परमा परमजीत / राजेंद्र त्यागी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फैक्टरी के सायरन ने मुँह आकाश की तरफ़ उठाया और भौ-भौं कर चिल्लाने लगा। मशीनों के चक्के कुछ देर के लिए थम गए। हाथ के औज़ार रख मज़दूरों ने खाने के डिब्बे उठाए और गेट की तरफ़ चल दिए। यह पाली समाप्त होने का सायरन था।

मुन्नालाल ने भी टाट के टुकड़े से चीकट हाथ रगड़े और थके-थके से अपने कदम गेट की तरफ़ बढ़ा दिए। मगर उसकी चाल में आज पहले जैसी वह गति नहीं थी। सायरन की आवाज़ आज उसे वैसा सुकून नहीं दे रही थी। जैसी की सात आठ घंटे मशक्कत करने के बाद किसी मज़दूर को देती है। सायरन की भौं-भौं उसे आज आसमान की तरफ़ मुँह उठा कर रोते किसी कुत्ते की तरह लग रही थीं। बाईं आँख भी यकायक हरकत करने लगी थी। इन अपशकुन संकेतों ने अजीब-सी एक आशंका उसके मन में ला धरी। उसे लगा कहीं माँ तो...!

बहुत दिन से उसका कोई खत भी नहीं आया।

अशुभ आशंकाओं का बोझ मन में लिए वह फैक्टरी के गेट पर पहुँचा। उसका साथी कुंदन वहाँ सिक्यूरिटी जाँच करा रहा था। मुन्नालाल भी जाँच के लिए रुक गया। मुन्नालाल का बुझा-बुझा-सा चेहरा देख कुंदन ने उससे पूछा, अब्बे क्या यार! फिर धूप खाए आमरूद की सी सकल बना ली। तू कुछ बताता क्यों नी।

अब्बे साले! ऐसे ही भरा रहेगा तो एक दिन कुक्कर की तरह फट जागा। मन का गुब्बार निकालता क्यों नी?'

जवाब में मुन्नालाल ने बस इतना ही कहा, कुछ नी, उलटी आँख लहक री है। भौत दिन से माँ का भी खत नी आया।

कुंदन को लगा कि मुन्नालाल की हालत आज ऐसी नहीं है कि वह क्वार्टर तक अकेला पैदल जा सके। इसलिए जाँच से फारिग हो रिक्शा पकड़ी और मुन्नालाल के साथ क्वार्टर की तरफ़ चल दिया।

रास्ते में फिर कुंदन ने मुन्नालाल का मन टटोल ने की कोशिश की। अबे यार! तू गाँव चला क्यों नी जात्ता। मिलिया ना माँ से। कब तक ऐसे ही सड़ता रहूँगा?'

'गाँव के हालात ठीक नी हैं। माँ के कहने पर ही गाँव छोड़ा था। हाल जब तलक ठीक ना हो, वह भी नी चाहत्ती कि मैं गाँव आऊँ।' मुन्नालाल ने संक्षिप्त जवाब दिया।

रिक्शा में सवार कुन्दन सलाह और सवालों का तंत्र बुन मुन्नालाल का मन टटोलने का असफल प्रयास करता रहा और वह हाँ-ना, हाँ-ना की जुबान में सवाल टालता रहा। इसी बीच रिक्शा मुन्नालाल के क्वार्टर के पास जा कर रुक गई। रिक्शा से उतर मुन्नालाल रिक्शा वाले का भाड़ा देने लगा और उसके हाथ से चाबी ले कुंदन क्वार्टर खोलने के लिए दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गया।

दरवाज़ा खोलते ही कुंदन ऐसे चिल्लाया, मानों किसी बच्चे के हाथ लॉलीपॉप लग गई हो, 'अब ओ...ए! मुन्ना, देख, खत।'

खत शब्द कानों में पड़ते ही मुन्नालाल के ज़र्द चेहरे पर सुर्ख लकीरें उभर आई। बाई आँख की अतिरिक्त हरकत पर विराम लग गया। दिमाग़ में गूँजती सायरन की भयावह चिल्लाहट भी शांत हो गई और रिक्शा वाले को पैसे देते-देते ही वह भी चिल्लाया, 'माँ का होगा।'

मुन्नालाल कुंदन की तरफ़ लपका और उसके हाथ से खत ले लिया। खत देखते ही ज़र्द चेहरे पर खिंची सुर्ख लकीरें अस्थायी भाव की तरह गायब होने लगी। दरअसल खत का एक कोना कटा था।

बदलते भाव के साथ-साथ उसके सोच की धारा भी बदली। 'खत माँ का नी, माँ के बारे में है। हाँ, वह खतों का जवाब इसीलिए नी देरी होगी। बीमार होगी। कहीं वह...।'

माँ के लिए मन में उतरते-चढ़ते अशुभ विचारों पर उसने ब्रेक लगाने का प्रयास किया और उलट-पुलट कर खत पढ़ने लगा। आशीर्वचन के बाद खत की पहली पंक्ति थी, 'मुन्ना अब तू घर आ जा।'

खत की पहली पंक्ति पढ़ते ही उसे लगा कि जैसे दर्द के सागर में डूबते-डूबते उसे तिनके का सहारा मिल गया और वह फिर किनारे पर आ लगा। अब उसे पक्का यकीन हो गया था कि खत माँ के बारे में नहीं, खत माँ का ही है। ज़रूर किसी की शरारत रही होगी अथवा डाकिए की लापरवाही से खत का कोना फट गया होगा।

हर्ष और विषाद की लहरों में बहता मुन्नालाल कुंदन को खत पढ़ कर सुनाने लगा। खत में लिखा था- 'मुन्ना अब तू घर आ जा। कितने दिन है गए, तुझे देक्खे बिना। तेरे खत अर मनिआडरों से अब पेट ना भरै। लगै है, अब मेरा आखरी बखत आ गिया। सांस अब जुड़ता ना है। आँखों से भी कम दिक्खे है। गोड़ भी टूटने लगे। तुझे देक्खूं अर बस इन परानन नै तयाग दूँ। आखरी बखत तू बस मेरे धोरे हो, अब तो यही इच्छा रह गई है। बस तू आजा।

अब तो लंबरदार का छोरा परमा भी गाँव में बस कभी-कभी आवै है। लोग कह वै हैं, अब वह राछस ना रहा अब बड़ा आदमी हो गिया है। अर गाँव वालों को भी ना सतावै। तेरी बात भी भूल गिया होगा, राछस। अब डर मन से निकाल दै। मैंने भी निकाल दिया।'

खत पढ़ कर उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा। इस खुशी के बीच उसके मन में विचार ज्वार-भाटे की तरह उतरने-चढ़ने लगे।

'भगवान का लाख-लाख सुकर है, माँ ठीक-ठाक है। अंतिम इच्छा की बात तो उसने वैसे ही लिख दी होगी। इतना लंबा बखत जो बीत गिया है, बेटे को देखे बिना। माँ आखिर माँ है, कलेजे पर पत्थर कब तलक धरे रहती। माँ बिलकुल ठीक होगी।'

विचारों की इन लहरों के बीच तैरते-तैरते उसने अपने यार कुंदन से कहा, 'कुंदन! मैं आज रात की रेल पकड़ गाँव जाऊँगा।'

हालात पर गौर करते हुए कुंदन ने भी इस बारे में किसी तरह की सलाह देना उचित नहीं समझा और उसने भी हामी भर दी। स्टेशन से रेल छूटने में मात्र-तीन चार घंटे शेष थे, इसलिए कुंदन की मदद से वह फटाफट तैयार होने लगा।

उसने कपड़े-लत्ते बाँधे और हाथ-मुँह धो कर बाल ठीक करने के लिए आईना हाथ में उठाया। बालों में कंघी रोज़ करता था और आईना भी दिन में तीन चार बार देख ही लेता था। मगर आईना देख कर उसे जैसी अनुभूति आज हुई वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। आईने में अपना चेहरा देख आज वह स्तब्ध था। शक्लों-सूरत में परिवर्तन आज अचानक नहीं आ गए थे। परिवर्तन अपनी गति से आए थे। मगर उसने महसूस अब किए थे। क्योंकि दस वर्ष पूर्व गाँव छोड़ने वाला मुन्ना भी आज उसके पास खड़ा था, इसलिए तब और आज के मुन्ना में तुलना करना स्वाभाविक था।

गाँव से जब वह विदा हुआ था तब जवानी सिर पर चढ़कर बोल रही थी। सिर व मूँछ दोनों के बाल स्याह थे। मगर अब दोनों स्थानों पर सफ़ेदी ने घुसपैठ कर ली थी। चेहरे की खाल भी फटी झूल-सी लटकने लगी थी। कुल मिलाकर बुढ़ापा दस्तक देने लगा था। यह कुछ उम्र का तकाज़ा था तो कुछ वक्त के थपेड़ों का असर।

सूरत आईने में देखते ही उसके मन का भय बोल उठा, 'माँ मुझे पहचान भी लेगी? नहीं...नहीं, माँ नी पहचान पाएगी। अरे! क्यूं नी पहचानेगी, माँ तो माँ है, ज़रूर पहचान लेगी। उसका और है भी कौन, बस अब मैं ही तो हूँ उसका। जवानी, बुढ़ापे की तराजू में थोड़ा ही तोलती है कोई माँ अपने बेटे को।

माँ तो पहचान ही लेगी। पर परमा ने पहचान लिया तो...? ना, ना, ना, भईया! माँ ने लिखा है कि वह राछस ना रहा अब बड़ा आदमी हो गिया है। डर की कोई बात ना है। पहचान भी लिया तो कुछ ना कहवै। पर कहवैं हैं पुरानी चोट अर पुरानी दुसमनी कब हरी हो जावै, कुछ ना कै सकै।...कोई बात ना, भईया, वा भी देखेंगे।'

आते-जाते विचारों के झटकोलों के बीच से मुन्नालाल को निकालते हुए कुंदन ने याद दिलाए 'अब्बे! कहाँ खो गिया है, रेल भी पकड़नी है।'

कुंदन की बात सुन मुन्नालाल विचारों की दुनिया से वापस आया। फटाफट समान उठाया, क्वार्टर की चाबी कुंदन के हाथ में थमाई और स्टेशन के लिए रिक्शा पकड़ ली।

अपने यार को स्टेशन की तरफ़ जाता देख कुंदन ने कहा, 'मुन्ना, जाते ही खत डाल देना।'

स्टेशन पहुँचते ही मुन्नालाल गाँव की तरफ़ जाने वाली रेल में बैठ गया। कुछ ही देर बाद रेल ने स्टेशन छोड़ दिया। धीरे-धीरे रेल की धड़कन और गति दोनों तेज़ होने लगी। रेल के साथ-साथ मुन्नालाल के दिल की धड़कन और विचार भी रफ्तार पकड़ने लगे।

मुन्नालाल तंग आ चुका था विचारों के इस सैलाब से, इसलिए ध्यान बाँटने के लिए खिड़की का शीशा चढ़ाकर वह बाहर का नज़ारा देखने का प्रयास करने लगा। मगर विचारों की गति पर ब्रेक न लग पाए। उसका शरीर रेल के साथ-साथ गाँव की तरफ़ दौड़ रहा था और मन विपरीत दिशा में दौड़ते वृक्षों के साथ अतीत की ओर।

माँ का स्नेह उसे, सुखद भविष्य के कल्पना लोक में ले जा रहा था और परमा का भय उसे फिर अतीत की कंदराओं की तरफ़ घसीट रहा था। वह चाहता था कि काबू कर मन पूरी तरह माँ के चरणों में लगा दे। परमा और उसके भय से मुक्ति प्राप्त कर ले। मगर ऐसा हो न सका वह चाहकर भी भय मुक्त नहीं हो पाया।

बंधन और मुक्ति के बीच अभिमन्यु की तरह अकेला-सा वह सोचने लगा, 'परमा के भय से माँ भी कहाँ मुक्त हो पाई थी। तभी तो उसने कहा था, 'मुन्ना तू कहीं दूर निकल जा नहीं तो यह राछस तेरी जान ले लेगा।'

'मैंने तो मना किया था, माँ तुझे इकला कैसे छोड़ दूँ। गाँव कैसे छोड़ दूँ। मैं तो चला जाऊँगा पर तेरी कौन करेगा।' लाख समझाने पर भी माँ ना मानी। उसने साफ़-साफ़ कह दिया था, 'सुन रे मुन्ना जब तू ना रहवेगा तब मेरी कौन करेगा। अरे बावले, तू दूर रहवेगा तो क्या, तेरी आस में ही रहे सहे दिन काट लूँगी। जब तू ही ना रहवेगा फिर आस भी किसकी। तुझे मेरी कसम, कहीं दूर निकल जा।'

मैं क्या करता निकल आया।

माँ का भय भी सच्चा था। उस दिन गाँव का नज़ारा और परमा का रौद्र रूप जो भी देख लेता ऐसी ही सलाह देता। पूरा गाँव पुलिस के कब्ज़े में था। पुलिस कुख्यात बदमाश परमा को गिरफ्तार करने आई थी। दरोगा फतेह सिंह परमा को घसीटता हुआ पुलिस की गाड़ी की तरफ़ ले जा रहा था। परमा थोड़ी भी चूँ पटाक करता दरोगा उसकी कमर में डंडा जड़ता और परमा, कमर पर डंडा पड़ते ही मुन्नालाल की माँ-बहन के साथ रिश्ते जोड़ने लगता। परमा चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था, 'हरामजादे मुन्ना मैं साल-दो साल में जेल से बाहर आ जाऊँगा, पर तुझे नहीं छोडूँगा। तेरा खून पी जाऊँगा, हरामज़ादे।'

परमा को शक था कि मुन्नालाल पुलिस का मुखबिर है और उसकी ही सूचना पर पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया है। बस यही मुन्नालाल का कसूर था।

रेल अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और मुन्नालाल का मन अपनी गति से। रेल की सीट पर पसरा मुन्नालाल आँखें बंद कर स्नेह और भय के इस द्वंद्व से लड़ने के लिए हिम्मत बटोरने का प्रयास कर रहा था। रेल इस बीच कितने स्टेशन पार कर चुकी। उसे पता नहीं लगा। उसकी तंद्रा तब भंग हुई जब उसे बचपन के दोस्त मंगल ने उसके कंधे पर हाथ रखा।

उस समय गाड़ी मानिकपुर स्टेशन पर खड़ी थी। मंगल गाड़ी पर यहीं से सवार हुआ था और सीट खोजते-खोजते वह मुन्नालाल के करीब पहुँच गया। पुराने दोस्त को देख वह ठिठका और पुराने ही अंदाज़ में उसके कंधे पर हाथ मारते हुए बोला, 'अब्बे साले तू...?'

दूसरी किसी दुनिया में खोए मुन्नालाल को लगा कि गरदन पर हाथ किसी और ने नहीं परमा ने ही डाला है। हड़बड़ा कर उसने आँखें खोल दी और मुँह से निकला- परमा...।

मंगल हँस दिया- 'अब्बे! परमा का भूत अभी तलक चढ़ा है। परमा नी मंगल हूँ मंगल।'

मुन्ना की जान में जान आई। मगर परमा का भूत ज्यों का त्यों रहा और कुशल क्षेम पूछे बिना ही उसके मुँह से निकला परमा कहाँ है? सुना है वह बड़ा आदमी हो गया है, अब कहाँ रहता है...? मंगल समझ गया कि मुन्नालाल केवल बस केवल परमा के बारे में ही सोच रहा था। उसी के अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में विचार कर रहा था। परमा के तीनों काल मानों उसके अपने काल हो गए थे।

मंगल ने हाथ खिड़की से बाहर निकाला और प्लेटफार्म पर खड़े चाय वाले से एक-एक कर दो कुल्हड़ चाय ली। मुन्नालाल की तरफ़ कुल्हड़ बढ़ाते हुए बोला, 'ले चाय के साथ निगल जा परमा की गोली।'

मुन्नालाल ने सुड़क-सुड़क कर बस दो-तीन घूँट में ही चाय का कुल्हड़, खाली कर दिया और याचक की सी दृष्टि से फिर मंगल को ताकने लगा। मंगल ने एक ही नज़र में याचिका पढ़ उसे समझाया, 'अबे, आराम से घर जा। परमा अब तेरे जैसे चूहों पर हाथ नी डालता। नेता हो गिया है, नेता... गाँव आने की उसे फुरसत ना है। आएगा भी तो तेरे जैसों के बारे में सोचने का बखत उसके पास ना है।'

मंगल की बात सुन मुन्नालाल के चेहरे से भय की लकीरें एक-एक कर बिदा होने लगी। मगर बिदा होते होते गंभीर कई सवाल उसके दिल-ओ-दिमाग पर अंकित कर गई।

उनमें से पहला सवाल उड़ेलते हुए मंगल से पूछा, 'क्यों भइया? चोर-उचक्का अर नेता, कैसा बना?'

मुन्नालाल के गंभीर सवाल का जवाब मंगल ने सहज भाव से दिया, 'राजनीति छिनाल है गई है भइया, छिनाल है गई। जिसके पास भी पैसा अर लट्ठ की ताक़त हो, उसी के सामने मुज़रा करने लगै है, छिनाल। अब कोई धरम-धोरा ना बचा।'

मंगल का रहस्यमय यह जवाब शायद मुन्नालाल की समझ नहीं आया, इसलिए उसने फिर दोहराया,

'पर भइया ये परमा नेता कैसे बना?'

मंगल ने इस बार समझाने की तर्ज़ में कहा, 'कह तो रहा हूँ, भईया। सुसरी छिनाल है गई है, छिनाल। सुसरी पै कब्जा करने के लइयाँ बस पैसा चहीये अर लट्ठं का ज़ोर। ये दोनों परमा के पास थे, फिर छिनाल के कोठे का गिराहक बनने से वो क्यों चूकता। यै तो तुझे पताई है, चोरी डकैती अर पकड़ जैसे धंधे तो पहले से करै था। इलाके में रोब गालिब हो गिया तो फिर दारू के धंधे में हाथ डाल दिया। पहले ठेक्के लूटने शुरू करे फिर माहवारी बाँध ली अर धीरे-धीरे खुद ही ठेक्के लेने लगा। सैज-सैज दारू माफिया बन गिया परमा अर फिर परमा से बन गिया परमजीत सिंह। जब पैसा भी ढेर सारा हो गिया अर गुंडागर्दी का ज़ोर भी, बस पारटी वाले चक्कर काटने लगे ससुर के। गुड़ होगा तो मक्खी भिन-भिनाएगीं ही भइया। बस परमा कू भी लालच आ गिया अर वा भी झक कुरता-पजामा पहन, जाने लगा एक पारटी के कोठे पै। हो गिया नेता अर परमजीत सिंह से हो गिया पीजे भइया।'

मुन्नालाल ने अगला सवाल किया, 'पर भइया इन पारटी वालन नै का हो गिया? इनै बदनामी-वदनामी का डर ना है।'

मंगल ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, 'बदनामी! अरे भइया बदनामी भी सुसरी गरीबन के साथ चिपकी है गरीबन के साथ। अमीरन कै लिया बदनामी कुछ ना हो वै है, कुछ ना हो वै। अर, यें पारटी! सब सुसरी दिखावै की हैं। असल मैं तो ये कोठे की बड़ी बाई है गई है, बड़ी बाई। यें भी पैसे अर लट्ठ से मज़बूत लोगों को फँसावै हैं, अर फिर छिनाल राजनीति कू उसके सामने नचानै लगै। ...या ही बात परमा के साथ हुई। मंत्री का सा रुतबा है उसका, मंत्री का सा, अर अगले चुनाव में तो असल मंत्री बनने सै उसे कोई ना रोक सकै।'

परमा से परमजीत सिंह और परमजीत सिंह से पीजे भइया बनने की कहानी सुन पीछे की तरफ़ दौड़ते पेड, बिजली के खंभे, मकान-दुकान मुन्नालाल को थमते नज़र आने लगे। कुछ ही देर बाद चाय-समोसे, पान-बीड़ी और मूंगफली बेचने वालों का शोर व कुलियों का डिब्बे के अंदर आने का आभास हुआ। रेल अब उसके शहर के प्लेटफार्म आ खड़ी हुई थी। दोनों दोस्त अपना-अपना सामान उठाकर डिब्बे से उतर प्लेटफार्म पर आ खड़े हुए।

प्लेटफार्म से बाहर मंगल अपने गाँव की बस की तरफ़ बढ़ा और मुन्नालाल की आँखें गाँव के पुस्तैनी इक्के वाले चाचा झुम्मन को तलाशने लगी। बस की तरफ़ जाते-जाते मंगल ने एक बार फिर मुन्नालाल को तसल्ली दी, 'आराम से चला जईओ, अब पहले जैसी बात ना रई।'

मुन्नालाल की आँखे झुम्मन को तलाश नहीं पाई। अलबत्ता पेड़ की छाँव मे छकड़ा-सा एक इक्का, इक्के के पास थूथड़ी में घास फँसाए मरियल टट्टू और भविष्य के प्रति चिंतित-सी एक मानव काया उसे ज़रूर दिखलाई दी। काया की ठोड़ी व नाक एक दूसरे को छूने की चेष्टा में क्षितिज का सा दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। अरावली पर्वतमाला-सी चेहरे की हड्डियों पर झाड़ से उगी बेतरतीब दाढ़ी और आँखों के नाम पर नाक दाएँ-बाएँ दो गड्डें। कुल मिलाकर लग रहा था कि किसी सुगढ़ चित्रकार ने फुर्सत में अपनी तूलिका से दृश्य उकेरा है।

झुम्मन की तलाश में मुन्नालाल के कदम उसी तरफ़ बढ़ गए और काया की और मुखातिब हो उसने कहा, 'महादेव चलोगे?'

उसने बस की तरफ़ संकेत कर कहा, 'वा जावेगी।' काया के मुँह से निकले शब्द मुन्नालाल के कान के परदों से टकराए और प्रतिध्वनि के रूप में उसके मुँह से निकला, 'अरे...झुम्मन चाचा! काया के मुँह से निकला - पहचाना नी बाबू।'

'नहीं, अरे! मैं मुन्ना, मुन्नालाल।'

प्रतिध्वनि इस बार ओठों के ज़रिए नहीं आँख के रास्ते ध्वनित हुई और काया की आँख से निकली पानी की दो बूँद गाल के गड्डें की ओर लुढ़क गई।

झुम्मन के परिवार का इतिहास जिसे जितना याद है, बस उसने उसके पुरखों को गाँव से शहर और शहर से गाँव की तरफ़ इक्का ही हाँकते देखा सुना है। इसलिए झुम्मन गाँव का पुस्तैनी तांगे वाला है। वक्त बदला गाँव-शहर के बीच बस चलने लगी, मगर झुम्मन ने न तो पुस्तैनी यह धंधा बदला और न ही धंधे के नियम-धरम। आज भी वह गाँव की छोरी-छपारियों, लारे-लवारों से भाड़ा लेने में परहेज़ करता है। मगर इस छूट में बड़ी-बूढ़िया कभी शामिल नहीं रही।

कभी कोई अधेड़ उम्र की महिला मज़ाक में कहती भी, 'मैं भी तो इस गाँव की बहू हूँ, तेरी भाभी लगूँ हूँ, मुझ से पैसे-धेल्ले क्यों?' झुम्मन जवाब में रटा-रटाया मुहावरा हवा में फेंकता, 'घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा का! भाभी का कालजा।'

भाभी हँस देती और गाँठ से भाड़ा निकाल उसकी हथेली पर रख देती।

घोड़ा तांगा जोत झुम्मन जिस किसी के भी खेत खलियान या घर-बाहर की तरफ़ निकल जाता घोड़े के लिए हफ्ते भर की घास और बाल-बच्चों के लिए खाने-पीने का जुगाड़ कर लाता। उस तरह उसने अपना परिवार भी पाला और कच्चा-पक्का एक ओसारा भी डाल लिया। मगर आज वक्त के साथ-साथ सभी कुछ बदल गया है। बदला नहीं तो केवल झुम्मन का स्वभाव।

बदले इस दौर में मुन्ना और झुम्मन आज फिर आमने-सामने खड़े एक दूसरे को निहार रहे थे। मानो पहचान पर मोहर लगा रहे हों।

दोनों के बीच शब्द हीन वार्ता का दौर चला। झुम्मन ने टट्टू-इक्का कसा और मुन्नालाल उस पर बैठ गया। शब्दहीन इस वार्ता में अपने आपको शरीक कर टट्टू ने भी गाँव की तरफ़ छकड़ा खींचना शुरू कर दिया।

झुम्मन ने कटोरों में धँसी आँखें मुन्नालाल की आँखों में डाली और उसकी आँखों में तैरते सवाल पढ़ने लगा। फिर मुन्नालाल को मौका दिए बिना निःशब्दता भंग करते हुए उसने बस इतना कहा- 'अब पहले जैसा बखत ना रहा।'

झुम्मन के गूढ़ इस वाक्य का अर्थ समझने में मुन्नालाल ने भी कोई गलती नहीं की और इस बार उसने आँखों की भाषा से नहीं शब्दों के माध्यम से सवाल किया - 'अर दो बीघे वाला खेत?' झुम्मन ने ठोड़ी और नाक के बीच बने क्षितिज को ज़मीन व आसमान के क्षितिज से मिलाते हुए कहा, पटवारी कहता था, सरकार को ज़रूरत है सो उसने काग़ज़ों पर अंगूठा लगवा लिया। तेरी माँ से भी लगवाया था।'

क्षितिज ८० डिग्री अंश से ९० डिग्री पर लाते हुए झुम्मन बोला, 'उस ज़मीन पर अब पीजे भइया का फारम है।'

मुन्नालाल के मुँह से निकला पीजे भइया...! शब्दों की पूरी बारात अभी मुँह से बाहर निकली भी न थी कि पुलिस का डंडा हवा में लहराया। लड़खड़ाते टट्टूं के कदमों पर ब्रेक लग गए।

उधर टट्टूं के कदमों पर तंत्र के ब्रेक लगे और उधर पुलिस और परमा का अक्स मुन्ना की खोपड़ी में एक साथ टकराए।

जिस भय से वह कुछ देर के लिए मुक्त हुआ था, पुन: उसके दिलो-दिमाग पर काबिज हो गया। भयग्रस्त मुन्नालाल की खोपड़ी चकराने लगी। उसे लगा कि सारे बदन का रक्त उसकी खोपड़ी में चढ़ गया है और इक्के को पहिए खड़ंजे से उठकर उसके दिमाग में चक्कर काटने लगे।

थकी-थकी-सी दोनों आँखें उसने गाँव की तरफ़ दौड़ाई तो चारों तरफ़ पुलिस ही पुलिस नज़र आई। उसने झुम्मन से पूछा, 'चाचा पुलिस!'

झुम्मन बोला- 'पीजे, भइया आया होगा।'

पीजे और पुलिस का यह समीकरण मुन्नालाल की समझ नहीं आया। बिना कोई प्रयास किए उसके मुँह से निकला, मगर माँ ने तो लिखा था परमा अब बड़ा आदमी हो गया। मंगल भी कहता था कि वह नेता बन गया। ज़रूर दोनों ने मुझे बहकाया है। परमा गाँव में है और पुलिस भी, ज़रूर उसे गिरफ्तार करने आई होगी।

मंगल के साथ बात कर मुन्नालाल अतीत की जिन कंदराओं से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आया था एक ही क्षण में पुन: उन्हीं कंदराओं में जा गिरा।

वही दस वर्ष पुराना दृश्य। चारों तरफ़ पुलिस से घिरा महादेव गाँव। परमा को पीटता दरोगा फतेह सिंह और मुन्नालाल को गाली देता परमा। माँ की आँखों से झरते खारे पानी के झरने और काँपती जुबान से निकलते शब्द, मुन्ना जान है तो जहान है। तू गाँव छोड़ कर चला जा मेरी फिक्र मत कर। तू ज़िंदा रहेगा तो जैसे-जैसे मेरा भी बखत कट ही जाएगा?'

इक्का रुकते ही कड़कती आवाज़ में सिपाही ने पूछा, 'कहाँ जारा है बे?'

मुन्नालाल ने हकलाते हुए जवाब दिया, 'घर जारा हूँ। माँ बीमार है।'

सिपाही ने कहा, 'जलदी खिसक साले। साब आ गए तो ऐसी की तैसी कर देगा।'

झुम्मन ने टट्टूं की पीठ पर चाबुक चलाया। टट्टूं ने पाँव तेज़ चलाने की कोशिश की और कुछ ही देर में इक्का मुन्नालाल के घर जा पहुँचा।

इक्के से उतर मुन्नालाल ने घर में प्रवेश किया। ओसारे के कोने में अधमरी-सी उसकी माँ जीर्णशीर्ण खाट पर पड़ी थी। मुन्नालाल ने आवाज़ लगाई- माँ...। माँ ने अधखुली आँखों से बेटे को निहारा और बेटे ने माँ को। दोनों की छाती पर वर्षो से रखे पत्थर पिघल आँखों के रास्ते बहने लगे, निःशब्द।

आँखे पौंछता मुन्नालाल माँ की तरफ़ बढ़ा और उसके पैरों पर अपना सिर रख दिया। उसे लगा कि माँ के सीने पर रखा पत्थर जैसे-जैसे पिघल रहा है, शरीर वैसे-वैसे ठंडा होता जा रहा है। फौरन उसने झुम्मन को आवाज़ लगाई, चाचा जल्दी कर, माँ को शहर के अस्पताल...।

मुन्नालाल व झुम्मन चाचा ने चारपाई समेत माँ को इक्के में डाला और टट्टूं फिर से शहर की तरफ़ हाँक दिया। मगर तब तक पीजे आ चुका था। शहर की तरफ़ जाने वाले खड़ंजे से सटे बाग में उसकी जनसभा थी। शहर जाने वाले खड़ंजे पर पुलिस व पीजे का भाषण सुनने वाले काबिज़ हो चुके थे। गाँव की गलियों से निकल कर झुम्मन का इक्का जैसे ही खड़ंजे के पास पहुँचा, सिपाही का डंडा फिर उसके आगे आ गया।

मुन्नालाल सिपाही के सामने गिडगिड़ाया, 'भइया माँ बीमार है। हस्पताल ले जारा हूँ।'

दिक्खे ना है, पीजे भइया का भाषन चलरा है। खत्म हो जागा, जबी जा पावेगा। चुपचाप खड़ा रै। सिपाही ने मुन्नालाल को डाटा।

मुन्नालाल ने दांत फिर निपोरे, 'माँ मर जागी, रहम कर भइया।'

सिपाही को कुछ रहम आया- 'ठीक है ठीक है, सबर कर बड़े साब से पूछ लूँ।'

अब सिपाही के साथ बड़ा साब फत्तेह सिंह उसके पास खड़ा था। फत्तेह सिंह को देख मुन्नालाल ने राहत की सांस ली। फत्तेह सिंह पुरानी जान पहचान वाला अफ़सर था, इसलिए उसे लगा कि अब शहर जाने की इजाज़त मिल जाएगी। मगर हुआ विपरीत क्योंकि उसे मालूम नहीं था कि तब से अब तक वक्त कई बार करवटें बदल चुका है। परमा पीजे बन गया है और फत्तेह सिंह दरोगा से उपकप्तान, वह भी पीजे भइया की कृपा से। फतेह सिंह आज परमा को गिरफ्तार करने नहीं आया है, बल्कि पीजे की सुरक्षा के लिए तैनात है।

मुन्नालाल को देखते ही फत्तेह सिंह बिजली-सा कड़का- 'क्या बकवास लगा रखी है बे हरामजादे।'

विनीत भाव में मुन्नालाल ने फिर दोहराया।

'माँ बीमार है साब! हस्पताल ले जाना है...!' मुन्नालाल की विनती खारिज करते हुए फतेह सिंह फिर चिल्लाया, 'अबे ओ तेजपाल! मार साले के दो डंडे, अर भगा दे। इसके चक्कर में अपनी माँ थोड़ा ही...।'

मुन्नालाल ने फिर गिड़गिड़ाने की कोशिश की मगर उससे पहले वह कुछ बोल पाता फत्तेह सिंह ने इक्के पर डंडा मारते हुए कहा, 'इस लाश कू हस्पताल ले जाके क्या करेगा? परै हट।'

हिदायत दे कर फत्तेह सिंह मंच की तरफ़ चला गया और नि:सहाय-सा खड़ा मुन्नालाल माँ को निहारने लगा, मानो उसके आते-जाते सांस गिन रहा हो।

मुन्नालाल की माँ मौत के साथ संघर्ष कर रही थी। और मंच से श्वेत वस्त्रधारी पीजे भइया राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ़ संघर्ष करने का आह्वान कर रहा था। मुन्नालाल के चिंता माँ को बचाने के लिए थी और पीजे भइया की चिंता राजनीति की गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए।

जनता को सम्बोधित करते हुए वह कह रहा था, 'पालटिक्स में जब से गुंडे-बदमाश घुस आए हैं, गंदी हो गई है। पालटिक्स गंगा की तरह साफ़ सुथरी थी। उसे फिर सुथरी बनाना है। उसके लिए पालटिक्स से गुंडे-बदमाशों का सफ़ाया करना पड़ेगा। ऐसा करना ही आप लोगों के हित में है, समाज के हित में है, इस देश के हित में है। इसलिए आज सभी लोग मेरे साथ मिलकर संकल्प लें - गंदे लोगों का सफाया कर पालटिक्स की गंगा को साफ-सुथरा करना पड़ेगा।'

पीजे भइया का भाषण अपनी गति से जारी था और मुन्नालाल की माँ के सीने पर रखा पत्थर अपनी गति से पिघल रहा था। तभी मुन्नालाल को लगा उसकी बाई आँख एक क्षण के लिए फिर फड़की। फैक्टरी का सायरन भी रोया। मुन्नालाल घबराया और उसने माँ के माथे पर हाथ रख दिया।

माँ के सीने पर रखा पत्थर अब तक पूरी तरह पिघल चुका था। आँख का फड़कना थम चुका था। चिल्लाते सायरन भी खामोश हो गया था। मुन्नालाल के कानों में बस अब पीजे के भाषण के अंश गूँज रहे थे, 'पालटिक्स से गुंडे बदमाशों का सफ़ाया करना।