परिणीता / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

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परिणीता
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रचनाकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
प्रकाशक सत्साहित्य प्रकाशन
वर्ष २००५
भाषा हिन्दी
विषय
विधा
पृष्ठ 392
ISBN
विविध
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर गद्य कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।


एक लक्ष्मण की छाती पर जब शक्ति-बाण लगा होगा, तो जरूर उनका चेहरा भयंकर दर्द से सिकुड़ गया होगा, लेकिन गुरुचरण का चेहरा शायद उससे भी ज्यादा विकृत और टूटा-फूटा नजर आया, जब अलस्सुबह अंतःपुर से यह खबर आई कि घर की गृहिणी ने अभी-अभी बिना किसी बाधा-विघ्न के, राजी-खुशी पाँचवीं कन्या-रत्न को जन्म दिया है। गुरुचरण साठ रुपये तनख्वाह का बैंक क्लर्क था। इसलिए उसका तन-बदन जैसे ठेके के गाड़ी के घोड़े की तरह सूखा-सूखा, शीर्ण था, उसके चेहरे-मोहरे और आंखों में भी, उस जानवर की तरह ही निष्काम, निर्विकार-निर्लिप्त भाव ! इसके बावजूद आज यह भयंकर शुभ-संवाद सुनकर, उनके हाथ का हुक्का, हाथ में ही रह गया। वे अपनी जीर्ण, पैतृक तकिया से टिककर बैठ गए। उनमें इतना जोर भी न रहा कि वे लंबी-सी उसाँस भी ले सकें। यह शुभ संवाद लेकर आई थी, उनकी तीसरी बेटी, दस वर्षीया, अन्नाकाली ! ‘‘चलो, बापू, चलो न देखने।’’

बेटी का मुखड़ा निहारते हुए, गुरुचरण ने कहा, ‘‘बिटिया, जरा एक गिलास पानी तो लाना, प्यास लगी है।’’ बेटी पानी लेने चली गई। उसके जाते ही, गुरुचरण को सबसे पहले प्रसूतिखाने के सैकड़ों खर्च का ख़्याल आने लगा। उसके बाद, उनकी आँखों के आगे स्टेशन की वह भीड़ तैर गई। स्टेशन पर गाड़ी पहुँचते ही, ट्रेन का दरवाजा खुला पाते ही, जैसे तीसरे दर्जे के मुसाफिर, अपना पोटला-पोटली सँभाले, पागलों की तरह, लोगों को कुचलते-पीसते, उछल-कूदकर बाहर आते रहते हैं, उसी तरह, मार-मार का शोर मचाते हुए, उनके दिमाग में चिंता-परेशानियों का रेला हहराने लगा। उन्हें याद आया, पिछले साल, अपनी दूसरी बेटी की शादी के वक्त बहुबाज़ार स्थित यह दो-मंज़िला, शरीफ-आशियाना भी बंधक रखा जा चुका है। और उसका छः महीने का ब्याज चुकाना, अभी तक बाकी है। दुर्गा पूजा में अब सिर्फ महीने भर की देर है। मँझली बेटी के यहाँ उपहार वगैरह भी भेजना होगा। दफ्तर में कल रात आठ बजे तक डेबिट-क्रेडिट का हिसाब नहीं मिल पाया। आज दोपहर बारह बजे अंदर, सारा हिसाब विलायत भेजना ही होगा। कल बड़े साहब ने हुक्म जारी किया है कि मैले-कुचैले कपड़े पहनकर, कोई दफ्तर में नहीं घुस सकेगा। जुर्माना लगेगा, जबकि पिछले हफ्ते से धोबी का अता-पता नहीं है। घर के सारे कपड़े-लत्ते समेटकर, शायद वह नौ-दो-ग्यारह हो गया है। गुरुचरण से अब टिककर बैठा भी नहीं गया। हाथ का हुक्का ऊँचा उठाकर, वे अधलेटे हो आए।

वे मन-ही-मन बुदबुदा उठे, ‘हे भगवान ! इस कलकत्ता शहर में हर रोज कितने ही लोग गाड़ी-घोड़े तले कुचले जाकर, अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं वे लोग तुम्हारे चरणों में क्या मुझसे भी ज्यादा अपराधी हैं ? हे दयामय, मुझ पर दया करो, कोई भारी-भरकम मोटर ही मेरी छाती पर से गुजर जाए।’ अन्नाकाली पानी ले आई, ‘‘लो, बापी, उठो। मैं पानी ले आई।’’ गुरुचरण उठ बैठे और गिलास का सारा पानी, एक ही साँस में पी गए। ‘‘आ-ह ! ले, बिटिया, गिलास लेती जा।’’ उन्होंने कहा। उसके जाते ही गुरुचरण दुबारा लेट गए। ललिता कमरे में दाखिल हुई, ‘‘मामा चाय लाई हूँ, चलो उठो।’’

चाय का नाम सुनकर, गुरुचरण दुबारा उठ बैठे। ललिता का चेहरा निहारते हुए, उनकी आधी परेशानी हवा हो गई। ‘‘रात भर जगी रही न, बिटिया ? आ, थोड़ी देर मेरे पास बैठ।’’ ललिता सकुचाई-सी मुस्कान बिखेरते हुए, उनके करीब चली आई, ‘‘रात को मैं ज्यादा देर नहीं जागी, मामा !’’ इस जीर्ण-शीर्ण, चिंता-फ़िक्रग्रस्त, अकाल बूढ़े मामा के मन की गहराइयों में टीसती हुई व्यक्त पीड़ा का इस घर में, उससे बढ़कर, और किसी को अहसास नहीं था। गुरुचरण ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, आ, मेरे पास आ।’’ ललिता उनके करीब आ बैठी। गुरुचरण उसके सिर पर हाथ फेरने लगे। अचानक उन्होंने कहा, ‘‘अपनी इस बिट्टी को किसी राजा के घर दे पाऊँ, तो समझूँगा, काम जैसा काम किया।’’ ललिता सिर झुकाए-झुकाए, प्याली में चाय उँड़ेलने लगी। गुरुचरण ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘अपने इस दुखियारे मामा के यहाँ तुझे दिन-रात जी-तोड़ मेहनत करना पड़ती है न बिट्टू ?’’ ललिता ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘रात-दिन मेहनत की क्या बात है मामा ? सभी लोग काम करते हैं, मैं भी करती हूँ।’’ उसकी इस बात पर गुरुचरण हँस पड़े।

चाय पीते-पीते उन्होंने पूछा, ‘‘हाँ, तो, ललिता, आज खाने-वाने का क्या होगा, बिट्टी ?’’ ललिता ने सिर उठाकर जवाब दिया, ‘‘क्यों, मामा ? मैं पकाऊँगी न !’’ गुरुचरण ने अचकचाकर कहा, ‘‘तू ? तू पकाएगी, बिटिया ? तुझे पकाना आता है ?’’ ‘‘आता है, मामा ! मामी से मैंने सब सीख लिया है।’’ गुरुचरण ने चाय की प्याली रख दी और उसे गले लगाते हुए पूछा, ‘‘सच्ची ?’’ ‘‘सच्ची ! मामी बता देती है, मैं पकाती हूँ ! कितने ही दिनों तो मैंने ही पकाया है-’’ यह कहते हुए, ललिता ने सिर झुका लिया। उसके झुके हुए सिर पर हाथ रखकर, गुरुचरण ने उसे खामोश आशीर्वाद दिया। उनकी एक गंभीर चिंता दूर हो गई। यह घर गली के नुक्कड़ पर ही स्थित था। चाय पीते-पीते, उनकी निगाह अचानक खिड़की के बाहर जा पड़ी। गुरुचरण ने चीखकर आवाज लगाई, ‘‘शेखर ? ओ शेखर, सुन ! जरा सुन जा !’’

एक लंबा-चौड़ा, बलिष्ठ, सुदर्शन नौजवान कमरे में दाखिल हुआ। ‘‘आओ, बैठो, आज सवेरे, अपनी काकी की करतूत शायद सुनी होगी ?’’ शेखर के होठों पर मंद-मंद मुस्कान झलक उठी, ‘‘करतूत क्या ? लड़की हुई है, बस यही बात है न ?’’ एक लंबी उसाँस फेंककर, गुरुचरण ने कहा, ‘‘तुमने तो कह दिया-‘बस, यही बात !’ लेकिन यह किस हद तक ‘बस, यही बात’ है, सिर्फ मैं ही जानता हूँ, रे !’’ ‘‘ऐसा न कहें, काका, काकी सुनेंगी, तो बहुत दुःखी होंगी। इसके अलावा, भगवान ने जिसे भेजा है, उसे ही लाड़-दुलार से अपना लें।’’ शेखर ने तसल्ली दी।

पलभर को खामोश रहने के बाद, गुरुचरण ने कहा, ‘‘लाड़-दुलार करना चाहिए, यह तो मैं भी जानता हूँ। लेकिन, बेटा, भगवान भी तो इंसाफ़ नहीं करते। मैं ठहरा गरीब मानस, मेरे घर में इतनी भरमार क्यों ? यह घर तक तुम्हारे बाप के पास रेहन पड़ा है। ख़ैर, पड़ा रहे मुझे इसका दुःख नहीं है, शेखर, लेकिन हाथों-हाथ ही देख लो न, बेटा, यह मेरी ललिता है, बिन-माँ-बाप की, सोने की गुड़िया, यह सिर्फ राजा के घर ही सजेगी। इसे मैं अपने जीते-जी, कैसे जिस-तिस के हाथ में सौंप हूँ, बताओ ? राजा के मुकुट में वह जो कोहिनूर जगमगाता है, वैसा कई-कई कोहिनूर जमा करके, मेरी इस बेटी को तौला जाए, तो भी इसका मोल नहीं हो सकता। लेकिन, यह कौन समझेगा ? पैसों के अभाव में, ऐसी रतन को, मुझे बहा देना होगा। तुम ही बताओ, बेटा, उस वक्त छाती में कैसा तीर चुभेगा ? तेरह साल की हो गई, लेकिन मेरे हाथ में तेरह पैसे भी नहीं हैं कि इसका कोई रिश्ता तक तय नहीं कर पा रहा हूँ।’’ गुरुचरण की आँखों में आँसू छलक आए। शेखर खामोश रहा। गुरुचरण ने अगला वाक्य जोड़ा, ‘‘सुनो, शेखरनाथ, अपने यार-दोस्तों में ही तलाश कर न, बेटा, अगर इस लड़की की कोई गति कर सके। सुना है, आजकल बहुतेरे लड़के रुपये-पैसे की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते, सिर्फ लड़की देखते हैं और पसंद कर लेते हैं। ऐसा कोई लड़का, संयोग से मिल जाए, शेखर, तो मैं कहता हूँ, मेरे आशीर्वाद से तुम राजा होगे। और क्या कहूँ, बेटा ? इस मुहल्ले में तुम लोगों के ही आसरे-भरोसे हूँ ! तुम्हारे बाबूजी मुझे अपने छोटे भाई की तरह ही देखते हैं।’’

शेखर ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘ठीक है, देखूँगा।’’ ‘‘देखो, बेटा, भूलना नहीं। ललिता ने तो आठ साल की उम्र से तुमसे ही पढ़ना-लिखना सीखा है, इंसान बन रही है, तुम भी तो देख रहे हो, वह कितनी बुद्धिमती है; कितनी शांत-शिष्ट है ! बुंदकी भर लड़की, आज से वही हमारे यहाँ पकाएगी-परोसेगी, देगी-सहेजेगी। अब से सब कुछ उसके जिम्मे !’’ उस पल, ललिता ने एक बार नजरें उठाकर, झट से झुका लीं। उसके होंठ के दोंनों कोर ईषत् फैलकर रह गए। गुरुचरण ने फिर एक लम्बी उसाँस छोड़कर कहा, ‘‘इसके बाप ने ही क्या कम रोजगार किया ? लेकिन, सारा कुछ इस ढंग से दान कर गया कि इस लड़की के लिए कुछ नहीं रख गया।’’ शेखर खामोश रहा। गुरुचरण खुद ही दुबारा बोल उठे, ‘‘वैसे कुछ भी रखकर नहीं गया, यह भी कैसे कहूँ ? उसने जितने सारे लोगों का जितना-जितना दुःख मिटाया, उसका सारा पुण्य, मेरी इस बेटी को सौंप गया, वर्ना इतनी नन्ही-सी बच्ची, ऐसी अन्नपूर्णा हो सकती है भला ? तुम ही बताओ, शेखर, यह सच है या नहीं ?’’ शेखर हँस पड़ा। उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह जाने के लिए उठने ही वाला था।

‘‘इतनी सुबह-सुबह कहाँ जा रहे थे ?’’ उन्होंने पूछा। ‘‘बैरिस्टर के यहाँ ! एक केस के सिलसिले में-’’ इतना कहकर, वह उठ खड़ा हुआ। गुरुचरण ने उसे फिर याद दिलाया, ‘‘मेरी बात जरा याद रखना, बेटा ! वह जरा साँवली जरूर है।....लेकिन ऐसी सूरत-शक्ल, ऐसी हँसी, इतनी दया-माया दुनिया भर में खोजते फिरने पर भी किसी को मिलेगी !’’ शेखर ने सहमति में सिर हिलाया और मंद-मंद मुस्कराते हुए बाहर निकल गया। उस लड़के की उम्र पच्चीस-छब्बीस ! एम.ए. पास करने के बाद, अब तक अध्यापन में लगा रहा, पिछले वर्ष एटॉर्नी बन गया। उसके पिता नवीन-राय का गुड़ का कारोबार था। लखपति बन जाने के बाद, इधर कुछेक सालों से कारोबार छोड़कर, घर बैठे तिजारती का धंधा शुरू कर दिया है। बड़ा बेटा वकील ! यह शेखरनाथ, उनका छोटा बेटा है। मुहल्ले की छोर पर उनका विशाल तिमंज़िला मकान, शान से सिर उठाए खड़ा़ है। उसी मकान की खुली छत से सटी हुई, गुरुचरण की छत है। इसलिए दोनों परिवारों में बेहद आत्मीयता जुड़ गई थी। घर की औरतें, इसी राह, आना-जाना करती थीं। दो काफी लंबे अर्से से श्याम बाजार के किसी अमीर घराने के साथ, शेखर के विवाह की बातचीत चल रही है। उस दिन जब वे लोग देखने आए, तो उन लोगों ने अगले माघ का कोई शुभ दिन तय करने का प्रस्ताव दिया। लेकिन शेखर की माँ ने इनकार कर दिया। उन्होंने महरी के जरिए मर्दाने में यह कहला भेजा कि लड़का, जब ख़ुद लड़की देखकर पसंद कर आए, तभी यह विवाह संभव है। नवीन राय की नजर सिर्फ दौलत पर थी। गृहिणी की इस टाल-मटोल से वे नाराज हो उठे।

‘‘यह कैसी बात ? लड़की को देखी-भाली है। बातचीत पक्की हो जाने दो। उसके बाद सगाई के दिन, अच्छी तरह देख लेना।’’ लेकिन, गृहिणी राजी नहीं हुईं। उन्होंने पक्की बातचीत करने से मना कर दिया। उस जिन नवीन राय इस कदर नाराज हुए कि खाना भी काफी देर से खाया और दोपहर को वे बाहर वाले कमरे में ही सोए। शेखरनाथ ईषत् शौकीन तबीयत का शख्स था। वह तीसरी मंजिल के जिस कमरे में रहता था, व काफी सजा हुआ था। करीब पाँच-छः दिन बाद एक दिन दोपहर को जब वह अपने कमरे के बड़े-से आईने के सामने खड़ा-खड़ा, लड़की देखने जाने के लिए तैयार हो रहा था, ललिता कमरे में दाखिल हुई। कुछेक पल उसकी तरफ खामोश निगाहों से देखते हुए, उसने कहा, ‘‘सुनो, जरा अच्छी तरह सजा-वजा, तो दो, ताकि बीवी पसंद कर ले।’’

ललिता हँस पड़ी, ‘‘अभी तो मेरे पास वक्त नहीं है, शेखर ’दा, मैं रुपए लेने आई हूँ।’’ इतना कहकर, उसने तकिए के नीचे दबी चाबी निकाली और अलमारी खोलकर, दराज से कुछ रुपए निकालकर गिने। रुपए आँचल में बाँधकर, उसने स्वगत ही कहा, ‘‘जरूरत के वक्त रुपए ले तो जाती हूँ, मगर इतना सब शोध कैसे होगा ?’’ शेखर ने ब्रश फेरकर, एक तरफ के बाल, बड़े जतन से ऊँचे किए और पलटकर ललिता, की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘शोध होगा नहीं, हो रहा है।’’ ललिता को उसकी बात समझ में नहीं आई। उसकी आँखें शेखर के चेहरे पर गड़ी रहीं। ‘‘यूँ देख क्या रही हो ? समझ में नहीं आया ?’’ ‘‘ना-’’ ललिता ने इनकार में सिर हिला दिया। ‘‘जरा और बड़ी हो जाओ, तब समझ जाओगी।’’ इतना कहकर, शेखर ने जूते पहने और कमरे से बाहर निकल गया। रात को शेखर कोच पर चुपचाप लेटा हुआ था। अचानक उसकी माँ कमरे में दाखिल हुई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। माँ तख़त पर बैठ गईं।

‘‘लड़की देखी ? कैसी है, रे ?’’ ‘‘अच्छी !’’ माँ के चेहरे की तरफ देखते हुए, शेखर ने जवाब दिया। शेखर की माँ ! नाम भुवनेश्वरी ! उम्र लगभग पचास के करीब आ पहुँची थी, लेकिन तन-बदन इतना कसा हुआ ! इतना खूबसूरत की वे पैंतीस-छत्तीस से ज्यादा की नहीं लगती थीं। ऊपर से उनके ऊपर आवरण के अंदर जो मातृ-हृदय मौजूद था, वह और भी ज्यादा नया, और कोमल था। वे गाँव देहात की औरत। वे गाँव-देहात में पैदा हुईं ! वहीं पली-बढ़ी़-बड़ी हुईं, लेकिन शहर में भी कभी किसी दिन भी बेमेल नहीं नजर आईं। जैसे उन्होंने शहर की चुस्ती-फुर्ती, जीवंतता और आचार-व्यवहार उन्मुक्त भाव से ग्रहण कर लिया, उसी तरह अपनी जन्मभूमि की निबिड़ निस्तब्धता और माधुर्य भी उन्होंने नहीं खोया। यह माँ, शेखर के लिए कितना विराट गर्व थी, यह बात उसकी माँ भी नहीं जानती थी। ईश्वर ने शेखर को काफी कुछ दिया था-अनन्य सेहत, रूप, ऐश्वर्य, बुद्धि-लेकिन, ऐसी माँ की संतान हो पाने का सौभाग्य को, वह समूचे तन-मन से, ऊपर वाले का सबसे बड़ा दान मानता था।

‘‘अच्छी, कहकर तू चुप क्यों हो गया ?’’ माँ ने पूछा। शेखर ने दुबारा हँसकर, सिर झुका लिया, ‘‘तुमने जो पूछा, वही तो बताया-’’ माँ भी हँस पड़ी, ‘‘कहाँ बताया ? रंग कैसा है, गोरा ? किसके जैसी है ? हमारी ललिता जैसी ?’’ शेखर ने सिर उठाकर जवाब दिया, ‘‘ललिता तो काली है, माँ, उससे तो गोरी है-’’ ‘‘चेहरा-मोहरा, आँखें कैसी हैं ?’’ ‘‘वह भी बुरी नहीं-’’ ‘तो घर के कर्ता से कह दूँ ?’’

इस बार शेखर खामोश रहा। कुछेक पल बेटे का चेहरा पढ़ते हुए, माँ ने अचानक सवाल किया, ‘‘हाँ, रे, लड़की पढ़ी-लिखी कितनी है ?’’ ‘‘वह तो मैंने नहीं पूछा, माँ !’’ माँ एकदम से ताज्जुब में पड़ गईं, ‘‘यह कैसी बात है, रे ? जो आजकल तुम लोगों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, वही बात पूछकर नहीं आया ?’’ शेखर हँस पड़ा, ‘‘नहीं, माँ, यह बात तो मुझे याद ही नहीं रही।’’ बेटे की बात सुनकर, अब वे बाकायदा विस्मित हो उठी और कुछेक पल, उनकी निगाहें, बेटे के चेहरे पर गड़ी रहीं। अचानक वे हँस पड़ीं, ‘‘यानी तू वहाँ ब्याह नहीं करेगा ?’’ शेखर जाने क्या तो कहने जा रहा था, अचानक ललिता को कमरे में दाखिल होते देखकर, वह खामोश हो गया। ललिता धीमे कदमों से भुवनेश्वरी के पीछे आ खड़ी हुई। भुवनेश्वरी ने बाएँ हाथ से उसे खींचकर अपने सामने कर लिया, ‘‘क्या बात है, बिटिया ?’’ ललिता ने फुसफुसाकर जवाब दिया, ‘‘कुछ नहीं, माँ ?’’ वह पहले उन्हें ‘मौसी’ बुलाया करती थी, लेकिन उन्होंने उसे बरजते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी मौसी नहीं, माँ हूँ।’’ बस, उसी दिन से वह उन्हें ‘माँ’ बुलाने लगी।

भुवनेश्वरी ने उसे और करीब खींचकर, उसे दुलारते हुए पूछा, ‘‘कुछ नहीं ? तो तू मुझे सिर्फ एक बार देखने आई है ?’’ ललिता खामोश रही। ‘‘देखने आई है कि वह खाना कब पकाएगी ?’’ शेखर एकदम से बोल उठा। ‘‘क्यों ? पकाएगी क्यों ?’’ शेखर ने विस्मित मुद्रा में पलटकर सवाल किया, ‘‘तो उन लोगों का खाना और कौन पकाएगा ? उस दिन, उसके मामा ने भी तो यही कहा कि पकाने-परोसने का काम ललिता ही करेगी।’’ माँ हँस पड़ीं, ‘‘उसके मामा की क्या बात है ? कुछ कहना था, सो कहकर छुट्टी पा ली। उसकी तो अभी शादी नहीं हुई, उसके हाथ का खाएगा कौन ? मैंने अपने पंडित जी को भेज दिया है, वे ही पकाएँगे। हमारा खाना बड़ी बहूरानी बना रही है। आजकल दोपहर को मैं वहीं चली जाती हूँ।’’ शेखर समझ गया, उस दुःखी परिवार की जिम्मेदारी, माँ ने अपने ऊपर ले ली है। उसने राहत की साँस ली और खामोश हो रहा। करीब महीना भर गुजर गया। एक शाम, शेखर अपने कमरे के कोच पर लेटा-लेटा कोई अंग्रेजी उपन्यास पढ़ रहा था। उस उपन्यास में वह खा़सा मगन हो गया था, तभी ललिता उसके कमरे में दाखिल हुई। उसने तकिए के नीचे से चाबी निकाली और खट्-खुट् की आवाज के साथ, वह अलमारी का दराज खोलने लगी। किताब से सिर उठाए बिना ही शेखर ने पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’ ‘‘रुपए निकाल रही हूँ।’’

शेखर ने हुंकारी भरी और पढ़ने में ध्यानमग्न हो गया। ललिता ने आँचल में रुपए गँठियाकर, उठ खड़ी हुई। आज वह काफी सज-धजकर आई थी। वह चाहती थी, शेखर एक बार उसे देख ले। ‘‘दस रुपये लिए हैं, शेखर दा-’’ ‘‘अच्छा !’’ शेखर ने जवाब तो दिया, मगर उसकी तरफ देखा नहीं। निरुपाय ललिता, इधर-उधर की चीजें उलटने-पलटने लगी; झूठमूठ ही देर तक रुकी रही, लेकिन जब कोई नतीजा नहीं निकला, तो धीमे कदमों से कमरे से बाहर निकल गई। लेकिन यूँ चले जाने से ही तो नहीं चलता। उसे दुबारा लौटकर, दरवाजे पर खड़े होना पड़ा। आज वे लोग थियेटर जा रही थीं।

शेखर की अनुमति बिना वह कहीं नहीं जा सकती, यह बात वह जानती थी। किसी ने उसे शेखर से अनुमति लेने को नहीं कहा, या वह क्यों, किसलिए....ये सब ख्याल, उसके मन में कभी नहीं जगे। लेकिन इंसान मात्र में एक सहज-स्वाभाविक बुद्धि मौजूद है, उसी बुद्धि ने उसे सिखाया था कि भले और कोई मनमानी कर सकता है, जहाँ चाहे, जा सकता है, मगर वह ऐसा नहीं कर सकती। इसके लिए, वह आजाद भी नहीं है। मामा-मामी की अनुमति ही उसके लिए यथेष्ट नहीं है। दरवाजे की आड़ में खड़ी-खड़ी उसने कहा, ‘‘हम लोग नाटक देखने जा रही हैं-’’ उसकी मृदु आवाज शेखर के कानों तक नहीं पहुँची।

ललिता ने जरा और तेज आवाज में कहा, ‘‘सब लोग मेरे इंतजार में खड़े हैं-’’ इस बार शेखर के कानों तक उसकी आवाज पहुँच गई। उसने किताब एक ओर रखते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’ ललिता ने ईषत् तमककर जवाब दिया, ‘‘इतनी देर बाद, मेरी आवाज कानों तक पहुँची ? हम लोग थियेटर जा रहे हैं।’’ ‘‘हम लोग कौन ?’’ शेखर ने पूछा। ‘‘मैं, अन्नाकाली, चारुबाला का भाई, चारुबाला, उसके मामा...’’ ‘‘यह मामा कौन है ?’’