पहाड़ी जीवन / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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मोटर-एजेंसी के सामने वाले उस भीड़-भड़क्के के उस निरर्थक, विशृंखल, पुँजीभूत कोलाहल के एक छोर पर खड़ा हुआ गिरीश सोच रहा था - ‘क्या मैं यही सब देखने आया हूँ? यही है पहाड़ों का जीवन और आन्तरिक सौन्दर्य?’

गिरीश लाहौर का रहनेवाला है, विद्यार्थी है, युवा है और युवकों की साधारण भावुकता से भी सम्पन्न है। और इन सबके अतिरिक्त वह धनिक नहीं है। तो भी ऐसा है कि उसे कभी पहाड़ जाने के लिए खीस के बहाने घर से रुपये मँगा कर जोड़ने नहीं पड़ते, बिना बहाने ही मिल जाते हैं।

हाँ, तो गिरीश ने निश्चय किया है कि उसमें साहित्यिक प्रतिभा है और उसी को पनपने का अवसर देने के लिए वह यहाँ आया है। अनुभव से जानता है कि जो लोग पहाड़ों में जाते हैं, वे कुछ भी देखकर नहीं आते, कुछ देखने आते भी नहीं। उनसे कोई पूछे कि अमुक स्थान में क्या देखा या अमुक स्थान का जीवन कैसा है, तो केवल इतना ही बता पाते हैं कि वहाँ ठंड बहुत है, या बर्फ़ का दृश्य बहुत सुन्दर है या वहाँ घोड़े की सवारी का मज़ा आता है! बहुत हुआ तो कोई यह बता देगा कि वहाँ चीड़-वृक्षों में हवा चलती है तो उसका स्वर ऐसा होता है या कि वहाँ किसी जल-प्रपात को देखकर जीवन की नश्वरता का या अजस्रता का, अथवा प्रेम की अचल एकरूपता का, या अस्थायित्व का, या अपनी-अपनी रुचि के अनुसार ऐसी ही किसी बात का स्मरण हो आता है... पर, क्या यह सब वहाँ का जीवन है? क्या यही दर्शनीय है, और बस? क्या वहाँ के वासी चीड़ के वृक्ष खाकर जीते हैं या जल प्रवाह पहनते हैं, या बर्फ से प्रणय करते हैं, या घोड़ों पर रहते हैं?

गिरीश इन्हीं सब प्रश्नों का उत्तर पाने और उस उत्तर को शब्दबद्ध करने यहाँ आया है। उसका विश्वास है कि वह यहाँ के जीवन की सत्यता देखकर जाएगा और लिखेगा। वह उस दिन का स्वप्न देख रहा है, जब उसकी रचनाएँ प्रकाशित होंगी और साहित्य-क्षेत्र में तहलका मच जाएगा, लोग कहेंगे कि न-जाने इसने कहाँ कैसे यह सब देख लिया, जो लोग इतने वर्षों में भी नहीं देख पाये।

यह सब उसे एक दिन लाहौर में बैठे-बैठे सूझा था। और उसने तभी तैयारी कर ली थी और दो-तीन सप्ताह के लिए डलहौज़ी चला आया था। यहाँ आकर उसने अपना सामान इत्यादि एक होटल में रखा और खाना खाकर घूमने-पहाड़ी जीवन देखने-निकल पड़ा। किन्तु उसने देखा, वह जीवन वैसा नहीं है जो स्वयं उछल-उछल कर आँखों के आगे आये, जैसा कि आजकल की सभ्यता का, आत्म-विज्ञापन का जीवन होता है। जब वह शाम को होटल लौटा, तब उसने देखा, उसका मस्तिष्क उससे भी अधिक शून्य है, जैसा वह लाहौर में था! क्योंकि गिरीश उन चित्रों और दृश्यों की ओर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं था जो और लोग - ‘साधारण लोग’ - देखते हैं। वह अपने कमरे में बैठ कर सोचने लगा कि कहाँ जाकर वह पहाड़ी जीवन का असली रूप देखे; किन्तु न जाने क्यों उसका मन इस विचार में भी नहीं लगा, भागने लगा। उसे न जाने क्यों एकाएक अपनी एक बाल्य-सखी और दूर के रिश्ते की बहिन करुणा का ध्यान आया, जो सदा पहाड़ पर जाने के लिए तरसा करती है, जो कहती रहती है कि पहाड़ का जीवन कितना स्वच्छन्द होगा, कितना निर्मल, कितना स्वतःसिद्ध - जैसे कि आनन्दातिरेक से अनायास गाया हुआ शब्दहीन आलाप! वह सोचने लगा कि क्या सचमुच पहाड़ी जीवन ऐसा ही होता है, या यह उसकी भावुक बहिन का इच्छा-स्वप्न है?

काफ़ी देर तक ऐसी बातें सोच चुकने पर जब उसे एकाएक विचार आया कि वह पहाड़ी जीवन का पता लगाना चाहता है, न कि करुणा की प्रकृति पर विचार करना, तब वह खीझ कर उठ बैठा। फिर उसने निश्चय किया कि कल वह जाकर बाज़ार में बैठेगा और वहाँ पहाड़ी लोगों को देखेगा - नहीं, वहाँ क्यों, वह मोटर के अड्डे पर जाएगा, जहाँ सैकड़ों पहाड़ी कुली आते हैं। वहीं उनका सच्चा रूप देखने को मिलेगा। उनके वास्तविक जीवन की झलक तो केवल तब देखने में आती है, जब मानव किसी आर्थिक दबाव का अनुभव करता है।

और यही निश्चय आज उसे यहाँ लाया था, जहाँ आधा घंटा बैठने के बाद वह उकता कर सोच रहा है-‘क्या यही देखने मैं आया हूँ? क्या यही है पहाड़ी जीवन और उसका आन्तरिक सौन्दर्य?’

गिरीश एक मोटर कम्पनी के दफ़्तर में बैठा है, उसके आस-पास और भी लोग हैं, जो आनेवाली लारियों की प्रतीक्षा में हैं-कुछ तो अपने मित्र या सम्बन्धियों की अगवानी के लिए और कुछ होटलों के एजेन्ट इत्यादि। बाहर कोई सौ-डेढ़ सौ कुली, जिनमें कुछ कश्मीरी हैं बैठे, खड़े या चल-फिर रहे हैं। कोई सिगरेट पी रहा है, कोई गुड़गुड़ी; कोई तम्बाकू चबा रहा है; कोई अपने जूते उतार कर हाथ में लिये उनकी परीक्षा में तन्मय हो रहा है; कोई एक रस्सी का टुकड़ा अपनी उँगली पर ऐसे लपेट और खोल रहा है, मानो वही जगन्नियन्ता की सबसे बड़ी उलझन हो और वह उसे सुलझा रहा हो; कोई हँस रहा है; कोई शरारत-भरी आँखों से किसी दूसरे की जेब की ओर देख रहा है, जो किसी अज्ञात वस्तु के विस्तार से फूल रही है; कोई एक शून्य थकान-भरी दृष्टि से देख रहा है - न-जाने किस ओर; कोई अपने आरक्त नेत्र मोटर कम्पनी के साइनबोर्ड पर गड़ाये हुए है; और एक-आध बूढ़ा, भीड़ से अलग खड़ा, अन्धों की विशेषतापूर्ण, उत्सुक और अभिप्राय-भरी दृष्टि से (यदि अन्धी भी दृष्टि हो सकती है तो) देख रहा है अपने आगे के सभी लोगों की ओर, यानी किसी की ओर नहीं... पर गिरीश को जान पड़ता है और ठीक जान पड़ता है कि इस प्रकार अपने विभिन्न तात्कालिक धन्धों में निरत और व्यस्त जान पड़नेवाले इन व्यक्तियों की वास्तविक दृष्टि, वास्तविक प्रतीक्षा, किसी और ही ओर लगी हुई है। इन लोगों के सामान्य शारीरिक उद्योग से कुचले हुए शरीरों के भीतर छिपी हुई है भूखे भेड़िये की-सी प्रमादपूर्ण और अन्वेषण तत्परता, जो लारियों के आते ही फूट पड़ेगी।

और झुंड से कुछ दूर पर, एक ही इकाई में बँधी-सी खड़ी हुई हैं कई-एक पहाड़ी औरतें, अधिकांश पीठ पर डाण्डियाँ बाँधें, कुछ-एक छाती से दुध-मुँहा बच्चा भी चिपकाये हुए। कुछ की डाण्डियाँ तो साफ हैं और शायद किराये के लिए हैं; पर बाकी की काली हो रही हैं। जान पड़ता है, ये कोयला बेचने आयी थीं और अब वापस जाते हुए क्षण-भर के लिए तमाशा देखने के लिए खड़ी हो गयी हैं - क्योंकि स्त्रियों को तो भीड़-भाड़, शोर-गुल और रंग-बिरंगी चहल-पहल बहुत अच्छी लगती है न...

यहाँ आकर गिरीश की विचार-धारा एकाएक रुक गयी। कुछ तो शायद इस लिए कि उसे सहसा ध्यान आया कि इस दिशा में सोचते रहने का कोई फल नहीं हो सकता, किन्तु विशेषकर इसलिए कि उसका ध्यान आकृष्ट हुआ उसके पास बैठे हुए अन्य लोगों की ओर और उनकी बातचीत की ओर...

कोई कह रहा था - ‘‘पहाड़ी लोग? इनसे काम कराना हो, तो एक ही तरीका है, एक-आध को पकड़ कर पीट दो। बस, फिर असम्भव भी सम्भव हो जाता है।’’

गिरीश ने इस व्यक्ति की ओर ध्यान से देखा। वह एक हट्टा-कट्टा पंजाबी था, उसकी छोटी-छोटी आँखें, क़लम के झटके से लिखी हुई-सी भौंहे, तोते की चोंच की भाँति मुड़ी हुई नाक, पतली और चंचल नसें, सिगरेट के धुएँ से पीली पड़ी हुई मूँछें और झुलसे हुए ओठ-सब इस बात के प्रमाण थे कि यह व्यक्ति झूठ नहीं कह रहा है कि यह उपेक्षापूर्ण क्रूरता उसका जीवन-दर्शन ही है - केवल पहाड़ियों के बारे में एक विचार-मात्र ही नहीं...

इससे हटकर गिरीश की दृष्टि दूसरे व्यक्ति की ओर गयी। दो-तीन तो वहीं के (एजेंसी के काम करने वाले) थे, उन्हें गिरीश छोड़ गया। एक और था, खूब मोटा-सा आदमी, धोती और डबल-ब्रेस्थ कोट पहने, किसी तीखे सेंट की सौरभ में डूबा हुआ, ऊपर के ओठ पर तितली के परों-सी मूँछ मानो चिपकाये, और आँखों में एक उद्दंडता, एक बेशर्म औद्धत्य लिए हुए। इस व्यक्ति को दूसरे लोग ‘सेठ साहब’ कहकर सम्बोधन कर रहे थे।

इस ग्रुप का तीसरा व्यक्ति वर्णन से परे था। वह दुबला और साँवला था, इसके अतिरिक्त उसका कुछ वर्णन यदि हो सकता था, तो यही कि उसकी आयु का, उसके घर का और उसकी जात-पाँत का कुछ अनुमान नहीं हो सकता था - यह उन व्यक्तियों में से था, जो बहुत घूमते-फिरते हैं, और जहाँ जाते हैं, वहाँ अपने व्यक्तित्व का थोड़ा-सा अंश खोकर वहाँ के थोड़े-से ऐब ले लेते हैं; तब तक, जबकि अन्त में सर्वथा व्यक्तित्वहीन किन्तु सब अवस्थाओं के ऐबों से पूर्ण परिचित नहीं हो जाते। ऐसे व्यक्ति पहाड़ों में और अन्य स्थानों में, जहाँ लोग बसते नहीं, केवल आते-जाते हैं, अक्सर देखने में आते हैं।

गिरीश आगे सुनने की प्रतीक्षा में था कि कौन क्या कहता है। तब यह अन्तिम व्यक्ति बोला, ‘‘हाँ, आप ठीक कहते हैं। मुझे याद है, कई बरस हुए, मैं इधर कांगड़े की तरफ़ सैर कर रहा था, तब एक खच्चर वाले ने बहुत तंग किया - थोड़ी दूर जाकर कहने लगा कि खच्चर नहीं चलता, उसे कुछ नाज खिलाना है, पैसे दीजिए! मैंने तंग आकर दो थप्पड़ जमाये, तो बोला, आप अपना सामान उतरवा लीजिए, मैं नहीं जाता। तब तो मैंने उसे खूब ही पीटा-मेरे पास बल्लम था, उसके कुन्दे से मारा। ऐसे ही उसे साथ ले गया और फिर दण्ड-स्वरूप पैसे नहीं दिये।’’

‘‘तो खच्चर फिर चला?’’

‘‘चलता कैसे नहीं? असल में ये लोग उन्हें चलाते ही नहीं, जैसे चाहे चलने देते हैं। भला, ऐसे भी कोई जानवर चलता है?’’

‘‘हूँ।’’

थोड़ी देर तीनों व्यक्ति चुप रहे-बाहर एक दृश्य की ओर देखते रहे। गिरीश ने उनकी दृष्टि का अनुसरण करके देखा, एजेंसी के सामने खुले चौक में एक घोड़े वाला अपना घोड़ा लादने के विरुद्ध प्रतिवाद कर रहा था। उसे घोड़े पर लादने के लिए दो पेटियाँ दी गयी थीं-एक बहुत बड़ी और एक बहुत छोटी; और वह कह रहा था कि वे घोड़े पर नहीं लद सकतीं, क्योंकि दोनों ओर बराबर बोझा होना चाहिए। जिसकी पेटियाँ थीं, वह कह रहा था, ‘‘लद कैसे नहीं सकतीं? लाद लो, जरूरी जानी हैं।’’ और घोड़ेवाले के सारे तर्क का उत्तर वह यही दे रहा था कि ‘‘भार ठीक कैसे नहीं हैं? कुल तीन मन होगा - घोड़े तो छै-छै मन लाद कर ले जाते हैं!’’

इसी घटना को देखते-देखते उपर्युक्त बात छिड़ी थी, क्योंकि पेटियों का मालिक तेज़ होता जा रहा था और सब ओर यही प्रतीक्षा थी कि घोड़ेवाला या तो किसी प्रकार का बोझ लादता है, चाहे उतने पत्थर डाल कर ही बोझ को एक-सा करता है, या फिर पेटीवाले से पिटता है। कुली भी इसी दृश्य को देखने की उत्कंठा से उधर घिरे आ रहे थे। कुछ औरतें भी पास आकर देख रहीं थीं।

और गिरीश भी देख रहा था...

एकाएक मोटे सेठ साहब के भीतर कहीं गड़गड़ाहट का-सा शब्द हुआ। उसे सुनकर और सेठ साहब के मुख की परिवर्तनशील गति को देखकर गिरीश ने जाना कि सेठ साहब हँस रहे हैं। तब सेठ साहब एक भारी आवाज़ में - बहुत पान खाने से उनका गला बहुत बैठ रहा था और जवान मोटी हो गयी थी, कहने लगे, ‘‘मुझे भी एक बात याद आ गयी। मैं एक बार पहले इधर आया था, तब मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था। तब इधर इतनी बस्ती तो थी ही नहीं, घोड़े ढूँढ़ने से मिलते थे। जो किरायेवाले होते भी थे, वे नखरे करते थे - बाद में चाहे सस्ते ही मिल जाएँ। हाँ, तो मैं इधर जा रहा था चम्बे की ओर; घोड़ेवाले ने कुछ शरारत की। मुझे याद नहीं क्या बात थी, कुछ ऐसा ही झगड़ा था कि सामान बराबर-बराबर नहीं बँटता, इसलिए नहीं लादा जा सकता। अगर एक बिस्तरा खोल दिया जाए, तभी ठीक हो सकता है। ज़रा सोचिए तो, एक मनहूस घोड़े के लिए मैं अपना बिस्तर खोलकर सड़क पर बिखेरूँ? मैंने घोड़े वाले से कहा कि तुम्हें लेना पड़ेगा। उस बद-दिमाग ने जवाब भी नहीं दिया, यों हाथ नचाकर बतलाने लगा कि असम्भव है। फिर मैंने भी वही किया - उसके एक ही तमाचा ऐसा दिया कि ठीक हो गया।’’ - कहकर सेठ साहब ने अभिमान से अपने फूले हुए हाथ की ओर देखते हुए कहा, ‘‘और चल पड़ा।’’

रुक कर सेठ साहब ने एक बार चारों ओर देखा, यह जानने के लिए कि सब उनकी बात सुन रहे हैं या नहीं। फिर सन्तुष्ट होकर बोले, ‘‘हाँ, मज़े की बात तो अब आती है। दूसरे ही दिन उस घोड़ेवाले ने घर-बार छोड़ दिया और संन्यासी हो गया। किसी से कह गया कि यह घोड़े हाँकने का काम मुझसे नहीं होता।’’

सेठ साहब ने फिर आत्मतुष्ट दृष्टि से सब ओर देखा और चुप हो गये।

गिरीश एक नये क्षीण-से कौतूहल से उस भीड़ की ओर देखने लगा, जो बाहर जुट रही थी। सोचने लगा कि इन लोगों में क्या सभी का जीवन एक-सा ही है - दिन-भर टें-टें, चें-चें करना, घोड़े हाँकना और शाम को खा-पीकर सो रहना, या ग़लौज कर लेना?

एकाएक उसकी दृष्टि अटक गयी - बैंगनी रंग के एक रूमाल के नीचे एक स्त्री-मुख पर। एक स्त्री-मुख में जड़ी हुई आँखों पर।

जो भीड़-सी इकट्ठी होकर सेठ की बात सुन रही थी - सुन नहीं रही थी, कानों से उसी भाँति बीन रही थी, जिस भाँति किसी धनिक की थाली में गिरी हुई जूठन को कुत्ते बीन कर खाते हैं -उसी भीड़ के स्त्री-अंश में से एक स्त्री कुछ आगे बढ़कर खड़ी थी एकाएक जड़ित हुई गति की अवस्था में, एक पैर कुछ आगे बढ़ा हुआ, शरीर सहसा रुकने के कारण कुछ पीछे खिंचा हुआ-सा, एक हाथ उठा हुआ माथे पर टिककर प्रकाश से आँखों पर ओट करता हुआ, ताकि आँखें अच्छी तरह देख सकें।

और वे आँखें? इस हथेली से संचित किये अन्धकार में वे स्थिर दीप्ति से चमक रही थीं, मानो शुक्र तारों का जोड़ा दीप्त हो रहा हो। और वे देख रही थीं घूर-घूरकर उस सेठ के मुँह की ओर, मुँह पर स्थिर रहकर भी सारे शरीर की ओर, मानसिक झुकाव की ओर...

गिरीश ने बड़े यत्न से अपनी आँखें उन आँखों से हटायीं और उस स्त्री का सम्पूर्णत्व देखने लगा।

उसकी वेश-भूषा बिलकुल साधारण थी - सिर पर कस कर बाँधा हुआ बैंगनी रंग का रूमाल, कानों में चाँदी के झुमके, गले में एक लम्बा सफ़ेद कुरता (जो कभी सफेद था, अब नहीं है), जिसके ऊपर एक मनकों का हार, उसके नीचे मटियाले रंग की छींट का तंग पैजामा। किन्तु उसे देखकर ध्यान उस वेश की साधारणता की ओर नहीं, बल्कि उससे वेष्टित व्यक्तित्व की असाधारणता की ओर आकृष्ट होता था।

यद्यपि उसमें असाधारण क्या था? वह कोई विशेष सुन्दर नहीं थी, उसमें कुछ विशेष नहीं था, सिवा उन आँखों की उस स्थिरता के-वह इतनी तीखी और कठोर थीं कि निर्लज्ज तक जान पड़ती थीं, जैसे किसी संसारी अनुभव-प्राप्त पुरुष की।

किसी असाधारण वस्तु के देखने से जो एक हल्का-सा, शारीरिक खिंचाव-सा होता है, उसमें शायद शरीर की और इन्द्रियों की अनुभूति-शक्ति बढ़ जाती है, या शायद कोई अन्य अमानवीय इन्द्रिय काम करने लग जाती है। किसी ऐसी ही क्रिया के कारण गिरीश को मालूम हुआ कि उसके सामने की भीड़ के वातावरण में कुछ परिवर्तन हो गया है। उसने जाना कि कोई व्यक्ति भद्दे अभिप्राय से उस स्त्री की ओर देख रहा है, उसे हाथ से थोड़ा-सा हिलाकर सेठ साहब को इंगित करके कह रहा है, ‘‘हाँ, हाँ वह अमीर है... और-वैसा है...’’ उसने जाना कि स्त्री का ध्यान एकाएक टूट गया है वह कुछ सहम कर पीछे हट रही है।

वह उस समय तक वैसी ही खड़ी थी। गिरीश ने देखा, अपनी साधारण आँखों से देखा कि उस स्त्री के चिबुक पर एक छोटा-सा हल्के-नीले रंग का, गोदा हुआ बिन्दु है। इसके साथ ही उसकी वह विस्तृत हुई अनुभूति-शक्ति भी सकुच कर अपनी साधारण अवस्था में आ गयी।

वह स्त्री पीछे हट गयी; हट कर पास खड़े एक और पहाड़ी को देखकर उससे धीरे-धीरे कुछ कहने लगी, जिसे गिरीश नहीं सुन पाया। उस पहाड़ी से बात करते समय भी वह देख रही थी सेठ साहब की ओर ही। जब उसकी बात सुनकर उस पहाड़ी ने प्रश्न-भरी दृष्टि से मोटर-कम्पनी के दफ़्तर के भीतर देखा, तब उसने हाथ उठाकर सेठ साहब की ओर इशारा किया।

सेठ साहब ने भी यह अभिनय देखा। उन्हें शायद कुछ कौतूहल हुआ; शायद इस बात से उनकी आत्मश्लाघा को कुछ आहार मिला कि कोई उनकी ओर इशारा करके उन्हें और व्यक्तियों से विशिष्ट महत्त्व दे रहा है; पर आखिर वह थी तो स्त्री ही। सेठ साहब ने अपने भारी गले से कोमल, किन्तु किसी जुगुप्सा-जनक अभिप्राय से कोमल स्वर निकालने की चेष्टा करते हुए पूछा, ‘‘क्यों, क्या चाहिए?’’

वह स्त्री घबराकर घूम गयी और उस पहाड़ी के साथ, जिससे उसने कुछ कहा था, जल्दी से भीड़ में से निकलकर अदृश्य हो गयी। गिरीश की स्मृति में उसका तो कुछ रहा नहीं, रहा केवल उसकी पीठ पर लदी हुई कोयले की धूल से काली डांडी का एक धूमिल चित्र; किन्तु मन में उससे सम्बद्ध अनेकों विचार उठने लगे। पूछने लगे कि वह अभिनय क्या था, भाँपने लगे कि उन दीप्त स्थिर आँखों का रहस्य उन्हें ज्ञात हो।

होगा, होगा... होता ही होगा... यही देखने, यही जानने तो वह यहाँ आया है, यही तो यहाँ के जीवन का छिपा हुआ रहस्य है, जो सतह के पास ही रहता है; किन्तु देखने में नहीं आता। वह इसी को उघाड़ कर रखेगा और अपना नाम अमर कर जाएगा।

और उसका ध्यान फिर गया करुणा की ओर। वह और करुणा बाल्यसखा थे; किन्तु पिछले दिनों धीरे-धीरे न जाने क्यों और कैसे अलग-अलग हो गये थे-वैसे ही, जैसे सभी लड़के-लड़कियाँ एकाएक वयःसन्धि के काल में हो जाते हैं-परस्पर रूखे, उदासीन, एक-दूसरे को न समझ सकनेवाले, विचार-विनिमय में असमर्थ। आज गिरीश यह भी नहीं कह सकता कि वर्तमान संसार के प्रति करुणा के भाव में क्या हैं, वह संसार को क्या समझती है और उससे क्या आशा करती है? वह सुखी भी है या नहीं, इसका उत्तर भी गिरीश नहीं दे सकता, यद्यपि करुणा से जितना परिचय उसका है, उतना शायद ही किसी का होगा।

यह क्यों है? ऐसा क्यों है कि वह करुणा के विचारों की यदि कोई बात जानता है, तो यही कि करुणा पहाड़ों को चाहती है, उनमें रहने की इच्छुक है, उनसे स्वतन्त्रता की और सुख की आशा करती है, और यह भी इसलिए कि एक बार चोरी से उसने करुणा के लिखे हुए कुछ पन्ने पढ़े थे। इसीलिए कि हम अपनी आँखें खुली रखकर भी अपने घर में ही कुछ नहीं देखते-देख नहीं पाते। हममें से कितने हैं जो अपने घर में ही अपने भाई-बहिनों के विचार जानते हैं, समझते हैं या जानने-समझने की चेष्टा भी करते हैं?

गिरीश सोचने लगा, मैं यहाँ क्यों आया हूँ? क्या यह अधिक उचित नहीं है कि घर जाकर पहले अपने निकटतम लोगों का जीवन समझूँ, फिर उसी का आश्रय लेकर यहाँ के जीवन का अध्ययन करूँ? क्योंकि प्रत्येक वस्तु को कसा तो किसी कसौटी पर ही जा सकता है, और उसके पास कसौटी तो कोई है ही नहीं।

नहीं, है क्यों नहीं? वह क्या इतने दिन तक आँखें बन्द ही किये रहा, क्या उसने संसार ही नहीं देखा, वह समझ सकता है और विचार कर सकता है, उसमें इतना विवेक है कि वह पहाड़ी जीवन को देखे, उसका सत्य अलग करके जाँच सके। और वह देखेगा, अवश्य देखेगा। करुणा का क्या है, वह तो घर में है ही, उसे किसी भी दिन जाकर गिरीश समझ सकता है। स्त्रियों को समझना कौन बड़ी बात है? और फिर करुणा को वह इतने दिनों से जानता है, वह कुछ छिपाएगी थोड़े ही!

और फिर, यह जो आज अभिनय देखा है, वह समझे बिना कैसे जाया जाय? यह मन से निकल नहीं सकता, जब तक उसका उत्तर न पा लिया जाए। और गिरीश समझता है कि वह ठीक पथ पर चल रहा है, उससे यह रहस्य छिपा नहीं करेगा, स्वयं भी खुलेगा और पहाड़ी जीवन की सत्यता भी दिखा जाएगा।

गिरीश उठा और होटल की ओर चल दिया। उसे इसकी परवाह न रही कि अब लारियाँ आने ही वाली हैं, अब पहाड़ी जीवन का एक पहलू देखने को मिलेगा। उसका चेतन मन उस स्त्री की बात पर विचार कर रहा था और अवचेतन मन निश्चय कर रहा था कि करुणा को पत्र लिखना है... उसने यह भी नहीं देखा कि कुलियों में एकाएक कोई नयी स्फूर्ति आ गयी-क्यों...

2

एक सप्ताह के-पहाड़ में आये हुए यात्रियों के-से जीवन के निरर्थक एक सप्ताह के बाद।

गिरीश डलहौज़ी से सैर करने निकलकर, चम्बे के रास्ते पर चल पड़ा था और लक्कड़मंडी में एक चीड़ की छाया में बैठा हुआ था। पास एक छोटी कापी, कुछ खुले काग़ज़ और फ़ाउंटेनपेन रखा हुआ था, हाथ में एक पत्र के दो-चार पन्ने थे, जिन्हें वह अभी कोई पाँचवीं-छठी बार पढ़ चुका था।

गिरीश होटल से यहाँ आया था कि एकान्त में बैठ कर कुछ विचार करेगा, कुछ लिखेगा, लिखने के लिए कुछ सुलझा कर मैटर रखेगा, पर साथ ही वह ताज़ी डाक में आए हुए पत्र भी ले आया था कि यहीं चलकर पढ़ूँगा और यदि जवाब भी देना होगा, तो वहीं लिख दूँगा। इन पत्रों में एक करुणा का भी था, जिसे उसने अभी पढ़ा है और जिसने उसके लिखने के विचारों को बिलकुल बिखेर दिया है।

यह नहीं कि गिरीश कुछ सोच ही न रहा हो; किन्तु वे विचार हैं उलझे हुए, पागलपन से भरे, अशान्ति को ओर बढ़ानेवाले। वह सोच रहा है कि मैंने क्यों करुणा को पत्र लिखा? जो हमारा बाल्य-सख्य टूट-सा गया था, उसे क्यों भावुकता के आवेश में आकर जमाने की चेष्टा की? क्योंकि यह आज की करुणा नहीं है, वह करुणा भी नहीं, जो पहाड़ी जीवन की स्वच्छन्दता के लिए तरसती थी। यह तो एक नयी कठोर, अत्यन्त अकरुण किन्तु जीवन से छलकती हुई करुणा है जिसे उसके पत्र ने जगा दिया है और जिसे अब कुछ लिख नहीं सकता, क्योंकि जिस आग्नेय तल पर करुणा का पत्र लिखा गया है, उस तल पर वह कैसे पहुँच सकता है, यद्यपि करुणा ने उसे ऐसे पत्र लिखा है, जैसे वह कोई बड़ा कवि, या पहुँचा हुआ फिलासफर हो-उस पत्र में से इतना विश्वास, इतनी श्रद्धा टपकती है।

गिरीश फिर एक बार उस अंश को पढ़ने लगा - ‘‘आपने पूछा है, मेरे जीवन में क्यों यह परिवर्तन आ गया है, क्यों मैं ऐसी अशान्त-सी रहती हूँ? आप पूछते हैं; पर मैं आपको न लिखूँगी, तो किसको लिखूँगी? यहाँ के लोगों को जिन्हें इतना भी पता नहीं कि शान्ति क्या होती है?

‘‘मैं तो पूरा लिख भी नहीं सकती, थोड़ा-सा ही लिखती हूँ।

‘‘मुझे आपकी कहानी के शब्द ‘जिस देश में पुरुष भी गुलाम हों, उसमें स्त्री होने से मर जाना अच्छा है’, रह-रहकर याद आते हैं। और कहूँ कि यही मेरी अशान्ति का सार है। मैं ऐेसे देश की स्त्री हूँ-और ऐसे देश में भी, जो गुलाम समाज है उसकी, हिन्दू समाज की।’’

गिरीश को याद आया कि उसने अपनी कौन-सी कहानी में किस स्थान पर यह लिखा था। वह सोचने लगा, मैंने अपनी बुद्धि से जो लिखा था केवल प्रभाव के लिए, उसे सच समझने वाले, उसका यथातथ्य अनुभव करनेवाले भी संसार में हैं। इस विचार से वह एकाएक सहम-सा गया, वैसे-ही, जैसे कोई शिकारी पहले बन्दूक चलाये और फिर उसकी घातक शक्ति का प्रमाण पाकर एकाएक सहम जाये। और वह पढ़ने लगा-‘इस देश में स्त्री होकर जन्म लेना मृत्यु-यन्त्रणा से भी बढ़ कर ही है। मृत्यु तो यन्त्रणाओं से छुटकारा दे देती हैं; किन्तु यह जन्म स्वयं समस्त यन्त्रणाओं का मूल है। आप इसे गौरव समझें या साहस; किन्तु उन्हें जीना पड़ता है। और वे कहीं से तनिक-सी सहानुभूति पा लें, तो उसके दाता के हाथ मानो बिक जाती हैं, बाज़ारू कुत्ते की भाँति वे अपना यह अधिकार भी नहीं समझतीं कि उन्हें सहानुभूति मिले! इस प्रकार वे कब कितना धोखा खाती हैं, पतन की ओर कैसे बढ़ती जाती हैं, समझ नहीं पातीं। समझें कैसे? निचाई का अनुभव वे कर सकते हैं, जिन्होंने कभी ऊपर उठ कर देखा हो; पर हम स्त्रियाँ तो सदा से ही दलित हैं!

‘‘भइया, आप लेखक हैं, आपमें शक्ति है, प्रतिभा है, आपके पास साधन भी हैं, आप स्त्रियों को जगाइये। उनके लिए लड़ते नहीं तो न सही, उनकी सोती शक्ति का आह्वान तो कर दीजिए, फिर देखिए-’’

गिरीश को ऐसा जान पड़ा, कोई उसके भीतर कहने को हो रहा है कि मैं क्या कर सकता हूँ? मैं तो कुछ जानता नहीं, कुछ देख ही नहीं सकता; किन्तु उसके अहंकार ने इसे दबा दिया। वह आगे पढ़ने लगा-परमात्मन्! हमें क्या हुआ है, जो हम मरने के योग्य होकर भी मरती नहीं, अहंकार में डूबी हुई हैं; ज़ंजीरों में जकड़ी जाने में ही अपना स्वातन्त्र्य समझती हैं?

‘‘-धिक्कार है हमारे जीवन को!’’

गिरीश ने पत्र लपेट कर जेब में डाल लिया और सोचने लगा, मुझमें क्यों लोगों को श्रद्धा है, क्यों वे मुझसे आशाएँ करते हैं? यदि मैं कुछ न कर सका तो? यह उत्तरदायित्व मेरे सिर पर क्यों लादा जा रहा है? एकाएक वह खीझ उठा। यों मैं विवश किया जा रहा हूँ कि किसी एक दिशा में अग्रसर होऊँ, क्यों न अपनी स्वच्छन्द प्रगतियों का अनुसरण करूँ? कला तो किसी बाह्य प्रेरणा से चलती नहीं, वह तो स्वयं प्रमुख प्रेरक है।

इस निर्णय के बाद वह विचार लीन हो गया। दूसरा उठा कि क्या करुणा ठीक कहती है? क्या स्त्रियों के जीवन सचमुच ऐसे हो रहे हैं? क्या इसका कारण यही है कि पुरुष भी दास हैं? एकाएक उसे एक वाक्य सूझा, जिसका वह पूरा अभिप्राय नहीं समझा; पर जो उसे सुन्दर जान पड़ा। उसने काग़ज़ पर इसे लिख लिया, भविष्य में कहीं काम में लाने के लिए-‘‘अधिकारी देश की शक्ति वहाँ के पुरुष होते हैं, स्त्रियाँ केवल एक अधोमुखी प्रेरणा किन्तु पराधीन देश का जीवन होती हैं उसकी स्त्रियाँ ही, जिनके बिना वहाँ के पुरुषों का भविष्य अत्यन्त अन्धकारपूर्ण है।’’

वह सोचने लगा, यह दासत्व क्या एक बाह्य बन्धन है, या अन्तःशक्ति की एक निष्क्रिय परमुखापेक्षी अवस्था? आदमी केवल बँध जाने से ही दास नहीं हो जाता। दासता तो एक आत्मगत भावना है। तभी तो जो दास हो जाते हैं, वे स्वाधीनता पाकर उसका उपभोग नहीं कर सकते, न कभी उसकी इच्छा ही करते हैं।

उसे एक घटना याद आयी, जो उसी दिन की घटी थी, और जैसी यहाँ नित्य सैकड़ों बार घटती हैं। उसने उसे एकाएक ग्लानि से भरा दिया था।

वह कुछ सोचता हुआ चला आ रहा था, इधर ही लक्कड़मंडी की ओर। एका-एक उसने सुना कि एक बालक उसे देखकर, पथ की एक ओर खड़ा होकर कह रहा है, ‘‘सलाम, साहब!’’ गिरीश को यह कुछ अच्छा-सा लगा। उसने कुछ मुस्करा कर उत्तर दिया, ‘‘सलाम।’’ तब बालक ने एक दीन स्वर में, जो सर्वथा स्वाभाविक नहीं था, बालकों की स्वाभाविक नक़ल करने की शक्ति से प्रेरित था, कहा ‘‘बक्शीश,साहब!’’ गिरीश को एकाएक ध्यान आया, यह सलाम उसे नहीं, उसके सिर पर के टोप को किया गया था और वह भी एक पैसे की आशा में। वह सोचने लगा, यह है दासत्व की पराकाष्ठा, जहाँ पर किसी टोप को देख कर उसके आगे झुकना और झुकने के पुरस्कार-रूप में कुछ पाने की आशा करना एक अनैच्छिक क्रिया हो गयी है, और वह भी बच्चे-बच्चे में अभिभूत; और इतनी सामान्य कि लोगों का ध्यान ही इसके गूढ़ अभिप्राय की ओर नहीं जाता। वे सलाम ले लेते हैं और चले जाते हैं, और स्वयं हैट पहने रहते हैं।

इन विचारों की उग्रता से शायद गिरीश का मन थक गया। वह चीड़ के वृक्ष के सहारे लेट गया और आकाश की ओर देखने लगा।

एक परिचित स्वर ने उसे चौंका दिया। जिस स्थान पर वह बैठ गया था, वहाँ से लक्कड़मंडी की बस्ती दीखती थी। उसी के पास गिरीश ने देखा, उस दिन वाले सेठ साहब एक पहाड़ी आदमी से पूछ रहे हैं, ‘‘क्यों बे, इस बस्ती का नाम क्या है?’’

‘‘क्यों बाबू, तुम्हें क्या काम है! तुम जाओ, इधर क्या करते हो?’’

‘‘बकवास मत कर! यह जगह तेरे बाप की खरीदी हुई है?’’

‘‘बाबू, बहुत बोलो मत! चुपचाप चले जाओ! नहीं तो अच्छा न होगा।’’ कहकर पहाड़ी नीचे बस्ती की ओर देखने लगा, मानो सहायता के लिए पुकारेगा। सेठ साहब भी यह देख कर कुछ ठंडे पड़ गये, भुनभुनाते हुए लौट पड़े। थोड़ी देर में वह गिरीश की आँखों से ओझल हो गये। गिरीश इस घटना पर विचार करने लगा - उसकी समझ में न आया कि वह पहाड़ी क्यों इतनी बदगुमानी से उत्तर दे रहा था, सेठ ने कोई बात तो ऐसी नहीं कही थी। शायद सदा दबते रहने से ये पहाड़ी ऐसे हो गये हैं कि मौका लगते ही अपना बदला निकालते हैं!

गिरीश चाहता था कि वह पहाड़ियों के प्रति न्याय करे और इसलिए वह प्रत्येक बात में उनके पक्ष को पुष्ट करने के लिए युक्तियाँ खोजा करता था। इसीलिए अब भी उसने यही निश्चय किया कि ये पहाड़ी हम लोगों से डरने लग गये हैं, और उसी डर से लज्जित होकर कभी-कभी दिलेर बन जाते हैं-एक दिखावटी दिलेरी से।

किन्तु आज शायद पहाड़ियों ने निश्चय किया था कि अपने जीवन की समस्त पहेलियाँ एक साथ उसके आगे बिखरा देंगे; उसे ललकारेंगे कि वह उन्हें सुलझा सकता हो तो सुलझाये। वह अभी इसी समस्या पर विचार कर रहा था कि उसने फिर सेठ साहब का स्वर सुना, अब की बार अपने बहुत निकट और धीमा, मानो कुछ गुपचुप बात कहने का यत्न कर रहे हों। वे किसी स्त्री से बात कर रहे थे, क्योंकि बीच-बीच में कभी एक-आध शब्द किसी स्त्रीकंठ का निकला हुआ भी सुन पड़ता था।

वह बात इतनी गोपनीय नहीं थी - उसका गोपन हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह संसार की सबसे पुरानी बात, सबसे महत्त्वपूर्ण बात - और जो शक्ति का मूल्य समझते हैं, उनके लिए सबसे गौरव की बात थी; पर जिस प्रकार कला बेची जाकर केवल एक व्यावसायिक निपुणता रह जाती है, जिसका स्वामी स्वयं उसे व्यावसायिक गुण समझकर उसे स्वीकार करने में अपनी हेठी समझता है, उसी प्रकार शक्ति भी बेची जाकर एक लज्जाजनक वस्तु हो जाती है, और हम उसे छिपाते हैं, उसका चोरी से उपयोग करते हैं कि वह लज्जा दीख न पड़े, हमें और अधिक लज्जित न करे।

गिरीश ने सुना, सब सुना। एक सौदा हुआ था, जिसमें क्रेता अत्यन्त उत्सुक था, विक्रेता पहले असहमत, किन्तु अन्त में एक लम्बी साँस के साथ अपना विकल्प छोड़कर विक्रय के लिए तत्पर हो गया था; विनिमय का दिन और समय भी निश्चित हो गया था। वह स्त्री यहीं लक्कड़मंडी में रहती है, समय पर आ जाएगी, विशेष देख-भाल की आवश्यकता है, क्योंकि यह गाँव काफ़ी बदनाम हो चुका है, और यहाँ की स्त्रियों पर, यहाँ आने-जाने वालों पर भी, कड़ी निगाह रखी जाने लगी है; पर वह आएगी अवश्य, वादा जो किया है।

और गिरीश के मन ने अपनी ओर से जोड़ दिया - ‘‘पैसे जो लिये हैं...’ क्योंकि उसने अपने रुपयों की-कई-एक रुपयों की-खन-खन भी सुनी थी।

गिरीश का सिर झुक गया, दम घुटने-सा लगा। यह है पहाड़ी जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य जिसे देखने वह आया है, जिसके बूते वह संसार में यशःप्रार्थी होगा, यह, यह - यह, जिसके लिए शब्द नहीं मिलते!

पैरों की चाप - भारी, नीचे की ओर उतरती हुई, चंचल किन्तु दबी हुई, नंगे पैरों की कोमल और ऐसी जैसे कुछ रुक-रुक सी रही हो; अनिश्चित-सी। गिरीश ने सिर उठा कर देखा-

सामने वह खड़ी है। उसी दिन वाली स्त्री, वही बैंगनी रंग का रूमाल सिर पर बँधा हुआ, वही कुरता, वही लाल छींट का पैजामा, वही हार, वही झुमके, वही गोदने का बिन्दु-चिह्न और वही आँखें, जो चौंककर उसे देख रही थीं, निर्भीकता से उसकी दृष्टि का सामना कर रही थीं।

गिरीश अपने व्यक्तित्व की सारी शक्ति से उससे आँख मिला रहा था, अपनी आँखों द्वारा व्यक्त कर रहा था अपना सारा पीड़ित विस्मय, अपनी ग्लानि, अपना तीखा लांछन, अपनी वह अकथ्य भावना, जिससे उसने वह सौदे की बातचीत सुनी थी। वह मानो इस स्त्री को बता देना चाहता था, ‘‘मैंने तुम्हारी बात सुन ली है, मैं उससे दुखित हूँ, मैं उससे घृणा करता हूँ और मैं तुम्हें उस पथ से हटाना चाहता हूँ।’

और वह शायद यह बता देने में समर्थ भी हुआ। उस स्त्री की दृष्टि क्षण-भर के लिए काँपकर झुक भी गयी। किन्तु उसके बाद ही उसने सिर उठाया, एक अवज्ञा-भरी दर्प-भरी मुद्रा में लाकर हिलाया, जिससे उसके बालों की लट रूमाल के नियन्त्रण से निकल कर, हिलकर मानो बोली - ‘‘मैं क्या परवाह करती हूँ!’’ और फिर वह अवमानना-भरी हँसी-हँसकर चली; किन्तु पाँच-सात क़दम जाकर उसने गर्दन घुमाकर देखा, क्षण-भर ग्रीवा फेरे हुए ही पीड़ित-सी खड़ी रही, फिर चली गयी, अब मानो कुछ शान्त, कुछ सन्दिग्ध, कुछ आहत, कुछ उद्विग्न।

और गिरीश भी एकाएक आवेग में उठा और काग़ज़ उठाकर नीचे की ओर चल पड़ा। उसे मानो अपने सब प्रश्नों के उत्तर मिल गये थे; कितने कठोर उत्तर! सब समस्याओं का समाधान मिल गया था, कैसा उपहास-भरा समाधान!

वह कुछ ही दूर गया था कि सेठ साहब मिल गये; कुछ चौंके, कुछ झेंप-से गये। गिरीश को उस स्त्री के प्रति इतनी ग्लानि हो रही थी कि उसे यह ध्यान ही न आया कि सेठ साहब भी किसी सम्बन्ध में दोषी हो सकते हैं; वह उनके साथ हो लिया और बातचीत चलाने का ढोंग करने लगा। किन्तु इसमें स्वयं अपने को ही असमर्थ पाकर, वह क्षमा माँग कर आगे निकल गया और फिर विचार-सागर में उतराने लगा, उस आघात को मिटाने का यत्न करने लगा, जो उस स्त्री की अवज्ञापूर्ण हँसी ने उसके हृदय पर किया था।

वह सोचने लगा - ‘‘हम क्यों एक शारीरिक पवित्रता को इतना महत्त्व देते हैं, विशेषतया जब कि वह पवित्रता एक कृत्रिम बन्धन है? हम एक ओर तो मानते हैं, कि कृत्रिम बन्धन सब प्रकार के पतन के मूल हैं, दूसरी ओर हम यह भी मानते हैं कि पवित्रता, व्रत-निष्ठा एक मानसिक या आध्यात्मिक तथ्य है, शारीरिक नहीं; तब फिर क्यों हम एक नकारात्मक शारीरिक पवित्रता को इतना महत्त्व देते हैं कि उसके न होने पर किसी व्यक्ति को नरक का पात्र समझने लग जाते हैं? और विशेषतया स्त्री को?

‘‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि कोई उस शारीरिक नियन्त्रण को उतना महत्त्व न दे; जो कर्मों को करे, जिन्हें हम वर्जित समझते हैं, किन्तु पापभावना से नहीं, केवल इसीलिए कि वह उन्हें इतना महत्त्व नहीं देता, इसीलिए कि वह इतनी छोटी-सी बात के लिए अपनी स्वाभाविक प्रगति को दबाना नहीं चाहता? यदि कोई ऐसा हो तो हम उसे कैसे दोषी ठहराएँ, यह जानते हुए कि पाप वह नहीं है जो बिना पाप-भावना के किया जाए?

‘‘या फिर, क्या यह एक सरलतापूर्ण उदारता नहीं हो सकती, एक उपेक्षा? बहुधा ऐसा होता है कि कोई हम से कोई वस्तु माँगता है, और हम उसे दे देते हैं; यह जानकर भी कि उसे नहीं माँगनी चाहिए थी, केवल इसलिए कि हमारे लिए उस वस्तु का कोई महत्त्व नहीं है, हम सोचते हैं कि ऐसी क्षुद्र वस्तु के लिए क्यों किसी का मन दुखाया जाये?’’

एकाएक गिरीश की विचारधारा रुकी। उसने देखा कि वह भावुकता के आवेश में किधर बहा जा रहा है... किस अकर्मण्य विशृँखलता की ओर, जो उदारता की आड़ में फैल रही है। उसने अपनी ग़लती जानी कि जिस विषय की वह आलोचना कर रहा है उसका उद्भव उन भावनाओं से नहीं हुआ था, जो वह उन्हें दे रहा है, बल्कि केवल रुपये के लालच के लिए यानी रुपये के लिए इन पहाड़ियों का आचार और चरित्र बिकाऊ है।

पर... पहाड़ों को ही देखो, उनका बाह्य आवरण नित्य बदलता है, भ्रष्ट होता है और धुल कर पवित्र हो जाता है; किन्तु उनका अन्तरतम वैसा ही अलग, अकेला और अखण्ड पवित्रता से भरा रहता है। क्या मानव ऐसे नहीं हो सकते?...

पर यह धोखा है! ऐसे तर्क से केवल पतन ही पतन हो सकता है। उन्नति नियम के बिना, एक निष्ठा के बिना, नहीं होती।

इस तथ्य पर पहुँचकर गिरीश ने अपने विचार स्थिर कर लिए और फिर उससे आगे पहाड़ी जीवन की उन रहस्यमयी घटनाओं पर विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वह करुणा के पत्र के बारे में ही सोचने लगा-करुणा अवश्य दुखी है, नहीं तो इतना उद्वेग-भरा पत्र नहीं लिख सकती थी - विशेषतया इसा अवस्था में, जबकि उसने अनेक दिनों से करुणा से कोई व्यवहार नहीं रखा। पर क्या करुणा का दुख, उसकी यन्त्रणा और-हाँ, उसे अखरने वाला वह दासत्व भी इस पहाड़ी जीवन से अच्छा नहीं है, इसी पहाड़ी जीवन से, जिसमें करुणा अपने सुख-स्वप्नों का चरम उत्कर्ष देखती है?

गिरीश ने जाना, उसमें यदि प्रतिभा है, लेखन-शक्ति है, तो वह यहाँ पहाड़ों में वृद्धिगत न होगी; यह उसका क्षेत्र नहीं; वह यहाँ रहकर उस स्वप्न को साकार नहीं बना सकता, जो वह कुछ दिन पहले देख रहा था। यहाँ, जहाँ के जीवन में प्रतिभा का आहार बिलकुल नहीं मिलता, जहाँ चरित्र घुटकर मर जाता है, और जीती हैं केवल लिप्साएँ, उग्र पाप-भावनाएँ, जहाँ के जीवन का सार है ग़रीबी, कायरता, दम्भ और व्यभिचार, जहाँ प्रत्येक वस्तु एक धातु के टुकड़े पर निछावर होती है, जहाँ लोग पर्वतों के मुख को काला कर रहे हैं अपने ओछे, छिछोरे, पतित, निरर्थक जीवन से! इससे वह दासत्व ही अच्छा, वह भीड़-भड़क्का, वह रोग, पीलापन और घुलती हुई मृत्यु। करुणा रोती है तो उसे रोने दो, वह यदि बलि है तो हमारी सभ्यता की, जिसे बनाए रखना हमारा कर्त्तव्य है और जिसमें मेरी प्रतिभा का एकमात्र आधार है।

और यह निश्चय करके गिरीश होटल पहुँचा। वहाँ उसने अपना सामान बाँधा और सायंकाल ही को लौट गया वहीं जहाँ से आया था - अपने संसार के सभ्य जीवन में, जो पहाड़ी जीवन की सभ्यताओं में उलझा हुआ नहीं है, यद्यपि उसमें भीड़ है, और रोग हैं, और घुला मारनेवाली मृत्यु है और है करुणा का रोदन, जिसे कोई सुनता ही नहीं।

3

और पहाड़ों में यह नित्य ही होता है, शायद दिन में कई बार होता है।

नीचे के समतल प्रदेशों से अपनी सभ्यता और शान्ति-रूपी घातक औषधियों द्वारा जीवित रहनेवाले लोग आते हैं - पहाड़ों पर अपने निर्बल हृदय और निर्बलतम पाचनशक्तियाँ लेकर, और लौट जाते हैं भन्नाते हुए मस्तिष्क और मतली से आक्रान्त उदर लेकर।

क्योंकि ये पर्वत-ये मूक, विराट्, अभिमानी और लापरवाह पर्वत-अपना रहस्य खोले नहीं फिरते, अपना हृदय उघाड़कर दिखाते नहीं फिरते, उन्हें वही देख और खोज पाता है, जो उनकी खोज़ में निरत रहता है, जो उनके लिए अनवरत यत्न करने की क्षमता रखता है, और जो इतना सहिष्णु होता है कि उन्हें देखकर चौंधिया नहीं जाता, अन्धा नहीं हो जाता। पहाड़ कुछ कहते नहीं, उनके जिह्वा है ही नहीं।

और यदि होती भी, तो क्या वे अपना रहस्य कहते? नहीं, वे केवल अपनी प्रशान्त वाणी से कहते, इन सभ्य व्यक्तियों, असंख्य गिरीशों की ओर उन्मुख होकर कहते-

‘‘तुम उनसे भी गये-बीते हो, जो हमारे पास आते हैं, केवल हमारा खोखला बाह्य सौन्दर्य देखने। खोजते हैं केवल रंगों की या ध्वनियों की सफाई और मिठास, सौन्दर्य, सौन्दर्य, सौन्दर्य... क्योंकि वे तो केवल अन्धे ही हैं और तुम हो जान-बूझकर दृष्टि का दुरुपयोग करनेवाले, उलटा देखनेवाले। वे हैं वैसे लोग जो एक मूर्ति को देखकर उसे केवल पत्थर-एक निरर्थक शिला-खंड समझते हैं, किन्तु तुम उनमें से हो जो उसके एक अंश को सूक्ष्म-दर्शक यन्त्र से देखकर उसे छिद्रों और सूषियों से भरा पाकर समझते हैं कि वह एक व्रण मात्र है... तुम जो भावुकता से अभिशप्त हो।’’

उनकी कहानी की सत्यता फिर भी न कही जाती, वैसी ही रह जाती, केवल पढ़ने की क्षमता रखनेवाले उसे पढ़ते और समझते और पर्वतों से प्रेम करते।

क्योंकि वह है ही अकथ्य, जैसे सभी गहरी बातें अकथ्य होती हैं - गहरा प्रेम, गहरी वेदना, गहरा सौन्दर्य, गहरा आह्लाद, गहरी भूख।

जब एक पहाड़ी घोड़ा न लादने पर पिटता है, और फिर संन्यासी होकर लापता हो जाता है, तब पहाड़ उसकी उस गहरी आत्मग्लानि का चित्र नहीं खींचते जिसके कारण वह ऐसा करने को बाध्य होता है, जिसके कारण वह अपने कुटुम्बियों, अपने बाल-बच्चों का ध्यान भुलाकर, अपने व्यक्तित्व को इसलिए कुचल डालता है कि उस व्यक्तिगत जीवन में केवल परमुखापेक्षा, झुकना, प्रपीड़न और दासत्व की प्रतारणा है; वे चुप ही रह जाते हैं। और जब उसी पहाड़ी की लड़की, अपने पिता को पीटने वाले के मुख से दर्प और आत्मश्लाघा-भरे शब्दों में वही कहानी सुनती है, तब वे किसी से उसके व्यथा भरे जड़-विस्मय का रहस्य कहने नहीं जाते; जब कोई पहाड़ी, यह समझकर कि लोग उनके घर आते हैं केवल उनकी स्त्रियों को भ्रष्ट करने, उनके भोलेपन से और उनकी नैसर्गिकता से लाभ उठाकर उन्हें पतित और बदनाम करने, उन लोगों के प्रति उपेक्षा का बर्ताव करता है, तब पर्वत किसी देखनेवाले को उस उपेक्षा का कारण नहीं बताते फिरते। जब एक पहाड़ी कन्या अपने शत्रु, अपने पिता के घातक से एक दिन और समय नियत करती है, ताकि वह उससे बदला लेने का उचित उपाय सोच सके, तब वे पर्वत उस कन्या के किसी आलोचक को सत्य का निदर्शन कराने नहीं जाते, उसकी मानसिक प्रगति समझाने की चेष्टा नहीं करते; और अन्त में, जब कोई उनके विषय में अत्यन्त अनुचित, अन्यायपूर्ण भावना लेकर, उनकी विशाल स्वच्छन्दता और शक्तिमत्ता को छोड़कर लौट जाता है अपने घिरे हुए, बँधे हुए, कलुषित, मारक, चूहेदान जैसे संसार में, तब वे उसे वापस भी नहीं बुलाते। वे उसी भव्य, विराट्, उपेक्षा-पूर्ण कठोर मुस्कराहट से निश्चल आकाश की ओर देखा करते हैं।

क्योंकि उनकी ये सब अनुभूतियाँ वैसी ही अकथ्य हैं, जैसी उनके वृक्षों में से बहती हुई हवा के संगीत की लय, उनके हिम-शिखरों पर सान्ध्य-किरणों के नृत्य का उल्लास, उनके वातावरण को दहला देनेवाली बीन की ध्वनि का अभिप्राय, उनकी नग्नता का सौन्दर्य, या एक ही वाक्य में कहें-क्योंकि पहाड़ी जीवन की सम्पूर्णता निरुपम है - अपनी-सी ही गहरी, अपनी-सी ही अकथ्य, अपनी-सी ही अतिशय सुन्दर...

(डलहौजी, मई 1934)