परिचय और दंड ग्रहण / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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मैं तो सन 1915 तक काशी में बराबर संस्कृत अध्ययन में लगा रहा। शायद ही कभी बीमारी की दशा में बाहर जाता। यह बात भी आगे मिलेगी कि बाहर जाता था कैसे। फिर 1915 में ही दरभंगे के श्री रामेश्वरलता विद्यालय में पढ़ने गया जब न्याय के हेत्वाभास के कुछ ग्रंथों के पढ़ने में काशी में कठिनाई हुई। साथ ही, मीमांसा के भी कुछ ग्रंथों का संग्रह करना था। वहाँ इसकी संभावना थी। इस प्रकार सात वर्ष निरंतर दिन-रात सरतोड़ परिश्रम कर के संस्कृत वाङ्मय का मंथन किया। मैं कह सकता हूँ कि इससे मुझे अपार संतोष हुआ। वेदांत दर्शन के अद्वैतवाद और संसार की अनिर्वचनीयता तथा मिथ्यात्व की पुष्टि न्याय के तथा दूसरे ग्रंथों से हुई। इस प्रकार मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ। खंडन खंडखाद्य, पदार्थ खंडन आदि ग्रंथों के तर्कों ने मेरे हृदय पर अचूक प्रभाव पैदा किया। योगी न मिले तो न सही। लेकिन उनके अभाव में जो मनस्तुष्टि प्राप्त करनी थी यह हो गई यह निर्विवाद हैं।

इसी दरमियान, या यों कहिए कि सन 1909-10 में ही काशी में ही एक संन्यासी स्वामी पूर्णानंद जी से मेरी मुलाकात हो गई। उन्होंने मेरी पूछताछ की। घर कहाँ था आदि भी जाना। वह भी गाजीपुर जिले के ही करंडा परगने के रहनेवाले पूर्व के भूमिहार ब्राह्मण थे। वे मेरे पास आते-जाते रहते। कभी-कभी आवश्यकता होने पर दर्शनों की पुस्तकें भी खरीदवा कर या जैसे हो मुझे दिला दिया करते थे।

उनका संबंध, पीछे पता चला, भूमिहार ब्राह्मण महासभा और उसके कार्यकर्ताओं से था। लेकिन उस समय न मैंने यह बात कभी जानने की इच्छा ही की और न उन्होंने बताई ही। पर, मेरी बुद्धि और परिश्रम देख कर वे दिल से चाहते थे, जैसा कि और समझदार लोग भी, कि अच्छी प्रकार से पढ़-लिख के प्रगाढ़ विद्वान बनूँ। पीछे पता चला कि वे भीतर से चाहते थे कि विद्वान बन कर संसार में पुजवाऊँ, रुपए एकत्र करूँ, और काशी में एक बड़ा मठ बनवाऊँ। जैसा गौड़ स्वामी या स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती आदि ने किया। मगर उन्हें मेरी मनोवृत्ति का पता न था। उन्होंने गलत रास्ता लिया और गलत आदमी के द्वारा अपनी आकांक्षा की पूर्ति चाही। परंतु, उस समय तो उन्हें ऐसा मालूम न था। अभी तक भी वे बराबर इस बात का उलाहना देते रहते हैं कि मैंने उनके लिए कुछ न किया। लेकिन यह तो मेरी मजबूरी थी और है। जब मठ ही बनाना था तो घर-बार क्यों छोड़ा?क्या अमीरों और सेठों की─राजा-महाराजाओं की─दरबारदारी करने के ही लिए मेरा जन्म हुआ था? क्या इसीलिए मैंने घर-बार त्यागा था?

हाँ, तो उन्हीं के द्वारा सराय गोवर्धन मुहल्ले के कुछ प्रतिष्ठित भूमिहार ब्राह्मणों से भी मेरा परिचय हुआ। कभी-कभी मैं उधर जाया करता था भी। वे लोग एकाध पुस्तकें भी खरीद देते थे। स्वामी पूर्णानंद जी यद्यपि स्वयं दंडी न थे, तथापि मुझसे उसकी चर्चा बराबर किया करते थे। वे जोर देते थे कि मुझे दंडी होना चाहिए। मैं भी इस बात को समझने लगा था। धर्मशास्त्रों के पढ़ने से मेरी धार्मिक भावना कहती थी कि मैंने दंडी न बन के भारी भूल की है, अब भी उसका सुधार करना चाहिए। जब उनने बार-बार कहना शुरू किया तो यह भावना दृढ़ हुई। उन्होंने अत्यंत वृद्ध और किसी गृहस्थ के एक जीर्ण-शीर्ण मकान में रहनेवाले गुरु महाराज से भी मेरा कई बार दर्शन और वार्त्तालाप कराया। आखिर में सभी बातें तय हो गईं और सन 1911 में मैंने विधिवत दंड ग्रहण किया। आखिर मैं भी दंडी स्वामी बन ही गया। पीछे तो स्वामी पूर्णानंद जी भी दंडी बने।

ईधर मैंने कई बार ये गप्पें सुनीं कि “मेरे दंडी बनने में सर्यूपारीण या कान्यकुब्ज ब्राह्मणों ने बड़ी बाधाएँ पहुचाईं और कहा कि भूमिहार ब्राह्मणों को दंडी होने का अधिकार नहीं।

फलत: जब शास्त्रर्थ में मैंने उन्हें हराया, तब कहीं दंडी बन सका। इसी चिढ़ से तो भूमिहार ब्राह्मणों में पौरोहित्य आदि का आंदोलन पीछे चल कर मैंने चलाया, आदि-आदि।” लेकिन ये सारी बातें सोलहों आने निराधार हैं। मेरे सामने तो कोई ऐसा मौका कभी आया ही नहीं।यह ठीक है कि मेरे वंशवाले भूमिहार ब्राह्मणों से अब विवाह-शादी आदि के द्वारा संबद्ध हो गए हैं। फिर भी मैं तो जुझौतिया ब्राह्मण हूँ , जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ। फिर झगड़ा कैसा?भूमिहार ब्राह्मणों से तो विवाह आदि के द्वारा मैथिल, कान्यकुब्ज और सर्यूपारीण ब्राह्मण भी मिले ही हैं। यह बात सप्रमाण तथा सविवरण अन्यत्रा सिद्ध की गई है। तो क्या इतने ही से वे सभी कभी ऐसी बातें अपने बारे में सुनते हैं?क्या उनके बारे में कभी कोई ऐसा विवाद हुआ है? सबसे बड़ी बात तो यह है कि न तो मेरे ही समय में और न गुरु महाराज या उनके गुरु के ही समय में ऐसी बात सुनी गई। हालाँकि ऐसी चर्चा होने पर मैंने उनसे स्वयं ही यह जिज्ञासा की थी। उनका शरीरांत तो प्राय: सौ वर्ष की अवस्था में हुआ था।