पहचान / भाग 9 / अनवर सुहैल

Gadya Kosh से
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यूनुस याद करने लगा अपनी जिंदगी का वह मनहूस दिन, जब जमाल साहब उसके जीवन में आए और एक निश्चित दिशा में चलती उसकी जीवन की गाड़ी पटरी से उतर गर्इ...

उसे अच्छी तरह याद है वो जुमा का दिन था, क्योंकि उस दिन घर में गोश्त-पुलाव पका था। होता ये कि जुमा की नमाज अदा करके घर आने पर सब एक साथ बैठकर खाना खाते। यूनुस नमाज के बाद पढ़े जाने वाले सलातो-सलाम में शामिल न होता। उसमें इतना धैर्य कहाँ होता। वह फजर नमाज पढ़कर मस्जिद से सबसे पहले भागने वालों में शामिल रहता। वैसे भी वह भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता था।

गर्मी के कारण उसे गोश्त-पुलाव के साथ प्याज खाने का मन हुआ। इसलिए घर आकर यूनुस ने सबसे पहले सब्जी की टोकरी से एक प्याज उठाया। फिर उसे काटने के लिए छुरी खोजने रसोर्इ में घुसा।

सनूबर स्कूली ड्रेस पहने हुए किचन में उकड़ू बैठकर चपड़-चपड़ गोश्त-पुलाव खा रही थी। यूनुस को देख वह मुस्करार्इ और अपने प्लेट से गोश्त की एक बोटी उठाकर यूनुस की ओर बढ़ार्इ। यूनुस ने उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में शरारत और मुहब्बत के मिले-जुले भाव देखे।

यूनुस ने बोटी मुँह के हवाले की।

एकदम रसगुल्ले की तरह मुँह में पिघल गया था गोश्त... वाकर्इ रहमत चिकवा खालू के नाम पर अच्छा गोश्त देता है।

सनूबर ने यूनुस के हाथ में प्याज देखकर उससे प्याज माँग लिया।

खाना खत्म कर प्लेट में ही हाथ धोकर सनूबर एक तश्तरी में प्याज काटने लगी। प्याज के पतले-पतले गोल टुकड़े।

तभी खाला किचन की तरफ आर्इं।

यूनुस के मुँह को चलता देख उन्होंने पूछा - 'गोश्त कैसा बना है?'

यूनुस ने रहमत चिकवा की बड़ार्इ करते हुए कहा - 'एक नंबर का माल है खाला! रहमतवा खालू के नाम पर माल ठीक देता है।'

वाकर्इ पैसे भी दो और माल भी ठीक न मिले, कितना तकलीफ होता है। कुकर में गलाते-गलाते मर जाओ। गोश्त भी इतना बदबूदार निकल आए कि घिन हो जाए। आदमी गोश्त खाने से तौबा कर ले।

खाला ने कहा - 'अल्लाह का फजल है कि रहमतवा ठीकै गोश्त देता है।'

अमूमन जुमा और इतवार के दिन रहमत चिकवा की दुकान से तीन पाव गोश्त मँगवाया जाता। यूनुस ही गोश्त लेने जाता। कालोनी के बाहर रेलवे लाइन के उस पास नाले के एक तरफ कसाइयों की दुकानें प्रतिदिन सजतीं। रेलवे की जमीन पर अवैध रूप से कब्जा करके चिकवा लोगों ने अपने घर और दुकानें बना ली थीं। कहते हैं कि आरपीएफ वाले आकर वसूली कर जाते हैं। रेलवे वालों से मिली भगत है सब।

उस अघोषित मुहल्ले को कसार्इ टोला कहा जाता।

रहमत चिकवा खालू के गाँव का था, इसलिए अस्सी रुपए किलो का माल उनके घर साठ रुपए के हिसाब से आता।

यूनुस कभी सोचता कि इतने काम सीखे उसने लेकिन कसार्इ का काम न सीखा। वैसे घर में बकरीद के मौके पर होने वाली कुरबानी में बाहर से कसार्इ न बुलवाया जाता। अब्बू और सलीम भइया बकरे को जिबह कर खालपोशी कर लेते तो यूनुस बोटियाँ बना लेता था। असली कलाकारी तो खाल को सही-सलामत बकरे के जिस्म से अलग करने में है। उस खाल को स्थानीय मदरसे में भेजा जाता। जिसकी नीलामी होती और प्राप्त पैसे से मदरसे की आमदनी हो जाती।

गोश्त लेने खाला यूनुस को सुबह सात बजे दौड़ा देतीं। कहतीं कि चिकवा ससुरे सुबह ठीक माल दिए तो ठीक वरना बाद में दो-नंबरिया माल मिलता है।

सात बजे रहमत अपनी दुकान सजा नहीं पाता था। इसलिए यूनुस सीधे उसके घर चले जाता।

घर के बाहर ही तो गोश्त की दुकान थी।

रहमत चिकवा की एक बेटी थी। साँवली सी नटखट लड़की। नैन-नक्श तीखे। साँवली रंगत।

यूनुस को देख जाने क्यों वह मुस्कराती।

रहमत की बीवी उसे 'बानू' कह कर पुकारती। वह देहाती जुबान में बातें करती।

उसमें एक ही ऐब था। उसके पीले-मटमैले टेढ़े-मेढ़े दाँत। जब वह हँसती या कुछ बोलती तो उसके दाँत बाहर निकल आते और सारा मजा किरकिरा हो जाता।

वह जब भी रहमत के घर जाता, वहाँ टट्टर की चारदीवारी के अंदर बकरियों की मिमियाहट गूँज रही होती और 'बानू' आँगन में झाड़ू लगाते मिलती।

जब वह झुकती तो कुर्ते के कटाव से उसके उभार छलक आते। यूनुस को यकीन है कि 'बानू' जानबूझ कर उसे यह दर्शन-सुख देना चाहती थी।

फिर रहमत के लिए चाय या पानी लेकर आती तो यूनुस भी उसमें शामिल हो जाता।

चाय के कप या गिलास पकड़ाते समय वह आसानी से अपने हाथों का स्पर्श उसके हाथ से होने देती। कप पकड़े वह उसका चेहरा निहारता। बस, यहीं गड़बड़ हो जाती। आँखें मिलते ही 'बानू' मुस्कराती। उसके होंठ पलट जाते और खपरैल से मटमैले दाँत बाहर निकल आते। खूबसूरती का तिलस्म टूट जाता। यूनुस को ऐसा महसूस होता जैसे उसने रहमत की दुकान के कोने में पड़े, बकरों के कटे सिर देखे हों, जिनके दाँत इसी तरह बाहर निकले रहते हैं।

रहमत चिकवा खस्सी के नाम पर कैसा भी गोश्त काट कर बेचने के लिए बदनाम है। ऐसी-वैसी बकरी काट कर रहमत बड़ी सफार्इ से उसके मादा अंगों की गवाही निकाल देता। फिर उस जगह किसी बकरे के नर-अंग बड़ी सफार्इ से 'फिट' कर देता। फिर चीख-चीख कर ग्राहकों को बुलाता - 'अल्ला कसम भार्इजान, खस्सी है खस्सी! एक नंबर का माल!'

मियाँ भार्इ तो अंदाज लगा लेते कि मामला क्या है, लेकिन चोरी-छिपे मटन खाने वाले हिंदू ग्राहक क्या समझते! वे तो वैसे ही नजर बचाकर मटन खरीदने आते या फिर उनके चेले आते। उन्हें बेवकूफ बनाना तो रहमत के बाएँ हाथ का खेल था। वे आसानी से उसके झाँसे में आ जाते।

खालू से अच्छे संबंधों के कारण रहमत चिकवा उन्हें सही माल देता।