पश्चिम पटना किसान-सभा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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इस प्रकार मैंसन 1927 ई. के उत्तरार्ध्द में आ जाता हूँ। वह साल बीतने के पहले तथा प्रेस एवंपत्रको भी दूसरे को सौंपने के पूर्व ही एक अन्य जरूरी और ऐतिहासिक कार्य का भीसूत्रपात मैंने किया,जिसका रूप आज न केवल बिहार में,वरनभारत भर में विस्तृत हो गया और हो रहाहै। मेरा मतलबहैकिसान-सभा से।

पटना जिले के जिस इलाके में बिहटा-आश्रम है, वह पटना जिले का पश्चिमी भाग होने के साथ ही जालिम जमींदारों का इलाका भी है। पटना और शाहाबाद जिले की प्राकृतिक सीमा, सोन नदी बिहटा से तीन ही मील पश्चिम है। ईस्ट इंडियन रेल्वे की कलकत्ता-दिल्लीवाली मुख्यलाइन का बिहटा स्टेशन पटना जिले का आखिरी है। उससे पश्चिम का स्टेशन कोइलवर सोन के पश्चिम पार शाहाबाद जिले में पड़ता है। वैसे तो अब रेल के सिवाय पटना से बस सर्विस भी बिहटा के लिए है। वहाँ तारघर के सिवाय चीनी की एक बड़ी मिल, साउथ बिहार सूगर मिल्स के नाम से कई वर्षों से चल रही है।लेकिन पहले वह इलाका गुड़ बनाने का प्रधान केंद्र था। साल में कई लाख मन गुड़ भारत के सभी भागों में वहाँ से जाता था। आज भी लाखों मन जाता है। मगर अब पुरानी बात नहीं है। वहाँ की मनेरिया ऊख,जो मनेर परगने के नाम से प्रसिद्ध थी,बहुत ही नामी ऊख थी। पुराने जमाने से ही वह इलाका उस ऊख के लिए प्रसिद्ध है। अब तो वह खत्म हो गई। अब देश के सभी भागों की तरह उस मनेर में भी कोयंबटूरवाली ऊख आ गई। गुड़ वहाँ का बहुत अच्छा होता है। और भारत की दो-चार गिनी-चुनी जगहों में एक बिहटा भी अच्छे गुड़ के लिए मशहूर है। उसके अलावे, पहले भी और अब भी,हफ्ते में दो बार वहाँ गल्ले का बाजार होता है खासकर चावल का। 40-50 मील तक के गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर चावल लाते और बेचकर चले जाते हैं।

उसी बिहटा से दक्षिण सात-आठ मील जाने पर मसौढ़ा परगना शुरू हो जाता है। वह दक्षिण में दूर तक गया जिले में भी चला गया है। इस मसौढ़ा परगने के जमींदार बहुत पहले से ही जालिम मशहूर हैं। आज भी उनका बहुत कुछ जुल्म चलता ही है। हालाँकि, किसान-सभा ने न सिर्फ उनके होश दुरुस्त किए हैं,प्रत्युत किसानों को भी काफी जगा दिया है और उनमें हिम्मत ला दी है। मगर जिस समय की बात मैं कह रहा हूँ उस समय तो वहाँ के किसान इतने पस्तहिम्मत थे कि जमींदारी जुल्म के विरुद्ध खुल के जबान भी नहीं हिला सकते थे। यह वही जमींदार हैं जिन्होंने किसानों की लड़कियाँ और बहनें बिकवा कर लगान वसूल किया है। इसकी दास्तान कांग्रेस जाँच कमिटी के सामने सन 1937 के पहले पेश हुई थी,जब वह उस इलाके में गई थी। वहाँ जमींदारों के (पटवारी, बराहिल, अमले आदि) ही सब कुछ थे और उनसे किसान थर्राते रहते थे। वहीं के एक जमींदार ने सरौती (गया) के सभी किसानों को सिर्फ एक कटहल के फल के करते बर्बाद कर दिया! उनने ही सन 1921 ई. में कांग्रेस के कुछ लीडरों की मीटिंग तक वहाँ न होने दी!

उनका ऐसा कायदा था कि किसानों के घरों पर पारी बँधी रहती थी कि किस दिन कौन-कौन से किसान उनके दरबार में दिन-रात बेगार करने के लिए जाएँगे। जिसके द्वार पर जमींदार का आदमी मोटा सा डंडा शाम को रख आया, बस उसे नोटिस हुई और दूसरे दिन सुबह सारा काम छोड़कर जाना ही होगा, चाहे वज्र ही क्यों न गिरता हो। अगले दिन वह डंडा दूसरे के द्वार जा धमकता था। यही क्रम था। एक दिन दुर्भाग्य से रात में ही डंडेवाले किसान के घर में कोई मर गया। फलत: सुबह बेगारी में जाने के बदले मृतक को जलाने और संस्कार के लिए सारे परिवार को बीस माईल दूर गंगा किनारे जाना पड़ा। धर्म की आखिर बात थी न?फिर तो गजब हुआ। जमींदार ने गुस्से में आकर सारे गाँव को अनेक उपायों से तहस-नहस कर दिया। मसौढ़ा के जमींदारों का जुल्म वहाँ और पास के इलाकों में दूर तक प्रसिद्ध हैं। यहाँ तक कि कोई भला किसान अपनी लड़की उस मसौढ़ा में पहले ब्याहता न था। फलत: बड़ी दिक्कत से शादी हो पाती थी। लड़की की इज्जत खतरे में कौन डाले?

उनके जुल्म के दो-एक नमूने और सुनिए। फसल तैयार होकर खलिहान में जमा हैं और जमींदार के आदमी ने उस पर गोबर लगा दिया जिसे छापा कहते हैं। फिर जब तक जमींदार का हुक्म न होगा तब तक किसान की क्या बिसात कि उसे छुए,चाहे वह सड़,गल या जल ही क्यों न जाए ?इस प्रकार एक गाँव,पैपुरा की सारी फसल खलिहान में जल गई और किसानों को दाना न मिला। रब्बी की फसल कई महीने उस छापे के चलते पड़ी रही और बरसात में सड़ने लगी फिर भी जमींदार ने हुक्म न दिया कि उसे दौनी करके ले जाओ। फलत: किसी ने आग लगा दी।

वहाँ एक तरीका है दानाबंदी का। वहाँ ज्यादातर जमीनों का लगान नकद न होकर भावली हैं। इससे किसानों को रुपए के बदले जमींदार को तयशुदा गल्ला ही देना पड़ता है। वह कितना हो इसको ठीक करने का तरीका दानाबंदी कहा जाता है। जमींदार के अमले (नौकर) ने फसलवाले खेत पर जाकर अंदाज से कह दिया कि इस खेत में इतने मन गल्ला होगा और वही बज्रलीक हो गया! यदि अमले की पूजा किसान ने न की तो पाँच मन की जगह आठ मन तो वह अमला जरूरी ही कहेगा। वही बात एक कागज पर नोट कर लेता है। उसे खेसरा कहते हैं। कभी-कभी तो जमींदार की कचहरी में बैठकर जाली खेसरे बना करते हैं। खासकर भावली खेतों के लगान की नालिश के समय। और असली खसरे फाड़ दिए जाते हैं! क्योंकि नालिश के समय पाँच मन की जगह पचीस मन तो बताना ही होगा, ताकि ज्यादा रुपयों की डिग्री हो। वही खसरे अदालत में सबूत के तौर पर पेश किए जाते हैं। इस दानाबंदी का नतीजा होता है कि किसान को खेत के साथ-साथ, गाय,बैल, बकरी आदि और कभी-कभी तो लड़कियाँ तक बेचकर, जमींदार का पावना चुकाना होता है! जमींदार की शान ऐसी कि यदि वह कुर्सी या चारपाई पर बैठा हो तो किसान चाहे ब्राह्मण ही क्यों न हो, बहुत दूर हट के नीचे खाली जमीन पर ही बैठेगा। सो भी हाथ जोड़कर!

सन 1927 ई. के अंत तक मुझे इन जुल्मों का पूरा ब्योरा तो ज्ञात न था। मगर इतना जरूर जानता था कि वहाँ किसानों पर जुल्म बहुत होता है। कुछ खास जुल्मों का पता भी था। ऐसी दशा में मैंने सोचा कि यहाँ बराबर रहना है और गंगा स्नान,कचहरी जाने, मुर्दे को गंगा किनारे ले जाने, बाजार में आने तथा मेले में (क्योंकि वहाँ फागुन और वैशाख में शिवरात्रि का बड़ा मेला ब्रह्मपुर की ही तरह लगता है) आने के समय किसान खामख्वाह अपनी बातें सुनाया करेंगे। अगर उनके दु:ख सुनकर कोई तेज आंदोलन चलाया गया तो जमींदार और किसान के झगड़े खड़े हो जाएगे और इस तरह आजादी की लड़ाई में बाधा पहुँचेगी। कारण गृहकलह और आपसी झगड़े तो उसे कमजोर करेंगे ही। और अगर मैं यह सब बातें सोचकर न भी पड़ा तो बहुत से लोग जिनका यही पेशा है कि झगड़े लगाया करें और इस प्रकार लीडरी और नाम दोनों ही कमा लें, यह काम जरूर ही करेंगे। फिर तो कांग्रेस और उसकी लड़ाई खामख्वाह कमजोर होगी और मेरी दिक्कतें बढ़ेंगी। तब तक किसानों के नाम पर झूठे आंदोलन चलाकर कइयों ने किसानों को काफी ठग लिया था और इसकी जानकारी भी मुझे हो चुकी थी। इसीलिए यह खतरा मुझे मालूम हुआ। मैंने देखा, यहाँ तो बारूद का खजाना है। कहीं से अगर एक चिनगारी भी उसमें पड़ गई, जो बहुत संभव है,तो बड़ा भयंकर भड़ाका होगा और सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। इसीलिए कोई उपाय होना चाहिए यह फिक्र मुझे हुई। कुछ और साथियों से भी राय की।

अंत में तय पाया कि यदि हम स्वयं किसानों की एक सभा यहाँ कायम करें और उनका आंदोलन चलाएँ तभी खैरियत होगी। क्योंकि ऐसी दशा में एक तो समझ-बूझकर हम पाँव बढ़ाएँगे जिससे किसान-जमींदार संघर्ष न होगा, गृहकलह न होगी और दोनों को समझा-बुझाकर झमेला तय करा दिया जाएगा जैसा कि कांग्रेस का सिद्धांत है। खासकर गाँधी जी तो ऐसा ही मानते और कहते हैं। मेरे लिए तो वही पथ दर्शक थे भी। दूसरे ऐसी दशा में गैरजवाबदेह गैर लोगों को यहाँ घुसने और उत्पात मचाने का मौका ही न मिलेगा। क्योंकि वह हमारे आंदोलन और हमारी सभा को देखकर यहाँ आने की हिम्मत न करेंगे। बस,इसी निश्चय के अनुसार हमने किसानों की सभाएँ जहाँ-तहाँ करना शुरू कर दिया और उनका आंदोलन जारी किया।

यह भी सोचा गया कि कौंसिल के लिए पटना जिला दो चुनाव क्षेत्रों में बँटा है, पूर्व पटना और पश्चिम पटना। लेकिन हम तो पश्चिम पटना में ही थे। वहीं काम भी करना था। चुनाव में वोट को लेकर झगड़े होते हैं। गर्मी भी किसानों के बीच काफी पैदा की जाती है। फलत: उस चुनाव के समय भी हम फायदा उठा सकते हैं अगर हमारी सभा यहाँ हो। सारे जिले की फिक्र क्यों करें?हमें तो सिर्फ पश्चिम पटना को देखना है। इसी ख्याल से पश्चिम पटना में ही हमारा किसान आंदोलन सन 1927 ई. के बीतते-न-बीतते शुरू हो गया। इसके कुछ ही दिन चलने के बाद हमने नियमित रूप से पश्चिम पटना किसान-सभा का जन्म ता. 4-3-28 को दिया। हमने उस समय उसकी नियमावली आदि बनाई। उसका उद्देश्य क्या हो, उसके मेंबर कौन हों इत्यादि बातें भी तय पाईं।

जो लोग यह तारीख देखकर किसान-सभा का जन्म सन 1928 में मानते हैं, वह भूलते हैं। उस समय तो उसका विधान आदि बन गया और पूरा रूप खड़ा हो गया। मगर इसके लिए तैयारी भी तो चाहिए और उसमें कुछ समय तो लगता ही है। इसीलिए किसान-सभा का जन्म असल में सन 1927 ई. के अंतिम दिनों में ही, आखिरी महीनों में ही, हुआ इतना तो पक्का है। हाँ, ठीक तारीख और महीना याद नहीं कि कब हुआ। असल में ऐसी बातों की ठीक तारीखें याद रहती हैं भी नहीं। वह तो तभी याद होती हैं जब संस्थाओं की बैठकें बाकायदा शुरू होती हैं।

इस प्रकार साफ है कि शुरू में जब हमने किसान-सभा का जन्म दिया तो किसानों तथा जमींदारों के समझौते और उनके हकों के सामंजस्य को सामने रखकर ही यह काम किया यही कांग्रेस का उस समय सिद्धांत था और आज भी हैं कि किसान,जमींदार, पूँजीपति-मजदूर, अमीर-गरीब आदि सभी के परस्पर विरोधी हकों, अधिकारों और हितों का सामंजस्य करना और उन्हें मिलाना। उसके मत से जो असल में ये अधिकार, ये हक और ये हित परस्पर विरोधी हईं नहीं। किंतु केवल ऊपर से ऐसे मालूम पड़ते हैं। अत: उसका काम है इसी मालूम पड़ने को हटा देना। वह इन दलों के संघर्ष को बहुत बुरा मानती और इससे डरती है। इसे वह आजादी की लड़ाई का बड़ा बाधक समझती है। मेरी भी दृष्टि उस समय ठीक इसी तरह की थी। मैं सपने में भी दूसरे प्रकार का ख्याल कर न सकता। मैं सोचता था कि हमारे यत्न से यह सामंजस्य हो जाएगा और यह संघर्ष असंभव हो जाएगा।

लेकिन मुझे क्या पता था कि एक दिन यही किसान-सभा परिस्थिति के वश हो इस विचार को त्यागने को मजबूर होगी और इस विरोध को स्वाभाविक तथा असली चीज समझ इस संघर्ष का स्वागत करेगी। यहाँ तक मैं कैसे पहुँचा और मेरे साथ किसान-सभा भी कैसे पहुँची, आगे के पृष्ठ इसी बात को बताएँगे। पर, यहाँ इतना ही कहना हैं कि मेरे मन में जो पहले पहल किसान आंदोलन और किसान-सभा का ख्याल आया वह पक्के और कट्टर सुधारक या सुधारवादी (Reformist) कीहैंसियत से ही न कि सपने में भी क्रांतिकारी कीहैंसियत से। तब तो मैं क्रांति (revolution) को समझता भी न था कि वह असल में क्या चीजहै?