पहला अध्याय / बयान 17 / चंद्रकांता

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चपला कोई साधारण औऱत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो-चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना-सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फन के अलावा और भी कई गुण उसमें थे। गाने और बजाने में उस्ताद, नाचने में कारीगर, आतिशबाजी बनाने का बड़ा शौक, कहाँ तक लिखें- कोई फन ऐसा न था जिसको चपला न जानती हो। रंग उसका गोरा, बदन हर जगह सुडौल, नाजुक हांथ-पांव की तरफ खयाल करने से यही जाहिर होता था कि इसे एक फूल से मारना खून करना है। उसको जब कहीं बाहर जाने की जरूरत पड़ती थी तो अपनी खूबसूरती जान बूझकर बिगाड़ डालती थी या भेष बदल लेती थी।

अब इस वक्त शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी जा चुकी है। चन्द्रमा अपनी पूरी किरणों से निकला हुआ है। चपला अपनी असली सूरत में चली जा रही है, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाये कमन्द कमर में कसे और खंजर भी लगाये हुए जंगल-ही-जंगल कदम बढ़ाये जा रही है। तेजसिंह की याद ने उसको ऐसा बेकल कर दिया है कि अपने बदन की भी खबर नहीं। उसको यह मालूम नहीं कि वह किस काम के लिए बाहर निकली है या कहाँ जा रही है, उसके आगे क्या है, पत्थर या गड्ढा, नदी है या नाला, खाली पैर बढाये जाना ही यही उसका काम है। आंखों से आंसू की बूंदें गिर रही हैं, सारा कपड़ा भीग गया है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर ठोकर खाती है, उंगलियों से खून गिर रहा है मगर उसको इसका कुछ खयाल नहीं। आगे एक नाला आया जिस पर चपला ने कुछ ध्यान न दिया और धम्म से उस नाले में गिर पड़ी, सिर फट गया, खून निकलने लगा, कपड़े बदन के सब भीग गये। अब उसको इस बात का खयाल हुआ कि तेजसिंह को छुड़ाने या खोजने चली है। उसके मुंह से झट यह बात निकली-‘‘हाय प्यारे मैं तुमको बिल्कुल भूल गई, तुम्हारे छुड़ाने की फिक्र मुझको जरा भी न रही, उसी की यह सजा मिली !’’ अब चपला संभल गई और सोचने लगी कि वह किस जगह है। खूब गौर करने पर उसे मालूम हुआ कि रास्ता बिल्कुल भूल गई है और एक भयानक जंगल में आ फंसी है। कुछ क्षण के लिए तो वह बहुत डर गई मगर फिर दिल को संभाला, उस खतरनाक नाले से पीछे फिरी और सोचने लगी, इसमें तो कोई शक नहीं कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने पकड़ लिया है, तो जरूर चुनार ही ले भी गये होंगे। पहले वहीं खोज करनी चाहिए, जब न मिलेंगे तो दूसरी जगह पता लगाऊंगी। यह विचार कर चुनार का रास्ता ढूढ़ने लगी। हजार खराबी से आधी रात गुजर जाने के बाद रास्ता मिल गया अब सीधे चुनार की तरफ पहाड़-ही-पहाड़ चल निकली, जब सुबह करीब हुई उसने अपनी सूरत एक मर्द सिपाही की-सी बना ली। नहाने–धोने, खाने-पीने की कुछ फिक्र नहीं सिर्फ रास्ता तय करने की उसको धुन थी। आखिर भूखी-प्यासी शाम होते चुनार पहुंची। दिल में ठान लिया था कि जब तक तेजसिंह का पता न लगेगा-अन्न जल ग्रहण न करूँगी। कहीं आराम न लिया, इधर-उधर ढूंढ़ने और तलाश करने लगी। एकाएक उसे कुछ चालाकी सूझी, उसने अपनी पूरी सूरत पन्नालाल की बना ली औऱ घसीटासिंह ऐयार के डेरे पर पहुंची।

हम पहले लिख चुके हैं कि छ : ऐयारों में से चार ऐयार विजयगढ़ गये हैं और घसीटासिंह और चुन्नीलाल चुनार में ही रह गये हैं। घसीटासिंह पन्नालाल को देखकर उठ खड़े हुए और साहब सलामत के बाद पूछा, ‘‘कहो पन्नालाल, अबकी बार किसको लाये?’’

पन्नाः इस बार लाये तो किसी को नहीं, सिर्फ इतना पूछने आये हैं कि नाजिम यहाँ है या नहीं, उसका पता नहीं लगता।

घसीटाः यहाँ तो नहीं आया।

पन्नाः फिर उसको पकड़ा किसने ? वहाँ तो अब कोई ऐयार नहीं है !

घसीटाः यह तो मैं नहीं कह सकता कि वहाँ और कोई भी ऐयार है या नहीं, सिर्फ तेजसिंह का नाम तो मशहूर था सो कैद हो गये, इस वक्त किले में बन्द पड़े रोते होंगे।

पन्नाः खैर, कोई हर्ज नहीं, पता लग ही जायेगा, अब जाता हूँ रुक नहीं सकता। यह कह नकली पन्नालाल वहाँ से रवाना हुए।

अब चपला का जी ठिकाने हुआ। यह सोचकर कि तेजसिंह का पता लग गया और वे यहीं मौजूद हैं, कोई हर्ज नहीं। जिस तरह होगा छुड़ा लेगी, वह मैदान में निकल गई और गंगाजी के किनारे बैठ अपने बटुए में से कुछ मेवा निकाल के खाया, गंगाजल पी के निश्चिन्त हुई और, तब अपनी सूरत एक गाने वाली औऱत की बनाई। चपला को खूबसूरत बनाने की कोई जरूरत नहीं थी, वह खुद ऐसी थी कि हजार खुबूसूरतों का मुकाबला करे, मगर इस सबब से कोई पहचान ले उसको अपनी सूरत बदलनी पड़ी। जब हर तरह से लैस हो गई, एक वंशी हाथ में ले राजमहल के पिछवाड़े की तरफ जा एक साफ जगह देख बैठ गयी और चढ़ी आवाज में एक बिरहा गाने लगी, एक बार फिर स्वयं गाकर फिर उसी गत को वंशी पर बजाती।

रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, राजमहल में शिवदत्त महल की छत पर मायारानी के साथ मीठी-मीठी बातें कर रहे थे, एकाएक गाने की आवाज उनके कानों में गई और महारानी ने भी सुनी। दोनों ने बातें करना छोड़ दिया और कान लगाकर गौर से सुनने लगे। थोड़ी देर बाद वंशी की आवाज आने लगी जिसका बोल साफ मालूम पड़ता था। महाराज की तबीयत बेचैन हो गई, झट लौंडी को बुलाकर हुक्म दिया, ‘‘किसी को कहो, अभी जाकर उसको इस महल के नीचे ले आये जिसके गाने की आवाज आ रही है।’’

हुक्म पाते ही पहरेदार दौड़ गये, देखा कि एक नाजुक बदन बैठी गा रही है। उसकी सूरत देखकर लोगों के हवास ठिकाने न रहे, बहुत देर के बाद बोले, ‘‘महाराज ने महल के करीब आपको बुलाया है और आपका गाना सुनने के बहुत मुश्तहक हैं। चपला ने कुछ इनकार न किया, उन लोगों के साथ-साथ महल के नीचे चली आई औऱ गाने लगी। उसके गाने महाराज को बेताब कर दिया। दिल को रोक न सके, हुक्म दिया कि उसको दीवान खाने में ले जाकर बैठाया जाय और रोशनी का बन्दोबस्त हो, हम भी आते हैं। महारानी ने कहा, ‘‘आवाज से यह औरत मालूम होती है, क्या हर्ज है अगर महल में बुला ली जाये।’’ महाराज ने कहा, ‘‘पहले उसको देख-समझ लें तो फिर जैसा होगा किया जायेगा, अगर यहाँ आने लायक होगी तो तुम्हारी भी खातिर कर दी जायेगी।’’

हुक्म की देर थी, सब सामान लैस हो गया। महाराज दीवान खाने में जा विराजे। बीबी चपला ने झुककर सलाम किया। महाराज ने देखा कि एक औरत निहायत हसीन, रंग गोरा, सुरमई रंग की साड़ी और धानी बूटीदार चोली दक्षिणी ढंग पर पहने पीछे से लांग बांधे, खुलासा गड़ारीदार जूड़ा कांटे से बांधे, जिस पर एक छोटा –सा सोने का फूल, माथे पर एक बड़ा-सा रोली का टीका लगाये, कानों में सोने की निहायत खूबसूरत जड़ाऊ बालियां पहने, नाक में सरजा की नथ, एक टीका सोने का और घुंघरूदार पटड़ी गूथन के गले में पहने, हाथ में बिना घुंडी का कड़ा व छन्देली जिसके ऊपर काली चूड़ियां, कमर में लच्छेदार कर्धनी और पैर में सांकड़ा पहने अजब आनबान से सामने खड़ी है। गहना तो मुख्तसर ही है मगर बदन की गठाई और सुडौली पर इतना ही आफत हो रहा है। गौर से निगाह करने पर एक छोटा-सा तिल ठुड्डी के बगल में देखा जो चेहरे को औऱ भी रौनक दे रहा था। महाराज के होश जाते रहे, अपनी महारानी साहब को भूल गये जिस पर रीझे हुए थे, झट मुंह से निकल पड़ा, वाह ! क्या कहना है !’’ टकटकी बंध गई। महाराज ने कहा, ‘‘आओ, यहाँ बैठो।’’ बीबी चपला कमर को बल देती हुई अठखेलियों के साथ कुछ नजदीक जा सलाम करके बैठ गई। महाराज उसके हुस्न के रोब में आ गये। ज्यादा कुछ कह न सके एकटक सूरत देखने लगे। फिर पूछा, ‘‘तुम्हारा मकान कहाँ है ? कौन हो ? क्या काम है ? तुम्हारी जैसी औऱत का अकेली रात के समय घूमना ताज्जुब में डालता है।’’ उसने जवाब दिया, ‘‘मैं ग्वालियर की रहने वाली पटलापा कत्थक की लड़की हूँ। रम्भा मेरा नाम है। मेरा बाप भारी गवैया था। एक आदमी पर मेरा जी आ गया, बात-की-बात में वह मुझसे गुस्सा हो के चला गया, उसी की तलाश में मारी-मारी फिरती हूँ। क्या करूं, अकसर दरबारों में जाती हूं कि शायद कहीं मिल जाये क्योंकि वह भी बड़ा भारी गवैया है, सो ताज्जुब नहीं, किसी दरबार में हो, इस वक्त तबीयत की उदासी में यों ही कुछ गा रही थी कि सरकार ने याद किया, हाजिर हुई।’’ महाराज ने कहा, ‘‘तुम्हारी आवाज बहुत भली है, कुछ गाओ तो अच्छी तरह सुनूं !’’ चपला ने कहा, ‘‘महाराज ने इस नाचीज पर बड़ी मेहरबानी की जो नजदीक बुलाकर बैठाया और लौंडी को इज्जत दी। अगर आप मेरा गाना सुनना चाहते हैं तो अपने मुलाजिम सपर्दारों को तलब करें, वे लोग साथ दें तो कुछ गाने का लुत्फ आये, वैसे तो मैं हर तरह से गाने को तैयार हूँ।’’

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और हुक्म दिया कि, ‘‘सपर्दा हाजिर किये जायें।’ प्यादे दौड़ गये और सपर्दाओं का सरकारी हुक्म सुनाया। वे सब हैरान हो गये कि तीन पहर रात गुजरे महाराज को क्या सूझी है। मगर लाचार होकर आना ही पड़ा। आकर जब एक चांद के टुकड़े को सामने देखा तो तबीयत खुश हो गई। कुढ़े हुए आये थे मगर अब खिल गये। झट साज मिला करीने से बैठे, चपला ने गाना शुरू किया। अब क्या था, साज व सामान के साथ गाना, पिछली रात का समा, महाराज को बुत बना दिया, सपर्दा भी दंग रह गये, तमाम इल्म आज खर्च करना पड़ा। बेवक्त की महफिल थी तिस पर भी बहुत-से आदमी जमा हो गये। दो चीज दरबारी की गायी थी कि सुबह हो गई। फिर भैरवी गाने के बाद चपला ने बन्द करके अर्ज किया, ‘‘महाराज, अब सुबह हो गई, मैं भी कल की थकी हूं क्योंकि दूर से आई थी, अब हुक्म हो तो रुखसत होऊं ?’’ चपला की बात सुनकर महाराज चौंक पड़े। देखा तो सचमुच सवेरा हो गया है। अपने गले से मोती की माला उतारकर इनाम में दी और बोले, ‘‘अभी हमारा जी तुम्हारे गाने से बिल्कुल नहीं भरा है, कुछ रोज यहाँ ठहरो, फिर जाना !’’ रम्भा ने कहा, ‘‘अगर महाराज की इतनी मेहरबानी लौंडी के हाल पर है तो मुझको कोई उज्र रहने में नहीं !’’

महाराज ने हुक्म दिया कि रम्भा के रहने का पूरा बन्दोबस्त हो और आज रात को आम महफिल का सामान किया जाये। हुक्म पाते ही सब सरंजाम हो गया, एक सुन्दर मकान में रम्भा का डेरा पड़ गया, नौकर मजदूर सब तैनात कर दिये गये। आज की रात आज की महफिल थी। अच्छे आदमी सब इकट्ठे हुए, रम्भा भी हाजिर हुई, सलाम करके बैठ गई। महफिल में कोई ऐसा न था जिसकी निगाह रम्भा की तरफ न हो। जिसको देखो लम्बी साँसे भर रहा है, आपस में सब यही कहते हैं कि ‘‘वाह, क्या भोली सूरत है, क्यों ? कभी आज तक ऐसी हसीना तुमने देखी थी ?’’

रम्भा ने गाना शुरू किया। अब जिसको देखिए मिट्टी की मूरत हो रहा है। एक गीत गाकर चपला ने अर्ज किया, ‘‘महाराज एक बार नौगढ़ में राजा सुरेन्द्रसिंह की महफिल में लौंडी ने गाया था। वैसा गाना आज तक मेरा फिर न जमा, वजह यह थी कि उनके दीवान के लड़के तेजसिंह ने मेरी आवाज के साथ मिलकर बीन बजाई थी, हाय, मुझको वह महफिल कभी न भूलेगी ! दो-चार रोज हुआ, मैं फिर नौगढ़ गई थी, मालूम हुआ कि वह गायब हो गया। तब मैं भी वहाँ न ठहरी, तुरन्त वापस चली आई।’’ इतना कह रम्भा अटक गई। महाराज तो उस पर दिलोजान दिये बैठे थे। बोले, ‘‘आजकल तो वह मेरे यहां कैद है पर मुश्किल तो यह है कि मैं उसको छोड़ूंगा नहीं और कैद की हालत में वह कभी बीन न बजायेगा !’’ रम्भा ने कहा, ‘‘जब वह मेरा नाम सुनेगा तो जरूर इस बात को कबूल करेगा मगर उसको एक तरीके से बुलाया जाये, वह अलबत्ता मेरा संग देगा नहीं तो मेरी भी न सुनेगा क्योंकि वह बड़ा जिद्दी है।’’ महाराज ने पूछा, ‘‘ वह कौन-सा तरीका है ?’’ रम्भा ने कहा, ‘‘ एक तो उसके बुलाने के लिए ब्राह्मण जाये और वह उम्र में बीस वर्ष से ज्यादा न हो, दूसरे जब वह उसको लावे, दूसरा कोई संग न हो, अगर भागने का खौफ हो तो बेड़ी उसके पैर में पड़ी रहे इसका कोई मुजायका नहीं, तीसरे यह कि बीन कोई उम्दा होनी चाहिए।’’ महाराज ने कहा, ‘‘यह कौन-सी बड़ी बात है।’’ इधर-उधर देखा तो एक ब्राह्मण का लड़का चेतराम नामी उस उम्र का नजर आया, उसे हुक्म दिया कि तू जाकर तेजसिंह को ले आ, मीर मुंशी ने कहा, ‘‘तुम जाकर पहरे वालों को समजा दो कि तेजसिंह के आने में कोई रोक-टोक न करे। हाँ, एक बेड़ी उसके पैर में जरूर पड़ी रहे।’’

हुक्म पा चेतराम तेजसिंह को लेने गया और मीरमुंशी ने भी पहरेवालों को महाराज का हुक्म सुनाया। उन लोगों को क्या उज्र था, तेजसिंह को अकेले रवाना कर दिया। तेजसिंह तुरन्त समझ गये कि कोई दोस्त जरूर यहाँ आ पहुंचा है तभी तो उसने ऐसी चालाकी की शर्त से मुझको बुलाया है। खुशी-खुशी चेतराम के साथ रवाना हुए। जब महफिल में आये, अजब तमाशा नजर आया। देखा कि एक बहुत ही खूबसूरत औऱत बैठी है और सब उसी की तरफ देख रहे हैं। जब तेजसिंह महफिल के बीच में पहुँचे, रम्भा ने आवाज दी, ‘‘आओ, आओ तेजसिंह, रम्भा कब से आपकी राह देख रही है ! भला वह बीन कब भूलेगी तो आपने नौगढ़ में बजायी थी !’’ यह कहते हुए रम्भी ने तेजसिंह की तरफ देखकर बायीं आँख बन्द की। तेजसिंह समझ गये कि यह चपला है, बोले, ‘‘रम्भा, तू आ गई। अगर मौत भी सामने नजर आती हो तो भी तेरे साथ बीन बजा के मरूंगा, क्योंकि तेरे जैसे गाने वाली भला काहे को मिलेगी !’’ तेजसिंह और रम्भा की बात सुनकर महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ मगर धुन तो यह थी कि कब बीन बजे और कब रम्भा गाये। बहुत उम्दी बीन तेजसिंह के सामने रक्खी गई और उन्होंनें बजाना शुरू किया, रम्भा भी गाने लगी। अब जो समा बंधा उसकी क्या तारीफ की जाये। महाराज तो सकते-की सी हालत में हो गये। औरों की कैफियत दूसरी हो गयी।

एक गीत का साथ देकर तेजसिंह ने कहा, ‘‘बस, मैं एक रोज में एक ही गीत या बोल बजाता हूं इससे ज्यादा नहीं। अगर आपको सुनने का ज्यादा शौक हो तो कल फिर सुन लीजिएगा !’’ रम्भा ने भी कहा, ‘‘हाँ, महाराज यही तो इनमें ऐब है ! राजा सुरेन्द्रसिंह, जिनके यह नौकर थे, कहते-कहते थक गये मगर इन्होंने एक न मानी, एक ही बोल बजाकर रह गये। क्या हर्ज है कल फिर सुन लीजिएगा।’’ महाराज सोचने लगे कि अजब आदमी है, भला इसमें इसने क्या फायदा सोचा है, अफसोस ! मेरे दरबार में यह न हुआ। रम्भा ने भी बहुत कुछ उज्र करके गाना मौकूफ किया। सभी के दिल में हसरत बनी रह गई। महाराज ने अफसोस के साथ मंजलिस बर्खास्त की और तेजसिंह फिर उसी चेतराम ब्राह्मण के साथ जेल भेज दिये गये।

महाराज को तो अब इश्क को हो गया कि तेजसिंह के बीन के साथ रम्भा का गाना सुनें। फिर दूसरे रोज महफिल हुई और उसी चेतराम ब्राह्मण को भेजकर तेजसिंह बुलाये गये। उस रोज भी एक बोल बजाकर उन्होंने बीन रख दी। महाराज का दिल न भरा, हुक्म दिया कि कल पूरी महफिल हो। दूसरे दिन फिर महफिल का सामान हुआ. सब कोई आकर पहले ही से जमा हो गये, मगर रम्भा महफिल में जाने के वक्त से घंटे भर पहले दांव बचा चेतराम की सूरत बना कैदखाने में पहुंची। पहरेवाले जानते ही थे कि चेतराम अकेला तेजसिंह को ले जायेगा, महाराज का हुक्म ही ऐसा है। उन्होंने ताला खोलकर तेजसिंह को निकाला और पैर में बेड़ी डाल चेतराम के हवाले कर दिया। चेतराम (चपला) उनको लेकर चलते बने। थोड़ी दूर जाकर चेतराम ने तेजसिंह की बेड़ी खोल दी। अब क्या था, दोनों ने जंगल का रास्ता लिया।

कुछ दूर जाकर चपला ने अपनी सूरत बदल ली और असली सूरत में हो गई, अब तेजसिंह उसकी तारीफ करने लगे। चपला ने कहा, ‘‘आप मुझको शर्मिन्दा न करें क्योंकि मैं अपने को इतना चालाक नहीं समझती जितनी आप तारीफ कर रहे हैं, फिर मुझको आपको छुड़ाने की कोई गरज भी न थी, सिर्फ चन्द्रकान्ता की मुरौवत से मैंने यह काम किया।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘ठीक है, तुमको मेरी गरज काहे हो होगी ! गरजूं तो मैं ठहरा कि तुम्हारे साथ सपर्दा बना, जो काम बाप-दादों ने न किया था सो करना पड़ा !’’ यह सुन चपला हंस पड़ी और बोली, ‘‘बस माफ कीजिए, ऐसी बातें न करिए।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘वाह, माफ क्या करना, मैं बगैर मजदूरी लिए न छोड़ूंगा।’’ चपला ने कहा, ‘‘मेरे पास क्या है जो मैं दूं ?’’ उन्होंने कहा, ‘‘जो कुछ तुम्हारे पास है वही मेरे लिए बहुत है।’’ चपला ने कहा, ‘‘खैर, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि यहाँ से खाली ही चलियेगा या महाराज शिवदत्त को कुछ हाथ भी दिखाइएगा ?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘इरादा तो मेरा यही था, आगे तुम जैसा कहो।’’ चपला ने कहा, ‘‘जरूर कुछ करना चाहिए !’’

बहुत देर तक आपस में सोच-विचारकर दोनों ने एक चालाकी ठहराई जिसे करने के लिए ये दोनों उस जगह से दूसरे घने जंगल में चले गये।