पश्चिमी दुनिया में नारीवाद / शिवप्रिय

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साँचा:GKCatShodh पश्चिम में नारीवादी चेतना का विकास उस समय हुआ जब फ्रांसीसी क्रांति के समय मनुष्य ने ईश्वर और धर्म पर सवाल उठाया और मनुष्य को ही अपना नियंता घोषित किया। फ्रांसीसी क्रांति के समय का प्रमुख नारा स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व था, क्रांति में स्त्रियों ने भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित की थी, लेकिन उन्होंने पाया कि समता, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व केवल पुरुषों के लिए आरक्षित था। पुरुषों के अधिकारों के लिए 'विंडिकेशन आफ राइट्स आफ मैन' जैसी किताब भी लिखी गई।

नारीवाद की शुरुआत स्त्रियों द्वारा अपने लिए पुरुषों के समान ही जगह की माँग से हुई मानी जा सकती है। 'विंडिकेशन आफ राइट्स आफ मैन' के जवाब में मेरी वुल्सटनक्राफ्ट ने 'विंडिकेशन आफ राइट्स आफ वीमेन' लिखा। यहीं से पश्चिमी नारीवाद की शुरुआत होती है। पश्चिमी नारीवाद का नेतृत्व अपने शुरुआती चरण से महिलाओं द्वारा संचालित था इसे कभी भी पुरुष नेतृत्व की आवश्यकता नहीं हुई।

फ्रांस में नारीवादी आंदोलन

प्राचीन फ्रांस में भी नारी की जगह अन्य देशों की तरह घर की चहारदीवारी के भीतर मानी जाती थी। फ्रांसीसी क्रांति के समय महिलाओं ने अपनी इस पारंपरिक भूमिका को एक ओर रख कर उस समय की हिंसक राजनीति में सक्रिय भाग लिया। महिला आंदोलनों के इतिहास में महिला आर्थिक अधिकारों की माँग करते हुए सबसे पहले 5 अक्टूबर 1789 को पेरिस के बाजार में फ्रांस की गरीब महिलाएँ एकत्र हुईं। वहाँ से उन्होंने होटल डी विला (Hotel de ville पेरिस (फ्रांस) का सिटी हाल है। 1357 से यह पेरिस नगर प्रशासन भवन है। सन 1977 से यहाँ पर पेरिस के मेयर का दफ्तर भी है। देखिए http//en.wikipedia.org/wiki/h%C3%B4tel_de-ville_paris.) को कूच किया। उनकी माँग थी कि सरकारी मुलाजिम उनकी आर्थिक समस्याओं को सुनें तथा राजा अपना प्रशासन पेरिस से चलाए। ये गरीब औरतें थीं और आर्थिक तंगी खास कर रोटी की कमी से परेशान थीं। शहर के सरकारी मुलाजिमों से सकारात्मक उत्तर नहीं मिलने पर 7000 महिलाओं ने वर्साइस का रुख किया। उनके हाथों में छोटे-छोटे हथियार थे। शाही महल में घुस कर उन्होंने कई सैनिकों को मार डाला। इस हिंसक घटना के बाद राज-दरबार पेरिस आ गया। इसके बाद पौलाइन लोऔन (Pauline leon) जैसी महिलाओं ने अपने संगठन सोसाइटी फार रिवोल्यूशनरी रिपब्लिकन वीमन (Society for Revolutionary republican Women) के सदस्यों के साथ हथियार उठाए और दंगों में भाग लिया। 6 मार्च 1792 को पौलाइन लिऔन ने 319 महिलाओं के हस्ताक्षर वाला एक माँग पत्र नेशनल एसेंबली को सौंपा जिसमें एक महिला ब्रिगेड बनाने की अनुमति माँगी थी ताकि पेरिस की रक्षा की जा सके। बाद में थेरिओजीन डी मेरीकोर्ट (Theroigne Mericourt) ने भी क्रांति की रक्षा के लिए महिलाओं से हथियार उठाने की माँग की। उसकी दलील थी कि हथियार उठाने का अधिकार पाकर महिलाएँ नागरिक में बदल जाएँगी। इन दोनों की माँगें नहीं मानी गईं। सन 1792 में हथियारों से लैश महिलाओं ने जुलूस निकाला।

10 मई 1793 पौलाइल व क्लेयर लाकौंबे (Claire Lacombe (4 August 1765- ?) महिला क्रांतिकारी, सोसाइटी फार रिवोल्यूशनरी रिपब्लिकन वीमन(Society for Revolutionary republican Women) की संस्थापक सदस्य। देखिए विकीपिडिया।) ने सोसाइटी फार रिवोल्यूशनरी रिपब्लिकन वीमन (Society for Revolutionary republican Women) की स्थापना की। इसकी बैठकों मे लगभग 200 तक महिलाएँ भाग लेती थीं, अनाज की कालाबाजारी रोकना और महँगाई पर नियंत्रण, उपरोक्त वर्णित समान नागरिक अधिकार इनकी मुख्य प्राथमिकताओं में थे। इन महिलाओं के साथ काफी सजा भुगतनी पड़ी। इन सारे बलिदानों के बावजूद लिंग समानता इनके नसीब नहीं हो सकी। क्रांति के असफल हो जाने से महिलाओं पर नियंत्रण और भी कड़े हो गए। इस घटना के बाद यह आंदोलन उच्चवर्गीय हो गया।

नवंबर 1789 में नेशनल एसेंबली को संबोधित करते हुए एक महिला याचिका दी गई, लेकिन इस पर कोई चर्चा नहीं हुई। नतीजतन सन 1790 में क्लौड डेन्सार्ट ने फ्रेटनल सोसाइटी आफ द सैक्सेज (Fraternal Society of the Sexes) की स्थापना की गई। इसमें उस समय जानी मानी हस्तियाँ (जैसे Etta Palm d'Aelders, Jacques Hebert, Louise Felicite de Keralio, Pauline Lion, Madam Roland Talien व Merlin de Thionville) शामिल थीं। सन 1791 में महारानी के नाम Olympe de Gouge (Olympe de Gouges (7 मई 1748 से 3 नबंवर 1793), फ्रांसीसी नाटककार, नारीवादी लेखक, राजनीतिक कार्यकर्ता थी। सन 1788 में उपनिवेशों में गुलामों की स्थिति में सुधार के लिए पैरवी की। नारीवादी भूमिका में उसने 1791 में स्त्रियों के लिए पुरुषों के समान अधिकारों की वकालत करते हुए Declaration of the Rights of Women and Female Citizen लिखी। उसने पुरुष वर्चस्व को चुनौती दी तथा स्त्री पुरुष असमानता की भर्त्सना की। देखिए http:/en.wikipedia. org/wiki/Olympe_de_Gouges. ) ने Declaration of the Rights of Women and Female Citizen पत्र छापा। इसमें महिला अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए महारानी के हस्तक्षेप की अपील की गई थी। सन 1799 में नैपोलियन के सत्ता सँभालने के साथ-साथ महिलाओं की पारंपरिक भूमिका बनाए रखना ही राज्य की प्राथमिकता बन गई। 1848 का साल काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी वर्ष फ्रांस की अंतरिम सरकार ने दासता उन्मूलन एवं तथाकथित राष्ट्रीय संविधान सभा के चुनाव के लिए सभी पुरुषों के लिए एक निश्चित आयु के बाद मताधिकार की घोषणा (5 मार्च 1848) की। इस घोषणा ने फ्रांस की नारीवादियों को हैरान किया। इससे उनके महिलाओं के लिए समान अधिकारों के संघर्ष को धक्का लगा। इस घोषणा के तुरंत बाद 16 मार्च 1848 को कुछ फ्रांसीसी महिलाओं ने अंतरिम सरकार के सदस्यों के नाम एक माँग पत्र दिया। इस माँग पत्र में दोनों लिंगों को एक दूसरे का पूरक बताते हुए यह दलील पेश की गई कि महिलाएँ समाज का आधा हिस्सा है और क्रांति सबके लिए है, दो प्रकार की स्वतंत्रताएँ, दो प्रकार समानताएँ व दो प्रकार के बंधुत्व नहीं हो सकती हैं। अंततः महिला संगठनों व मजदूर संगठनों के सरकार पर दबाव ने सत्ताधारी पूँजीपति वर्ग की नींद उड़ा रखी थी, सरकार ने पहले तो सेना का दमन चक्र चलाया फिर जुलाई 22, 1848 को नेशनल एसेंबली ने राजनीतिक क्लबों को नियंत्रित करने तथा महिलाओं के राजनीति में भागीदारी को पूरी तरह प्रतिबंधित करने वाले आदेश पर अपनी मुहर लगा दी। इसके बाद नारीवादियों की महिला अधिकारों को लेकर सक्रियता लगभग समाप्त हो गई। मेंडले गुडरीथ का तर्क है कि 'प्रबोधन काल के कुछ लेखकों का स्त्री के प्रति विरोध और ज्यादातर क्रांतिकारी प्रवक्ताओं द्वारा इस विरोध का निष्ठापूर्ण अनुशरण' के कारण महिलाएँ पूर्ण नागरिकता से वंचित हो गईं'।(उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में रिपब्लिक (1870-1939) के गठन के साथ फ्रांस में रिपब्लिक सिद्धांत पूरी तरह से स्थापित हो चुके थे। सरकार के ढाँचे पर विवाद, 'फर्स्ट प्रिंसिपल' पर तीव्र बहसों (जो उन शु्रुआती वर्षों में हुए थे) ने महिलाओं को पूरी तरह दरकिनार रखा। अपने सभी पुरुष नागरिकों को 1848 में सार्वभौमिक मताधिकार देने वाला फ्रांस महिला नागरिकों को वोट देने वाले अंतिम देशों में से एक था।) लेकिन जैनी दिरो (Jenne Derion) ने महिला अधिकारों के लिए अपना अभियान जारी रखा, तथा अपना प्रकाशन वीमेंस ओपीनियन (Womens's Opinion) चलाती रहीं। इसके बाद लगभग पेरिस कम्यून के अभ्युदय तक नारीवादी आंदोलन पर विराम लग गया।

11 अप्रैल 1871 को (पेरिस कम्यून के समय) नाथाली लीमेल (Nathalie Lemel) और एलिजाबेथ डिमित्रिफ्त (Elisabeth Dmitrift) ने वीमन्स यूनियन फार द डिफेंस आफ पेरिस एंड केयर आफ द इंजर्ड (Women's Union for the defense of Paris and Care of the Injured) की स्थापना की। इस संस्था की मुख्य माँगें लिंग समानता, समान काम के लिए समान वेतन, महिलाओं के लिए तलाक का अधिकार तथा छात्राओं के लिए धर्मनिरपेक्ष व पेशेवर शिक्षा, विवाहित स्त्री तथा रखैलों, वैध व अवैध संतानों के बीच बरते जाने वाले भेदभाव को समाप्त करने की थी। पेरिस कम्यून के गिर जाने के बाद एक बार फिर से यथास्थिति आ गई।

सन 1909 में फिर Jeanne-Elizabeth Schmahl ने फ्रेंच यूनियन फार वीमेन्स सफ्रेज (French Union for women's Suffrage) की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य फ्रांस में महिलाओं के लिए मताधिकार की माँग करना था। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जब पुरुष सेना में भर्ती हो गए तो बड़ी संख्या में महिलाएँ काम करने आफिसों व फैक्ट्ररियों में आई। महिलाओं की इस आर्थिक सक्रियता के बावजूद केवल उनके मताधिकार का मुद्दा ही उठता रहा। जबकि इस दौरान अन्य यूरोपिय देशों में कई सारे महिला सशक्तिकरण संबंधी कानून बने।

अंततः 1936 में फ्रांस के नए राष्ट्रपति Leon Blum ने अपनी पापुलर फ्रंट की सरकार में महिलाओं को शामिल किया। अब दक्षिणपंथियों को भी स्त्री मताधिकार से कोई आपत्ति नहीं थी। उनको समझ आ चुका था कि महिलाओं के वोट से उनका राजनीतिक भविष्य सुधर सकता था। सन 1944 में फ्रांसीसी महिलाओं को पूर्ण नागरिकता का अधिकार जिसमें मताधिकार शामिल था मिल गया। सारतः कहा जा सकता है कि नारीवादी आंदोलन के इस प्रथम चरण में मुख्य रूप से कानूनी समानता पाने के लिए संघर्ष किया गया।

इंग्लैड में नारीवादी आंदोलन

इंग्लैड में भी महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती थी, विवाहित अंग्रेज स्त्री का अपने बच्चे पर कोई कानूनी अधिकार नहीं होता था। अगर पिता चाहे तो अपने बच्चे को माँ से छीन कर किसी अन्य के संरक्षण में रख सकता था, पति अपनी पत्नी और बच्चों को संपत्ति से बेदखल कर स्कता था। तलाक कानून भी असमान था। समाज नारी की इस अमानवीय स्थिति के प्रति उदासीन था। इंग्लिश कामन ला (English common Law - सन 1189 से इंग्लैड में कानून को Civil Law की जगह Common Law कहा जाता है। कामन ला के विकास में न्यायाधीशों के फैसलों की अहम भूमिका रही है। ये फैसले precedent and common sense के आधार पर दिए जाते थे। देखिए - http:/en.wikipedia. org/wiki/English Common Low.) के अनुसार पत्नी की सारी संपत्ति पर पति का अधिकार होता था। हालाँकि न्यायालय पति को पत्नी की सहमति के बगैर इस संपत्ति को बेचने की अनुमति नहीं देते थे। लेकिन इस संपत्ति के प्रबंधन और इससे होने वाली पूरी आय पर पूरा अधिकार पति का होता था। 17वीं सदी में रिफार्मेशन के प्रभाव में अंग्रेज महिलाओं ने महिलाओं की दशा, उनके प्रति समाज के नजरिए पर सवाल उठाने आरंभ कर दिए। महिलाओं के समर्थन में महत्वपूर्ण आवाज जेन एंगर (Jane Anger की पुस्तक Protection for Women, to defend them against the scandalous reports, लंदन से 1589 में छपी। अब केवल इसकी मूल प्रति ही उपलब्ध है, इस किताब में बाइबिल की नारीवादी व्याख्या की गई है, देखिए - http:/en.wikipedia.org/wiki/Jane_Anger.), एमिलिया लांयर (Aemilia Lanyer पहली अंग्रेज महिला थी जिसने कविता संग्रह छाप कर अपने आपको बतौर कवि स्थापित किया। 42 साल की उम्र में 1611 में उसने Salve Deus Rex Judaeorum (Hali, God, King of the Jews) छापी। अपने समय में यह किताब काफी मौलिक मानी गई। इसमें नारी के साथ दुर्व्यवहार के मसले उठाए गए, ईव का बचाव किया।), तथा अन्ना ट्रेपमैन (Anna Trapnell ने लिंग समानता का प्रचार किया। अप्रैल 1654 में उसे गिरफ्तार कर लिया गया, इसी वर्ष जुलाई में छोड़ दिया गया। देखिए - http:/en.wikipedia.org/wiki/Anna_Trapnell.) ने की थी।

सन 1642 में इंग्लैंड में कुछ भद्र महिलाओं व व्यापारियों की पत्नियों ने हाउस आफ कामंस आकर एक प्रतिवेदन दिया। जिसमें याद दिलाया गया था कि ईश्वर ने पुरुषों और स्त्रियों को समान दर्जा दिया है। अतः समाज में भी स्त्री को पुरुष के बराबर का दर्जा हासिल होना चाहिए। यह विरोध प्रदर्शन इंग्लैंड के कानूनों व राजनीति में महिला को दोयम दर्जा देने के रिवाज के विरुद्ध था। अगले वर्ष फिर महिलाओं के एक विशाल समूह ने हाउस आफ कामंस में विरोधस्वरूप इतने पत्थर फेंके कि सुरक्षा में तैनात घुड़सवारों को पत्थर फेंकती महिलाओं पर तलवार भाजनी पड़ी।

18वीं सदी में महिलाओं के लिए समान राजनीतिक, नागरिक व वैवाहिक कनूनों की माँग के औचित्य पर लेख लिखे जाने लगे, बहस-मुबाहिसा होने लगी। 1792 में मेरी वुलस्टोन क्राफ्ट (Mary Wollstonecraft) ने विंडीकेशन आफ दी राइट्स आफ वीमेन (Vindication of the Rights of Women), में लिखा कि लोगों की हँसी का पात्र बनने की कीमत पर भी मैं कहना चाहती हूँ कि निरंकुश तरीके से शासित होने के बजाय सरकार में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। एमिली डेविस Emily Davies ने 1866 में महिलाओं संबंधित कुछ विचार (Thoughts on some Question Relating to Women) लिखी। वह नारीवादी प्रकाशन अंग्रेज महिलाओं की पत्रिका (Englishwomen's Journal), की संपादक थी। उनकी दोस्त बरबरा बोदीकोह्न (Barbara Leigh Smith Bodichon नारीवादी शिक्षाविद, कलाकार थी। 1850 के दशक में वह अपनी कुछ सहेलियों के साथ महिला अधिकारों पर चर्चा करने के लिए Langham Place नियमित रूप से मिला करती थे, इसलिए इनका नाम लैंघम पैलेस की महिलाएँ पड़ गया। देखिए - http:/en.wikipedia. org/wiki/Barbara_Bodichon.) ने भी 1854 में (Brief Summary of the Laws of England concerning Women), छापी। इस पुस्तक ने विवाहित महिलाओं की संपत्ति का कानून 1882 के लिए वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन 1857 में विवाहित महिला और रोजगार (Married Women and Works), महिला मताधिकार (Enfranchisement of women) 1866 में, और अमेरिकन डायरी 1877 में छापी। 19वीं सदी में इंग्लैंड व अमेरिका की नारीवादियों ने मताधिकार के साथ-साथ महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से वंचित करने वाले कानूनों को चुनौती देना आरंभ कर दिया।

19वीं सदी में पश्चिमी दुनिया में स्त्री को शारीरिक एवं मानसिक रूप से पुरुषों से कमजोर माना जाता था। इसलिए उसे अपने पिता या पति के अधीन रहना पड़ता था। इस विचार जिसकी लाठी उसकी भैंस (survival of the fittest) और जैविक नियतत्ववाद (biological determinism) के सिद्धांतों ने और मजबूत किया। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में हुए अनुसंधानों ने यह सिद्ध कर दिया कि ये सिद्धांत प्राणी मात्र के उद्भव और विकास की जैव वैज्ञानिकी की गलत अवधारणा पर आधारित थे। इन गलत अवधारणाओं की वजह से इस सदी (19वीं) में नारी को माँ, पत्नी, गृहणी की भूमिका में सराहा जाता था। महिलाओं के समाज में इस दोयम दर्जे के खिलाफ आवाज उठाने वालों में प्रमुख बैंन्थम और जे.एस. मिल है। सन 1818 में जैरेमी बैंन्थम (Jeremy Bentham (1748-1832) अंग्रेज कानूनवेत्ता, दार्शनिक, कानूनी व सामाजिक सुधारक तथा उपयोगितावादी विचारधारा को मानते थे। देखिए - http:/en.wikipedia.org/wiki/Jermey_Bnthaem) ने अपनी पुस्तक संसदीय सुधार योजना ('A Plan for Parliamentary Reform') में महिला मताधिकार की वकालत की।

1850 के दशक में महिला अधिकारों की माँग के मसले उठने लगे थे। मसलन समाज की ऊँचे तबके की कुछ महिलाएँ लिंग आधारित भूमिकाओं में बँधने से इनकार करने लगी। साथ में कानूनी अधिकारों के लिए संघर्ष भी कर रही थी। सन 1857 में पत्नियों को अपने भूतपूर्व पति के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही का अधिकार भी मिल गया।

1861 में जान स्टुवर्ड मिल ने अपने प्रसिद्ध निबंध सब्जकसन आफ वीमन (Subjection of Women) लिखी। इसमें मिल ने लिखा कि 'एक लिंग का दूसरे लिंग की कानूनी अधीनता अपने आप में हमेशा गलत थी। अब यह समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा थी। क्योंकि आधी आबादी को घर से बाहर समाज के लिए कोई योगदान देने की स्वतंत्रता नहीं थी। इसलिए अब पूर्ण समानता पर आधारित व्यवस्था को इस असमान व्यवस्था का स्थान लेना चाहिए।'11 मिल 1865 में सांसद बने और मताधिकार कानून में संशोधन के लिए प्रचार किया। इसी साल लेडीज डिस्कसन सोसाइटी (Ladies Discussion Society) की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य महिलाओं के सार्वजनिक मामलों में भागीदारी के विषय पर विचार विमर्श करना था। सन 1865 में ही पहली महिला मताधिकार समिति (Women Suffrage Committee) बनाई गई। एक सप्ताह के भीतर ही इस समिति ने महिला मताधिकार के समर्थन में 1500 हस्ताक्षर इकट्ठा कर लिए। सन 1878 तक यह आंदोलन इतना मजबूत हो गया था कि अब यह अपनी नियति को प्राप्त कर सकता था। 1867 में जे.एस. मिल ने महिला मताधिकार के मुद्दे को जोर-शोर से संसद में उठाया, अपने मत के समर्थन में मिल ने जोड़ा कि जब भी महिलाओं को अवसर मिला है नारी ने अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है। उन्होंने महारानी एलिजाबेथ-1, विक्टोरिया, जान आफ आर्क के उदाहरण दिए। वे महिला मताधिकार के राष्ट्रीय सोसायटी (National Society for Women Suffrage) के अध्यक्ष थे। यह स्त्री मताधिकार पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाने वाली ब्रिटेन की पहली संस्था थी। इसका गठन 6 नवंबर 1867 में ल्याडिया बेकर (Lydia Becker) ने किया था।

सन 1897 में ऐसे 17 समूहों ने मिल कर मिलिसेंट फौसैट (Millicent Fawcett) के नेतृत्व में नेशनल यूनियन आफ वीमेन्स सफ्रेज सोसाइटीज (National Union of Women's Suffrage Societies) का गठन किया। अपने प्रारंभ से ही इन नारीवादियों ने महिला मताधिकार विरोधी सांसदों पर दबाव बनाना आरंभ कर दिया। 7 फरवरी 1907, में NUWSS ने पहला बड़ा प्रदर्शन किया। इसको मड मार्च (Mud March)के नाम से जाना जाता है। इसमें चालीस से अधिक संगठनों का प्रतिनिधित्व था। समाज के हर वर्ग की महिलाओं ने इसमें भाग लिया था। इस जुलूस का समाज ने स्वागत किया और मीडिया ने इसे काफी महत्व प्रदान किया।

सन 1903 में NUWSS का विभाजन हो गया। इसके एक धड़े ने वीमन सोसियल एंड पालिटिकल यूनियन (Women Social and Political Union) की स्थापना की। इसका नेतृत्व ऐमिलाइन पांखस्ट (Emmeline Pankhurst : देखिए - http:/en.wikipedia.org/ wiki/The_Subjection_of_Women.Emmeline Pankhurstने अपनी दो बेटियों Christabel और Sylvia के साथ मिलकर Women's and Political Union की स्थापना की। 1889 में उनके द्वारा अपनाई गई उग्र रणनीति दुनिया के अन्य देशों की महिलाओं ने भी अपनाई।) ने किया। अपने उग्र हिंसक कार्यक्रम के तहत 1904 में ऐमिलाइन पांखस्ट ने लिबरल पार्टी की बैठक में व्यवधान डाला, इसके अलावा 1905, 1908, 1913 को भी WSPU ने अपना हिंसक आंदोलन किया। फरवरी 1910 को क्रौस पार्टी कन्सिलिएशन समिति के करीब 54 सांसदों के समझौता विधेयक के 2nd reading को 109 के बहुमत से पास कर दिया। इस विधेयक में महिलाओं के मताधिकार देने का प्रस्ताव था। लेकिन सरकार ने इस विधेयक पर चर्चा हेतु समय आबंटन से इनकार कर दिया। इसके विरोध में WSPU ने 300 महिलाओं का एक प्रतिनिधिमंडल भेजा। पुलिस ने इन पर हमला किया और मारपीट की जिससे कि दो महिलाओं की मौत हो गई और लगभग 200 महिलाओं को गिरफ्तार किया गया। इस घटना से सरकार की किरकिरी हुई।

सरकार ने अपनी दमनकारी रणनीति के तहत सितंबर 1909 को अनशनकारियों को जेल में जबरदस्ती खिलाना (Force Feeding) आरंभ किया। कई महिलाएँ इस जोर जबरदस्ती में स्थायी तौर पर शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग हो गई। लेकिन इसके बाद भी जेल में अनशन करने का सिलसिला नहीं टूटा। उग्र नारीवादी आंदोलन को दबाने के लिए ब्रिटेन की सरकार ने अप्रैल 1913 में बिल्ली और चूहा कानून (Cat and Mouse Act) पास किया। इस कानून के तहत भूख हड़ताल करने पर बीमार पड़ रही आंदोलनकारी महिला को रिहा कर दिया जाता था। जैसे ही महिला की तबियत सुधरती उसको फिर गिरफ्तार कर लिया जाता था।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इन महिला संगठनों ने अपने विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगा दिया। 1918, में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर संसद ने क्वालिफिकेशन आफ वीमन एक्ट (Qualification Women Act) पास किया। इसके अनुसार तीस साल की गृहस्थ महिला जिसके पास विश्वविद्यालय की डिग्री हो, को वोट देने का अधिकार दिया गया। अंत में 1928 में जनप्रतिनिधि कानून (Representation of the people Act 1928) पास हुआ।

नारीवादियों का मताधिकार के लिए संघर्ष केवल राजनीतिक समानता तक सीमित नहीं था। इस संघर्ष के माध्यम से वे नारी को एक इनसान (व्यक्ति) के रूप में व्यवस्था में मान्यता दिलाना चाहते थे। व्यवस्था उनके इस इनसानी अधिकार को नकार कर उनको केवल यौन वस्तु (sexual object) की भूमिका में ही बनाए रखना चाह रही थी। इसीलिए शासको प्रशासकों के साथ-साथ समाज भी उनकी खिल्ली उड़ा रहा था। मीडिया उनकी आवाज सुनने, उसको ध्यान देने लायक नहीं समझ रहा था। अपनी आवाज को इस जैंडर-डैफ समाज को सुनाने के लिए, अपने कानूनी अधिकार को हासिल करने के लिए ही उन्हें कानून अपने हाथ में लेना पड़ा।

संयुक्त राज्य अमेरिका में नारीवादी आंदोलन

फ्रांस और इंग्लैंड की तरह ही 19वीं सदी का अमेरिकी समाज नारी को सार्वजनिक क्षेत्र में पुरुषों के समक्ष सक्रिय देखने को तैयार नहीं था। यह साराह ग्रीम्क और एंजीलीना ग्रिंक वेल्ड (sarah grimke : 1792-1873 और angeline grimke weld : 1805-1879) के पिता एक धनी प्लांटर, सैकड़ों गुलामों के मालिक और साउथ कैरोलीना राज्य के सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश थे। साराह ने बचपन में ही अपने घर में गुलामों को कोड़ों से पिटते देखा था। वह ऐसी जगह चली जाना चाहती थी जहाँ कोई गुलाम न हो। बाद में कानून के विपरीत अपने निजी गुलामों को पढ़ना सिखाया। http://en.wikipidea.org/wiki/grimk@c 3% a 9 sisters. ) के अनुभवों से स्पष्ट हो जाता है। इन दोनों बहनों ने सर्वप्रथम अमेरिका में महिला अधिकारों की अलख जगाई। इन बहनों ने महिला अधिकारों के प्रश्न उठाने से पहले उत्तरी अमेरिका में घूम-घूम कर गुलाम प्रथा के विरुद्ध जनजागरण का काम शुरू किया। समाज सुधार आंदोलन में सक्रिय यह पहली महिला थीं इसलिए इन्हें अक्सर कट्टरपंथियों की गालियाँ और उपहास झेलना पड़ता था। जब एंजीलीना की अपील टू द क्रिश्चन वूमेन इन द साउथ (Appeal to the Chrishtian Women of the South) पत्र द लिबरेटर अखबार में छपी। इसके लिए एंजीलीना और साराह को काफी कुछ सुनना पड़ा। कुछ इसी प्रकार के अनुभव लूक्रिशिया कोफीन मोट (Lucretia Coffin Mott : 1793-1880, को अमेरिका की पहली नारीवादी भी कहा जाता है। अमेरिका क्वेकर, उन्मूलनवादी, समाजसुधारक तथा महिला अधिकारों की समर्थक थी। मोट गुलाम प्रथा की भी विरोधी थी। देखिए - http://en.wikipidea.org/wiki/lucretia_Mott) के भी थे। उस समय अमेरिका में लड़के-लड़कियों में काफी भेद किया जाता था। एक ही काम के लिए पुरुषों को स्त्रियों से चार गुना अधिक वेतन मिलता था। उपरोक्त सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी महिला अधिकारवादी नारी के लिए केवल मताधिकार ही नहीं माँग रही थी वरन, वे सभी अधिकार माँग रही थीं जो पुरुष को हासिल थे। उदाहरणस्वरूप मार्ग्रेट फुल्लर (मार्ग्रेट फुल्लर (1810-1850) अमेरिकी पत्रकार, आलोचक तथा स्त्री अधिकारवादी थी। उनकी पुस्तक Woman In The Nineteenth Century को अमेरिका में नारीवाद पर पहली गंभीर कृति माना जाता है। इस पुस्तक को मेरी वालस्टोनक्राफ्ट की पुस्तक के समकक्ष रखा जाता है। वह पहली महिला थी जिनको हार्वर्ड कॉलेज के पुस्तकालय में संग्रहित पुस्तकों को पढ़ने की अनुमति मिली। फुल्लर महिलाओं की शिक्षा और रोजगार की भी समर्थक थीं। इसके अलावा उन्होंने जेल-सुधार तथा गुलामों के मुक्ति का भी समर्थन किया। देखिए - http://en.wikipidea.org/wiki/margaret_fullar.) अपनी किताब वीमेन इन द नाइंटींथ सेंच्युरी (Woman In The Nineteenth Century) में लिखती हैं अमेरिका में समानता के लक्ष्य की प्राप्ति में उसकी यूरोपीय ऐतिहासिक जड़ें आड़े आती हैं। अमेरिका ने यूरोप से भ्रष्टता उत्तराधिकार में पाई है इसीलिए अमेरिकियों का व्यवहार अमेरिकी मूल के लोगों तथा अफ्रीकी लोगों के साथ गैर बराबरी का रहा है। परिवार में नारी को बच्चों के समान पुरुष से कमतर माना जाता है। उन्होंने जोर दिया कि स्त्री को पुरुष के समान मानने की आवश्यकता थी, उसको आत्मनिर्भर होने की आवश्यकता थी, उसको पुरुषों की तरह बौद्धिक व धार्मिक स्वतंत्रता की जरूरत थी। उन्होंने माना कि विवाह से पहले पति पत्नी दोनों को आत्मनिर्भर बनना चाहिए। नारी तभी आत्मनिर्भर बन सकती है जब पुरुष वर्चस्व उस पर हावी न हो। साथ ही, नारी को भी अपनी आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करनी चाहिए और पुरुष के प्रभाव से मुक्त होने की कोशिश करनी चाहिए। फुल्लर को उम्मीद थी कि नारी ही नारी को इनसानी जीवन जीना सीखा सकती थी।

एलिजाबेथ कैडी स्टेंटन (1815-1902) अमेरिकी समाज सुधारक थीं। उन्होंने पहला संगठित अमेरिकी महिला अधिकार आंदोलन शुरू किया। यह 1848 में न्यूयार्क के सैनिका फाल्स के पहले किया गया महिला अधिकार सम्मेलन था। इस सम्मेलन में डिक्लेरेशन ऑफ सेंटीमेंट (Declaration of Sentiments : देखिए - http://en.wikipidea.org/wiki/elizabethca dyst anton.) पेश किया गया। एलिजाबेथ कैडी स्टेंटन ने अपने भाषण डिक्लेरेशन ऑफ सेंटीमेंट (Declaration of Sentiments) शीर्षक से पर्चा पढ़ा। इस पर्चे में माँग की गई कि एक नागरिक की हैसियत से महिलाओं की जो भी अधिकार होते हैं उन्हें शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध कराए जाएँ।

दूसरा सम्मेलन 1850 में हुआ। इस सम्मेलन में लूसी स्टोन ने कहा कि महिला की प्रकृति व नारीत्व का पूर्ण विकास हो। हम चाहते हैं कि जब कोई स्त्री कोई मरे तो उसके कब्र के पत्थर पर यह न लिखा हो कि वह किसी की (relict) अवशेष थी। समाचार-पत्रों में इन सम्मेलनों व इनमें दी गई भाषणों की खिल्ली उड़ाई गई। केवल न्यूयार्क ट्रिब्यून ने लूसी स्टोन के भाषण की प्रशंसा की। इंग्लैंड के हैरियट टेलर ने इस लेख को पढ़कर अपना प्रसिद्ध लेख द इन्फ़्रेंनचाइनमेंट ऑफ वीमेन The Enfranchisement of Woman छापा।

तीसरा सम्मेलन सितंबर 1852 में हुआ। इसमें नेताओं ने अपने भाषणों में बिना अधिकारों के कर्तव्य का पालन की मानसिकता पर सवाल उठाया। यदि नारी का कर्तव्य सरकार चलाने के लिए कर देने का था तो उसको सरकार और प्रशासन के गठन में भूमिका का अधिकार भी होना चाहिए। महिलाओं का अपना साहित्य, अपने प्रकाशन, अपनी लेखिकाएँ, अपनी मैगजीन, अपना छापाखाना, अपने वितरक होने चाहिए। यह भी कहा गया कि पुरुष कानून (Masculine Law) स्त्री का कभी प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते, परंतु महिला संगठन बनाने पर इस सम्मेलन में सहमति नहीं हो पाई।

चौथा सम्मेलन अक्तूबर 1853 में हुआ। कोई खास प्रगति नहीं हो पाई। आगे के सम्मेलनों में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हो सके। मई 10-11, 1859 में संपन्न हुए न्यूयार्क राज्य में पारित हुए कानून जिसमें महिलाओं के अपने निजी संपत्ति का वेतन के इस्तेमाल का तथा बच्चों के सह-संरक्षण का अधिकार मिलने पर संतोष जताया गया। जनवरी 1866 में अमेरिकन एंटी स्लेवरी सोसाइटी की बैठक में लूसी स्टोन और सुजन बीं एंथोनी के सुझाव पर अमेरिकी समान अधिकार संगठन अमेरिकन ईक्वल राइट्स एसोसिएशन (American Equal RightsAssociation (AERA) की स्थापना हुई। इसमें महिला अधिकारवादियों तथा गुलाम-प्रथा विरोधी दोनों शामिल थे। इसके उद्देश्यों में लिंग-आधारित और वर्ग-आधारित भेद-भाव समाप्त करना था। अमेरिकी समान अधिकार संगठन (AERA) की दूसरी वार्षिक बैठक 9 मई, 1867 को हुई। इसमें संविधान के 15वें संशोधन के विरुद्ध नारीवादियों ने खुलकर अपने विचार रखे। संगठन में विचारों की विरोधाभास के कारण संगठन दो हिस्सों में विभाजित हो गया। इसके बाद अमेरिकी समान अधिकार संगठन (AERA) को भंग कर दिया गया, और तुरंत बाद ही नारीवादियों के दो गुटों ने दो अलग-अलग संगठन बना लिए। नेशनल वीमेन सफ्रेज एसोसिएशन (National Woman suffrage Association (NWSA) की अध्यक्ष एलिजाबेथ कैडी स्टेंटन बनी। इस संगठन का साप्ताहिक मुखपृष्ठ क्रांति The Revolution में महिला के अधिकारों से संबंधित मामलों को जोर-शोर से उठाया जाता था। 1877 के सम्मेलन में स्टेंटन ने महिलाओं के मताधिकार संबंधी संशोधन का प्रारूप तैयार किया।

दूसरे संगठन के रूप में लूसी स्टोन व साथियों ने अमेरिकन वीमेन सफ्रेज एसोसिएशन (American Woman suffrage Association (AWSA) बनाई। इस संगठन ने नस्लीय तथा लिंग-संबंधी सवालों पर काम करना जारी रखा। इस संगठन के द्वारा 1870 में अमेरिकी महिला मताधिकार संगठन ने अपनी पत्रिका वीमेंस जर्नल (Woman's Journal) निकालना प्रारंभ किया।

अक्तूबर 1887 में अमेरिकन वीमेन सफ्रेज एसोसिएशन (American Woman suffrage Association (AWSA) के वार्षिक सम्मेलन में स्टोन ने एक समिति बनाने का सुझाव दिया। समिति को राष्ट्रीय महिला मताधिकार संघ (NWSA) की समिति के साथ मिलकर दोनों संगठनों के विलय का रास्ता निकालना था। एका की वार्ताओं में केवल मताधिकार पर काम करने की सहमति हो गई। इससे स्टेंटन संतुष्ट नहीं थी। वो महिलाओं संबंधित अन्य मुद्दे भी संगठन की कार्य-सूची में लाना चाहती थी। उन्होंने लिखा कि लूसी और सूजन केवल मताधिकार पर ध्यान देती है। उन्हें महिलाओं की धार्मिक और सामाजिक गुलामी नहीं दिखती है। फरवरी 1890 में राष्ट्रीय महिला मताधिकार संघ (NWSA) का पहला वार्षिक सम्मेलन हुआ। एक बार फिर से इस सम्मेलन में नेशनल वीमेन सफ्रेज एसोसिएशन (National Woman suffrage Association (NWSA) और अमेरिकन वीमेन सफ्रेज एसोसिएशन (American Woman suffrage Association (AWSA) दोनों का NAWSA में विलय हो गया। इस नए संगठन में स्टेंटन अध्यक्ष बना दी गईं, पर वास्तव में वह हाशिए पर चली गईं। उन्होंने एक पुस्तक 'महिला की बाइबिल' (The woman's Bible) पर काम आरंभ कर दिया। स्टेंटन का मानना था कि संयोजित ईसाइयत ने (organized Christianity) ने नारी की समाज में स्थिति को कमजोर किया है। और बाइबिल में व्याप्त आधारभूत यौनिकता को सही करने की माँग की। राष्ट्रीय महिला मताधिकार संघ (NWSA) को यह रास नहीं आया। 1896 में एक प्रस्ताव पास कर इस संस्था को स्टेंटन और उनकी इस पुस्तक से अलग कर दिया।

NAWSA में अगला विभाजन नेशनल वीमेंस पार्टी (National Woman's Party (NWP) की स्थापना से हुआ। 1917 में न्यूयार्क राज्य में मताधिकार मिल गया। 18 अगस्त 1920 को अमेरिका के 36 राज्यों से मताधिकार के विधेयक का अनुमोदन हो गया। 26 अगस्त 1920 को संशोधन के पास होने की घोषणा कर दी गई। इसके साथ ही महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हो गया।


पश्चिम में नारीवादी आंदोलन की दूसरी लहर

मताधिकार की प्राप्ति के बाद से 1960 के दशक तक का समय नारीवादी आंदोलन की पहली लहर के समाप्ति का समय माना जाता है। पश्चिम में नारी आंदोलन की दूसरी लहर की शुरुआत 1960 के दशक में अमेरिका में बैटी फ्राइडन (Betty Friedan) की पुस्तक द फेमिनाइन मिस्टिक (The Feminine Mystique) के छपने, राष्ट्रपति कैनेडी के (Presidential Commission on the status of Women) महिला आयोग के गठन करने जैसी घटनाओं से मानी जाती है।

शासनिक एवं प्रशासनिक उपाय

सन 1961 में राष्ट्रपति केनेडी ने महिला अधिकारों को प्रमुख मुद्दा बनाया और कई नामी महिलाओं को प्रशासन के ऊँचे पदों पर नियुक्तियाँ दी। इसके अलावा एलिनर रुजवैल्ट के सभापतित्व में महिलाओं की स्थिति पर राष्ट्रपति के आयोग (Presidential Commission on the status of Women), बनाया। सन 1963 में इस आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस आयोग ने अपनी रपट में बताया कि जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं के साथ भेदभाव बरता जाता रहा है। इसके सुझावों में सिफारिश की गई कि महिलाओं को रोजगार देने के तरीकों में निष्पक्षता बरती जाय, मातृत्व अवकाश का भुगतान किया जाय और सस्ती चाइल्ड केयर की सुविधा उपलब्ध हो। समान वेतन कानून (Equal Pay Act) में समान काम के लिए समान वेतन का प्रावधान तो था पर इसमें घरेलू काम करने वालों, कृषि मजदूरों, अधिकारियों, प्रशासकों या पेशेवरों को शामिल नहीं किया गया था। इसके बाद राज्यों के स्तर पर भी इसी प्रकार के आयोगों का गठन हुआ। इससे विभिन्न राज्यों की स्त्रियों का जायजा लिया गया। इन आयोगों में महिलाओं को ही नियुक्त किया गया। इससे तीन लाभ हुए प्रथम इन आयोगों के माध्यम से पूरे देश की प्रबुद्ध और सक्रिय महिलाएँ एक मंच पर आ गईं।

दूसरा आयोग द्वारा शोध से स्पष्ट हो गया कि पुरुषों से समानता अभी अमेरिकी महिलाओं से कोसों दूर थी। उनके समानता के अधिकार के रास्ते में कई कानूनी तथा आर्थिक अड़चनें थी। इस रिपोर्ट से कई महिला कार्यकर्ताओं को इस क्षेत्र में कार्य करने की आवश्यकता महसूस हुई। तीसरा एक वातावरण बना एक नई उम्मीद जगी। इन आयोगों से महिलाओं में संवाद बढ़ा।

1963 में बैटी फ्राइडन (Betty Friedan) की पुस्तक द फेमिनाइन मिस्टिक (The Feminine Mystique) छपी। 1964 के नागरिक अधिकार कानून के टाइटिल सात (Title 7) में लिंग सैक्स शब्द जुड़ गया। लेकिन प्रशासनिक महकमा इसे गंभीरता से नहीं ले रह था। नारीवादियों ने इस अगंभीरता को गंभीरता से लेते हुए इसकी भर्त्सना की (मार्था ग्रिफिक्स का 1966 में संसद के निम्न सदन का बयान)। सन 1967 में कार्यकारी आदेश से राष्ट्रपति जोनसन ने 1965 के सकारात्मक कार्यवाई (affirmative action) नीति को लिंग संबंधी मामलों में भी लागू किया। अब केंद्र सरकार को ही यह सुनिश्चित करना था कि महिलाएँ और अल्पसंख्यकों को भी श्वेतों के समान ही रोजगर के अवसर प्राप्त हों। सन 1967 में सीनेट में समान अधिकार संशोधन (Equal Right Amendment) लाया गया।

राज्य के रुख में यह नर्मी 60 के दशक में हुए विभिन्न सामाजिक आंदोलनों का परिणाम थी। इन आंदोलनों के दौरान भी अपने सहभागी आंदोलनकर्ताओं से ये महिलएँ समान व्यवहार नहीं पा रही थीं अतः सामाजिक आंदोलन में हिस्सेदारी के साथ-साथ नारीवादी सवालों पर शोध कर रही थीं। इस विषय पर सर्वप्रथम सिमोन द बोउआर (Simone de Beauvoir) ने 1949 में, पितृसत्तात्मक समाज में नारी को दोयम दर्जे (The Second Sex) अन्या बताए जाने पर विरोध दर्ज किया। सन 1965 में केसी हेडेन (Casey Hayden) और मेरी किंग (Mary King) ने नागरिक अधिकार आंदोलन में यौनिकता के बारे में एक ज्ञापन प्रकाशित किया। 1970 में केट मिलेट (Kate Millett) की सैक्सुअल पोलिटिक्स (Sexual Politics) प्रकाशित हुई। यह एक क्लासिक नारीवादी पुस्तक है। इसमें केट ने नारीवादी दृष्टिकोण से साहित्य की विवेचना की है। यह किताब दूसरे चरण के नारीवादी आंदोलन का आधार बनी। रौबिन मोरगन्स की सिस्टरहुड इज पावरफुल, 1975 में, सूजन ब्राउनमिलर की अगेन्स्ट आवर विल आदि महत्वपूर्ण प्रकाशन हुए। इन प्रकाशनों के बाद राष्ट्रीय, प्रांतीय, स्थानीय स्तर पर कई महिला मुक्ति संगठन बने। इन्होंने कई कानूनी लड़ाइयाँ जीती। सन 1968 में पहला राष्ट्रीय महिला मुक्ति सम्मेलन हुआ। नारीवादियों ने 'बहनापा ही शक्ति है, निजी ही राजनीतिक है', Sisterhood is Powerful, the Personal is Political' जैसे नारे गढ़े जो महिलाओं में बहुत लोकप्रिय हुए।

महिला आंदोलन की जद में समान कानूनी अधिकार, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई, महिलाओं के शोषण के विरुद्ध जागृति फैलाने, पितृसत्ता के जकड़नों, यौनकर्मियों की स्थिति में सुधार आदि मुद्दे शामिल थे। सन 1971 में अमेरिकी संसद ने 26 अगस्त को महिला समानता दिवस घोषित किया। 1972 में सुप्रीम कोर्ट ने गोपनीयता अधिकार के तहत अविवाहित लड़कियों के गर्भ निरोधक के इस्तेमाल को वैध ठहराया। 1972 के टाइटिल नाइंथ आफ द एड्यूकेशन एमेंड्मेंट्स के पास होने से हाई स्कूल तथा कालेज की शिक्षा लिंग के आधार पर भेदभाव से मुक्त हो गई। सन 1975 को संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया। 1978 में प्रिगनेंसी डिस्क्रिमिनेशन एक्ट पास हुआ। अब गर्भवती महिलाओं को नौकरी से निकालना अवैध हो गया। सन 1981 में सेंड्रा डे ओ कोन्नोर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज नियुक्त हुई।

इस तरह देखा जा सकता है कि महिला आंदोलन के दूसरे चरण में समाज में व्याप्त हर प्रकार की असमानता, परिवार, धार्मिक, शिक्षण संस्थाओं, काम की जगह, आफिस, वर्कशाप में मिलने वाला दोयम दर्जा समाप्त करना था। साथ ही लैंगिकता और प्रजनन के अधिकार के सवाल थे। इस दौरान विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण अनुसंधान हुए जिनका सकारात्मक प्रभाव महिला आंदोलन पर पड़ा। मसलन 1960 में अमेरिकी फूड और ड्रग प्रशासन ने गर्भनिरोधक गोली को पास कर दिया। 1961 में यह गोली बाजार में उपलब्ध हो गई। महिलाओं के लिए यह एक मुक्तिदायनी गोली थी। (देखिए - http://en.wikipidea.org/wiki/second-wave-feminism.)

समकालीन गतिविधियाँ

एक ओर तो यह कहा जा रहा है कि नारीवादियों ने अपने सभी लक्ष्य प्राप्त कर लिए हैं अतः अब इसकी कोई आवश्यकता रह गई है। दूसरी ओर रूढ़िवादी दक्षिणपंथियों ने नारीवादी उद्देश्यों के विरुद्ध गर्भपात विरोधी तथा नव जीवन बचाओ आंदोलन चलाए हैं। इक्कीसवीं सदी में नारीवाद कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। कैमिल्ला और उनकी सहयोगी (Camilla Paglia, Vamp and Tramps 1994) नारीवादी आंदोलन की आलोचना करती हैं। यह लिखती हैं कि महिला समानता अभियान ने नारी को घर से निकाल कर चमचमाते दफ्तरों में तो बिठा दिया है, परंतु इसने उनको पूँजीवादी जीवनशैली से मुक्ति नहीं दिलाई। (देखिए Barbara Epstein, 'what happened to the Women's Movement ? From a Movement to an idea monthly review मई 2001.)

बारबरा एपिस्टन का मानना है कि फिर से महिला आंदोलन के फैलने की संभावना न के बराबर है। पर उन्हें उम्मीद है कि उदारीकरण, बहुराष्ट्रीय कंपनी विरोधी, नस्ल विरोधी, पर्यावरण समर्थक संगठनों में सक्रिय महिलाएँ नारीवाद को नई उर्जा प्रदान करेंगी।

प्रमुख पाश्चात्य नारीवादी - मेरी वुल्सटनक्राफ्ट, जेन ऐड्मस, हैरियेट टेलर मिल, वर्जिनिया वुल्फ, सूजन ब्राउन मिलर, केट मिलेट, शूल्मिथ फायरस्टोन, बेटी फ्रिडम, जर्मन ग्रियर, ग्रार्डा लर्नर, सिमोन द बोउआर, जुलिया क्रिस्तीबा, क्लारा जेतकिन, हेलन सिक्सस, नाउमी वुल्फ, बेलाहुक्स, ऐंजिला डेविस, पेट्रेशिया कोलिन्स हिल्स, कैमिल्ला पेग्लि, बारबरा एपिस्टिम, लुसी इरिगरी आलेंजेंद्रा कोलनताई आदि।