पराजय / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

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उम्र के पचास्वे पड़ाव तक उसने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। जीवन के हर छेत्र में सर्वश्रेष्ठ रही। उसकी तीक्ष्ण बुध्धि ने उसे पढ़ाई में अवल बनाया तो अनुपम सौंदर्य ने ब्यूटी क्वीन। अपनी प्रतिभा से उसने एक अच्छी नौकरी प्राप्त की और एक प्रतिष्ठित अफ़सर की पत्नी बनी। शादी के समय माँ ने समझाया बेटी अब कुछ स्त्रोचित गुण सीख लो जो ज़िंदगी में काम आएगी जैसे-खाना बनाना और घर के अन्य काम। पर उन कामो को उसका अहंकारी मन कोई एहेमियत नहीं देता था। ज़िंदगी मज़े में कटती रही। बारह साल की एक बेटी थी जो बचपन से होस्टेल में रहती थी। इस बार घर आकर उसने माँ से एक अजीब ज़िद की-"माँ सभी लड़कियाँ बताती है कि माँ के हाथो से बने खाने में अनुपम स्वाद होता है। पर मुझे तो कभी इसका एहसास नहीं हुआ। मुझे भी आपके हाथो का बना खाना-खाना है बस एक बार।" वह आश्चर्य चकित नेत्रो से बेटी को देखती रही मानो वह उसकी बेटी नहीं माँ है, जो जीवन के इस पड़ाव पर उसे संपूर्ण होने की शिक्षा दे रही है। सच तो यह है कि अगर उसने उसकी इच्छा पूरी नहीं की तो जीवन के हर छेत्र में जीत कर भी वह पराजित ही होगी।