पर्यटन और फिल्म उद्योग के रिश्ते / जयप्रकाश चौकसे

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पर्यटन और फिल्म उद्योग के रिश्ते
प्रकाशन तिथि :31 जनवरी 2015


राजस्थान के एेतिहासिक स्थानों पर गाइड स्थान का इतिहास बताने के पहले यह कहता है कि यहां अमुक सितारे ने अमुक फिल्म की शूटिंग की थी और पर्यटक भी उस स्थान पर अपने परिजनों के चित्र को मित्रों को दिखाते हुए सितारों की बात करते हैं। दिल्ली की एक इमारत के बारे में गाइड का पहला वाक्य था कि यहां रनवीर कपूर पर 'रॉकस्टार' का गीत शूट किया गया था। कुतुबमीनार का गाइड देवआनंद और नूतन पर फिल्माए 'तेरे घर के सामने' का जिक्र सगर्व करता है जबकि विजयआनंद ने वहां मात्र दो दिन की शूटिंग की थी और शेष गीत मुंबई में मीनार के भीतरी भाग का सेट लगाकर पूरा किया था। फिल्म का भूगोल और इतिहास यथार्थ से अलग होता है और सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। उदयपुर के स्थानों पर भी गाइड 'गाइड' फिल्म की बातें करते हैं। मध्यप्रदेश के मांडू के वर्णन में दिलीपकुमार की 'दिल लिया दर्द दिया' और गुलजार के 'किनारा' की बात की जाती है। मध्यप्रदेश के महेश्वर पर सोनाक्षी सिन्हा के नृत्य-गीत फिल्म तेवर की बात की जाती है और भेड़ाघाट में राजकपूर की 'जिस देश में गंगा' के गीत 'बसंती पवन पागल' की बात बताई जाती है।

पर्यटन उद्योग के उत्थान से फिल्में जुड़ गई हैं। अनेक देशों में फिल्म यूनिट द्वारा उस देश में की गई शूटिंग पर आए खर्च का भारी प्रतिशत निर्माता को लौटाया जाता है ताकि वह वहां बार-बार आए। एक फिल्म यूनिट में औसतन सौ लोग आते हैं, अत: उस स्थान के होटल, खाने-पीने के ठिए और बाजार में बिक्री का बढ़ना बाजार के लिए शुभ होता है। यह आश्चर्य की बात है कि मुंबई के निर्माता को स्विट्जरलैंड काश्मीर से सस्ता पड़ता है जिसके अनेक कारण हैं जिनमें हवाई भाड़ा भी शामिल है। हमारे निर्माता दर्शक रुचि के नाम पर अमेरिका और अन्य देशों में शूटिंग करना पसंद करते हैं जबकि हमारे अपने देश के अद्भुत स्थान अनदेखे ही रह गए हैं। यह कितनी अजीब बात है कि भारत का फिल्मकार भारतीय सामूहिक अवचेतन को समझता है और ना ही पूरा भारत भ्रमण करना चाहता है। यही हाल नेताओं का है कि वे देश के बारे में बहुत कम जानते हैं।

फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया और आइआइएफटीसी के सहयोग से पर्यटन और फिल्म उद्योग के केंद्रीय विचार पर आधारित पर इंडिया इंटरनेशनल फिल्म टूरिज्म कान्क्लेव का आयोजन 17 फरवरी को चेन्नई, 19 फरवरी को हैदराबाद और 21 फरवरी को मुंबई में आयोजित किया है जिसमें 17 देश और भारत के कुछ प्रांतों के स्थान होंगे जहां वहां के पर्यटन के बारे में जानकारी उपलब्ध होगी। इन तीनों शहरों में देशी-विदेशी फिल्मकार और फिल्म कैमरामैन मौजूद होंगे। आजकल भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग भी विदेशों में होने लगी है। टेलीविजन और वीडियो के आने के बाद सिनेमाघर में टिकिट खरीदकर जाने वालों की संख्या घटी है, अत: फिल्मकार अनूठे लोकेशन और अभिनव कथा द्वारा दर्शकों की वापसी का प्रयास कर रहे हैं। आज अधिकतम की रुचियों की फिल्में कम बन रही हैं जिसका मूल कारण तो यह है कि अधिकांश फिल्मकार भारत को ही नहीं जानते, अत: सिनेमा में भारतीयता अब गहरी समस्या हो गई है।

क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में ही अल्प बजट में सामाजिक सौंदर्यता का निर्वाह हो सकता है परन्तु दुर्भाग्यवश क्षेत्रीय फिल्मकार मुंबइया फिल्मों से प्रेरित हैं और मसाला फिल्में ही बनाई जा रही हैं। यहां तक कि बंगाल के सिनेमा ने सत्यजीत राय, घटक और मृणाल सेन जैसे फिल्मकार दिए परन्तु आज वहां मुंबइया फिल्में ही बन रहीं हैं। मैने 1977 में इंदौर में 'शायद' तीन लाख में बनाई थी और इंदौर तथा आसपास के शहरों में फिल्म प्रदर्शन से दो लाख की आय हुई थी। आज क्षेत्रीय सिनेमा अपने प्रांत के लोकेशन को ही नायक बनाकर अभिनव कथा पर फिल्में क्यों नहीं बनाता? दरअसल लोकेशन को ही नायक भी बनाया जा सकता है मसलन शानी की सांप सीढ़ी का नायक बस्तर ही है। बक्षी की भूलन कांदा का लोकेशन भी नायक बनाया जा सकता है जबकि उपन्यास दोस्तोवस्की की क्राइम और पनिशमेंट की श्रेणी की रचना है। आज मांडू या खुजराहो में युवा पर्यटक न स्थानों के इतिहास के गलियारे में जाकर स्वयं को खोज सकते हैं जैसे मेहरा की 'रंग दे बसंती' में भगतसिंह, सुखदेव इत्यादि के पात्रों को अभिनीत करने वालों का सोच विचार भी उन क्रांतिकारियों की तरह हो जाता है। मनोरंजन जगत की असीम संभावनाओं की पगडंडियों पर अभी हम कोस दो कोस ही चले हैं। बहुत कुछ चलना है, खोना और पाना है।