परमेशर सिंह / अहमद नदीम कासनी / नन्द किशोर विक्रम

Gadya Kosh से
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अख्तर अपनी माँ से अचानक यूँ बिछड़ गया जैसे भागते हुए किसी को जेब से रुपया गिरे। अभी था और अभी गायब। ढूँढियाँ पडी मगर बस इसी हद तक कि लुटे-पिटे काफ़िले के आखिरी सिरे पर एक हलचल साबुन के झाग की तरह उठी और बैठ गयी .

कहीं आ ही रहा होगा, किसी ने कह दिया, हजारों का कांफिला है और अख्तर की माँ इस तसल्ली को थामे पाकिस्तान की तरफ चली आयी थी। 'आ ही रहा होगा', वह सोचती 'कोई तितली पकड़ने गया होगा और फिर माँ को न पाकर रोया होगा और फिर...फिर अब कहीं आ रहा होगा। समझदार है पाँच साल से कुछ ऊपर हो चला है, आ जाएगा या पाकिस्तान में जरा ठिकाने से बैठूँगी तो ढूँढ़ लूँगी।'

लेकिन अख्तर तो सीमा के कुल 15 मील उधर यूँ ही बस किसी वजह के बिना इतने बड़े कांफिले से कट गया था। अपनी माँ के खयाल के अनुसार उसने तितली का पीछा किया या किसी खेत में से गन्ना तोड़ने गया और तोड़ता ही रह गया ताहम जब रोता चिल्लाता एक तरफ भागा जा रहा था तो चन्द सिखों ने उसे घेर लिया था और अख्तर ने तैश में आकर कहा था, “मैं नारा-ए-तकबीर मार दूँगा...” और यह कहकर सहम गया था।

सब सिख सहसा हँस पड़े थे सिवाय एक सिख के जिसका नाम परमेशर सिंह था, ढीली-ढाली पगड़ी में से उसके उलझे हुए केश झाँक रहे थे और जूड़ा तो बिलकुल नंगा था, वह बोला, “हँसो नहीं यारो ! इस बच्चे को भी तो उसी वाहे गुरु ने पैदा किया है जिसने तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को पैदा किया है।”

और नौजवान सिख, जिसने अब तक कृपाण निकाल ली थी, बोला, “जरा ठहर परमेशर, कृपाण अपना धर्म पूरा कर ले फिर हम अपने धर्म की बात करेंगे।”

“मारो नहीं यारो” परमेश्वर सिंह की आवांज में पुकार थी। “इसे मारो नहीं, इतना जरा-सा तो है और इसे भी तो उसी वाहे गुरु जी ने पैदा किया है जिसने...।”

“पूछ लेते हैं इसी से।” एक और सिख बोला। फिर उसने सहमे हुए अख्तर के पास जाकर कहा, “बोलो, तुम्हें किसने पैदा किया? खुदा ने कि वाहे गुरु जी ने?”

अख्तर ने सारी खुश्की को निगलने की कोशिश की जो उसकी जबान की नोक से लेकर उसकी नाभि तक फैल चुकी थी। आँखें झपका कर उसने आँसुओं को गिरा देना चाहा जो रेत की तरह उसके पपोटों में खटक रहे थे। उसने परमेशर सिंह को यूँ देखा जैसे माँ को देख रहा हो। मुँह में गये हुए एक आँसू को थूक डाला और बोला, “पता नहीं।”

“लो और सुनो।” किसी ने कहा और अख्तर को गाली देकर हँसने लगा।

अख्तर ने भी अभी अपनी बात पूरी नहीं की थी, “अम्मा तो कहती है मैं भूसे की कोठड़ी में पड़ा मिला था।”

सब सिख हँसने लगे मगर परमेशर सिंह बच्चों की तरह बिलबिला कर कुछ यूँ रोया कि कुछ दूसरे सिख भौंचक्के से रह गये और परमेशर सिंह रोनी हुई आवांज में जैसे विलाप करने लगा, “सब बच्चे एक से होते हैं यारो, मेरा करतारा भी तो यही कहता था। वह भी तो उसकी माँ को भूसे की कोठड़ी में पड़ा मिला था।”

कृपाण म्यान में चली गयी। सिखों ने परमेशर सिंह से थोड़ी देर खुसुर-फुसुर की फिर एक सिख आगे बढ़ा, बिलखते हुए अख्तर को पकड़े वह चुपचाप रोते हुए परमेशर सिंह के पास लाकर बोला, “ले परमेशर सँभाल इसे, केश बढ़वाकर इसे अपना करतारा बना ले, ले पकड़।”

परमेशर सिंह ने अख्तर को यूँ झपट कर उठा लिया कि उसकी पगड़ी खुल गयी और केशों की लटें लटकने लगीं। उसने अख्तर को पागलों की तरह चूमा, उसे अपने सीने से भींचा और फिर उसकी आँखों में आँखें डालकर और मुस्करा कर कुछ ऐसी बातें सोचने लगा जिसने उसके चेहरे को चमका दिया फिर उसने पलट कर दूसरे सिखों की तरफ देखा, अचानक अख्तर को नीचे उतार कर वह सिखों की तरफ लपका मगर उनके पास से गुंजर कर दूर तक भागा चला गया। झाड़ियों के एक झुण्ड में बन्दरों की तरह कूदता और झपटता रहा और उसके केश उसकी लपक-झपट का साथ देते रहे। दूसरे सिख हैरान खड़े हुए देखते रहे फिर वह एक हाथ को दूसरे हाथ पर रखे भागा हुआ वापस आया। उसकी भीगी हुई दाढ़ी में फँसे हुए होंठों पर मुस्कराहट थी और सुर्ख आँखों में चमक थी और वह बुरी तरह हाँफ रहा था।

अख्तर के पास आकर वह घुटनों के बल बैठ गया और बोला, “नाम क्या है तुम्हारा?”

“अख्तर।” अबकी अख्तर की आवांज भर्राई हुई नहीं थी।

“अख्तर बेटे!” परमेशर सिंह ने बड़े प्यार से कहा, “जरा मेरी उँगलियों में से झाँको तो।”

अख्तर जरा-सा झुक गया। परमेशर सिंह ने दोनों हाथों में जरा-सी झिरी पैदा की और फौरन बन्द कर ली। “अहा!” अख्तर ने ताली बजाकर अपने हाथों को परमेशर सिंह के हाथों की तरह बन्द कर लिया और आँसुओं में मुस्करा कर बोला, “तितली।”

“लोगे?” परमेशर सिंह ने पूछा।

“हाँ” अख्तर ने अपने हाथों को मला।

“तो” परमेशर सिंह ने अपने हाथों को खोला। अख्तर ने तितली को पकड़ने की कोशिश की मगर वह रास्ता पाते ही उड़ गयी और अख्तर की उँगलियों की पोरों पर अपने परों के रंगों के जर्रे छोड़ गयी। अख्तर उदास हो गया और परमेशर सिंह दूसरे सिखों की तरफ देखकर कहने लगा, “सब बच्चे ऐसे €यों होते हैं यारो?करतारे की तितली भी उड़ जाती थी तो यूँ ही मुँह लटका लेता था।”

“परमेशर सिंह तू आधा पागल हो गया है।” नौजवान सिख ने जरा नारांजगी से कहा और फिर सारा दल वापस जाने लगा।

परमेशर सिंह ने अख्तर को कन्धे पर बैठा लिया और जब उसी तरफ चलने लगा जिधर दूसरे सिख गये थे तो अख्तर फफक-फफक कर रोने लगा।

“हम अम्मा पास जाएँगे।” परमेशर सिंह ने हाथ उठाकर उसे थपकने की कोशिश की मगर अख्तर ने उसका हाथ झटक दिया। फिर जब परमेशर सिंह ने कहा कि हाँ बेटे! तुम्हें तुम्हारी माँ के पास लिए चलता हँ तो अख्तर चुप हो गया सिर्फ कभी-कभी सिसक लेता था और परमेशर सिंह की थपकियों को बड़ी नागवारी से बरदाश्त करता जा रहा था।

परमेशर सिंह उसे अपने घर ले आया। वह किसी मुसलमान का घर था लुटा-पुटा। परमेशर सिंह जब जिला लाहौर से जिला अमृतसर में आया था तो गाँव वालों ने उसे यह मकान अलाट कर दिया था। वह अपनी बीवी और बेटी समेत चारदीवारों में दांखिल हुआ था तो ठिठक कर रह गया था। उसकी आँखें पथरा-सी गयी थीं और वह बड़ी रहस्यपूर्ण कानाफूसी में बोला था, “यहाँ कोई चीज कुरान पढ़ रही है।”

ग्रन्थी जी और गाँव के दूसरे लोग हँस पड़े थे। परमेशर सिंह की बीवी ने उन्हें पहले से बता दिया था कि करतार सिंह के बिछड़ते ही इसे कुछ हो गया है,जाने क्या हो गया है ऐसा उसने कहा था, “वाहे गुरु जी झूठ न बुलवाएँ तो वहाँ दिन में कोई दस बार तो यह करतार सिंह को गधों की तरह पीट डालता था और जब करतार सिंह बिछड़ा था तो मैं खैर रो-धो ली पर इसका रोने से भी जी हल्का नहीं हुआ। वहाँ मजाल है जो बेटी अमरकौर को मैं भी जरा गुस्से से देख लेती,बिफर जाता था, कहता था, “बेटी को बुरा मत कहो। बेटी बड़ी मसकीन होती है। यह तो एक मुसाफिर है बेचारी हमारे घरौंदे में सुस्ताने बैठ गयी है। वक्त आएगा तो चली जाएगी।”...और अब अमरकौर से जरा-सा भी कसूर हो जाए तो आपे में नहीं रहता। यह तक बक देता है कि 'बेटियाँ बीवियाँ अपहरण होती सुनी थीं यारो, यह नहीं सुना था कि पाँच-छह बरस के बेटे भी उठ जाते हैं।' वह एक महीने से इस घर में ठहरा था मगर हर रात उसका नियम था कि पहले सोते में निरन्तर करवटें बदलता फिर बड़बड़ाने लगता और फिर उठ बैठता। बड़ी डरी हुई कानाफूसी में पत्नी से कहता, “सुनती हो यहाँ कोई चीज कुरान पढ़ रही है।” पत्नी उसे सिर्फ 'हँ'कहकर टाल जाती मगर अमरकौर को कानाफूसी के बाद रातभर नींद न आती थी। उसे ऍंधेरे में बहुत-सी परछाइयाँ हर तरफ कुरान पढ़ती नंजर आती थीं और जब जरा-सी पौ फटती तो वह कानों में उँगलियाँ दे लेती थी। वहाँ जिला लाहौर में उनका घर मस्जिद के पड़ोस ही में था और जब सुबह अंजान होती थी तो कैसा मंजा आता था। ऐसे लगता था जैसे पूरब से फूटता उजाला गाने लगा हो। फिर जब उसकी पड़ोसन प्रीतम कौर को चन्द नौजवानों ने खराब करके चीथड़े की तरह घूरे पर फेंक दिया था तो जाने क्या हुआ कि अंजान देने वाले की आवांज में भी उसे प्रीतम कौर की चीख़ सुनाई दे जाती थी। अंजान की कल्पना तक उसे भयभीत कर देती थी और वह भूल जाती थी कि अब उनके पड़ोस में मस्जिद नहीं है। यूँ ही कानों में उँगलियाँ देते हुए वह सो जाती और रात भर जागने की वजह से दिन चढ़े तक सोयी रहती और परमेशर सिंह इस बात पर बिगड़ जाता, “ठीक है सोये नहीं तो और क्या करे। निकम्मी तो होती ही हैं ये छोकरियाँ। लड़का होता तो मालूम नहीं कितने काम कर चुका होता यारो।”

परमेशर सिंह जब आँगन में दाखिल हुआ तो नियम विरुद्ध उसके होंठों पर मुस्कराहट थी। उसके खुले केश कंघे समेत उसकी पीठ और कन्धे पर बिखरे हुए थे और उसका एक हाथ अख्तर की कमर को थपके जा रहा था। उसकी बीवी एक तरफ बैठी छाज में गेहूँ फटक रही थी। उसके हाथ जहाँ थे वहीं रुक गये और वह टुकर-टुकर परमेशर सिंह को देखने लगी फिर वह छाज पर से कूदती हुई आयी और बोली, “यह कौन?” परमेशर सिंह निरन्तर मुस्कराते हुए बोला, “डरो नहीं बेवकूंफ, इसकी आदतें बिलकुल करतारे की तरह हैं। यह भी अपनी माँ को भूसे की कोठड़ी में मिला था। यह भी तितलियों का आशिक है। इसका नाम अख्तर है।”

“अख्तर?” बीवी के तेवर बदल गये।

“तुम इसे अख्तर सिंह कह देना।” परमेशर सिंह ने स्पष्टता की “और फिर केशों का क़्या है, एक दिन में बढ़ आते हैं। कड़ा और कछहरा पहना दो, कंघा केशों के बढ़ते ही लग जाएगा।”

“पर यह है किसका?” बीवी ने और स्पष्टता चाही।

“किसका है!” परमेशर सिंह ने अख्तर को कन्धे पर से उतार कर उसे जमीन पर खड़ा कर दिया और उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। वाहे गुरु जी का है,हमारा अपना है और फिर यारो यह औरत इतना भी नहीं देख सकती कि अख्तर के माथे में जो तिल है वह करतारे ही का तिल है। करतारे के भी तो एक तिल था, और यहीं था, जरा बड़ा था, और हम तो उसे यही तिल पर तो चूमते थे और यह अख्तर के कानों की लोयें गुलाब के फूलों की तरह गुलाबी हैं तो यारो! पर यह औरत यह तक नहीं सोचती कि करतारे के कानों की लोयें भी तो ऐसी ही थीं, फर्क सिंर्फ इतना है कि वह जरा मोटी थीं यह जरा पतली है...।

अख्तर अब तक मारे अचम्भे के जब्त किये बैठा था, बिलबिला उठा, “हम यहाँ नहीं रहेंगे! हम अम्मा के पास जाएँगे अम्मा के पास।”

परमेशर सिंह ने अख्तर का हाथ पकड़कर उसे बीवी की तरफ बढ़ाया, “अरी तो, यह अम्मा के पास जाना चाहता है।”

“तो जाएे” बीवी की आँखों में और चेहरे पर वही प्रेत छा गया था जिसे परमेशर सिंह अपनी आँखों और चेहरे में से नोचकर बाहर खेतों में झटक आया था।”डाका डालने गया था सूरमा और उठा लाया यह हाथ भर का लौंडा। अरे कोई लकड़ी उठा लाता तो हजार में न सही, दो सौ में तो बिक जाती। कोई उजड़े घर का खाट-खटोला बन जाता और फिर पगले...पगले...तुझे तो कुछ हो गया है। देखता नहीं यह लड़का मुसल्ला...जहाँ से उठा लाये हो वहीं डाल आओ और खबरदार जो इसने मेरे चौके में पाँव रखा।”

परमेशर सिंह ने विनती की, “करतारे और अख्तर को एक ही वाहे गुरु जी ने पैदा किया है, समझीं?”

“नहीं।” अबकी बार बीवी चीख उठी, “मैं नहीं समझी और न कुछ समझना चाहती हँ। मैं रात ही रात झटका कर डालूँगी। इसको काटकर फेंक दूँगी। उठा लाया है वहाँ से। ले जा इसे फेंक दे बाहर।”

“मैं तुझे न फेंक दूँ बाहर?” अबके परमेशर सिंह बिगड़ गया, “तुम्हारा न कर डालूँ झटका?” वह बीवी की तरफ बढ़ा और बीवी अपने सीने को दो हत्थड़ों से पीटती चीखती-चिल्लाती भागी। पड़ोस से अमरकौर दौड़ी आयी। उसके पीछे गली की दूसरी औरतें भी इकट्ठी हो गयीं, मर्द भी जमा हो गये और परमेशर सिंह की बीवी पिटने से बच गयी। फिर सबने उसे समझाया कि नेक काम है एक मुसलमान को सिख बनाना। पुराना जमाना होता तो परमेशर सिंह गुरु मशहूर हो चुका होता। बीवी को ढाढस बँधी मगर अमरकौर कोने में बैठी घुटनों में सिर दिये रोती रही। अचानक परमेशर सिंह ने गरज कर सारे हजूम को हिला दिया, “अख्तर किधर गया?” वह चिंघाड़ा, “अरे वह किधर गया हमारा अख्तर, अरे वह हममें से किसी कसाई के हत्थे तो नहीं चढ़ गया यारो! अख्तर...अख्तर...!”

“मैं तुम्हारे पास नहीं आऊँगा।” पगडण्डी के मोड़ पर ज्ञानसिंह के गन्ने के खेत की आड़ से रोते हुए अख्तर ने परमेशर सिंह को डाँट दिया, “तुम तो सिख हो।”

“हाँ बेटे सिख तो हँ।” परमेशर सिंह ने जैसे मजबूर होकर अपराध कबूल कर लिया।

“तो फिर हम नहीं आएँगे।” अख्तर ने पुराने आँसुओं को पोंछ कर नए आँसुओं के लिए रास्ता सांफ किया।

“नहीं आओगे?” परमेशर सिंह का लहजा अचानक बदल गया।

“नहीं।”

“नहीं आओगे?”

“नहीं नहीं नहीं।”

“कैसे नहीं आओगे?” परमेशर सिंह ने अख्तर को कान से पकड़ा और निचले होठों को दाँत में दबाकर चटाख़ से एक थप्पड़ मार दिया, “चलो” वह कड़का।

अख्तर यूँ सहम गया जैसे एकदम उसका सारा खून निचुड़ कर रह गया है और फिर एकाएक जमीन पर गिर कर पाँव पटकने और खाक उड़ाने और बिलख-बिलख कर रोने लगा, “नहीं चलता बस नहीं चलता, तुम सिख हो मैं सिखों के पास नहीं जाऊँगा। मैं अपनी अम्मा के पास जाऊँगा मैं तुम्हें मार दूँगा।”

अब जैसे परमेशर सिंह के सहमने की बारी थी। उसका सारा खून जैसे निचुड़ कर रह गया था। उसने अपने हाथ को दाँतों में जकड़ लिया। उसके नथने फड़कने लगे और फिर इस जोर से रो दिया कि खेत के परले मोड़ पर आते हुए चन्द पड़ोसी और उनके बच्चे भी सहम कर रह गये और ठिठक गये। परमेशर सिंह घुटनों के बल अख्तर के सामने बैठ गया। बच्चों की तरह यूँ सिसक-सिसक कर रोने लगा कि उसका निचला होंठ भी बच्चों की तरह लटक आया और फिर बच्चों की-सी रोनी आवांज में बोला, “मुझे मांफ कर दे अख्तर, मुझे तुम्हारे खुदा की कसम, मैं तुम्हारा दोस्त हँ, अकेले यहाँ से जाओगे तो तुम्हें कोई मार देगा फिर तुम्हारी माँ पाकिस्तान से आकर मुझे मारेगी। मैं खुद जाकर तुम्हें पाकिस्तान छोड़ आऊँगा, सुना? सुन रहे हो ना? फिर वहाँ अगर तुम्हें एक लड़का मिल जाएे न करतारा नाम का तो फिर तुम उसे इस गाँव में छोड़ जाना अच्छा?”

“अच्छा।” अख्तर ने उलटे हाथों से आँसू पोंछते हुए परमेशर सिंह से सौदा कर लिया।

परमेशर सिंह ने अख्तर को कन्धे पर बैठा लिया और चला। मगर एक ही कदम उठाकर रुक गया। सामने बहुत से बच्चे और चन्द पड़ोसी खड़े उसकी तमाम हरकतें देख रहे थे। अधेड़ उम्र का एक पड़ोसी बोला, “रोते क्यों हो परमेशर, अरे कुछ एक महीने की तो बात है। एक महीने में उसके केश बढ़ आएँगे तो बिलकुल करतारा लगेगा।”

कुछ कहे बगैर वह तेंज-तेंज कदम उठाने लगा फिर एक जगह रुककर उसने पलट कर अपने पीछे आने वाले पड़ोसियों की तरफ देखा।

“तुम कितने जालिम लोग हो यारो अख्तर को करतारा बनाते हो और अगर उधर कोई करतारे को अख्तर बना ले तो? उसे जालिम ही कहोगे ना?” फिर उसकी आवांज में गरज आ गयी, “यह लड़का मुसलमान ही रहेगा दरबार साहब की सौंह (सौगन्ध) मैं कल अमृतसर जाकर उसके ऍंग्रेंजी बाल बनवा लाऊँगा। तुमने मुझे समझ क्या रखा है? खालसा हँ सीने में शेर का दिल है, मुर्गी का नहीं।”

परमेशर सिंह अपने घर में दांखिल होकर अभी अपनी बीवी और बेटी को अख्तर की सेवा के बारे में आदेश ही दे रहा था कि गाँव का ग्रन्थी सरदार सन्तोख सिंह अन्दर आया और बोला, “परमेशर!”

“जी”, परमेशर सिंह ने पलट कर देखा। ग्रन्थी जी के पीछे उसके सब पड़ोसी भी थे।

“देखो” ग्रन्थी जी ने बड़े रोब से कहा, “कल से यह लड़का खालसे की सी पगड़ी बाँधेगा, कड़ा पहनेगा। धर्मशाला आएगा और इसे प्रसाद खिलाया जाएगा। इसके केशों को कैंची नहीं छूएगी। छू गयी तो कल ही से यह घर खाली कर दो। समझे।”

“जी” परमेशर सिंह ने अहिस्ता से कहा।

“हाँ”, ग्रन्थी जी ने आखिरी चोट लगायी।

“ऐसा ही होगा ग्रन्थी जी!” परमेशर सिंह की बीवी बोली, “पहले ही से रातों को घर के कोन-कोने से कोई चीज कुरान पढ़ती सुनाई देती है। लगता है यह पहले जन्म ही मुसला रह चुका है। अमरकौर बेटी ने जब से सुना है कि हमारे घर में मुसला छोकरा आया है तब से वह बैठी रो रही है। कहती है, घर पर कोई आफत आएगी। परमेशर सिंह ने उसका कहा न माना तो मैं भी धर्मशाला में चली आऊँगी और अमरकौर भी, फिर यह पड़ा इस छोकरे को चाटे मुआ निकम्मा, वाहे गुरु जी का भी लिहाज नहीं।”

“वाहे गुरुजी का कौन लिहाज नहीं करता गधी!” परमेशर सिंह ने ग्रन्थी जी की बात का गुस्सा बीवी पर निकाला। फिर वह देर तक धीरे-धीरे गालियाँ देता रहा। कुछ देर के बाद वह उठकर ग्रन्थी जी के सामने आ गया, “अच्छा जी अच्छा।” उसने कहा और कुछ यूँ कहा कि ग्रन्थी जी पड़ोसियों के साथ फौरन विदा हो गये।

चन्द ही दिनों में अख्तर को दूसरे सिख लड़कों से पहचानना मुश्किल हो गया। वही कानों की लो तक कसकर बँधी हुई पगड़ी, वही हाथ का कड़ा और वही कछहरा। सिर्फ जब वह घर में आकर पगड़ी उतारता था तो उसके गैर सिख होने का भेद खुलता था लेकिन उसके बाल धड़ाधड़ बढ़ रहे थे। परमेशर सिंह की बीवी इन बालों को छूकर बहुत खुश होती थी, “जरा इधर तो आ अमरकौरे ! यह देख, केश बन रहे हैं। फिर एक दिन जूड़ा बनेगा, कंघा लगेगा और उसका नाम रखा जाएगा करतार सिंह।”

“नहीं माँ !” अमरकौर वहीं से जवाब देती, “जैसे वाहे गुरु जी एक हैं और ग्रन्थ साहब एक हैं और चाँद एक है इसी तरह करतारा भी एक ही है मेरा नन्हा मुन्ना भाई।” फिर वह फूट-फूटकर रो देती और फिर मचल कर कहती, “मैं इस खिलौने से नहीं बहलूँगी माँ, मैं जानती हँ यह मुसला है और जो करतारा होता वह मुसला नहीं होता।”

“मैं कब कहती हँ कि यह सचमुच करतारा है मेरा चाँद-सा लाडला बेटा।” परमेशर सिंह की बीवी भी रो देतीं। दोनों अख्तर को अकेला छोड़कर किसी अकेले कोने में बैठ जातीं, खूब रोतीं। एक दूसरे को तसल्ली देतीं और फिर जोर-जोर से रोने लगतीं। वे अपने करतारे के लिए रोतीं। अख्तर चन्द रोज अपनी माँ के लिए रोता रहा फिर किसी और बात पर रोता। जब परमेशर सिंह शरणार्थियों की इमदादी पंचायतों से कुछ अनाज कपड़ा लेकर आता तो अख्तर भाग कर जाता, उसकी टाँगों में लिपट जाता और रो-रोकर कहता, “मेरे सिर पर पगड़ी बाँधो परमू ! मेरे केश बढ़ा दो, मुझे कंघा खरीद दो।”

परमेशर सिंह उसे सीने से लगा लेता और भर्रायी हुई आवांज में कहता, “सब कुछ हो जाएगा बच्चे, सब कुछ हो जाएगा, पर एक बात नहीं होगी। वह बात कभी नहीं होगी, वह नहीं होगी मुझसे, समझे? यह केश-वेश सब बढ़ आएँगे।”

अख्तर अपनी अम्मा को अब बहुत कम याद करता था। जब तक परमेशर सिंह घर में रहता वह उससे चिमटा रहता और जब वह कहीं बाहर जाता तो अख्तर उसकी बीवी और अमरकौर की तरफ यूँ देखता रहता जैसे उससे प्यार की भीख मांग रहा है। परमेशर सिंह की बीवी उसे नहलाती, उसके कपड़े धोती और फिर उसके बालों में कंघी करते हुए रोने लगती और रोती रह जाती। अलबत्ता अमरकौर ने अख्तर की तरफ जब भी देखा नाक उछाल दी। शुरू-शुरू में तो उसने अख्तर को एक धमोका भी जड़ दिया था लेकिन जब अख्तर ने परमेशर सिंह से उसकी शिकायत की तो परमेशर सिंह बिफर गया और अमरकौर को बड़ी-बड़ी गालियाँ देता रहा और उसकी तरफ यूँ बढ़ा कि अगर उसकी बीवी रास्ते में उसके पाँव न पड़ जाती तो वह बेटी को उठाकर दीवार पर से गली में पटक देता, 'उल्लू की पट्ठी'उस रोज उसने कड़ककर कहा था, “सुना तो यही था कि लड़कियाँ उठ रही हैं पर यहाँ यह मुशटंडी हमारे साथ लगी चली आयी और उठा गया तो पाँच साल का लड़का जिसे अभी नाक तक पोंछना नहीं आता था। अजब अँधेर है यारो।” इस घटना के बाद अमरकौर ने अख्तर पर हाथ तो खैर कभी न उठाया मगर उसकी नंफरत दुगनी हो गयी थी।

एक रोज अख्तर को तेज बुखार आ गया। परमेशर सिंह वैद्य के पास चला गया। उसके जाने के कुछ देर बाद उसकी बीवी पड़ोसन से पिसी हुई सौंफ माँगने चली गयी। अख्तर को प्यास लगी, 'पानी' उसने कहा फिर कुछ देर बाद लाल-लाल सूजी-सूजी आँखें खोलीं, इधर-उधर देखा, 'पानी' का शब्द एक कराह बनकर उसके हलक से निकला। कुछ देर बाद लिहांफ को एक तरफ झटककर उठ बैठा। अमरकौर सामने दहलींज पर बैठी खजूर के पत्तों से चंगेर बना रही थी। 'पानी दे' अख्तर ने उसे डाँटा। अमरकौर ने भौहें सिकोड़ कर उसे घूर कर देखा और अपने काम में जुट गयी। अबकी अख्तर चिल्ला उठा, “पानी देती है कि नहीं, पानी दे वर्ना मैं मारूँगा।” अमरकौर ने अबकी उसकी तरफ देखा ही नहीं, बोली, “मार तो सही, तू करतारा तो नहीं कि मैं तेरी मार सहू लूँगी, मैं तो तेरी बोटी-बोटी कर डालूँगी।”अख्तर बिलख-बिलख कर रो दिया और आज मुद्दत के बाद उसने अपनी माँ को याद किया। फिर जब परमेशर सिंह दवा ले आया और उसकी बीवी भी पिसी सौंफ लेकर आ गयी तो अख्तर ने रोते-रोते बुरी हालत बना ली थी और वह सिसक-सिसक कर कह रहा था, "हम तो अब अम्मा के पास चलेंगे। यह अमरकौर सुअर की बच्ची तो पानी भी नहीं पिलाती। हम तो अम्मा के पास जाएँगे।"

परमेशर सिंह ने अमरकौर की तरफ गुस्से से देखा, वह रो रही थी। अपनी माँ से कह रही थी, “क्या पानी पिलाऊँ, करतारा भी कहीं इसी तरह पानी माँग रहा होगा। किसी को उस पर तरस न आये तो हमें क्यों तरस आये इस पर? हाँ।”

परमेशर अख्तर की तरफ बढ़ा और अपनी बीवी की तरफ इशारा करते हुए बोला, “यह भी तो तुम्हारी अम्मा है बेटे।”

“नहीं” अख्तर बड़े गुस्से से बोला, “यह तो सिख है, मेरी अम्मा तो पाँच वक्त नमाज पढ़ती है और 'बिस्मिल्ला' कहकर पानी पिलाती है।”

परमेशर सिंह की बीवी जल्दी से एक प्याला भरकर लायी तो अख्तर ने प्याले को दीवार पर दे मारा और चिल्लाया, “तुम्हारे हाथ से नहीं पिएँगे, तुम तो अमरकौर सुअर की बच्ची की अम्मा हो। हम तो परमूँ के हाथ से पिएँगे।”

“यह भी तो मुझी सुअर की बच्ची का बाप है।” अमरकौर ने जलकर कहा।

“तो हुआ करे, तुम्हें इससे क्या?”

परमेशर सिंह के चेहरे पर अजीब कैंफियतें धूप-छाँव-सी पैदा कर गयीं। वह अख्तर की माँग पर मुस्कराया भी और रो भी दिया। फिर उसने अख्तर को पानी पिलाया, उसके माथे को चूमा, उसकी पीठ पर हाथ फेरा, उसे बिस्तर पर लिटाकर उसके सिर को हौले-हौले खुजाता रहा तब कहीं शाम को जाकर उसने पहलू बदला। उस वक्त अख्तर का बुख़ार उतर चुका था और वह बड़े मजे से सो रहा था।

आज बहुत समय के बाद परमेशर सिंह भड़क उठा और निहायत अहिस्ता-अहिस्ता बोला, “अरी सुनती हो ! सुन रही हो ! यहाँ कोई चीज कुरान पढ़ रही है।”

बीवी ने पहले तो परमेशर की पुरानी आदत कहकर टालना चाहा फिर एकदम बुड़बुड़ाकर उठी और अमरकौर की खाट की तरफ हाथ बढ़ाकर उसे हौले-हौले से हिलाकर अहिस्ता से बोली, “बेटी !”

“क्या है माँ?” अमरकौर चौंक उठी।

और उसने कानाफूसी की, “सुनो तो सचमुच कोई चीज कुरान पढ़ रही है।”

यह एक क्षण का सन्नाटा बड़ा खौंफनाक था। अमरकौर की चीख उससे भी ज्यादा खतरनाक थी और फिर अख्तर की चीख उससे भी ज्यादा खौंफनाक थी।

“क्या हुआ बेटा?” परमेशर सिंह तड़पकर उठा और अख्तर की खाट पर जाकर उसे अपनी छाती से भींच लिया, “डर गया बेटा?”

“हाँ।” अख्तर लिहांफ में से सिर निकाल कर बोला, “कोई चींज चीखती थी।”

“अमरकौर चीखी थी।” परमेशर सिंह ने कहा, “हम सब यूँ समझे जैसे कोई चींज कुरान पढ़ रही है।”

“मैं पढ़ रहा था।” अख्तर बोला।

अबके भी अमरकौर के मुँह से हल्की-सी चीख निकल गयी।

बीवी ने जल्दी से चिराग जला दिया और अमरकौर की खाट पर बैठकर वे दोनों अख्तर को यूँ देखने लगीं जैसे वह अभी धुआँ बनकर दरवांजे की झुरियों में से बाहर उड़ जाएगा और बाहर से एक डरावनी आवांज आएगी ,मैं जिन्न हँ। मैं कल रात फिर आकर कुरान पढ़ूँगा।

“क्या पढ़ रहे थे भला।” परमेशर ने पूछा।

“पढ़ूँ?” अख्तर ने कहा।

“हाँ हाँ” परमेशर ने बड़े शौक से कहा।

और अख्तर 'कुल हू अल्लाह हूँ अहद' पढ़ने लगा। अहद पर पहुँच कर उसने अपने गले में 'छूह' की और फिर परमेशर सिंह की तरफ मुस्करा कर देखते हुए बोला, “तुम्हारे सीने पर भी छुह कर दूँ?”

“हाँ हाँ” परमेशर सिंह ने गिरेबान का बटन खोल दिया और अख्तर ने छूह कर दी।

अबके अमरकौर ने बड़ी मुश्किल से चीख पर काबू पाया।

परमेशर सिंह बोला, “क्या नींद नहीं आती थी?”

“हाँ” अख्तर बोला, “अम्मा याद आ गयी। अम्मा कहती है नींद न आये तो तीन बार 'कुल हू अल्लाह' पढ़ो नींद आ जाएगी। अब आ रही थी तो अमरकौर ने डरा दिया।”

“फिर से पढ़कर सो जाओ।” परमेशर सिंह ने कहा, “रोंज पढ़ा करो, ऊँचे-ऊँचे पढ़ा करो। इसे भूलना नहीं वर्ना तुम्हारी अम्मा तुम्हें मारेगी। लो अब सो जाओ।”उसने अख्तर को लिटाकर उसे लिहांफ ओढ़ा दिया और फिर चिरांग बुझाने के लिए बड़ा तो अमरकौर पुकारी, “नहीं-नहीं बाबा...बुझाओ नहीं, डर लगता है।”

“डर लगता है?” परमेशर सिंह ने हैरान होकर पूछा, “किससे डर लगता है?”

“जलता रहे क्या है?” बीवी बोली।

और परमेशर सिंह दिया बुझाकर हँस दिया, 'पगलियाँ' वह बोला 'गधियाँ'।

रात के ऍंधेरे में अख्तर अहिस्ता-अहिस्ता 'कुल हू अल्लाह' पढ़ता रहा फिर कुछ देर के बाद वह जरा-जरा-सा खर्राटे लेने लगा। परमेशर सिंह भी सो गया और उसकी बीवी भी, मगर अमरकौर रात भर कच्ची नींद में पड़ोस की मस्जिद की अंजान सुनती रही और डरती रही।

अब अख्तर के अच्छे-खासे केश बढ़ आये थे। नन्हें से जूड़े में कंघा भी अटक जाता था। गाँव वालों की तरह परमेशर सिंह की बीवी भी उसे करतारा कहने लगी थी और उससे खासी ममता से पेश आती थी मगर अमरकौर अख्तर को यूँ देखती थी जैसे वह कोई बहुरूपिया है और अभी पगड़ी और केश उतार कर फेंक देगा और 'कुल हू अल्लाह' पढ़ता हुआ गायब हो जाएगा।

एक दिन परमेशर सिंह बड़ी तेजी से घर आया और हाँफते-हाँफते अपनी बीवी से पूछा, “वह कहाँ है?”

“कौन अमरकौर?”

“नहीं।”

“करतारा?”

“नहीं” फिर कुछ सोचकर बोला, “हाँ हाँ वही करतारा?”

“बाहर खेलने गया है गली में होगा।”

परमेशर सिंह वापस लपका, गली में जाकर भागने लगा।

बाहर खेतों में जाकर उसकी रफ्तार और तेज हो गयी। फिर उसे दूर ज्ञानसिंह के गन्ने की फसल के पास चन्द बच्चे कबड्डी खेलते नंजर आये। खेत की ओट से उसने देखा कि अख्तर ने एक लड़के को घुटनों तले दे रखा है और उस लड़के के होठों से खून फूट रहा है। फिर उस लड़के ने जैसे हार मान ली और जब अख्तर की पकड़ से छूटा तो बोला, “क्यों बे करतारू, तूने मेरे मुँह पर घुटना क्यों मारा?”

“अच्छा किया जो मारा।” अख्तर अकड़कर बोला और बिखरे हुए जूड़े की लटें सँभालकर उनमें कन्धा फँसाने लगा।

“तुम्हारे रसूल ने तुम्हें यही समझाया है?” लड़के ने कटाक्ष से पूछा। अख्तर एक क्षण के लिए चकरा गया फिर कुछ सोचकर बोला, “और क्या तुम्हारे गुरु ने यही समझाया है कि...।”

“मुसला।” लड़के ने उसे गाली दी।

“सिखड़ा।” अख्तर ने उसे गाली दी।

सब लड़के अख्तर पर टूट पड़े मगर परमेशर सिंह की एक ही कड़क से मैदान साफ था। उसने अख्तर की पगड़ी बाँधी और उसे एक तरफ ले जाकर बोला, “सुनो बेटा, मेरे पास रहोगे कि अम्मा के पास जाओगे?” अख्तर कोई फैसला न कर सका। कुछ देर तक परमेशर सिंह की आँखों में आँखें डाले खड़ा रहा फिर मुस्कराता रहा और बोला, “अम्मा के पास जाऊँगा।”

“और मेरे पास नहीं रहोगे?” परमेशर सिंह का रंग यूँ सुर्ख हो गया जैसे वह रो देगा।

“तुम्हारे पास भी रहूँगा।”

अख्तर ने समस्या का हल पेश कर दिया।

परमेशर सिंह ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया और वे आँसू जो उदासीनता ने आँखों में जमा किये थे, खुशी के आँसू बनकर टपक पड़े। वह बोला, “देखो बेटे अख्तर! यह जो फौंज आ रही है, यह फौंजी तुम्हें मुझसे छीनने आ रहे हैं, कहीं छुप जाओ और फिर जब वे चले जाएँगे ना, तब मैं तुम्हें ले आऊँगा।”

परमेशर सिंह को उस वक्त दूर-दूर गुब्बार का एक फैलता बगोला दिखाई दिया। मेड़ पर चढ़कर उसने लम्बे होते हुए बगोले को गौर से देखा और अचानक तड़प कर बोला, “फौजियों की लारी आ गयी।”

वह मेड़ पर से कूद पड़ा और गन्ने के खेत का पूरा चक्कर काट गया, “ज्ञाने, ओ ज्ञानसिंह !” वह चिल्लाया। ज्ञानसिंह फसल के अन्दर से निकलकर आया। उसके एक हाथ में दराँती और दूसरे में थोड़ी-सी घास थी। परमेशर सिंह उसे अलग ले गया। उसे कोई बात समझायी फिर दोनों अख्तर की तरफ आये। ज्ञानसिंह ने फसल में से एक गन्ना तोड़कर दराँती से उसके पत्ते काटे और उसे अख्तर के हवाले करके बोला, “आओ भाई करतारे, तुम मेरे पास बैठकर गन्ना चूसो। जब तक यह फौंजी चले जाएँ। अच्छा खासा बना-बनाया खालसा हथियाने आये हैं।” परमेशर सिंह ने अख्तर से जाने की इजाजत माँगी 'जाऊँ?' और अख्तर ने दाँतों में गन्ने का लम्बा-सा छिलका जकड़े हुए मुस्कराने की कोशिश की। इजाजत पाकर परमेशर सिंह गाँव के तरफ भाग गया। बगोला गाँव की तरफ बढ़ा आ रहा था। घर जाकर उसने बीवी और बेटी को समझाया और फिर भागम-भाग ग्रन्थी जी के पास गया। उनसे बात करके इधर-उधर दूसरे लोगों को समझाता फिरा और जब फौंजियों की लारी धर्मशाला से उधर खेतों में रुक गयी तो एक फौंजी और पुलिसवाले ग्रन्थी के पास आये। उनके साथ इलाके का लम्बरदार भी था। मुसलमान लड़कियों के बारे में पूछताछ होती रही।...ग्रन्थी जी ने ग्रन्थ साहब की कसम खाकर कह दिया कि गाँव में कोई मुसलमान लड़की नहीं है। लड़के की बात दूसरी है। किसी ने परमेशर सिंह के कान में कानाफूसी की और आस-पास के सिख परमेशर सिंह समेत मुस्कराने लगे। फिर एक फौंजी अंफसर ने गाँव वालों के सामने एक तकरीर की। उसने उस ममता पर बड़ा जोर दिया जो उन माँओं के दिलों में उन दिनों टीस बनकर रह गयी थी जिनकी बेटियाँ छिन गयी थीं। उसने उन भाइयों और पतियों के प्यार की बड़ी करुणामयी तस्वीर खींची जिनकी बहनें और बीवियाँ उनसे हथिया ली गयी थीं और मंजहब का क्या है दोस्तो ! उसने कहा था, “दुनिया का हर मंजहब इनसान को इनसान बनाना सिखाता है और तुम मंजहब का नाम लेकर इनसान को इनसान से चुरा लेते हो, उनके सतीत्व पर नाचते हो, हम सिख हैं,हम मुसलमान हैं, हम वाहे गुरु जी के चेले हैं, हम रसूल के गुलाम हैं।”

भाषण के बाद भीड़ तितर-बितर होने लगी। फौंजियों के अंफसर ने ग्रन्थी जी को धन्यवाद किया और उनसे हाथ मिलाया और लारी चली गयी।

सबसे पहले ग्रन्थी जी ने परमेशर सिंह को मुबारकबाद दी फिर दूसरे लोगों ने परमेशर सिंह को घेर लिया और उसे मुबारकबाद देने लगे लेकिन परमेशर सिंह के लारी के आने से पहले होश-हवास उड़ रहे थे तो अब लारी के जाने के बाद लुटा-लुटा-सा लग रहा था। फिर वह गाँव में से निकल कर ज्ञानसिंह के खेत में आया। अख्तर को कन्धे पर बैठाकर घर में ले आया। खाना खिलाने के बाद उसे खाट पर लिटाकर कुछ यूँ थपका कि उसे नींद आ गयी। परमेशर सिंह देर तक अख्तर की खाट पर बैठा रहा। कभी-कभी दाढ़ी खुजाता और इधर-उधर देखकर फिर सोच में डूब जाता। पड़ोस की छत पर खेलता हुआ एक बच्चा अचानक एड़ी पकड़कर बैठ गया और जोर-जोर से रोने लगा, “हाय इतना बड़ा काँटा उतर गया पूरा का पूरा।” वह चिल्लाया और फिर उसकी माँ नंगे सिर ऊपर भागी। उसे उठाकर गोद में बिठा लिया फिर नीचे बेटी को पुकार कर सुई मँगवायी, काँटा निकालने के बाद उसे बार-बार चूमा और फिर नीचे झुककर पुकारी, “अरे मेरा दुपट्टा तो ऊपर फेंक देना, कैसी बेहयायी से ऊपर भागी चली आयी।”

परमेशर सिंह ने कुछ देर बाद चौंककर अपनी बीवी से पूछा, “सुनो, क्या तुम्हें करतारा अब भी याद आता है।”

“लो और सुनो।” बीवी बोली और फिर एकदम छाजों रो दी, “करतारा तो मेरे कलेजे का नासूर बन गया है परमेशर।”

करतारे का नाम सुनकर उधर से अमरकौर उठकर आयी और माँ के घुटने के पास बैठकर रोने लगी। परमेशर यूँ बिदककर जल्दी से उठा जैसे उसने सीसे के बर्तनों से भरा हुआ थाल अचानक जमीन पर दे मारा है।

शाम को खाने के बाद वह अख्तर को उँगली से पकड़े दालान में आया और बोला, “तुम तो दिन भर खूब सोये हो बेटा, चलो आज जरा घूमने चलते हैं, चाँदनी रात है।”

अख्तर फौरन मान गया। परमेशर ने उसे एक कम्बल में लपेटा और कन्धे पर बैठा लिया। खेतों में आकर वह बोला, “यह चाँद जो पूरब से निकल रहा है न बेटे, यह जब हमारे सिर पर पहुँचेगा तो सुबह हो जाएगी।”

अख्तर चाँद की तरफ देखने लगा।

“यह चाँद जो यहाँ चमक रहा है न, यह वहाँ भी चमक रहा होगा हमारी अम्मा के देश में।”

इस बार अख्तर ने झुककर परमेशर की तरफ देखने की कोशिश की।

“यह चाँद जब हमारे सिर पर आएगा तो वहाँ तुम्हारी अम्मा के सिर पर भी होगा।”

अबके अख्तर बोला, “हम चाँद देख रहे हैं तो क्या अम्मा भी चाँद देख रही होगी?”

“हाँ।” परमेशर की आवांज में गूँज थी, “चलोगे अम्मा के पास।”

“हाँ।” अख्तर बोला, “पर तुम ले तो जाते नहीं, तुम बहुत बुरे हो, तुम सिख हो।”

परमेशर सिंह बोला, “नहीं बेटे, आज तुम्हें जरूर ले जाऊँगा। तुम्हारी अम्मा की चिट्ठी आयी है। वह कहती है, मैं अख्तर बेटे के लिए उदास हँ।”

“मैं भी तो उदास हँ।” अख्तर को जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी।

“मैं तुम्हें तुम्हारी अम्मा के पास लिए जा रहा हँ।”

“सच?” अख्तर परमेश सिंह के कन्धे पर कूदने लगा और जोर-जोर से बोलने लगा, “हम अम्मा पास जा रहे हैं। परमूँ हमें अम्मा पास ले जाएगा। हम वहाँ से परमूँ को चिट्ठी लिखेंगे।

परमेशर सिंह चुपचाप रोये जा रहा था। आँसू पोंछकर और गला साफ करके उसने अख्तर से पूछा,” “गाना सुनोगे?”

“हाँ”

“पहले तुम कुरान सुनाओ।”

“अच्छा।” और अख्तर ने 'कुल हू अल्लाह अहद' पढ़ने लगा और अहद पर पहुँचकर उसने अपने सीने पर छूह की और पर पहुँचकर उसने अपने सीने पर छूह की और बोला, “लाओ तुम्हारे सीने पर भी छूह कर दूँ।”

रुककर परमेशर सिंह ने अपने गिरेबान का एक बटन खोला और ऊपर देखा, अख्तर ने लटक कर उसके सीने पर छूह कर दी और बोला, “अब तुम सुनाओ।”

परमेशर सिंह ने अख्तर को दूसरे कन्धे पर बैठा लिया। उसे बच्चों का कोई गीत याद नहीं था इसलिए उसने तरह-तरह के गीत गाने शुरू किये और गाते-गाते तेंज-तेंज चलने लगा। अख्तर चुपचाप सुनता रहा।

बन्तो दा सिर वन वर्गा जे

बन्तो दा मुँह चन वर्गा जे

बन्तो दा लक चितराजे

लोको

बन्तो दा लक चितरा

“बन्तो कौन है?” अख्तर ने परमेशर सिंह को टोका।

परमेशर सिंह हँसा फिर जरा विराम के बाद बोला, “मेरी बीवी, अमरकौर की माँ, उसका नाम भी तो बन्तो है। तुम्हारी अम्मा का नाम भी बन्तो ही होगा।”

“क्यों?” अख्तर नारांज हो गया। “वह कोई सिख है?”

परमेशर सिंह खामोश हो गया।

चाँद बहुत ऊँचा हो गया था। रात ंखामोश थी। कभी-कभी गन्ने के खेतों के आस-पास गीदड़ रोते और फिर सन्नाटा छा जाता। अख्तर पहले तो गीदड़ों की आवांज से डरा मगर परमेशर सिंह के समझाने से बहल गया और एक बार खामोशी के लम्बे विराम के बाद उसने परमेशर सिंह से पूछा, “अब क्यों नहीं रोते गीदड़?” परमेशर सिंह हँस दिया फिर उसे एक कहानी याद आ गयी। यह गुरु गोविन्द सिंह की कहानी थी लेकिन उसने बड़े सलीके से सिखों के नामों को मुसलमानों के नामों में बदल दिया और अख्तर 'फिर? फिर?' की रट लगाता रहा और कहानी अभी जारी थी जब अख्तर एकदम बोला, “अरे चाँद तो सिर पर आ गया।”

परमेशर सिंह ने भी रुककर ऊपर देखा। फिर वह निकट के टीले पर चढ़कर दूर से देखने लगा और बोला, “तुम्हारी अम्मा का देश जाने किधर चला गया।”

वह कुछ देर टीले पर खड़ा रहा जब अचानक कहीं बहुत दूर से अजान की आवांज आने लगी और अख्तर मारे खुशी के यूँ कूदा कि परमेशर सिंह उसे बड़ी मुश्किल से सँभाल सका। उसे कन्धों पर से उतार वह जमीन पर बैठ गया और खड़े-खड़े अख्तर के कन्धों पर हाथ रखकर बोला, “जाओ, बेटे तुम्हें तुम्हारी अम्मा ने पुकारा है। बस तुम इस आवांज की सीध में...।”

'शश' अख्तर ने अपने होठों पर उँगली रख दी और कानाफूसी में बोला, “अज़ान के वक्त नहीं बोलते।”

“पर मैं तो सिख हँ बेटे।” परमेशर सिंह बोला।

“शश” अबके अख्तर ने बिगड़कर उसे घूरा।

और परमेशर सिंह ने उसे गोद में बिठा लिया। उसके माथे पर एक बहुत लम्बा प्यार दिया और अजान खत्म होने के बाद आस्तीनों से आँखों को रगड़कर भर्रायी हुई आवांज में बोला, “मैं यहाँ से आगे नहीं जाऊँगा, बस तुम...।”

“क्यों? क्यों नहीं जाओगे?” अख्तर ने पूछा।

“तुम्हारी अम्मा ने चिट्ठी में यही लिखा है कि अख्तर अकेला आएगा।” परमेशर सिंह ने अख्तर को फुसला लिया, “बस तुम सीधे चले जाओ। सामने एक गाँव आएगा। वहाँ जाकर अपना नाम बताना करतारा नहीं, अख्तर, फिर अपनी अम्मा का नाम बताना, अपने गाँव का नाम बताना और देखो मुझे एक चिट्ठी जरूर लिखना।”

“लिखूँगा।” अख्तर ने वादा किया।

“अच्छा हाँ, तुम्हें करतारा नाम का कोई लड़का मिले न, तो उसे इधर भेज देना अच्छा?”

“अच्छा।”

परमेशर सिंह ने एक बार फिर अख्तर का माथा चूमा और जैसे कुछ निगल कर बोला, “जाओ!”

अख्तर कुछ कदम चला मगर पलट आया, “तुम भी आ जाओ ना।”

“नहीं भाई।” परमेशर सिंह ने उसे समझाया, “तुम्हारी अम्मा ने चिट्ठी में यह नहीं लिखा।”

“मुझे डर लगता है।” अख्तर बोला।

“कुरान क्यों नहीं पढ़ते?” परमेशर सिंह ने सुझाव दिया।

“अच्छा।” बात अख्तर की समझ में आ गयी और वह 'कुल हू अल्लाह' का विर्द (जप) करता हुआ जाने लगा।

नरम-नरम पौ क्षितिज के दायरे पर अँधेरे से लड़ रही थी। और नन्हा-सा अख्तर दूर धुँधली पगडंडी पर एक लम्बे-तगड़े सिख जवान की तरह तेज-तेज जा रहा था। परमेशर सिंह उस पर नंजरें गड़ाये टीले पर बैठा रहा और जब अख्तर का बिन्दु अन्तरिक्ष का एक हिस्सा बन गया तो वह वहाँ से उतर आया।

अख्तर अभी गाँव के निकट नहीं पहुँचा था कि दो सिपाही लपक कर आये और उसे रोककर बोले, “कौन हो तुम?”

“अख्तर।” वह उनसे यूँ बोला जैसे सारी दुनियां उसका नाम जानती है।

दोनों सिपाही कभी अख्तर के चेहरे को देखते थे और कभी उसकी सिखों-सी पगड़ी को, फिर एक ने आगे बढ़कर उसकी पगड़ी झटके से उतार ली तो अख्तर के केश खुलकर इधर-उधर बिखर गये।

अख्तर ने भिन्ना कर पगड़ी छीनी और फिर सिर को एक हाथ से टटोलते हुए वह जमीन पर लेट गया और जोर-जोर से रोते हुए बोला, “मेरा कंघा लाओ,तुमने मेरा कंघा ले लिया है। दे दो वर्ना मैं तुम्हें मार दूँगा।”

एकदम दोनों सिपाही जमीन पर 'धप्' से गिरे और राइफलों को कन्धे से लगाकर जैसे निशाना बाँधने लगे।

'हाल्ट' एक ने पुकारा और जैसे जवाब का इन्तंजार करने लगा। फिर बढ़ते हुए उजाले में उन्होंने एक-दूसरे की तरफ देखा...और एक ने फायर कर दिया। अख्तर फायर की आवांज से दहल कर रह गया और सिपाहियों को एक तरफ भागता देखकर वह भी रोता-चिल्लाता हुआ उनके पीछे भागा।

सिपाही जब एक जगह जाकर रुके तो परमेशर सिंह अपनी जाँघ पर कसकर पगड़ी बाँध चुका था। मगर खून उसकी पगड़ी की सैकड़ों परतों में से भी फूट आया था और वह कह रहा था, “मुझे क्यों मारा? मैं तो अख्तर के केश काटना भूल गया था। मैं तो अख्तर को उसका धर्म वापस देने आया था यारों।”

दूर अख्तर भागा आ रहा था और उसके केश हवा में उड़ रहे थे।