परिजनों के साथ बुजुर्गों के सम्बन्ध / सत्य शील अग्रवाल

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परिवार में बुजुर्ग

परिवार में बुजुर्ग एक अनुभव का भंडार होता है. जिसने अपने जीवन में अनेकों कड़वे और मीठे पलों को जिया और झेला होता है. यदि पारिवार में बुजुर्ग व्यक्ति का सभी परिजनों से सामंजस्य बना रहता है तो एक तरफ जहाँ वृद्ध को सम्मान,और सहयोग मिलता है उसे शांति का अनुभव होता है, तो दूसरी तरफ परिवार के सभी सदस्यों को समय समय पर बुजुर्गों के अनुभव और परामर्श का लाभ मिलता रहता है. परिवार में बुजुर्ग की मौजूदगी छत्र छाया का काम करती है. अतः जहाँ प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की वह अपने शेष जीवन को सुख शांति से बिताने के लिए परिजनों से तालमेल बनाये रखे, साथ ही सभी परिजनों के आपसी संबंधों में भी मधुरता बनाये रखने के लिए अपने आवश्यक प्रयास करे, यही उसका कर्तव्य भी है . निम्न पंक्तियों में घर के बुजुर्ग को केंद्रित करते हुए परिवार के प्रत्येक परिजन के साथ उसके रिश्ते को समझने का प्रयास किया गया है और उसको निभा पाने के लिए आवश्यक सोच विकसित करने के प्रयास किये गए हैं.

पिता पुत्र सम्बन्ध

एक ओर पिता जहाँ परिवार का अतीत का आर्थिक रीढ़ था, तो बेटा, परिवार का वर्तमान आर्थिक आधार होता है. आर्थिक स्रोत के बिना परिवार का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है. अतः पिता . पुत्र के संबंधों में सामंजस्य होना अत्यंत आवश्यक है . जो पूरे परिवार के सदस्यों को प्रभावित करते हैं. इसलिए इनके संबंधों में मधुरता बनी रहना भी परिवार के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

कभी कभी पिता अपने पुत्र के व्यस्क हो जाने पर भी बच्चे की भांति व्यव्हार करता है. जैसे बात बात पर डांटना, उपदेश देना, और उसके प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करना इत्यादि। यदि पुत्र उनकी बातों से असहमति व्यक्त करता है, तो उनके अहम् को ठेस पहुँच जाती है. यह बात पिता को सहन नहीं होती क्योंकि पिता अपने बर्चस्व को घटते हुए देखना बर्दाश्त नहीं कर पाता. यही मनोवृति बाप बेटे के बीच टकराव पैदा करती है,और अपने पुत्र का अपमान करने से नहीं चूकता. कहावत है,की जब बेटे के पैर में बाप का जूता फिट आने लगे तो उससे पुत्रवत नहीं मित्रवत व्यव्हार करना चाहिए। साथ ही पिता को वृद्धावस्था में परिवार पर अपनी सत्ता छोड़ देनी चाहिए और बेटे को सभी निर्णय लेने को स्वतन्त्र कर देना चाहिए. सिर्फ सलाह मांगने पर अपने विचार पुत्र को दे . यदि किसी तूफ़ान की सम्भावना लगती हो तो आगाह करना उसका कर्तव्य है. पिता को अपना बड़प्पन दिखाते हुए पुत्र की कुछ गलत बातों को क्षमा करने की भी आदत बनानी चाहिए ।और बेटे को अपने पिता का सम्मान करते हुए उसकी भावनाओं की कद्र करनी चाहिए. पिता की बात से असहमत होने पर क्रोध न करते हुए विनम्रता पूर्वक अपना पक्ष रखना चाहिय। अभद्रता, अशिष्टता एवं उपेक्षित व्यव्हार पुत्र के लिए अशोभनीय है. पुत्र को सोचना होगा आज उसके पिता बुजुर्ग के रूप में उसके समक्ष हैं, तो कल वह भी अपनी संतान के समक्ष इसी अवस्था में होगा. पिता को दिया गया सम्मान भविष्य में संतान द्वारा प्रदर्शित होगा।

परिवार के सुखद भविष्य के लिए पिता पुत्र को अपने व्यव्हार में शालीनता लाना आवश्यक है।

श्वसुर-बहू सम्बन्ध

सेवानिवृत बुजुर्ग व्यक्ति की घर में सर्वाधिक संबद्धता पुत्र बधू के साथ रहती है,उसके सहयोग के बिना वृद्ध जीवन की कल्पना भी भयावह लगती है, विशेषतौर पर यदि बुजुर्ग का जीवन साथी भी न हो. यदि पुत्र वधू कामकाजी महिला नहीं है अर्थात ग्रहणी है तो घर के सारे कार्यों को वही अंजाम देती है . सारा कार्य उसके द्वारा ही संपन्न होता है. घर में ही रहने वाले बुजुर्ग उसकी हर गतिविधी पर नजर रखते हैं और अपनी समझ के अनुसार विश्लेषण करते हैं, और अक्सर उसके कार्यों को अपनी अपेक्षा के अनुरूप सही नहीं पाते और उसके कार्यों को अपनी इच्छानुसार करवाना चाहते है. जब पुत्र वधू उसके आदेशों का पालन नहीं करती तो व्यथित होते हैं दुखी होते हैं. और पुत्र वधू भी उनकी टिप्पड़ियों उनकी सलाहों से परेशान होती है, इस प्रकार बुजुर्ग की अत्यधिक दखलंदाजी परिवार में समस्याओं का कारण बनती है.

घर पर रह रहे बुजुर्ग के लिए उसके पुत्र का योगदान आर्थिक स्तर तक सीमित होता है . जबकि भोजन सम्बन्धी सभी आवश्यकताएं,वह भी समयानुसार, कपड़ो की धुलाई, दवा दारू सम्बन्धी आवश्यकताएं, पुत्रवधू के सहयोग से ही संभव होती हैं. (जीवन साथी के न होने की स्थिति में). परन्तु यदि बुजुर्ग का उससे तालमेल नहीं होता, तो बुजुर्ग की स्थिति कडुवे शब्दों में कहें तो कुत्ते जैसी हो जाती है. अक्सर बुजुर्ग की देख भाल करना,उसकी सेवा करना पुत्रवधू का कर्तव्य माना जाता है, परन्तु बुजुर्ग के लिए शालीन एवं संयमित व्यव्हार को आवश्यक नहीं माना जाता. पुत्रवधु जो एक भिन्न वातावरण में पली बढ़ी होती है,वह अपने पति के सम्बन्धियों से स्नेह युक्त एवं आदर और कर्तव्य युक्त व्यव्हार कर पाने के लिए सभी का स्नेह और प्यार तथा आवश्यक समय चाहती है. उसको अपने माहौल में ढालने के लिए घर के बुजुर्गों को बेटे के समान प्यार व् स्नेह देना चाहिए . समय समय पर उसको अपने कार्यों के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, प्रशंसित करना चाहिए. बुजुर्गों का संकुचित व्यव्हार, तानाशाही व्यव्हार पुत्र वधु के मन में नफरत की दीवार खड़ी करता है. यदि वे सोचते है की पुत्रवधू का कर्त्तव्य है उनकी सेवा करना, उनका सम्मान करना, तथा उनकी गलत सही सब बातें सुनना,तो यह किसी भी बुजुर्ग की संकुचित सोच का परिणाम हो सकता है यथार्थ नहीं. सच तो यह है आज किसी नौकर से भी रौब जमा कर काम नहीं ले सकते,मालिक की सख्ती वह बर्दाश्त नहीं करता. वह भी आत्मसम्मान की अपेक्षा रखता है. परिवार में पुत्रवधू तो अपने घर का सदस्य ही है,वह अपने प्यारे बेटे का प्यार है, तो उससे सख्त या तानाशाही व्यव्हार क्यों? प्यार और उदारता का परिचय देकर बुजुर्ग परिवार में अपना सम्मान बनाये रख सकता है. जिससे उसकी जीवन संध्या खुशहाल,और संतोषप्रद हो सकती है.

कुछ बुजुर्ग पुत्रवधू के विरुद्ध अपने पुत्र के कान भरते रहते हैं,उनके दाम्पत्य जीवन में जहर घोलते रहते हैं. जो परिवार में तनाव का कारण बनता है. घर के बुजुर्ग को पुत्र और पुत्रवधू के बीच संबंधों में सामंजस्य लाने के उपाय करते रहना चाहिए. उनके आपसी संबंधों को प्रगाढ़ करने के प्रयास करने चाहिए. साथ ही उनकी संतानों को प्यार देकर,उचित शिक्षा ज्ञान देकर,अच्छे संस्कार देकर उनके कार्यों को सहज बनाना चाहिए. वह भी उनकी इच्छा के अनुरूप, अनावश्यक हस्तक्षेप भी परिवार के वातावरण को बोझिल बनाता है. आपने अपने बेटे बेटी का जीवन अपनी समझ और अपनी इच्छानुसार सुधारा,परन्तु अब उनको अपने बच्चों का भविष्य तय करने का पूरा अधिकार है और जिम्मेदारी भी. अतः उन्हें अपने बच्चो के भविष्य की दिशा तय करने की छूट देनी चाहिए.

कुछ पुत्र वधुएं पूर्वाग्रह ग्रस्त होती हैं और अपने माएके से ही ससुराल वालों के लिए नफरत का पाठ पढ़ कर आयी होती हैं. ऐसे पुत्रवधुएँ सिर्फ अपने पति तक ही सीमित रहती हैं. ऐसे परिस्थिति में बुजुर्ग की कोई उदारता काम नहीं आ सकती. अतः बुजुर्ग को कोई बेहतर विकल्प सोचना चाहिए. ताकि वे अपना शेष जीवन तनाव मुक्त होकर शांति से बिता सकें.

हमारे समाज में बेटी को ससुराल भेज कर पराया कर देने की परंपरा है, उससे किसी प्रकार के सहयोग की उम्मीद करना कम से कम अभी तो संभव नहीं है, भविष्य में कोई सूरत बन सकी तो कहा नहीं जा सकता. यदि सामाजिक व्यवस्था नारी सत्तात्मक होती तो पुत्री परिवार में रहती और शायद अपने माता पिता को उनके बुढ़ापे में पुत्रवधू से अधिक स्नेह और सहयोग दे सकती. बुजुर्ग की अधिकतम समस्याएं खत्म हो जातीं,क्योंकि पुत्री और माता पिता का खून का रिश्ता होता है. परन्तु यह एक कल्पना मात्र है.

वर्तमान परिस्थितियों और वर्तमान समय के अनुसार उदारता,बड़प्पन,सहयोग एवं स्नेह का परिचय देकर बुजुर्ग अपने परिवार को एक सूत्र में बाँध कर रख सकता है,अपने शेष जीवन को कलुषित होने से बचा सकता है.

दामाद और श्वसुर का सम्बन्ध

परंपरागत मान्यताओं के कारण दामाद और ससुर के संबंधों में सामंजस्य का अभाव बना रहता है. क्योंकि पुरुष सत्तात्मक समाज होने के कारण महिलाओं को दोयम दर्जा दिया जाता है. यही कारण है जहाँ एक तरफ बेटे का पिता होना गौरव का आभास दिलाता है,तो पुत्री का पिता सदैव उसकी ससुराल वालों के समक्ष झुका रहता है. तथा बेटे के बराबर दामाद के सामने भी झुकने को मजबूर होना पड़ता है,कभी कभी तो अपमानित भी होना पड़ता है. दामाद और उसके पिता वर पक्ष के होने के कारण विजयी मुद्रा में देखे जाते हैं, जबकि बेटी का बाप होना अपमान का प्रतीक बन जाता है. यही अपमान और निरंकुशता समाज में पुत्र को श्रेष्ठ और पुत्री को बोझ ठहरता है. और महिला वर्ग को समान अधिकार और सम्मान से वंचित करता है.

देश की बढती जनसँख्या को देखते हुए तथा जीवन स्तर को नित्य ऊंचा करने की होड़ के चलते समाज पर परिवार नियोजन का दबाव बढ़ रहा है. परिवार में दो बच्चों से अधिक होना पिछड़े पन का सूचक बनता जा रहा है. क्योंकि हमारे सामाजिक संरचना और परम्पराओं के कारण पुत्री के पिता को पुत्र के अभाव में अपना भविष्य धुंधला दीखने लगता है. इसलिय परिवार में कम से कम एक पुत्र की आकांक्षा होना स्वाभाविक है. यदि किसी परिवार में एक बेटी पहले से ही है तो दूसरे बच्चे का आगमन से पूर्व अल्ट्रा साउंड टेस्ट द्वारा पता करना पड़ता है, और लड़की की सम्भावना होने पर गैर कानूनी होते हुए भी चोरी छुपे गर्भपात कराना माता पिता की मजबूरी हो जाती है.

यदि समाज में पुत्री के पिता को पुत्र के पिता के समान भरपूर सम्मान मिले, दामाद अपने सास ससुर को अपने माता पिता का स्थान दे और परिवार में पुत्र की भांति दामाद को भी समान अधिकार प्राप्त हों जाएँ, तो पुत्र प्राप्ति की इच्छा में भ्रूण हत्या को रोका जा सकेगा, और परिवार में पुत्र के समान ही पुत्री के आगमन पर जश्न मनाया जायेगा. माता पिता को अपनी दोनों संतान (बेटा या बेटी) से भविष्य में बराबर मान-सम्मान और संरक्षण की सम्भावना होने पर उसे लड़के या लड़की में भेद भाव करने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी. अब एक नजर उन सामाजिक परम्पराओं पर जो ससुर दामाद की मध्य दीवार खड़ी करती हैं.

  1. लड़की को पराया धन बताया जाता है. अतः बेटी को कन्यादान कर किसी अन्य व्यक्ति के हाथों में सौंप देना ही पिता का कर्त्तव्य माना जाता है. अर्थात बेटी का घर पराया घर माना जाता है, जो दामाद को उसकी ससुराल से अलग करता है.
  2. दामाद को जमाई अर्थात जम का रूप बताया गया है और उसे यमदूत के रूप में देखा जाता है. जो दामाद से दूरी बनाये रखने को प्रेरित करता है. यह सोच दामाद को गैर परिजन और उसको आतंक का पर्याय बना देती है. अतः उससे सानिध्य बंधन कैसे संभव है.
  3. शास्त्रों के अनुसार और हमारी परम्पराओं में दामाद से किसी प्रकार का शारीरिक या आर्थिक सहयोग प्राप्त करना वर्जित माना गया है. उसके घर का पानी पीना बेटी के माता पिता के लिए वर्जित माना गया है,तो उससे किस प्रकार पुत्र के समान कर्तव्यों की आशा की जा सकती है? अतः कठिन परिस्थितियों में भी बेटी के ससुराल वालों से सहायता प्राप्त करना संभव नहीं होता. जो रिश्तेदार सुख दुःख में साथ न दे सके, या उससे मदद लेने में संकोच हो तो उस रिश्तेदारी का क्या लाभ?
  4. दामाद अपने सास ससुर के अंतिम संस्कार में कोई सहयोग नहीं कर सकता. उसके लिए तो सास ससुर के अंतिम दर्शन करना भी वर्जित माना जाता है. अतः दामाद चाह कर भी पुत्र बन कर कोई कर्तव्य नहीं निभा सकता .
  5. बेटी को विवाह के पश्चात ससुराल भेजने की परंपरा है, किसी भी स्थिति में दामाद का घर जमाई बन कर ससुराल वालों के साथ रहना मान्य नहीं है.

इस प्रकार जहाँ बेटी के कर्तव्य अपनी ससुराल वालो के प्रति असीमित हैं,वहीँ बेटे के अपनी ससुराल वालों के प्रति कर्तव्यों की कोई लिस्ट नहीं होती. यदि उपरोक्त मान्यताओं में बदलाव लाया जा सके तो ससुर और दामाद के सम्बन्ध अपने आप मानवीय स्तर के हो सकते हैं. बेटी भी अपने माएके में अपने को उस परिवार की संतान का फर्ज निभा पायेगी, समाज में पुत्र प्राप्ति की ललक को विराम लग सकेगा,वृद्धो को पुत्र न होने गम नहीं सता पायेगा .

सास बहू सम्बन्ध

किसी भी संयुक्त परिवार में सास एवं बहू अधिकतम समय एक दूसरे के साथ व्यतीत करती हैं,क्योंकि दोनों पर ही घर के कामकाज की जिम्मेदारी होती है. घर में अशांति का मुख्य कारण भी सास एवं बहू के कटु सम्बन्ध होते हैं. इनके मध्य विवादों के कारण अनेक परंपरागत प्रथाएं तो होती ही हैं,अनेकों बार घर की बुजुर्ग महिला यानि सास का अपरिपक्व व्यव्हार भी विवादों का कारण बनता है. सास का आत्मसम्मान उसे तनावयुक्त बना देता है. वह बहू के आगमन को अपने प्रतिद्वंद्वी के आगमन के रूप में देखती है, और उसके आगमन से उसे अपना बर्चस्व घटता हुआ दीखता है. इसी भय की प्रतिक्रिया स्वरूप सास अपनी बहू को नीचा दिखने के उपाय सोचती रहती है. अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए घर के सारे श्रम साध्य कार्य बहू को सौंप देती है, और अपने आदेशों का पालन करने के लिए दबाव बनाती है. अपना रौब ज़माने के लिए उस पर तानाकशी का सहारा लेती है, उसको अपने प्रभाव में बनाये रखने के लिए अपने बेटे के मन में उसके प्रति जहर भरती रहती है ताकि बहु उसकी कृपा पर निर्भर हो जाये, साथ ही बेटे के मन में अपनी माँ की अहमियत बनी रहे. ऐसे दोगले व्यव्हार के कारण बहु सास के प्रति बागी हो जाती है. और परिवार में तनाव बढ़ने लगता है. दूसरी तरफ दूसरे घर से आने वाली बहू भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही होती है. वह भी चाहती है की उसकी बातों का भी परिवार में महत्त्व हो,उसकी इच्छाओं की भी कद्र हो, परिवार के निर्णयों में उसका भी दखल हो. वह भी कहीं न कहीं अपना बर्चस्व बनाने की आकांक्षा रखती है. मुख्तया बर्चस्व की लड़ाई ही सास बहु के बीच टकराव पैदा करती है

सास बहु के सम्बन्ध मधुर बने रहने के लिए सास के व्यव्हार में उदारता, धैर्यता,और त्याग का भाव होना आवश्यक है. अपने सभी प्रियजनों को माएके छोड़ कर आयी बहू को प्यार भरा व्यव्हार ही नए परिवार के साथ जोड़ सकता है, उसे अपनेपन का अहसास करा सकता है. और उसके मन में सम्मान और सहयोग की भावना उत्पन्न कर सकता है. बहु को सिर्फ काम करने वाली मशीन न समझ कर परिवार का सम्माननीय सदस्य माना जाये,उसके विचारों, भावनाओं को महत्त्व दिया जाये,उससे परिवार के विशेष फैसलों में सलाह ली जाय,तो परिवार की सुख शांति बनी रह सकती है. यदि सास घर के सारे काम बहू को न सौंप कर स्वयं भी उसके हर कार्य में सहयोग करती रहे तो उसका स्वयं का स्वास्थ्य भी बना रहेगा और परिवार का वातावरण भी मधुर बना रहेगा. क्योंकि शरीर को स्वास्थ्य रखने के लिए इसे सक्रिय रखना आवश्यक है, निष्क्रिय शरीर जल्द बीमारियों का घर बन जाता है. तो फिर क्यों न काम काज में सक्रिय रह कर अपने शरीर को स्वस्थ्य रखा जाय और परिवार में मधुर वातावरण भी बना रहे. सास का शालीन,धैर्य व् उदारता पूर्ण व्यव्हार,और परिजनों के प्रति त्याग की भावना हो तो अवश्य ही परिवार में सुख और शांति का वास होगा. बहू को अपनी पुत्री के समान प्यार देकर ही सास अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकती है.

सास को यह नहीं भूलना चाहिए की वह भी कभी बहू बन कर ही इस परिवार में आयी थी . जो बातें उसे बहू के रूप में अपनी सास की बुरी लगती थीं, असहनीय लगती थीं,वे बातें अपनी बहू के साथ न दोहराय. कुछ बातें तुम्हारी भी ससुराल वालों ने सहन की होंगी अतः अब तुम्हारी बारी है अपना बड़प्पन दिखने की. छोटी छोटी गलतियों पर उसका अपमान न कर क्षमा करने की प्रवृति होनी चाहिए.

जिस प्रकार सास की जिम्मेदारी बड़े होने के नाते बनती है, उसी प्रकार युवा,ऊर्जावान बहू को अपने ससुराल वालों का मन जीतने की आकांक्षा होनी चाहिए. उसे यह भली प्रकार से समझना चाहिए ससुराल में किसी परिजन से (बच्चो को छोड़ कर )उसका खून का रिश्ता नहीं होता, अतः सभी परिजनों के कामकाज में सहयोग देकर, उनके साथ शालीनता का व्यव्हार कर. उन्हें प्यार और सम्मान देकर ही उनके मन में और परिवार में अपनी जगह बनायीं जा सकती है. पुत्र वधु का कर्तव्य है की वह अपने सास ससुर को माता पिता की भांति स्नेह और सम्मान दे, उनके प्रत्येक कार्य में सहयोग दे. यदि उनके व्यव्हार तानाशाह पूर्ण और अमानवीय नहीं है तो उन्हें पूजनीय मानना चाहिए. उन्हें स्नेह और सम्मान देकर वह अपने पति के दिल को जीत सकती है. एक पत्नी के लिए उसका प्यार उसका पति होता है अतः उसके(पति के) प्यारे यानि उसके माता पिता भी तो पत्नी के प्यारे ही हुए.

यदि बहु अपने सास ससुर के साथ कुछ निम्न लिखित बातों को अपनाएं तो अवश्य ही वे सबके दिल जीतने में कामयाब हो सकती हैं.

  1. बुजुर्गों के जन्म दिन,विवाह वर्षगाँठ आदि पर उनकी पसंद के फूल अथवा उनकी प्रिय वस्तु भेंट करें जैसे उनके मन पसंद गानों की सी. डी या डी. वी डी. या फिर उनकी पसंदीदा कोई किताब आदि. ऐसे अवसरों पर उन्हें केंडिल डिनर पर ले जाएँ अथवा घर पर उनकी मन पसंद डिश तैयार करें. उनके चहरे पर आने वाली मुस्कान एवं संतोष आपको गौरवान्वित करेगी. और उनके दिलों में आपके लिए प्यार व् स्नेह बढ़ेगा.
  2. थोडा समय निकाल कर परिवार के बुजुर्गों के साथ बैठकर समय व्यतीत करें,उनकी भावनाओं को समझें उनकी शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं को सुनें, उनकी पुरानी यादों को शेयर करें. इस प्रकार से उनके मन का बोझ हल्का होगा.
  3. अपने बच्चों से अपने दादा दादी के साथ समय देने का आग्रह करें. बच्चों को उनके ज्ञान का लाभ मिलेगा, वहीँ बुजुर्ग को परिवार में अपना महत्त्व दिखाई देगा. साथ ही बच्चों की अटपटी हरकतों, शरारतों से उनका मनोरंजन भी होगा .
  4. अपने कार्यों एवं व्यव्हार द्वारा उनका दिल जीत कर उनके अनुभवों का लाभ उठा सकती है और परिवार को खुशियों से भर सकती हैं. कठिन परिस्थितियों में भी बुजुर्गों का अनुभव और उनकी सलाह सहायक सिद्ध हो सकते हैं.
  5. जब कभी बुजुर्ग तानाशाही और दखलंदाजी वाली प्रवृति रखते हैं तो विषेश संयम एवं धैर्य का परिचय देना होता है. ऐसे बुजुर्गों के साथ बहस न करें,किसी भी टकराव की स्थिति से बचें और जो भी संभव हो अधिकतम अपने कर्तव्यों का पालन करती रहें. मन को व्यथित करे बिना उनके स्वभाव को उसी प्रकार अपनाने का प्रयास कर अपना व्यक्तिगत पारिवारिक जीवन कलुषित होने से बचाएं. अवांछनीय सन्दर्भों में दूरी बनाने का प्रयास करें.

जिस प्रकार से बहू के लिए कुछ व्यव्हार परिवार के लिए लाभप्रद हो सकते हैं उसी प्रकार सास के लिए कुछ व्यव्हार परिवार की शांति बनाये रख सकते हैं. जो निम्न प्रकार से हैं.

  1. बहू की तानाकशी करने से बचें, कोई त्रुटी नजर आने पर उसे प्यार से समझाएं यदि वह आपकी सलाह को उपयुक्त नहीं मानती तो दोबारा उसे न दोहराएँ.
  2. पोती-पोतों को प्यार दें, उनकी परवरिश में यथा संभव बहू को सहयोग करें.
  3. घर के कामकाज में अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग करें. अपनी उपस्थिति उनके लिए लाभदायक सिद्ध करें.
  4. बहू के माएके वालों का पूर्ण सम्मान करें,प्यार दें,समय समय पर बहू को माएके वालों से मिलने के अवसर प्रदान करें. उसके माएके वालों का अपमान कभी न करें. उनका अपमान का अर्थ है बहू के मन में अपने प्रति कडुवाहट पैदा करना,अपने प्रति सम्मान को कम करना.
  5. बहू के माएके से यदि कोई उपहार आता है तो उसे नतमस्तक होकर अपनाएं,उसमें त्रुटियाँ निकाल कर बहू का अपमान न करें.

उपरोक्त छोटी छोटी बातों का ध्यान रखा जाय तो परिवार का वातावरण सहज, सुखद, एवं शांतिपूर्ण बन सकता है. परिजनों में आपसी प्रेम एवं सहयोग बना रह सकता है.

बेटी और उसके माता पिता

हमारे समाज में बहू और बेटी से भिन्न भिन्न अपेक्षाएं की जाती हैं. बहू से उम्मीद की जाती है की वह सास ससुर की सेवा करे, सभी को सम्मान दे और पूरे परिवार के साथ रहे. परन्तु बेटी के लिए एकल परिवार ढूँढने का प्रयास करते हैं, ताकि सास ससुर से अलग सुखी जीवन व्यतीत कर सके अथवा ससुराल जाते ही पति के साथ अलग घर बसा ले. आखिर ऐसी भेद भाव वाली सोच क्यों? यानि आपकी बेटी रानी बन कर रहे और परायी बेटी घर में सेविका या बांदी बन कर रहे. यदि अपनी बहू से अपेक्षा करते हैं की वह संयुक्त परिवार में सामंजस्य बनाये तो बेटी को भी प्रेरित करना चाहिए की वह संयुक्त परिवार में तालमेल बनाने के प्रयास करे. और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करे. अपनी बेटी को बचपन से शिक्षा दें ससुराल में सास ससुर उसके माता पिता का स्थान लेते हैं. उनके साथ सम्मान और स्नेह का व्यव्हार कर उनका दिल जीतना चाहिए. कुछ परिवारों में बालिका को सास ससुर को वीभत्स रूप में दर्शाया जाता है. उसके मन में नफरत भर दी जाती है. उन्हें विलन के रूप में दिखा कर बचपन से ही उसके मानस पटल पर इर्ष्या अंकित कर देते हैं. जो बेटी सास ससुर या ससुराल के प्रति दुर्भावना लेकर अपनी ससुराल जायेगी, वह ससुराल वालों के साथ सामान्य व्यव्हार कैसे कर पायेगी? सभी सास ससुर खराब नहीं होते. अतः अपनी बेटी में निष्पक्ष विश्लेषण करने की क्षमता विकसित करें ताकि वह व्यक्ति के स्वभाव के अनुरूप व्यव्हार कर सके,उसकी यही योग्यता आपके लिए,आपकी बेटी के लिए, और पूरे समाज के लिए हितकरी होगा.

यदि सभी माता पिता अपनी बेटी में अच्छी भावनाओं का विकास करेंगे तो उन्हें आने वाली बहू (किसी अन्य की बेटी)भी उनके साथ अच्छा व्यवहार कर पायेगी. उनके लिए बहू एक अच्छी बेटी साबित होगी. परिवार में मान,सम्मान, त्याग और प्यार भरा खुशनुमा वातावरण बन सकेगा और सुख शांति का वास होगा.

पति-पत्नी सम्बन्ध वृद्धावस्था में

वृद्धावस्था में जीवन साथी की परिभाषा ही बदल जाती है,अब वे पति पत्नी न रह कर सिर्फ मित्र या सहयोगी की तरह से रहने लगते हैं. शारीरिक संबंधों का महत्व समाप्त हो जाता है. अतः वृद्धावस्था में एक पति या पत्नी की नहीं बल्कि ऐसे साथी की आवश्यकता होती है,जो उसका दुःख सुख बाँट सके उसमे सहयोग कर सके. उसके खाली समय में बातचीत कर सके, जीवन संस्मरण में भागीदार बन सके,उसके दैनिक कार्यों में मददगार बन सके. ऐसे साथी के रूप में सिर्फ जीवन साथी ही अपनी भूमिका निभा सकता है. क्योंकि परिवार के अन्य सदस्यों की अपनी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं. उनके विचार, जीवन शैली, तथा स्वास्थ्य स्तर भिन्न भिन्न होते है. बुजुर्ग को अपनी उम्र का व्यक्ति ही संतुष्टि दिला सकता है.

परन्तु वृद्धवस्था में जीवन साथी का सहयोग उसके अपने पूरे जीवन भर के व्यव्हार के ऊपर निर्भर होता है. वे अपनी जवानी में अपनी जीवन साथी के लिए कितने बफादार,कितने उदार,कितने सहनशील रहे हैं. यदि उन्होंने अपनी यौवनावस्था एवं अधेडावस्था में एक दूसरे के प्रति समर्पण एवं बफादारी से निभाया है, अपने व्यव्हार में ईमानदारी और कर्त्तव्य निष्ठां दिखाई है तो जीवन के अंतिम प्रहार यानि बुढ़ापे में प्रगाढ़ मित्रता के रूप में बीतने की सम्भावना रहती है. परन्तु यदि उन्होंने अपने जीवन में भटकाव एवं स्वार्थ को स्थान दिया होता है, तो शेष जीवन बदले और नफरत की भावना के साथ व्यतीत होने के आसार रहते हैं. वे चाह कर भी एक दूसरे के प्रति सहज एवं संवेदनशील नहीं हो पाते. यदि पति ने पूरे जीवन पत्नी पर तानाशाही पूर्ण व्यव्हार किया है, तो पत्नी के लिए जीवन संध्या में भी सहज हो पाना संभव नहीं हो पाता. इसी प्रकार यदि पत्नी ने पूरे जीवन शब्दबाण चला कर पति के अंतस को छलनी किया है तो उसके मन में टीस बनी रहती है, और कालांतर में पत्नी के प्रति सामान्य नहीं हो पाता.

यदि पति या पत्नी में से किसी ने भी अपने जीवन साथी से अधिक अन्य रिश्तों को प्रधानता दी है अर्थात पति सिर्फ अपने माँ बाप के लिए बफादार रहा, या पत्नी ने पति से अधिक अपने भाई बहन को अधिक महत्त्व दिया होता है, तो वृद्धावस्था में सामंजस्य बैठा पाना असंभव हो जाता है. दोनों की जीवन संध्या कलुषित जीवन में परिवर्तित हो जाती है. अतः सुखी जीवन संध्या के लिए आवश्यक है की अपने पूरे जीवन में रिश्तों में संतुलन बना कर रखा जाय. प्रत्येक रिश्ते को आवश्यकतानुसार उसके प्रति कर्तव्यों को निभाते हुए अपनाया जाय.

उपरोक्त विषय को लिखने का मेरा उद्देश्य यही है की वर्तमान में युवावस्था या अधेडावस्था से गुजर रहे पति और पत्नी अपने सुखद भविष्य की तय्यारी अभी से आरंभ कर दें . एक दूसरे को ताने दे कर त्रस्त करना या नशे की आदतों के वशीभूत होकर जीवन साथी कोप्रताड़ित करना बंद कर दें. एक दूसरे के प्रति ईमानदार, बफादार और सहृदय रह कर ही सुखद जीवन संध्या की कल्पना कर सकते हैं.