परिशिष्ट ख / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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परिशिष्ट ख / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

परिशिष्ट ख.(काव्यवाली पुस्तक के लिए मनोविज्ञान)

टिप्पणियाँ

मन के संघटन के नियम - बृहत् और लघु चक्र; पहले में दूसरा भी अवस्थित रहता है। प्रवृत्तियाँ और जीवनवेग भाव के अंतर्गत हैं। भाव स्थायीभाव के अंतर्गत हैं। भावों और स्थायीभावों के चक्र के शासन के अंतर्गत केवल संस्कार ही नहीं, विचार भी आते हैं अर्थात् बुद्धि, इन्द्रियवेग और मनोवेग। पहला बाह्य के बदले आभ्यंतर प्रेरणा से जगता है। उसकी व्यवस्थित संघटना होती है और वह उत्तेजित होता है। लघु चक्र के अंतर्गत बुभुक्षा और काम के जीवनवेग आते हैं। आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के वेग भी इसी के अंतर्गत आयँगे जैसे विश्राम और शयन के वेग। (इंपल्सेज=जीवनवेग। एपिटाइट्स=इन्द्रियवेग। इमोशंस्=मनोवेग या भाव। सेंटिमेंटस्=स्थायीभाव।) स्थायीभाव में भाव अन्तर्भुक्त हैं और भावों में संबद्ध संस्कार, जैसे भय में भागने का संस्कार (इंस्टिक्ट=संस्कार। टेंडेंसी=प्रवृत्ति); आत्मदर्शन और आत्माभिभव के वेग।

मूलभाव - भय, क्रोध, ग्लानि, हर्ष, दु:ख। जिज्ञासा में यद्यपि जीवनवेग के अधिक लक्षण हैं फिर भी इसे मनोवेग कहते हैं। हर्ष और दु:ख के अंतर्गत यदि संस्कार नहीं तो सूक्ष्म प्रवृत्तियाँ अवश्य होती हैं। पहले से रहनेवाली किन्हीं प्रक्रियाओं की रक्षा शिशु के द्वारा स्तन (चूचुक) की खोज और उसका पान बुभुक्षा के संस्कार या इन्द्रियवेग हैं। तब तक पीते रहना जबतक सुख की अनुभूति होती है-यह हर्ष भाव की प्रवृत्ति है। इस प्रकार हर्ष और खेद या तो (1) किसी दूसरे जीवनवेग के अनुवर्ती हैं अथवा (2) नहीं। दूसरे के उदाहरण भद्दे और सुंदर आलम्बनों में मिल सकते हैं।

क्रोध, भय, हर्ष और दु:ख एक-दूसरे से सूक्ष्मतया संबद्ध भी हैं।

स्थायीभावों का चक्र

प्रेम-आलम्बन और परिणय के अनुरूप इच्छारहित कर्म और इच्छारहित चरित्र; भाव के विशेष स्वरूप के अनुरूप नहीं।

दो अत्यंत विपरीत प्रकार-(1) आत्मरक्षा की प्रवृत्ति, (2) जातिरक्षा की प्रवृत्ति, (3) यद्यपि बच्चों का भरण-पोषण करते हुए माता अपने जीवनवेग की परितुष्टि भी करती है किंतु उसका यह संस्कार इच्छारहित होता है। इसलिए करुणा को इच्छारहित प्रेरणा न मानना चाहिए, जैसा सामान्यतया माना जाता है।

राग और द्वेष एकाकी भाव नहीं है। स्पेंसर ने कामवृत्तिमूलक प्रेम या संस्कार के संयोजकों के अंतर्गत राग, प्रशंसा, रक्षा का आनंद इत्यादि की गणना की है। किंतु प्रेम संयुक्त अनुभूति नहीं है प्रत्युत एक चक्र है, जिसके अंतर्गत भिन्न-भिन्न अनुभूतियाँ और भाव संघटित हैं। दांपत्य रति और वात्सल्य रति के अंतर्गत और सब प्रकार के रति भाव आ जाते हैं। स्थायीभाव एक व्यक्ति से दूसरे में भाव की अपेक्षा कहीं अधिक परिवर्तित रूप में रहते हैं। स्थायीभावों के द्वारा व्यक्ति अधिकाधिक आत्मावलम्बन की स्थिति में हो जाता है। उसमें एक प्रकार की दृढ़ता आ जाती है। उनमें से अत्यंत प्रमुख ये हैं।

आत्मानुरक्ति जिसके अंतर्गत भाव ही नहीं स्थायीभाव भी आते हैं।

किंतु स्थायीभाव हैं-अहंकार, अपमान, लालसा, धानलाभ, इन्द्रियसाक्ति या रति, कामसुख।

ये सापेक्षित स्थायी वृत्तियाँ वे ही हैं जिन्हें हम स्थायीभाव कहते हें-एंजिल। अमूर्त और मूर्त; जैसे सत्य विज्ञान या कला का प्रेम और गुरुजनों के प्रति प्रेम या श्रद्धा।-वही।

अनुभूति और राग

राग में हमारी चेतना की अवस्था का अनुकूल और प्रतिकूल तत्व या पक्ष। पूर्णरूपेण सम्मिश्र अवस्था, जब यह घटित होता है, संवेदनात्मक और बोधात्मक तत्त्वों से युक्त अनुभूति है। वुंट और सोयी ने उत्तेजना और शम की निरर्थक योजना की है। क्योंकि वे अनुभूति नहीं विशेषताएँ हैं, जो चेतना की साधारण क्रिया से संलग्न हैं। जब हम बहुत उत्तेजित होते हैं तब हमारे स्नायु कड़े पड़ जाते हैं और हमारा श्वा स प्रश्वाबस असाधारण हो जाता है। सौंदर्यानुगत स्पंदनातिशय के अभाव में जब स्नायविक शांति रहती है तब हमारी चेतना प्रक्रियाओं में परिवर्तन की गहनता और द्रुतता की चेतना बनी रहती है। ज्ञानात्मक मार्गों से हमें इन विशेषताओं का पता चल जाता है।

क्या रागात्मक स्मृति भी होती है? हम कह सकते हैं कि किसी निश्चित समय पर हमने हर्ष या पीड़ा का अनुभव किया। किंतु हम राग को इतने स्पष्ट रूप में स्मरण नहीं कर सकते, जैसे हम घटनाओं और दृश्यों को स्मरण कर

सकते हैं।

शेली का प्रभाव

शेली के संगीत ने जब विश्वै को विमुग्धश करना आरंभ किया तो कतिपय कवि इस सिद्धांत पर कार्य कर चले कि हममें और इतर मानव जाति में निश्चय ही महान् अंतर है। उनका सिद्धांत था कि हम दूसरी दुनिया के पक्षी हैं और यथाशक्य गान ही करने के लिए हैं। इसे यों भी कह सकते हैं कि काव्यक्षेत्र अचरज से भरा और भड़कीला पागलखाना हो गया था। अलेक्जेंडर की महत्तवाकांक्षा यह थी-

'काव्य का व्यवहार वैसा ही हो जैसे केतु उदय से सुप्त रजनी का साम्राज्य जगमगा उठता है।'

बेली, डोबेल, स्मिथ प्रकृत लोक के प्राणी थे, उन्माद लोक के नहीं। पर उन्होंने उन्माद को उत्तेजित ही किया। शेली के अनुयायी जिस उच्च लोक का हमारे अधोलोक के लिए गायन कर रहे थे उसका नाम बेली ने 'नकुत्रापि' (नो व्हेअर-कहीं नहीं।) रखा था। बेली का 'फेस्टस' और बाउनिंग का 'सारडेला' इस 'नकुत्रापि (कहीं नहीं)' काव्य के उदाहरण हैं।

काव्य कला के भेद

कल्पना के दो प्रकार-(1) नाटकीय कल्पना, (2) प्रगीतात्मक या अन्तर्भावात्मक कल्पना। तदनुसार कवि लोग या तो सापेक्ष दृष्टि के होते हैं या निरपेक्ष दृष्टि के।

(1) प्रगीत या सापेक्ष दृष्टि

(क) शुद्ध प्रगीतकार एक ही वाणी और एक ही स्वर का गान कर सकते हैं अर्थात् वे अपनी ही अनुभूतियों एवं अपने ही भावों से परिप्लुत रहते हैं और चतुर्दिक् व्याप्त विश्वहदर्शन नहीं कर पाते।

(ख) प्रबन्धकार कवि एक ही वाणी से अनेक स्वरों का गान कर सकता है। उसमें विस्तृत कल्पना होती है फिर भी वह सापेक्ष और अहंभावात्मक होती है। वह सर्वभूत में आत्मभूत को लीन करके उसकी कल्पना करता है वह अपने ही अहम् को अनेक रूपों में परिवर्तित कर लेता है कोई दूसरा अहम् नहीं निर्मित करता।

अधिकतर प्रबन्धकार और नाटककार इसी श्रेणी के अंतर्गत हैं। समग्र एशियाई कवि एवं भारतीय नाटककार भी सापेक्ष दृष्टिसम्पन्न ही थे।

(2) निरपेक्ष या यथार्थ नाटकीय दृष्टि

केवल सच्चे नाटककार ही अपने व्यक्तिव से सर्वथा स्वच्छंद चरित्रों की सृष्टि कर सकते हैं। वे ऐसे सामान्य चरित्रों की सृष्टि करने में नहीं लगते जो अपने ही रूप को भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में ढालने से बनते हैं, प्रत्युत वे ऐसे प्राणियों की सृष्टि करते हैं जो उनसे सर्वथा पृथक् होते हैं।

अरस्तू - काव्य का अपरिहार्य आधार आविष्कार है। उसने कार्य व्यापार के संविधान को ही मुख्य माना है। उसकी धारणा के अंतर्गत समस्त कल्पनाप्रसूत साहित्य आ जाता है, चाहे वह गद्य में हो या पद्य में। उसने कविता को प्रकृति के तथ्यों की कल्पना कहा है।

अफलातून - कविता को मनुष्य के स्वप्नों की कल्पना समझता है, अरस्तू और अफलातून दोनों ने पद्यबद्धता को कम महत्त्व दिया है। दोनों ने आकार की वस्तु पर अधिक जोर दिया है।

डिस्नीसियस - ने उक्त मत का प्रतिपादन किया और इस मत की स्थापना की कि कविता का मूलत: रीति (शैली) से संबंध है।

आधुनिक समीक्षकों ने पद्यबद्धता को तात्त्विक माना है। हीगल (स्थेटिक) तो यहाँ तक कहते हैं कि छंद कविता के लिए अनिवार्य और मुख्य शर्त है, यह आलंकारिक चित्रोपम पदावली से कहीं विशेष आवश्यक है।

काव्य कला का विशिष्ट विधान यह है कि विषय जितना ही आसक्तिपूर्ण, वेगमय या काल्पनिक होगा उतनी ही सावधानी से कविकर्म के विशुद्ध कौशल मात्र से बचने की आवश्यकता होगी। इस नियम का आविष्कार मनुष्य ने नहीं किया है प्रत्युत इसका आधार प्रकृति के नियम हैं।

काव्यात्मक कल्पना - कवि और ही प्रकार की दृष्टि से जीवन को देखता है, उससे मानव जीवन का रूपांतर हो जाता है तथा वह उच्च हो जाता है। जो ज्योति जल या स्थल पर कभी नहीं दिखाई पड़ी उसे कवि के नेत्र प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। कवि ही ऐसा है जिसने जगत् को भड़कीले स्वर्ण देश की भावना से कभी नहीं देखा।

यथार्थवाद - शेली और कीट्स में यथार्थवाद का स्पर्श मात्र है। उनमें जीवन की मुखाकृति के लिए प्रेमपूर्ण नेत्रों का पता नहीं चलता, चाहे वह जीवन प्रकृति का हो चाहे मनुष्य का, वह भी ऐसी स्थिति में जब कि साधारण-से-साधारण कवियों में यह ललक मिलती है। केवल काव्यसाधन पर ही उनका अनन्य साधारण अधिकार है और इससे काव्य का अनुशीलन ललित कला के रूप में करने की उत्कट साध अवश्य उदित होती है किंतु प्रकृति या मनुष्य का अनुशीलन करने के लिए उसमें बहुत ही कम आकर्षण बच रहता है। यहीं दूसरे प्रकार का अनुशीलन ऐसा है जिसमें दोनों प्रकार के कवियों की समस्त शक्तियों का सामंजस्य घटित हो सकता है।

यथार्थवाद कवि के लिए केवल विहित ही नहीं है प्रत्युत उसमें तब तक इसकी तात्त्विक जिज्ञासा होनी चाहिए जब तक वह उस उच्च दशा में नहीं पहुँच जाता, जहाँ पहुँचकर वह अपने व्यावहारिक जीवन और काव्य के वर्ण्य स्वर्ग में कोई अंतर न पाए।

अन्य कलाओं की दृष्टि से काव्य की स्थिति

यवन देश की इस प्राचीन उक्ति से कि 'काव्य मुखर चित्र है और आलेख (चित्र ) मौन काव्य' से आधुनिक चित्र की अति के दोष का सामाधान कुछ दूर तक हो जाता है। इस कथन की अवज्ञा करके यवनानियों ने काव्य का अनुशीलन संगीत और नृत्य के साहचर्य से किया, वही काव्यकला 'निर्माण' कही जाने के बहुत पहले से 'गायन' कही जाती रही है।

किंतु कवियों की शब्दजन्य लय संगीत से पृथक् वस्तु है, वह संगीत के नियमों से शासित भी नहीं होती, भले ही लय प्रेमी कवि निरपेक्ष संगीत के लिए बहरे ही रहे हों, कुछ ने तो उसके प्रति अरुचि ही दिखलाई है। काव्य में आकार के प्रति उल्लास के अंतर्गत प्रधान है आकांक्षा और उस आकांक्षा की पूर्ति। यह सतुकांत पद्यों से बहुत स्पष्ट हो जाता है। मुक्त छंद में भी कवि की लय में यह तत्व। ही काम करता है।