पहला झूठ/ राजेन्द्र यादव

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झूठ समाज की देन है। समाज के साथ बच्चे का पहला परिचय माँ–बा पके रूप में होता है। मुझे नहीं मालूम, मैंने पहला झूठ कब बोला था। आज भी नहीं मालूम, आखिरी झूठ कौन–सा था। हाँ, याद आया, ढीले–ढाले और भद्दे से कपड़े पहने एक ऊल–जलूल लड़ बूढ़े–से सज्जन से मैंने बड़ी सादगी से कहा था, "क्या बात है, आज तो बड़े चुस्त–दुरुस्त, एकदम नौजवान बने घूम रहे हो..." बस, वे इतने खुश हुए कि खिल गए और तब सचमुच उनकी उम्र दस साल कम हो गई. अब चाहें तो कह लीजिए, यह झूठ नहीं था। मैं तो सि‍र्फ़ सच को बचा गया था।

लेकिन पहले झूठों में से जो याद आ रहा है, वह इतना प्रसन्नतादायक नहीं है। आगरा में हमारे मकान के नीचे बाज़ार की कुछ दुकानें थीं। उन्हीं में महाराज नाम के एक बूढ़े–से सज्जन तंबाकू बेचते थे। उनकी आधी दुकान वैद्यक की थी, आधी तंबाकू की। कभी वह उल्टी गांधी–टोपी जैसे खरल में कुछ कूटते–पीसते रहते, उसमें अर्क और सत मिलाते जाते। कभी दूसरी तरफ हवा में धांस फैलाते हुए तंबाकू में शीरा और न जाने क्या–क्या मसलकर, छोटे–बड़े पिरामिड बनाकर रखते जाते। उन्हें वे पिंडी कहते। छोटी पिंडी एक आने की, बड़ी आठ आन या एक रुपए की।

डनकी एक लड़की थी। गेहुआं रंग, चेचक के हल्के दाग। वह भी मेरे ही बराबर की थी–आठेक साल की। उसे सब लोग 'महाराज की सान्ती' कहते थे। उसका शांति नाम कोई नहीं लेता था। महाराज जब वैद्यक करते तो वह तंबाकू सँभालती। जहाँ तक याद है, उनके परिवार में शायद और कोई नहीं था। लड़की सारे दिन हम लोगों के साथ हुड़दंग मचाती रहती। बीच–बीच में महाराज आकर उसे दो–चार झापड़ लगाते और घसीटकर फिर दुकान पर बैठा देते। शायद वह हमारे साथ ही पढ़ती भी थी। दोनों दुकानों के बाद भी महाराज की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। हमें एक आना रोज मिलता था, शांति को एक पैसा (उस समय का एक आना, आज के एक रुपए जितना तो था ही)

एक बार वे हम दोनों को दुकान संभालवाकर कहीं काम से गए. मैंने देखा, जिस टाट पर वे बैठते थे, उसके नीचे से इकन्नी का आधा हिस्सा झांक रहा है। शांति ने शायद नहीं देखा था। वह तंबाकू की पिंडियाँ गिन रही थी। मैंने चुपके से उस पर हथेली रख दी। अब तरकीब सोचने लगा, कैसे उसे उठाऊँ कि शांति न देख ले। दिल धड़क रहा था। पहले बड़ी सफाई से उसे मुट्ठी में लिए रखा और फिर बहुत ना–मालूम ढंग से सामने की जेब में सरका लिया।

अब चिंता यह हुई कि वहाँ से खिसका कैसे जाए...पहली 'बड़ी चोरी' थी, इसलिए बहुत डर लग रहा था–कहीं बाहर से देखने पर इकन्नी दिखाई तो नहीं देती...दोपहर के बाद का समय था। सुबह की बात होती तो कह देता, रोजवाली है लेकिन सुबह की इकन्नी अब तक बची रहे, यह असंभव था! विश्वास था कि महाराज के आने से पहले दो–बार पिंडियाँ तो बिक ही जाएंगी और उन इकन्नियों में पता भी नहीं चलेगा। किसी बहाने उठने की भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी।

अपनी समझ में मैंने चालाकी से भूमिका बनाई, "शांति, कलाकंद खाएगी।"

"पैसे कहाँ है?"

"हम जब आ रहे थे तो बाज़ार में इकन्नी पड़ी मिली थी।"

"दिखा?"

मैंने दिखा दी...उसकी आँखों में चमक आ गई, "तू ले आ, बाबा आ गए तो मारेंगे। मैं नहीं जाऊँगी।"

मुझे लगा, चोरी का बोझ कुछ कम हो गया। मैं सचमुच अपने झूठ पर विश्वास किए चला जा रहा था कि इकन्नी सड़क पर पड़ी है और मैं झुककर उसे उठा रहा हूँ। "अभी लेकर आता हूँ..." मैं उठकर हलवाई की दुकान पर गया। लालच आ गया और मैंने सारा कलाकंद अकेले ही चट कर डाला। बहुत थोड़ा-सा बचाकर लाया। लौटा तो एक और ही दृश्य था।

महाराज ने एक हाथ से शांति का झोंटा पकड़ रखा था और संटी से उसकी धुनाई कर रहे थे, "बता, इकन्नी कहाँ गई?" वह रो–घिघिया रही थी, "मुझे नहीं मालूम। विद्या कसम, मुझे नहीं मालूम।"

मुझे लगा, यहाँ से जल्दी ही खिसक लेना चाहिए. पिटती हुई शांति सि‍र्फ़ यही कहे जा रही थी कि 'मुझे नहीं मालूम...' तभी महाराज ने मुझे देख लिया, "भैयाजी, तुम बता दो सच–सच, तुमने तो नहीं ली..."

मैंने स्वाभाविक ढंग से कहने की कोशिश की, "मैं तो तभी चला गया था।" हर पल डर लगा था, कहीं यह शांति इकन्नी वाली बात न बता दे...

शांति ने तो नहीं बताई, मगर बाज़ार में ही किसी ने बता दिया कि अभी मैं हलवाई की दुकान पर कलाकंद खा रहा था...मैंने चुपके–से मुट्ठी में दबा कलाकंद का दोना नीचे सरकाया और रोता हुआ ऊपर भागा, "महाराज हमारे ऊपर झूठी चोरी लगाते हैं। हमने इकन्नी नहीं चुराई...नहीं चुराई..." खिसियाने से महाराज पलटकर फिर दुकान पर जा चढ़े और संटियों से फिर शांति की खबर लेने लगे...

उस दिन महाराज ने उसे इतना पीटा कि दो दिन तक उसकी सिकाई करते जाते ओर रोते जाते। वह उनकी इकलौती, बिना माँ की लड़की थी। मैं ऊपर जाकर सचमुच रोया। हर बार मन में उठकर बात रह जाती कि मैं जाकर स्वीकार कर लूँ और शांति को बचा लूँ। कम्बख्त, पिटते हुए इसने अब तक मेरा नाम ही न ले लिया हो।

महाराज तो अब क्या होंगे, कल्पना में न जाने कितनी बार मैंने शांति से हंसकर कहने की कोशिश की है, " शांति, उस दिन इकन्नी मैंने ही चुराई थी...'

वह गंभीर होकर जवाब देती लगती है, 'मैं जानती हूँ।'

'फिर तूने क्यों नहीं बताया?' तब तक वह गायब हो चुकी होती है। मैं अभी तक उम्मीद करता रहता हूँ कि शायद जवाब मिलेगा। हाँ, उसकी पीठ पर पड़ने वाली हर संटी को मैं आज भी अपने शारीर पर महसूस करता हूँ।