दुर्लभ ने पिता की हिकारत भरी नजरों का सामना किया। फिर यह सोचकर संतोष कर लिया कि एक दिन जब सचमुच मैं बड़ा लेखक हो जाऊँगा और मेरे किताब की कॉपी राइट जब करोड़ों रुपए में बिकेगी तब सबको मालूम चलेगा कि मैं भी क्या चीज हूँ।

दूसरे ही दिन कुछ और कविताएँ उन्होंने एक प्रतिष्ठित पत्रिका में भेज दी। लेकिन जैसा कि अक्सर फिल्मों में नहीं होता है और हमारी जमीनी जिंदगी में होता है। कविताएँ छपने की बात तो दूर कहीं से कोई खबर तक नहीं आई। फिर कविताएँ भेजी गई। लेकिन उन्हें कहीं छपनी नहीं थी सो नहीं छपी। इसके कई कारण रहे होंगे। पर जनाब, आज उन कारणों का विश्लेषण संभव नहीं। फिर एक दिन पता नहीं क्या मन में आया कि दुर्लभ भट्टाचार्या ने अपने दो-तीन वर्षों के लिखे की एक पोटली बनाई। और हुगली नदी के किनारे चले गए और कागज पर लिखी एक-एक कविताओं को मंत्र की तरह जोर-जोर से पाठ किया और एक-एक को गंगा के पवित्र जल में प्रवाहित कर दिया।

इसके बाद वे चुप और उदास-से हो गए। मन तो यही कह रहा था कि कविताओं के साथ स्वयं को भी गंगा में प्रवाहित कर आते। इस तरह और कुछ भले न होता लेकिन दुर्लभ दा की राय में उनके पिता को तो शांति जरूर मिल जाती। लेकिन एक सपना स्थायी भाव की तरह बचपन से बैठा हुआ था कि माँ के लिए कुछ करना है। सो यह करने के लिए उनका बचे रहना जरूरी था। और उनके बचे रहने के लिए एक नए सपने की जरूरत थी।

तारक यह सब नहीं जानता। उसके जानने की और सोचने की एक सीमा है। उसकी सोच में यह सोच सबसे अधिक गहरी है कि यदि दुर्लभ दा न होते तो मुहल्ले के छोकरे उसे चैन से जीने न देते। वह मुहल्ले के शरारती और गंदे बच्चों के लिए मनोरंजन का सबसे सुलभ माध्यम बन जाता या वह भी कूड़े के ढेर से प्लास्टिक के टुकड़े बिनता हुआ एक दिन वह बन जाता जिसे स्थानीय भाषा में चेंगड़ा कहते हैं। उसके लिए अपनी माँ के होने का अहसास और दुर्लभ दा का निश्छल साथ किसी भी अन्य चीज से अधिक महत्वपूर्ण है। रात में आनेवाले सपने हैं और एक विश्वास की नासमझ लकीर है जिसकी शक्ल दुर्लभ दा के चेहरे से मिलती-जुलती है।

दादा जब आप गहरी सोच में होते हैं, तो एकदम हीरो लगते हैं। तारक अचानक ही समय के अंतराल को तोड़ देता है।

दादा बोलिए न! आप चुप हो जाते हैं तो लगता है मेरी साँस अटकने लगती है।

दुर्लभ दा अतीत की कई तहें पार करते हुए तारक के पास लौट आते हैं - इस बार एकदम एक बूढ़े और अनुभवी आदमी की तरह।

तारक यदि मैं तुम्हारे लिए कुछ न कर सका तो?

क्या करना चाहते हैं दादा आप? आप हैं यह क्या कम है, आपके होने का जो यह विश्वास है...

तारक तुम नहीं समझते...

क्या दादा?

दुर्लभ दा बताना चाहते हैं बहुत कुछ। अपने इस निश्छल और निःस्वार्थ बंधु को। अपने सारे सपनों की और नाकामियों की कथा... वह सब जो किसी को नहीं बताया। ...कि दुर्लभ भट्टाचार्या बी.ए. की परीक्षा में फेल होने और लेखक न बन पाने की नाकामी के बाद क्या करते। माँ की बीमारी बढ़ती जा रही थी - पिता ने आवारा घोषित कर दिया था, उनके अपने सपने और दुख थे। अपने इकलौते बेटे को लेकर उनके जितने मंसूबे और सपने थे, उन सबको उन्होंने दुहराया - मैंने सोचा था कि तुम पढ़ लिखकर कुछ बन जाओगे, तो गरीबी का यह कलंक जो समय ने दिया है वह धुल जाएगा। पुराने दिन तो वापस न आएँगे, पर चैन की जिंदगी तो नसीब होगी। पर बेकार ही सपने देखे मैंने। जरूरत नहीं है अब पढ़ने-लिखने की। आवारागर्दी बहुत हो चुका, अब कोई नौकरी-चाकरी ढूँढ़ो, न हो तो अपने सेठ से बात करता हूँ... उसके किसी दुकान का हिसाब देखो। अब हमसे तुम्हारा बोझ न उठाया जाएगा... कम से कम अपना पेट तो पालो। दुर्लभ ने सिर झुका कर सुन लिया था। कुछ दिन पहले उन्होंने एक फिल्म देखी थी जिसमें एक दुखी पिता अपने नक्कारे बेटे से कुछ इसी तरह के संवाद बोल रहा था। संवाद सुनकर बेटे ने कसम खाई कि वह जब तक कुछ बन नहीं जाएगा अपने पिता को अपना मुँह न दिखाएगा। बिल्कुल उसी तरह का संवाद दुर्लभ भी अपने पिता के सामने दुहराना चाहते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया... वे सिर झुकाए चुप थे। एक मन संकल्प ले रहा था कि इस बार बी.ए. के इम्तिहान में टॉप की पोजिशन हासिल कर लेनी है। पिता के चेहरे पर हँसी के परिंदे लौटा देने हैं - बिल्कुल चोरी-छुपे सबको आश्चर्य में डाल देना है। कोई पार्ट-टाइम नौकरी करनी है और बस पढ़ाई करनी है। पिता की फटकार सुन लेने के बाद वे माँ का उपदेश सुनने के लिए उसके मुखातिब हुए। पता नहीं क्यों उन्हें लगा कि माँ की झिड़की कुछ ही समय पूर्व लिए गए उनके संकल्प को पुख्ता करने के लिए जरूरी है। लेकिन माँ ने बस इतना ही कहा - जो लड़ता है वही पटखनी खाता है... हार के डर से लड़ना छोड़ दोगे? दुर्लभ का मन हुआ कि माँ को गले लगाकर रोने लगें। लेकिन यह कोई फिल्म नहीं थी। ऐसा अक्सर उन्होंने फिल्मों ही देखा था। इसलिए वे चुप थे। एक बार माँ को पीड़ित-गहरी आँखों से देखा और बाहर निकल गए।

यह सब तारक को नहीं पता। अव्वल तो उसने पूछा ही नहीं... और यदि अनजाने ही पूछ भी बैठा तो उसका जवाब उसे नहीं मिला। बी.ए. की परीक्षा का संकल्प लिए जिन दिनों दुर्लभ अकेले हो गए थे, उन्ही अकेले दिनों में तारक उनके करीब आया था कि उन्होंने तारक को अपने करीब ला दिया था। दुर्लभ के प्रायः सभी तथाकथित मित्र किसी न किसी धंधे में लग गए या लगा दिए गए। उनके पास छोटे सपने थे जिनमें एक छोटी नौकरी... किराये का एक घर और घर में सुंदर नहीं तो सुंदर सी एक पत्नी। मसलन, निमाई ने मुहल्ले में ही चाय बिस्कुट का एक दुकान खोल लिया। प्रवीर राजा कटरा में अपने पिता की अगरबत्ती की दुकान में बैठने लगा था। मुस्तफा एक सरकारी फर्म में क्लर्क हो गया। ये ऐसे मित्र थे जो दुर्लभ दा के जीवन में मित्रता के भ्रम को जिलाए हुए थे। हालाँकि दुर्लभ की राय में उनमें से कोई भी उनके दिल के करीब आने के लायक न था। पर अकेले दिनों में साथ की जरूरतें उनसे जरूर पूरी होती थीं। लेकिन वे सब अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो गए। इन्हीं अकेले दिनों में तारक उनके करीब आया था। और पता नहीं क्यों दुर्लभ भट्टाचार्या ने भविष्य के अपने सारे मंसूबे उसके सामने खोल कर रख दिए थे। बी.ए. की परीक्षा में टॉप करने से लेकर आइएएस बनने और वहाँ से रिजाइन करने के बाद फिल्म निर्देशक बनने के उनके सारे सपने से तारक वाकिफ था। क्रमशः किस तरह उन्हें पूरा होना था और इसके बाद जीवन का कैसे बदलना था। माँ की खुशी अपने बेटे की सफलता पर कैसी दिखेगी, वह पागल कर देने वाले दृश्य की कल्पना। सबका गवाह नासमझ तारक था और वही हो सकता था।

कुछ दिनों तक तारक को दुर्लभ दा अपने मंसूबे सुनाते रहे। मंसूबे और फिल्में। तारक विस्मय और आश्चर्य से सुनता। तारक इन्हीं दिनों दुर्लभ दा को महान मानने लगा था। उसे यह विश्वास हो गया था कि दुर्लभ दा अपनी प्रतिभा और मेहनत से सब कुछ संभव कर देंगे। हमेशा ही तो फिल्मों में एक हीरो संकल्प लेता था और महान बनता था। चमचमाते पर्दे के बाहर भी एक फिल्म और चल रही थी जिसके नायक दुर्लभ भट्टाचार्या थे। और उन्हें भी तारक के नासमझ हिसाब से एक दिन महान बनना था।

तो जनाब, पर्दे के बाहर चल रही इस फिल्म के कुछ दृश्य यूँ हैं ।

दुर्लभ भट्टाचार्या अपने घर की खिड़की के समीप मेज पर बैठे हुए कुछ सोच रहे हैं। उनके चेहरे को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे भविष्य के किसी रोमांचकारी सपने में मसगूल हैं। हो सकता है कि सोच में उन्होंने यूनिवर्सिटी की परीक्षा रिकार्ड तोड़ नंबरों से पास किया हो और यह खबर अखबार में छपी हो। इसके बाद मुहल्ले में वे गर्व के साथ चल रहे हों। कि जैसे मुहल्ले के सभी लोगों को अपनी कामयाबी का सबूत दे रहे हों। या आई.ए.एस. की परीक्षा में वे टॉप कर चुके हों और ट्रेनिंग के लिए मसूरी जाने के पहले अपनी माँ के पैर छू रहे हों। कि अचानक सपने के अदृश्य और फिल्म के दृश्य पटल पर तारक का आगमन होता है और दुर्लभ भट्टाचार्या का सपने के आसमान से सतह पर।

काकी माँ कैसी है...? तारक बिस्तर पर सोई हुई दुर्लभ दा की माँ की ओर देखते हुए पूछता है। फिर बिना जवाब की प्रतीक्षा किए ही कहता है - बाप रे, इतनी मोटी-मोटी किताबें। लग रहा है इस बार आप जरूर कुछ करेंगे।

दुर्लभ दा कुछ जवाब नहीं देते। एक बार अजीब नेत्रों से मेज पर बिखरी पड़ी किताबों को देखते हैं कि जैसे सोच रहे हों कि अब सारे चमत्कार किताबों को ही करने हैं और शायद माँ की बीमारी के बारे में सोचकर उदास हो जाते हैं।

- चल कहीं बाहर घूम कर आते हैं।

- कहाँ जाएँगे?

- फिल्म?

- लेकिन काकी माँ...?

- उन्हें दवाई दे दिया है, सो रही हैं। तीन घंटे से पहले न उठेंगी। तब तक बाबा आ जाएँगे।

दोनों सड़क पर निकल पड़ते हैं। कुछ देर पैदल चलने के बाद ही अजंता सिनेमा हॉल है। अक्सर सिनेमा देखने के लिए वे चौरंगी तक आते हैं। लेकिन माँ बीमार है इसलिए आज अजंता सिनेमा ही ठीक रहेगा।

कुछ लम्हे बाद फिल्म के साथ उनकी यात्रा शुरू हो जाती है। कुछ दृश्यों के बाद एक दृश्य में एक झोंपड़ीनुमा घर है। एक महिला छाती पीट-पीट कर रो रही है - उसके सामने ही एक आदमी की लाश पड़ी हुई है - वह उसका पति है जिसकी मृत्यु अभी-अभी दवा के अभाव और भूख के कारण हो चुकी है। फिल्म की घटनाएँ बताती हैं कि महिला के पास पति की अंतिम यात्रा के लिए जरूरी कफन के पैसे नहीं है। शुरू में ही दृश्य से गायब हो चुका उसका बेटा अब तक वापस नहीं आया है। औरत दहाड़े मार कर रोए जा रही है, आस-पास कुछ लोगों की खुसुर-फुसुर करती एक भीड़ भी है। कि तभी एक नौजवान रहस्यमय ढंग से चमचमाते पर्दे पर उभरता है और माँ-माँ कहता हुआ उस महिला के गले से लिपट जाता है। हॉल में तालियों की एक झीनी समवेत ध्वनि सुनाई पड़ती है। तारक को लगता है कि यह दृश्य उसके अपने जीवन का है - वह अपनी आँखों की नम होती कोरों को अपनी हथेलियों से पोंछ लेता है। दुर्लभ दा क्या सोचते हैं यह स्पष्ट नहीं है - यह कहा जा सकता है कि वे जान-बूझकर उस दृश्य से स्वयं को एकाकार नहीं होने देते। उनके लिए तमाम शिकायतों के बावजूद पिता का अस्तित्व एक ऐसा कवच है जो अदृश्य रूप से उनकी सुरक्षा करता है - माँ की मौजूदगी उनके आवारा सपनों को सहलाती हुई सी एक शीतल बयार है।

फिल्म अच्छी थी न...? - दृश्य में तारक कहता है।

हाँ, अच्छी ही थी - कह सकते हैं। लेकिन जिस पिता की बातों से प्रेरणा लेकर नायक कुछ बनता है... लौटने पर उनकी लाश ही देखता है... यह रस दोष है। - दुर्लभ दा ऐसे कहते हैं जैसे कह रहे हों कि क्या खाक अच्छी थी।

तारक को पूरी बात समझ में नहीं आती। वह सोचता है कि रस दोष भी स्वप्न दोष की तरह कोई बीमारी होती होगी। मुहल्ले का शामू इस बीमारी की चर्चा अक्सर करता था।

...और फिर रास्ते भर की चुप्पी।

फिल्म के दूसरे दृश्य में बेहाला का वही मुहल्ला है जो आपकी खिड़की के आईने में सुबह-शाम दिखता है। उस मुहल्ले की गलियों में हमारा नायक चल रहा है - साथ में तारक मंडल। दृश्य में एक घर उभरता है जिसके चारों ओर मुहल्ले भर की भीड़ इकट्ठी है। घर दुर्लभ दा का ही है। दुर्लभ दा तारक की ओर एक प्रश्न भरी दृष्टि फेंकते हैं - क्यों... किसलिए? - आँखें पूछती हैं। और कदम अचानक किसी अमंगल की सूचना पाकर तेज हो जाते हैं।

बदले हुए दृश्य में माँ के शरीर पर कफन है - पिता उसके समीप झुक कर बैठे हुए।

तो क्या माँ...? दुर्लभ धम्म से जमीन पर बैठ जाते हैं। रोते नही... चिल्लाते नहीं... ऐसे चुप कि जैसे काठ मार गया हो। इस चुप्पी को तोड़ती हुई दिंगत में गूँजती तारक की आवाज है - दुर्लभ दा!! दुर्लभ दा!!! आवाज की गूँज सुनकर पिता एक बार दुर्लभ को देखते हैं - और उनकी आँखें जो कुछ कहती हैं उसे सिर्फ दुर्लभ दा ही सुनते हैं - तुम आवारा थे पर यह तो आवारगी की हद हुई दुर्लभ। ऐसी गैर जिम्मेवारी कि बीमार माँ को घर में अकेले छोड़कर मटरगस्ती करने चले गए। ...अब भी मेरे सामने खड़ा रहना क्या तुम्हारी आत्मा को गवारा है। ...ऐसी बेशर्मी... छीः...।।

दुर्लभ दा फिर चुप्प। उनके लिए सारा दृश्य एक असह्य आत्मग्लानि से भर जाता है।

दृश्य में कुछ दिन ऐसे ही गुजरते हैं। एक दम बेआवाज और चुप दिन।

फिर एक दिन कॉलेज स्ट्रीट के फुटपाथ पर हमारे नायक का दृश्य उभरता है। आगे-आगे दुर्लभ दा पीछे-पीछे तारक। तारक ने काँधे पर एक भारी पोटली उठा रखी है। दुर्लभ दा के हाथ में खाकी के रंग का एक पुराना झोला है। दोनों चुपचाप चले जा रहे हैं। लेकिन कहाँ ?

तारक अचानक एक खाली जगह पाकर पोटली को धम्म से पटक देता है।

- दादा, क्या यह ठीक है? वह माथे पर उभर आए पसीने को अपनी तर्जनी से पोंछ रहा है।

- यही ठीक है... अब इनका बोझ मैं नहीं उठा सकता।

- और आपके सपने ?

- सपने... हूँह, वे सब माँ के साथ जलकर स्वाहा हो गए।

- और मैं क्या करूँगा?

- सितारों से आगे जहाँ और भी हैं तारक... अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है। दुर्लभ दा कहते हैं लेकिन उनका मन कहीं गहरे टूट गया है।

और दृश्य में एक मोटा तोंदियल दुकानदार है, जो किताबें गिन रहा है। राजनीति विज्ञान एक भूमिका... रवींद्रनाथ की संपूर्ण कविताएँ... जीवनानंद दास की काव्य साधना... अनामिका... पंचतंत्र... और ढेरों ऐसी किताबें जिनके कई नाम तारक पढ़ने में असफल रहता है। दुर्लभ दा एक चौपाए टूल पर बैठे हुए कुछ सोच रहे हैं कि यह किस्सा भी खत... और अब आगे.?

एई नीन दादा आपनार दूई सौ बत्तीस टाका आर आठ आना। - दुकानदार दुर्लभ दा के हाथ में पैसे देते हुए कहता है। दुर्लभ दा के चेहरे पर कोई भाव नहीं। जैसे ब्रह्मांड की पूरी शून्यता उनकी आँखों में आकर जम गई है।

...और दृश्य में दो लोग चुप-चाप चौरंगी तक गई सड़क पर चले जा रहे हैं।

और जो बचा रह गया...

फिर कई पीले उदास दिनों के घटनाहीन गुजरने का समय है।

उसके बाद के दृश्य में एक शाम चौरंगी के रास्ते होते हुए विक्टोरिया तक गई पगडंडी से दुर्लभ भट्टाचार्या और तारक मंडल का लौटना है।

- तारक, तुम कुछ नहीं समझते।...

- क्या दादा?

( आप ठीक समझ रहे हैं, माफ कीजिए जनाब, हम फिर से वहीं लौट गए हैं विक्टोरिया तक गई उसी पगडंडी के एक झुरमुट के किनारे जहाँ दुर्लभ भट्टाचार्या लौटते हुए निढाल हो कर बैठ गए थे और नादान तारक कुछ प्रश्न लिए चुप था। जिंदगी में चल रही एक फिल्म याकि कथा के बिल्कुल अंतिम दृश्य के करीब इस लेखकीय हस्तक्षेप के लिए हमें सचमुच खेद है।)

यह अंतिम संशय था... दुख के अंतिम क्षण...

- तारक, बाबा ने कहा मैं मर चुका हूँ, उनके लिए और जो बचे रह गए घर का एक भ्रम है उसके लिए। और... मुझे लगता है कि मैं मर चुका हूँ इस संसार के लिए भी।

- नहीं दादा, आप होश में तो हैं। क्या कह रहे हैं आप। ...तारक का बच्चा मन बेतरह घबरा जाता है।

- लेकिन तुम्हें जीना है तारक। दुर्लभ दा एक ऐसे जगह पर पहुँच गए लग रहे हैं जो काल और जगत की भौतिक सीमा को लाँघने की सरहद है। यह विक्षिप्त होना नहीं है। यह एक ऐसी जगह है जहाँ पहुँचकर देह और मन की ऐष्णाएँ दम तोड़ देती हैं। चारों ओर एक असाध्य शून्य थरथराने लगता है।

- चलो, चलते हैं।

- घर नहीं...

- अब और नहीं ...मुझे कहीं और ले चलो तारक।

- कहाँ...?

- चलो आज अंतिम बार मेरे साथ...। दुर्लभ दा की आवाज में ऐसा कुछ है कि तारक स्वतः ही उनके पीछे चल पड़ता है।

रात के ग्यारह बजे हुगली नदी के एक सुनसान घाट पर तारक रो रहा है। दुर्लभ दा नदी के भीतर अट्टहास कर रहे हैं - यह मृत्यु नहीं रे पागल यह तो एक नए जीवन की शुरुआत है। यह देह की नहीं यह आत्मा की मृत्यु है।

तारक को इतनी समझ कहाँ कि वह पाप पुण्य देह आत्मा आदि के फर्क को समझ सके। कि आत्मा की मृत्यु एक जीवित देह के लिए कितनी खतनाक और करुण है, यह समझ सके। वह तो दुर्लभ दा को जानता है और उनको इस तरह देखकर उसके आँसू रुक नहीं रहे हैं।

दृश्य में दुर्लभ दा अपने को मरा हुआ मान कर अपना तर्पण कर रहे हैं। हो सकता है कुछ दिनों पहले प्रदर्शित हुई देवदास में दिखाए गए एक दृश्य का यह असर हो जिसमें नायक अपना तर्पण खुद ही करता है। दुर्लभ दा अंजुरी में जल लेकर मंत्र जैसा कुछ बुदबुदा रहे हैं और जोर-जोर से अट्टहास कर रहे हैं जैसे संसार पर और अपनी नाकामी पर हँस रहे हों। तारक फफक-फफक कर रो रहा है।

यह एक ऐसा दृश्य था जिसमें रोने और हँसने के समवेत कोरस की गवाह बेजान हुगली की लहरें बन रहीं थी...। जब तक तारक वहाँ था तब तक यही दृश्य चल रहा था।

दुर्लभ दा को घर नहीं लौटना था सो नहीं लौटे। तारक लौट चुका है अपनी माँ के पास। अपने मुहल्ले के गंदे घर में। ऐसे चुप हो गया है जैसे कारागृह में बंद एक हत्यारा होता है।

पाठकों इसके बाद की कथा लेखक का सिर्फ अनुमान भर है। हो सकता है उसी रात दुर्लभ भट्टाचार्या ने हुगली नदी में अपनी आत्मा को समर्पित कर दिया हो। या यह कि कलकत्ते से दूर कहीं किसी अनंत यात्रा पर निकल गए हों। होने को यह भी हो सकता है कि इसबार उनके मन में कोई और नया सपना जन्मा हो और तेजी के साथ उस सपने के पीछे वे भागते हुए देखे जायँ। या इन सबसे अलग पागल होकर घूमते-घामते चिरकुट बटोरते एक दिन किसी अज्ञात जगह जाने वाली ट्रेन पर चढ़ गए हों जिन्हें किसी स्टेशन या फुटपाथ पर गंदे वस्त्रों में भोजन के लिए तरसते और ठंड में ठिठुरते देखकर आप पहचान न पाएँ। इस देश में रोज ही ऐसी सैकड़ों घटनाएँ घटती हैं। हो सकता है ऐसी ही किसी घटना की तरह दुर्लभ दा भी घटनाओं की भीड़ में खो गए होंगे।

इस घटना को हुए लगभग दस वर्ष गुजर चुके हैं। तारक ने स्टेशनरी की दुकान मुहल्ले में ही खोल रखी है। एक ऑडियो-विडियो सिस्टम भी खरीद लिया है जिसे भाड़े पर मुहल्ले में चलाता है। अपने बेटे का नाम उसने दुर्लभ ही रखा है। प्रत्येक रविवार को वह हुगली के उसी किनारे पर जाकर बैठता है जहाँ से दुर्लभ दा ने उसे अकेले लौटा दिया था।

आज भी वह किसी फिल्मी करिश्मा की तरह दुर्लभ दा के लौटने का इंतजार कर रहा है।