परिस्थितियाँ / रणविजय
(1)
हरि प्रकाश शर्मा सिंचाई विभाग में जे.ई. हैं। अधीक्षण अभियंता (एस.ई.) साहब के साथ उनकी अच्छी जमती है। इसीलिए कार्यालय में जितने लोग हैं, उनमें से हरिप्रकाश शर्मा से वह विशेष लगाव रखते हैं। हरि बाबू भी मेहनत एवं श्रद्धा से कार्यालय में कार्य करते हैं। इसे उनके पिताजी से मिले पुरातन संस्कार ही कहेंगे कि उन्हें हमेशा याद रहता है कि जितनी तनख्वाह मिलती है उतना काम तो करना चाहिए। अधीक्षण अभियंता के कार्यालय में 20 जे.ई. हैं, पर एक हरि बाबू ही ऐसे हैं जिनकी पोस्टिंग हमेशा झाँसी में रहती है। बाक़ी लोगों का ट्रांसफर होता रहता है।
यह एक लाभप्रद बात भी है। पर ज़माने के हिसाब से नुकसानप्रद यह है कि उनकी पोस्टिंग फील्ड में नहीं होती। फील्ड में रहते तो फौज-फाटा होता, लाव-लश्कर रहता, नौकर होते, गाड़ी मिलती तथा ठेकेदार भी होते। जनता जे.ई. साहबों से बड़ी आस रखती है, इसलिए उनका बड़ा ध्यान भी रखती है। मुख्यालय में हरि बाबू टेक्निकल कार्य करते हैं जिसमें ड्राइंग बनाना, स्पेसीफिकेशन बनाना, पोजीशन बनाना यानी काफ़ी कुछ लिखने-पढ़ने का काग़ज़ी कार्य ही रहता है, जिसमें चिट्ठियाँ लिखना सबसे ज़्यादा मात्रा में होता है। हरि बाबू के पास आमदनी के अन्य स्रोत लगभग नहीं के बराबर थे।
उनके बड़े बाबू ने बहुत समझाया कि यहाँ तुम्हें क्या मिलता है? सब्जी-भाजी जितना भी कभी-कभी ही पाते हो। औरों को देखो, कोठियाँ खड़ी कर दी हैं, लोगों ने शहर में। तुम्हारे पास 15-20 वर्ष की नौकरी बची है। कम-से-कम बच्चों के लिए तो कुछ जोड़ो, बनाओ। हरि बाबू बात समझ तो जाते हैं पर अमल नहीं कर पाते। उनको लगता है कि उनसे इतना दंद-फंद हो नहीं पायेगा और अगर दंद-फंद नहीं हो पायेगा तो घर से दूर फील्ड में जाकर अपना सुकून क्यों छीनें।
एस.ई. साहब ठंडी तासीर के व्यक्ति थे। किसी भी बात पर ज़्यादा नहीं बिगड़ते थे, परंतु प्यार से बहुत काम करा लिया करते थे। उनकी हरि बाबू पर कृपा-दृष्टि रहती थी। इसका विशेष कारण यह था कि हरिप्रकाश शर्मा ईमानदार एवं विश्वसनीय व्यक्ति थे। कार्यालय के काम के खातिर बिना ना-नुकुर किये देर तक रुक भी जाते थे, इसलिए अक्सर घर देर से ही पहुँचते थे। उनके द्वारा किये गये कार्य में समझदारी झलकती थी। जिससे एस.ई. साहब को राहत थी। नहीं तो सरकारी अफसर के लिए एक मक्कार अथवा नासमझ सरकारी कर्मचारी से काम लेना बड़ी मुसीबत है। वे तनख्वाह भी बराबर लेते हैं, काम भी नहीं करते, औरों को बिगाड़ते हैं और अपना पद भी घेरे रहते हैं। अफसर उनका कुछ ज़्यादा बिगाड़ नहीं पाता। परन्तु हरि बाबू अलग नस्ल के जीव थे। कुल मिलाकर सरकारी तनख्वाह में उन्होंने प्राइवेट जैसा काम किया और इसके लिए वे कभी खीझे नहीं।
आज भी साइट सर्वे का काफ़ी कार्य था। सुबह-सुबह 7 बजे ही एस.ई. साहब ने फ़ोन कर बताया कि कार्यालय पहुँच जाना 9 बजे तक, आज जाखलौन जाना है। वैसे तो कार्यालय 10 बजे से आरम्भ होता है परन्तु बॉस का आदेश सर्वोपरि रखते हुए उन्होंने पत्नी को भी आदेश दिया कि जल्दी-जल्दी खाना तैयार कर लो। 9 बजे ऑफिस पहुँचना है।
श्रीमती शर्मा ने मोर्चा ले लिया- “क्यों जाना है 9 बजे? ज़्यादा तनख्वाह मिलेगी क्या, रोज़ वैसे ही घर 7-8 बजे आते हैं आप? बाज़ार तक का सारा काम मैं या मेरे बच्चे कर रहे हैं, फ़िर साहब की ग़ुलामी क्यों? और कोई नहीं मिलता इन लोगों को पूरे दफ़्तर में?”
श्रीमती शर्मा बड़बड़ाती रहीं, पर हरी बाबू ने कुछ जवाब देना उचित न समझा। इन्हें मालूम था कि उन्होंने अगर दूसरा हाथ दे दिया तो ताली बजने लगेगी। श्रीमती शर्मा की नाराजगी इस बात से कम थी कि उन्हें अपना रूटीन छोड़कर इनके लिए ध्यान देना पड़ रहा था। इस बात से ज़्यादा थी कि लोग इन्हें बेवकफू या सीधा समझकर ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं।
अप्रैल के महीने में जाखलौन जाकर सर्वे करना, नहर का रास्ता देखना तथा उसकी ड्राइंग बनाना काफ़ी कष्टकर था। सिर पर सूरज सीधे खड़ा था। दूर-दूर तक खेत-ही-खेत थे, कोई बाग-बगीचा नहीं। गर्मी बहुत ज़्यादा हो गयी थी। वैसे नदी के किनारे तो अच्छा लग रहा था परंतु आगे खेतों में अच्छा नहीं लगा। साहब तो थोड़ा चलकर फ़िर विश्रामगृह चले गये और अब सारी जिम्मेदारी हरि प्रकाश पर थी। कई किलोमीटर पैदल नापने के बाद नक़्शे का ख़ाका बना।
झाँसी वापस पहुँचते-पहुँचते शाम के 7 बज गये। ज्यों ही हरि बाबू घर पहुँचे तो उन्हें मालूम चला कि उनके जीजाजी शाम को गुजर गये। शाम को 6 बजे ही इसकी ख़बर मिली। ये समाचार आकाशीय बिजली की तरह गिरा और फ़ौरन विनाश कर ग़ायब हो गया। दिन-भर की थकान शरीर को अलग औंधाये पड़ी थी। वे कुर्सी पर आहिस्ता बैठे और एकदम स्प्रिंग की तरह दबकर सिकुड़ गये। उनकी पत्नी उन्हें देखती रह गयी। इस ख़बर का असर दुख और थकान की दोहरी मार से हुई। उन्हें ऐसा
महसूस हुआ जैसे उनका शरीर बिना वज़न एक सैलाब में बहता चला जा रहा हो। सोचने, समझने, टोकने, कुछ पकड़कर सँभालने की उनकी ताकत शून्य हो गयी थी। नज़र बंद करते ही वे उस दुनिया में पहुँच गये।
जीजा की उमर अभी साठ तो नहीं रही होगी। अच्छा भला-चंगा उनका जीवन था। उनकी डील-डौल भी हरि प्रकाश से अच्छी थी। दूर संचार विभाग में बाबू थे और अच्छा-खासा कमा लेते थे। दीदी का क्या हाल होगा? दो बेटे हैं, बड़ा वाला इंजीनियरिंग पास करके दिल्ली में नौकरी पर हाल में ही लगा था। छोटा वाला ग्वालियर में होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहा था। मऊरानीपुर में ही उन्होंने एक अच्छा बड़ा मकान बनवा लिया था। दोनों बच्चे इतनी दूर-दूर हैं कैसे काम चलेगा? अब कौन कहाँ रहेगा? दीदी मऊरानीपुर, बड़ा भांजा दिल्ली और छोटा ग्वालियर? ये सोचते-सोचते मन भारी हो गया, आँखों से आँसू आ गये। उन्होंने मुँह-हाथ धोया।
श्रीमती ने पूछा - “चाय ले आऊँ?”
तो हरि बाबू ने इनकार में सिर हिला दिया। उनसे कुछ बोला न गया। श्रीमती ने बड़े दुलार से पूछा- “अब क्या करोगे? रात भी हो रही है, रास्ता भी ठीक नहीं है कि स्कूटर लेकर चले जाओ।”
हरि प्रकाश काफ़ी देर तक इस बारे में सोचते रहे। स्कूटर से जाने में ख़तरा था। निवाड़ी के आगे डकैत सड़कों पर लगते थे। मऊरानीपुर की दूरी 70 किलोमीटर थी। रात पहुँचते-पहुँचते 9 तो बज ही जायेंगे। आख़िर फ़ैसला किया कि बस पकड़ लेता हूँ 9.30 तक पहुँच जाऊँगा। सोचते-सोचते ही उठे, पैरों में सैंडिल डाल लिया, शर्ट के बटन बंद करने लगे। श्रीमती ने देखा तो बोली कि कुछ खाते तो जाओ, अभी तो बहुत दूर जाना है, न हो तो चाय तो पी लो। परंतु हरि बाबू बिना कुछ जवाब दिये केवल नहीं में सिर हिलाकर जाने लगे। श्रीमती से दरवाज़े पर बोले कि तुम लोग अपना ध्यान रखना। मकान के बाहर टँगे सीएफएल मद्धिम रोशनी में जब काया का घेरा दूर होने लगा तब श्रीमती को लगा कि यह बात तो इन्हें उनसे कहनी चाहिए थी।
लगभग पौने 10 बजे, हरि बाबू, दीदी के द्वार पर पहुँचे। बल्ब की पीली रोशनी फैली हुई थी। लगभग 20-30 लोग जमा थे। मऊरानीपुर कस्बे जैसा था। द्वार पर एक नीम का पेड़ था। रात का मौसम थोड़ा बेहतर हो गया था। पेड़ की काली काया पत्तियों में हिलडुल रही थी। कुछ लोग खाटों पर बैठे हुए बातें कर रहे थे, कुछ लोग खड़े थे। द्वार के बीचों-बीच लाश रखी थी, सफेद चादर ओढ़ी हुई। उसको घेरकर कई महिलाएँ बैठी हुई थीं। एक अधेड़ महिला बीच-बीच में सिसक-सिसककर रोने लगती थी। हरि बाबू ने महसूस किया कि दीदी रो-रोकर थक चुकी हैं अब उनसे रोया भी नहीं जा रहा था, केवल चेष्टा हो रही थी। आगे बढ़कर उन्होंने आवाज़ दी तो कुछ महिलाओं ने घूमकर देखा और खुसफुसाहट शुरू हो गयी। दीदी, ‘भइया-भइया’ कहकर फ़िर से चीखने लगीं। महिलाओं ने रास्ता दिया तो हरि बाबू, दीदी के पास पहुँचकर बिलखने लगे। रोते-रोते उन्होंने दीदी से पूछा कि ये सब कैसे हो गया? रोहित कब तक आयेगा? और रोहन दिल्ली से कब और कैसे चला है?
लगभग 15 मिनट बाद एक बुजुर्गवार आये तथा हरि बाबू को कंधे पर थपथपाकर साथ आने का इशारा किया। हरि बाबू को एक शांत कोने की तरफ़ ले गये और उनसे बोले- “भाई, मैं पड़ोस में रहता हूँ, अभी तक बच्चे भी नहीं पहुँचे हैं और मैं समझता हूँ, कल सबेरे तक ही रोहन पहुँच पायेगा। वैसे भी रात की बेला हो चुकी है, साँझ के बाद क्रिया-करम किया नहीं जा सकता। रात-भर लाश को रखाना पड़ेगा। कुत्ते-बिल्लियों का डर रहता है।” फ़िर कुछ सोचते हुए धीरे से बोले- “रात जैसे-जैसे बढ़ेगी, सभी लोग अपने-अपने घर चले जायेंगे, कल सुबह तक केवल मुझे, आपको तथा बहू को यहाँ बैठना है।” बात हरि बाबू को ठीक-ठीक समझ में आ गयी। वे जान रहे थे कि सभी को रोहित तथा रोहन का इंतज़ार है। दाह-संस्कार के पहले जिससे वे अपने पिता का मुँह आखिरी बार देख सकें। दीदी भी निढाल हो गयी हैं। वे इसी सोच-विचार में आकर बैठ गये। ये उन्हें किसी ने बताया नहीं कि अचानक मौत हुई कैसे तथा कहाँ हुई। अब पूछने लायक समय नहीं है।
रात के दो बजे रोहित आया तो फ़िर से चीख-पुकार मच गयी। अब केवल तीन-चार ही लोग बचे हुए थे। थोड़ी देर रोने का सिलसिला चलता रहा। रह-रहकर स्वरों में तीव्रता एवं समवेतता आ जाती थी। फ़िर धीरे-धीरे रोने का स्वर उफनाये दूध की तरह उबलकर शांत हो गया। अब वही चेतना अंतर्मन में चलने लगी थी। ऊपर से लगभग शांत अन्दर से विचलित। रोहित बहुत ग़म्भीर था। कहीं गहरे में उसे ख़याल था कि पिता का साया अब सिर से उठ गया। पिता का साया ईश्वर द्वारा प्रदत्त तमाम कृपाओं में से उस तरह का है जिसे हम उसके न होने के बाद ही जान पाते हैं कि हमसे क्या छिन गया। आरम्भिक जीवन में पुत्र पिता को अपनी इच्छापूर्ति का ज़रिया मान लेते हैं। रोहित के मन में तमाम यादें उनसे जुड़ी हुई चलने लगीं। अभी दो दिन पहले ही उनसे फ़ोन पर बात हुई थी। तबीयत तो ठीक थी। ब्लड प्रेशर भी नियंत्रण में था, फ़िर अचानक हार्ट-अटैक कैसे पड़ गया, आज?
हरि बाबू को बहुत जोरों की भूख और प्यास लग रही थी। पेट में अजीब-सा मरोड़ हो रहा था। ऐसा लगने लगा था जैसे अब आँतें ही पचने लगी हों। सबेरे 8.30 बजे खाने के बाद से केवल चाय वगैरह ही पी है और तो दिन-भर कुछ खाया नहीं। ऐसे मौके पर खाने अथवा पीने के लिए किसी से कुछ कहा भी नहीं जा सकता था। उनको यह महसूस हो रहा था कि यदि पेट में कुछ ठोस पदार्थ नहीं डाला जायेगा तो उनको सिर दर्द हो जायेगा और वे चक्कर ख़ाकर बेहोश भी हो सकते हैं। उन्होंने महसूस किया कि दीदी की परेशानियों में अपनी तबीयत ख़राब कर वे पाप नहीं कर सकते, पर अभी तो सूरज उगने में कम-से-कम चार घंटे और लगेंगे। तब तक क्या होगा? दीदी के घर में तो अभी कल शाम तक चूल्हा न जलेगा, फ़िर क्या होगा? दीदी कहीं बीमार अथवा बेहोश न हो जायें। आख़िर बच्चों को भी तो भूख-प्यास लगेगी। भावनाएँ पेट तो नहीं भर सकतीं और भूख-प्यास तो ज्वालामुखी की तरह बढ़ती ही जायेगी। यह समय अंगारों पर लोटने जैसा है। कोई क़ाबू भी नहीं है इस पर। न अब रहते बन रहा है और न किसी से कहते बन रहा है। रात के इस पहर में और दूर देश में कोई उपाय सूझ नहीं रहा।
अब उनसे रहा नहीं जा रहा था। आख़िर उन्होंने सोच ही लिया। संकोच को झिटककर दूर कर दिया और पड़ोसी बुज़ुर्ग से बोले- “काका, प्यास भी बहुत लग आयी है और कुछ भूख भी और मैं समझता हूँ कि दीदी और रोहित को भी कुछ ज़रूरत होगी। प्राण बचे रहेंगे तभी सब लोगों को सँभाल पाऊँगा नहीं तो अभी जीजाजी ही...”
इतना कह ही रहे थे कि बुजुर्गवार ने तरलता से उनके कंधों पर हाथ रखा। थोड़ा थपथपाया, फ़िर बोले- “गलती मेरी है बेटा, इतना सांसारिक ज्ञान तो मुझे रखना ही चाहिए था। मैं कुछ इंतज़ाम करता हूँ। आख़िर जो गया सो तो चला गया, बाक़ी लोगों की तो ज़िन्दगी अभी बाक़ी है” कहकर उठ गये तथा अपने घर की तरफ़ चले गये।
थोड़ी देर बाद लौटकर आये तो एक लोटा, कुछ गिलास लिये हुए। उनके पीछे एक लड़की नींद से जागी, अलसायी हुई एक बाल्टी पानी रख गयी। फ़िर अंदर से आयी तो एक जग में गर्म चाय दे गयी तथा एक बड़े बर्तन में लइया, चना, अचार तथा बताशे दे गयी। बुजुर्गवार ने लाचार स्वर में बोला- “मौके पर यही व्यवस्था कर सका, बहू तथा आप लोग थोड़ा-थोड़ा पानी पी लो। अपने को और कष्ट देकर मरे हुए आदमी को कष्ट न दो। ऊपर बैठे देख रहे होंगे कि मैं तो चला ही आया, मेरे पीछे सभी लोग रात-भर रोते-सिसकते भूखे-प्यासे अकेले बैठे हैं, उनकी आत्मा को शांति न मिलेगी बेटा। कुछ ग्रहण कर लो।” अजीब लाचारी थी। पेंडुलम अटक गया था। समय इस कार्य के लिए सही न था और सही-गलत के फैसले के लिए अब समय भी न बचा था।
हरि बाबू ने बताशा तथा पानी का गिलास दीदी की तरफ़ बढ़ाया- “दीदी! हौसला रखो़, कल दिन-भर आपको जीजाजी की आत्मा की शांति के लिए क्रिया-कर्म करवाने हैं। ये पी लो।” उन्होंने मना कर दिया और फ़िर सिसकने लगीं। रह-रहकर उनके सब्र का बाँध खुल जाता था। फ़िर उसको सँभालने में वक़्त लग जाया करता। कोई किसी से नज़र नहीं मिला पा रहा था। जैसे कि नज़र मिलते ही फ़िर से यह सोता खुल जायेगा। दीदी को पति और बच्चों की बहुत दुहाइयाँ देने के बाद उन्होंने नाममात्र का कुछ अपने मुँह में अटकाया और एक गिलास पानी पिया। हरि बाबू ने भी कुछ इसी तरह अपने अंदर की ज्वाला को शांत करने की कोशिश की।
अभी रात के पौने चार ही बजे थे। हरि बाबू बहुत थक गये थे। रोहित एवं दीदी भी अकेले बैठे-बैठे सोचते-मसोसते, सिसकते-सिसकते अशक्त हो गये थे। अन्य सभी लोग थोड़ी देर में आने का वादा कर जा चुके थे। सुबह होने में अभी भी दो-ढाई घंटे शेष था। रोहन का अभी पता नहीं था। चलते-चलते, टहलते-टहलते, बैठ-बैठकर फ़िर खड़े होने में इसी तरह जागते रहने की चेष्टा करते करते हरि बाबू चकराने लगे। मगर किसी तरह हिम्मत बाँधकर बने हुए थे।
(2)
लगभग दो वर्ष बाद।
रात के 12 बजे हैं। जगदम्बा श्रीवास्तव के बड़े बेटे का एक दिन पहले एक्सीडेंट हो गया था। वह मोटर साइकिल से जा रहा था और इलाइट चौराहे के पास रात 10 बजे एक तेज बोलेरो, उसके पिछले पहिए से टकरा गयी। वह सड़क पर गिर गया और सिर खुल गया। आस-पास की भीड़ ने उठाया, पर वह बेहोश था। चौराहे पर, ड्यूटी पर तैनात पुलिसवालों ने उसे मेडिकल कॉलेज, झाँसी भेजने का इंतज़ाम किया। लड़के के जेब से निकले पर्स में प्राप्त काग़ज़ों के आधार पर उसके घर तक सूचना भिजवायी। ग़म्भीर अवस्था में अभी वह वहीं भर्ती है। हरि बाबू, श्रीवास्तवजी के बहुत करीबी मित्र हैं, बिलकुल घर के सदस्य जैसे। ख़बर मिलते ही वे भी मेडिकल कॉलेज पहुँच गये। मेडिकल कॉलेज के गंदे गलियारों में टूटी बेंचों पर दो परिवार एक टूटती आस में बैठे थे। उनके हर तरफ़ एक उदासी, घबराहट फैली थी जो वहाँ उपस्थित तीमारदारों के सोये हुए चेहरों पर भी देखी जा सकती थी। दौड़-भाग से थके हुए क़दम और तमाम परेशानियों से जूझते चेहरे, अधनंगे बदन जहाँ-तहाँ गंदी चादरों पर लिपटे-लेटे, ऊँघते हुए पड़े थे। श्रीवास्तवजी के आँसू लगभग सूख गये हैं। दोनों पत्नियों का भी यही हाल है। अस्पताल में वैसे भी शांत ही रहना पड़ता है। यहाँ तो सभी के ग़म इसी तरह के हैं। किसी का क्या कम, क्या ज्यादा। संदीप की स्थिति बहुत ग़म्भीर है। ब्रेन में काफ़ी चोट आयी है। ख़ून काफ़ी बह चुका था और होश अभी तक नहीं आया है। उसकी छोटी बहन तथा हरि बाबू के बच्चे किसी अच्छे समाचार के इंतज़ार में हरि बाबू के घर में बैठे हुए हैं। वातावरण भारी है, बमुश्किल ही कोई संवाद होता है। आख़िर कोई बात भी करे तो क्या?
डॉक्टर ने आकर बुझे शब्दों में ख़बर दी कि संदीप को वे लोग बचा नहीं सके। श्रीवास्तवजी तो कटे हुए केले के पेड़ की तरह गिर पड़े। श्रीमती श्रीवास्तव आई.सी.यू. की तरफ़ रोते हुए दौड़ीं पर उनको वार्ड ब्वाय ने पकड़ लिया। रोने-पीटने का माहौल बनने लगा। हरि बाबू से भी रहा नहीं जा रहा था। हरि बाबू ने रात का समय देखा फ़िर सोचा कि अभी तो पूरी रात पड़ी हुई है। दाह-संस्कार तो सुबह ही हो पायेगा। उनको मऊरानीपुर की वह रात जो दो साल पहले उन्होंने गुज़ारी थी, वह भी याद आ गयी। किस तरह उन लोगों ने बिना कुछ खाये-पिये रात-भर जीजा की लाश रखायी थी। किस तरीके से अगले दिन 10 बजे के पहले तक दाह-संस्कार नहीं हो पाया और लगभग इस प्रक्रिया में सभी, हरि बाबू और दीदी बीमार से हो गये। घर में चार बच्चे पड़े हुए हैं, उनके भी चेहरे सामने आ गये। उन्होंने सोचा कि रात-भर सभी बच्चों को रुलाना, जगाना ठीक नहीं है। संदीप तो जा ही चुका है। रिश्तेदारों को भी अभी ख़बर करेंगे तो वे भी आने लगेंगे। कुछ विचार कर वे श्रीवास्तवजी को ढाँढस बँधाते हुए एक किनारे ले गये। दोनों लोगों को यह पहले से अंदेशा था कि संदीप के बचने की उम्मीद कम ही है, इसलिए उस पहाड़ जैसे दुःख को कल से ही भोग रहे थे, फ़िर भी असम्भव से सम्भव की उम्मीद लगाये बैठे थे। श्रीवास्तवजी अब थोड़ा सँभले प्रतीत हुए। रोना बंद कर चुके थे, अब रह-रहकर सिसकते थे। जवान बेटे के जाने का ग़म जानलेवा होता है।
हरि बाबू ने उनको काफ़ी देर तक समझाया और फ़िर वही करने के लिए कहा जिसका अर्थ था कि बच्चों को और अन्य किसी रिश्तेदार को सबेरे 6 बजे के पहले मौत की ख़बर नहीं देनी है। उन्होंने श्रीवास्तवजी को देर रात समझाया और आश्वस्त किया कि बच्चों को भी घर में खा-पीकर सोने दिया जाये। संदीप की बॉडी को वे लोग घर सुबह ही लेकर जायें। श्रीमती श्रीवास्तव को भी उसी तरीके से दोनों ने समझाया। फ़िर उन्होंने सबको लाकर चाय पिलाया। अस्पताल में ज़्यादा रोने-सा माहौल हो नहीं सकता था इसलिए सब कुछ काफ़ी नियंत्रित रहा। मऊरानीपुर में गुजरी हुई सारी परिस्थितियाँ ताजे चलचित्र की तरह हरि बाबू की आँखों के सामने चलती रहीं। एक जान गयी है पर किसी और जान पर आफत क्यों आ जाये! आख़िर दर्द है, तो भावनाएँ भी हैं...
शरीर है, तो उसकी सीमाएँ भी हैं।
