पागल की डायरी / लू शुन

Gadya Kosh से
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दो भाई थे। उनके नाम नहीं बताऊँगा। वे मेरे स्कूल के दिनों के साथी थे। दोनों से अच्छा मेल-मिलाप था, लेकिन कई बरस तक मुलाकात न हो सकी और सिलसिला टूट गया। कुछ महीने पहले सुना था कि उनमें से एक बहुत बीमार है। मैं अपने गाँव लौट रहा था, सोचा, रास्ते में उनके यहाँ भी होता चलूँ। उनके घर गया, तो एक ही भाई से मुलाकात हुई। उसने बताया कि छोटा भाई बीमार है।

मित्र ने कहा, "तुम्हारे दिल में कितना प्यार है। हमारा खयाल कर इतनी दूर से मिलने आए हो। अब छोटे भाई की तबीयत ठीक है। उसे सरकारी नौकरी मिल गई, वहीं गया है।" बड़े भाई ने हँसते-हँसते दो मोटी-मोटी जिल्दों में लिखी डायरी मुझे दिखाई और बोला कि यदि कोई इस डायरी को पढ़ ले, तो भाई की बीमारी का राज समझ जाएगा और अपने पुराने दोस्तों को दिखा देने में हर्ज भी क्या है? मैं डायरी ले आया और उसे पढ़ डाला। समझ गया कि बेचारा युवक विचित्र आतंक और मानसिक यातना से पीड़ित था। लिखावट बहुत उलझी-उलझी और कटी-फटी थी। जगह-जगह स्याही और लिखावट के अंतर से अनुमान लग सकता था कि ये जब-तब आगे-पीछे लिखी गई बातें होंगी। कुछ बातें संबद्ध भी लगती थीं और समझ में आ जाती थीं। चिकित्सा-विज्ञान में खोज की दृष्टि से उपयोगी होने वाले पृष्ठों को मैंने नकल कर लिया। डायरी की एक भी बेकार की बात को मैंने बदला नहीं। बस, नाम बदल दिए, जब कि दूर-देहात के उन लोगों को जानता भी कौन है। शीर्षक लेखक का ही दिया हुआ है। यह दिमाग ठिकाने होने पर ही दिया होगा। मैंने उसे नहीं बदला।

एक

आज रात चाँद खूब उजला है।

तीस बरस हो गए, चाँद को नहीं देख पाया। इसलिए आज चाँदनी में मन में उत्साह उमड़ रहा है। आज महसूस कर रहा हूँ कि बीते तीस बरस अंधकार में ही बिता दिए, परंतु अब बहुत चौकन्ना रहना होगा। अवश्य कोई बात है। वरना चाओ परिवार का कुत्ता भला दो बार मेरी ओर क्यों घूरता? हाँ, समझता हूँ, मेरा संदेह बेवजह नहीं है।

दो

आज अँधेरी रात है। चाँद का कहीं पता नहीं। लक्षण अच्छे नहीं हैं। आज सुबह बाहर गया, तो बहुत होशियार था। चाओ साहब ने मेरी ओर ऐसे देखा, जैसे मुझे देखकर डर गए हों, मानो मेरी हत्या करना चाहते हों। सात-आठ दूसरे लोग भी थे। एक-दूसरे से फुसफुसाकर मेरी बातें कर रहे थे और मेरी नजर से बचने की कोशिश कर रहे थे। जितने लोग मिले सबका यही हाल था। उनमें जो सबसे डरावना था, मुझे देखते ही दाँत निकालकर हँसने लगा। मैं सिर से पैर तक काँप गया। समझ गया, इन लोगों ने सारी तैयारी कर ली है।

मैं डरा नहीं, अपनी राह चलता रहा। कुछ बच्चे आगे-आगे चल रहे थे। वे भी मेरी ही बातें कर रहे थे। उनकी नजरें भी चाओ साहब की ही तरह थीं और चेहरे डर से पीले पड़ गए थे। सोच रहा था, मैंने इन लड़कों का क्या बिगाड़ा है? ये क्यों मुझसे नाराज हैं? रहा नहीं गया, तो मैं पूछ बैठा, "क्यों क्या बात है?" लेकिन तब वे सब भाग गए।

कुछ समझ नहीं आता कि चाओ साहब से मेरा क्या झगड़ा है। राह चलते लोगों का मैंने कब क्या बिगाड़ा है? बस, इतना याद है कि बीस बरस पहले कू च्यू साहब की बरसों पुरानी डायरी पर मेरा पाँव पड़ गया था और कू साहब बहुत नाराज हो गए थे, पर कू का चाओ से क्या मतलब? एक-दूसरे को जानते भी नहीं। हो सकता है, चाओ ने इसके बारे में किसी से सुन लिया हो और मुझसे उसका बदला लेने की ठान ली हो। वह राह चलते लोगों को मेरे खिलाफ भड़काते रहते हैं; लेकिन इन बच्चों को इससे क्या मतलब? ये लोग तो तब पैदा भी नहीं हुए थे। ये मुझे ऐसे घूर-घूर कर क्यों देख रहे हैं? मानो डरे हुए हों, मेरा खून कर देने की ताक में हों। बहुत घबराहट होती है। क्या करूँ? अजीब परेशानी है। मैं समझता हूँ। इन लोगों ने यह सब जरूर अपने माँ-बाप से सीखा होगा।

तीन

रात में नींद नहीं आती। बिना ठीक तरह सोचे कोई भी बात समझ में नहीं आ सकती। इन लोगों को देखो, कई लोगों को मजिस्ट्रेट कठघरे में बंद करवा चुका है; बहुतों की बीवियों को सरकारी अमले के लोग छीन ले गए हैं; कई के माँ-बाप साहूकारों से परेशान होकर गले में फाँसी लगाकर आत्महत्या कर चुके, पर सब बातों को याद करके भी इन लोगों की आँखों में कभी इतना खून नहीं उतरा होगा, इन्हें कभी इतना गुस्सा नहीं आया होगा, जितना कल देखने को मिला।

उस औरत को क्या कहूँ? कल गली में अपने लड़के को पीट कर चीख रही थी, "बदमाश कहीं का! तेरी खाल उधेड़ दूँगी। तेरी बोटी-बोटी कर डालूँगी। तूने मेरा कलेजा जला रखा है।" वह बार-बार मेरी ओर देखने लगती। मै काँप उठा। बड़ी घबराहट हुई। क्रूर चेहरे, लंबे-लंबे दाँतों वाले लोग हँसने लगे। बुजुर्ग छन फौरन आगे बढ़ आया और मुझे पकड़कर घर ले आया।

छन मुझे घर ले आया। सब लोग ऐसे बन गए, जैसे पहचानते ही न हों। मैंने उनकी आँखें पहचानीं। उनकी नजरों में भी गली के लोगों वाली बात थी। मैं अध्ययन कक्ष में आ गया, तो उन्होंने झट दरवाजा बंद कर दिया और साँकल लगा दी, जैसे मुर्गी या बतख को दड़बे में बंद कर दिया गया हो। मैं और परेशान हो गया।

कुछ दिन पहले की बात है। शिशु-भेड़िया गाँव से हमारा एक असामी फसल के चौपट होने की खबर देने आया था। उसने मेरे बड़े भाई को बताया कि गाँव के लोगों ने मिलकर गाँव के एक बदनाम बहादुर गुंडे को घेर लिया और पीट-पीट कर उसका काम तमाम कर दिया। कुछ लोगों ने उसका सीना फाड़कर दिल और कलेजा निकाल दिया, फिर तेल में तला और बाँटकर खा गए कि उनकी भी हिम्मत बढ़ जाए। मुझसे रहा नहीं गया और मैं बोल पड़ा। भैया और असामी दोनों मुझे घूरने लगे। बिलकुल ऐसे ही घूर रहे थे, जैसे आज सड़क पर लोगों की नजरें।

यह सोचकर सिर से पैर तक सारा शरीर सिहर उठता है।

ये आदमखोर हैं, ये मुझे भी खा सकते हैं।

याद आया, वह औरत कह रही थी, "तेरी बोटी-बोटी कर डालूँगी।"

क्रूर चेहरों पर लंबे दाँत निकाले लोग हँस रहे थे, और उस असामी ने जो कहानी सुनाई, ये सब गोपनीय संकेत हैं। इन लोगों की बातों में कितना जहर भरा है। इनकी हँसी खंजर की धार की तरह काटती है। इनके लंबे-लंबे सफेद दाँत आदमियों के हाड़-मांस चबा-चबा कर चमक गए हैं। ये सब आदमखोर हैं।

मैं जानता हूँ, यद्यपि मैं कोई बुरा आदमी नहीं, पर जब से कू साहब की डायरी पर मेरा पैर पड़ा है, लोग मेरे पीछे लग गए हैं। इन लोगों के मन में ऐसी गाँठ पड़ गई है कि मैं कुछ कर ही नहीं सकता। ये किसी से एक बार बिगड़ जाते हैं, तो उसे बदमाश समझ लेते हैं। अच्छी तरह याद है, बड़े भाई मुझे निबंध लिखना सिखाया करते थे। कोई आदमी कितना ही भला रहा हो, यदि मैं उसकी बुराई दिखा देता, तो उन्हें बहुत पसंद आता था। साथ ही अगर मैं किसी के दोषों पर पर्दा डाल देता, तो कह बैठते, "बहुत अच्छे! यह तुम्हारी नई सूझ है।" इन लोगों के मन की थाह कैसे पा सकता हूँ, विशेषकर जब ये किसी को खा जाने की बात सोच रहे हों।

बहुत गहराई से विचार किए बिना कुछ समझ पाना मुश्किल है। याद पड़ता है कि आदिम जाति के लोग अक्सर नर-मांस खाते थे, पर बिलकुल ठीक याद नहीं पड़ रहा। इस बारे में इतिहास की पुस्तकों में भी खोज करने का प्रयत्न किया, लेकिन कहीं क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिला। 'सद्गुण और सदाचार' यही शब्द सभी पृष्ठों पर मिलते हैं। नींद नहीं आ रही थी, इसलिए बहुत ध्यान लगाकर आधी रात तक पढ़ता रहा। यहाँ-वहाँ वास्तविक अभिप्राय समझ में आने लगा। सारी किताब में सब जगह एक ही बात थी, "मनुष्य को खा जाओ।"

पुस्तक में लिखी ये तमाम बातें, उस असामी की तमाम बातें, मेरी ओर कैसे घूर रही हैं, गूढ़ मुस्कराहट के साथ। मैं भी तो मनुष्य हूँ और ये मुझे खा जाना चाहते हैं।

चार

सुबह कुछ देर से चुपचाप बैठा था। छन खाना लेकर कमरे में आया। एक कटोरे में सब्जी थी, दूसरे में भाप से पकाई हुई मछली। मछली की आँखें पथराई-सी सफेद थीं, मुँह खुला था, जैसे कोई भूखा आदमखोर मुँह खोले हुए हो। मैं खाने लगा। निवाला निगलता जा रहा था। नहीं मालूम मछली खा रहा था या नर-मांस। आखिर सब उगल डाला।

मैंने छन से कहा, "छन दा, भैया से कहो, इस कोठरी में मेरा दम घुटा जा रहा है, जरा आँगन में टहलूँगा।" छन चुपचाप चला गया। फौरन लौटकर आया और उसने दरवाजा खोल दिया।

मैं कोठरी में ही बैठा रहा, उठा नहीं। सोच रहा था, ये अब क्या करेंगे? यह तो जानता था कि मुझे हाथ से निकलने नहीं देंगे। इतना तो तय था। भैया आहिस्ता-आहिस्ता कदम रखते हुए एक बुजुर्ग को साथ लिए आ पहुँचे। बुड्ढे की खून की प्यासी आँखों में छुरी की सी चमक थी। वह मुझसे आँखें नहीं मिलाना चाहता था। कहीं मैं ताड़ न लूँ, इसलिए गर्दन झुकाए था। चश्मे के भीतर कनखियों से मेरी ओर देख लेता था।

"आज तुम्हारी तबीयत बहुत अच्छी लग रही है।" भैया बोले।

मैंने हामी में सिर हिलाया।

"तुम्हें दिखाने के लिए हो साहब को बुलाया है।" भैया ने कहा।

"बहुत अच्छा।" मैंने कहा, पर समझ गया कि यह बुड्ढा वास्तव में एक जल्लाद है, जो हकीम बनकर आया है। मेरी नब्ज देखने के बहाने वह मुझे टटोलकर मेरे मांस का अंदाजा लगा रहा था। इस सेवा के बदले उसे भी मेरे मांस का हिस्सा पाने की आशा थी। इस पर भी मैं डरा नहीं। मैं आदमखोर नहीं हूँ, पर उन लोगों से अधिक मुझमें कुछ है। मैंने अपनी दोनों कलाइयाँ आगे कर दीं, यह सोचकर कि देखूँ क्या करता है। बुड्ढा चौकी पर बैठ गया, आँखें मूँदे मेरी नब्ज देखता रहा। कुछ देर सोच में डूबा रहा, फिर अपनी धूर्त आँखें खोलकर बोला, "अपने विचारों को भटकने मत दो, चिंता बिलकुल मत करो। कुछ दिन पूरा आराम करो। चैन से रहो, तुम्हारी सेहत बिलकुल ठीक हो जाएगी।"

अपने विचारों को भटकने मत दो। बिलकुल चिंता मत करो। कुछ दिन पूरा आराम करो। चैन से रहो। हाँ, जब मैं खूब मोटा हो जाऊँगा, तो उन्हें खूब मांस मिलेगा, पर मुझे इससे क्या मिलेगा? यह क्या सेहत का ठीक होना है? यह इन सब आदमखोरों का नर-मांस के लिए लोभ और साथ ही अच्छेपन का दिखावा है। कायरता के कारण ये तुरंत कार्यवाही का साहस नहीं कर पाते। यह देखकर हँसी के मारे पेट में बल पड़ने लगते हैं। मेरी हँसी रुक न सकी और मैं ठहाका लगाकर हँस पड़ा। बहुत मजा आया। मैं जानता था इस हँसी में निडरता और सच्चाई छिपी है। भैया और बूढ़े हकीम के चेहरे पीले पड़ गए। वे लोग मेरी निडरता और सच्चाई देखकर डर गए थे।

मैं निडर हूँ, साहसी हूँ, इसीलिए तो वे मुझे खा जाने के लिए और अधिक व्याकुल हैं, ताकि मेरा मजबूत कलेजा खाकर उनका हौसला और बढ़ सके। बूढ़ा हकीम उठकर चल दिया। जाते-जाते भैया के कान में कहता गया, "इसे अभी खाना है।" भैया ने सिर झुकाकर 'हाँ' कहा। अब समझ में आया। मांस रहस्य खुल गया। मन को धक्का तो लगा, पर यह तो होना ही था। मुझे मालूम ही था - मेरा अपना ही भाई मुझे खाने की साजिश में शामिल है।

यह आदमखोर मेरा अपना ही बड़ा भाई है। मैं एक आदमखोर का छोटा भाई हूँ। मुझे दूसरे लोग खा जाएँगे, पर फिर भी मैं एक आदमखोर का छोटा भाई हूँ।

पाँच

कुछ दिनों से दूसरी ही बात मन में आ रही है, हो सकता है हकीम के भेस में वह बूढ़ा जल्लाद न हो, हकीम ही हो, अगर ऐसा है, तो भी वह आदमखोर तो है। वैद्यों के पुरखे ली शीचन की जड़ी बूटियों की किताब में स्पष्ट लिखा है कि नर-मांस को उबालकर खाया जा सकता है, अतः वह वैद्य आमदखोर नहीं तो और क्या है?

बड़े भाई का क्या कहना, वे तो आदमखोर हैं ही। जब मुझे पढ़ाते थे, तो अपने मुँह से कहते थे, "लोग अपने बेटों को एक-दूसरे से बदलकर उन्हें खा जाते हैं।" एक बार एक बदमाश के लिए उन्होंने कहा था कि उसे मार डालने से क्या होगा, "उसका गोश्त खा लें और उसकी खाल का बिछौना बना लें।" तब मेरी उम्र कच्ची थी। सुनकर दिल देर तक धड़कता रहा। जब शिशु-भेड़िया गाँव के असामी ने एक बदमाश का कलेजा निकालकर खा जाने की बात कही, तब भी भैया को कुछ भी बुरा नहीं लगा था। सुनकर चुपचाप सिर हिलाते रहे, जैसे ठीक हुआ हो। मुझसे छिपा क्या है, वे पहले की ही तरह खूँखार हैं। क्योंकि "बेटों को एक-दूसरे से बदलकर उन्हें खा जाना संभव है।" तो फिर हर चीज को बदला जा सकता है, हर किसी को खाया जा सकता है। उन दिनों भैया जब ऐसी बातें समझाते थे, तो मैं सुन लेता था, सोचता नहीं था, पर अब खूब समझ में आता है कि ऐसी बातें कहते समय उनके मुँह में नर-मांस का स्वाद भर आता होगा। और उनका मन मनुष्य को खाने के लिए बेचैन हो उठता होगा।

छह

घना अँधेरा। पता नहीं चलता रात है या दिन। चाओ परिवार का कुत्ता फिर भौंक रहा है। शेर की तरह खूँखार, खरगोश की तरह कातर, लोमड़ी की तरह चालाक...

'सात

मैं उन लोगों को अच्छी तरह जानता हूँ। किसी को एकदम मार डालने को ये तैयार नहीं हैं। ऐसा करने का साहस इन लोगों में नहीं है। नतीजे के डर से इनकी जान निकलती है, इसलिए ये लोग साजिश करके जाल बिछा रहे हैं। मुझे आत्महत्या कर लेने के लिए मजबूर कर रहे हैं। कुछ दिनों से गली के पुरुषों और स्त्रियों के व्यवहार देख रहा हूँ और बड़े भाई का रंग-ढंग भी। मैं सब समझता हूँ। ये लोग तो चाहते हैं कि कोई घर की छत से फंदा लटकाकर इनके लिए मर जाए। खून के लिए कोई इन पर उँगली न उठा सके और ये लोग जी भरकर खाएँ। ये इसी बात की कल्पना करके खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं। चाहे कोई आदमी चिंता और संकट के डर से सूख-सूख कर आत्महत्या कर ले और उसके शरीर में रक्त-मांस कुछ भी न रहे, ये उसे भी खाने के लिए लालायित रहते हैं।

ये केवल मुर्दा मांस खाते हैं। याद आता है, एक घिनौने जानवर के बारे में पढ़ा था। उसकी आँखें बड़ी डरावनी होती हैं। हाँ, उसे लकड़बग्घा कहते हैं। लकड़बग्घा प्रायः मुर्दा मांस खाता है। मोटी से मोटी हड्डी दाँतों से चबाकर निगल जाता है। खयाल आते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लकड़बग्घे की जाति भेड़िये से मिलती है और भेड़िया कुत्ते की जाति का होता है। उस दिन चाओ का कुत्ता बार-बार मेरी ओर देख रहा था। मालूम होता था वह कुत्ता भी साजिश में शामिल है। बूढ़ा हकीम नजरें झुकाए था, पर मैं ताड़ गया।

सबसे अधिक दुख मुझे अपने भाई के लिए था। वह भी तो आदमी है, उसे डर क्यों नहीं लगता? मुझे खा डालने के ले वह भी दूसरों के साथ क्यों मिल गया है? शायद जो होता चला आया है, उसे करते जाने में लोग अपराध और दोष नहीं समझते, या मेरा भाई जानता है कि यह अपराध है, पाप है, पर उसने पाप करने के लिए अपना दिल पत्थर जैसा बना लिया है? सबसे पहले मैं इसी आदमखोर का पर्दाफाश करूँगा। सबसे पहले इसी को पाप से रोकूँगा।

आठ

वास्तव में यह तर्क बहुत पहले मान लिया जाना चाहिए था। अचानक कोई भीतर आ गया। यही कोई बीस बरस का युवक होगा। उसका चेहरा ठीक-ठाक नहीं देख सका, उस पर मुस्काराहट खेल रही थी, लेकिन जब गर्दन झुकाकर मेरा उसने अभिवादन किया, तो उसकी मुस्कराहट बनावटी लगी। मैंने पूछ ही लिया, "बताओ, नर-मांस खाना सही है?"

वह मुस्कराता रहा और बोला, "क्या कहीं अकाल पड़ा है, नर-मांस कोई क्यों खाएगा?"

मैं समझ गया, यह भी उन्हीं के दल का था। मैंने साहस किया और फिर कहा, "मेरी बात का उत्तर दो।"

"आखिर इस प्रश्न का मतलब क्या है?... क्या मजाक कर रहे हो? कितना सुहाना मौसम है।"

"हाँ, मौसम अच्छा है, चाँदनी बहुत उजली है, पर तुम मेरी बात का जवाब दो, क्या यह सही है?"

वह कुछ परेशान हो गया और बोला, "नहीं।"

"नहीं... ? तो फिर लोग ऐसा क्यों करते हैं?"

"तुम्हारा मतलब क्या है?"

"मेरा मतलब? शिशु-भेड़िया गाँव में लोग नर-मांस खा रहे हैं। तुम ग्रंथ उठाकर देख लो। सब जगह यही लिखा है, ताजा लाल-लाल अक्षरों में।"

वह चुप रह गया। उसका चेहरा पीला पड़ गया। मेरी ओर घूरकर बोला, "होगा, हमेशा से ही होता आया है।"

"हमेशा से होता आया है, क्या इसलिए उचित है?"

"मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता। तुम्हें भी इन बेकार के झगड़ों में नहीं पड़ना चाहिए और ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए।"

मैं फौरन उछल पड़ा और आँखें फाड़कर इधर-उधर देखने लगा। वह आदमी गायब हो गया था। मैं पसीना-पसीना हो रहा था। युवक की उम्र मेरे भाई से बहुत कम थी, लेकिन वह भी उन लोगों के साथ था। उसने अपने माँ-बाप से सब सीख लिया है, ईश्वर जाने, अपने बेटे को भी सिखा दिया होगा। तभी तो ये जरा-जरा से छोकरे मुझे यूँ घूर-घूर कर देखते हैं।

नौ

दूसरों को खा लेने का लालच, लेकिन स्वयं भोजन बन जाने का भय। सबको दूसरों पर सब दूसरों से आशंकित हैं...

यदि इस परस्पर डर से लोगों को मुक्ति मिल सके, तो वे बिना शंका के काम कर सकते हैं, घूम-फिर सकते हैं, खा-पी सकते हैं, चैन की नींद सो सकते हैं। बस, मन से वही एक विचार निकाल देने की जरूरत है, परन्तु लोग यह कर नहीं पाते और बाप-बेटे, पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र, गुरु-शिष्य एक-दूसरे के जानी दुश्मन और यहाँ तक कि अजनबी भी एक-दूसरे को खा जाने की साजिश में शामिल हैं, दूसरों को भी इसमें खींच रहे हैं। इस चक्कर से निकल जाने को तैयार नहीं।

दस

आज प्रातः बड़े भैया से मिलने गया। वह ड्योढ़ी के सामने खड़े आसमान की ओर ताक रहे थे। मैं उनके पीछे दरवाजे और उनके बीच खड़ा हो गया। बहुत नर्मी से बोला, "भैया, कुछ कहना चाहता हूँ। "

"हाँ, कहो क्या है?" उन्होंने तुरंत मेरी ओर घूमकर सिर हिलाते हुए आज्ञा दी।

"बात कोई खास नहीं है, पर कह नहीं पा रहा हूँ। भैया, आदिम अवस्था में तो शायद सभी लोग थोड़ा बहुत नर-मांस खा लेते होंगे। जब लोगों का जीवन बदला, उनके विचार बदले, तो उन्होंने नर-मांस त्याग दिया। वे लोग अपना जीवन सुधारना चाहते थे। इसलिए सभ्य बन गए, उनमें मानवता आ गई, परन्तु कुछ लोग अब भी खाए जा रहे हैं, मगरमच्छों की तरह। कहते हैं जीवों का विकास होता है, एक जीव से दूसरा जीव बन जाता है। कुछ जीव विकास करके मछली बन गए, पक्षी बन गए, बंदर बन गए हैं। ऐसे ही मनुष्य भी बन गया है, परन्तु कुछ जीवों में विकास की इच्छा नहीं होती। उनका विकास नहीं होता, वे सुधरते नहीं, रेंगने वाले पशु ही बने रहते हैं। नर-मांस खाने वाले असभ्य लोग नर-मांस न खाने वाले लोगों की तुलना में कितना नीचा और लज्जित महसूस करते होंगे। बंदर की तुलना में रेंगने वाले जानवर नीचे हैं, परन्तु नर-मांस न खाने वाले सभ्य लोगों की तुलना में नर-मांस खाने वाले से भी नीचे हैं।"

"अतीत में ई या ने अपने बेटे को उबालकर च्ये और चओ के सामने परोस दिया था। यह एक पुरानी कथा है। इससे पहले भी जिस दिन से फान कू ने आकाश और पृथ्वी बनाए हैं, ई या के बेटे के काल से श्वी शी-लिन के काल तक मनुष्य एक दूसरे को खाते रहे हैं। श्वी शी-लिन के काल से शिशु-भेड़िया गाँव में पकड़े गए आदमी के काल तक यही होता रहा है। पिछले साल शहर में एक अपराधी की गर्दन काट दी गई थी। खून बहता देख टी.बी. के एक मरीज ने उसके खून में रोटी डुबोकर खा ली।"

"ये लोग मुझे खा जाना चाहते हैं। इन लोगों को अकेले रोक पाना तुम्हारे बस का नहीं, पर तुम उनमें क्यों मिल गए? ये आदमखोर ठहरे, जो न कर डालें वह कम है। ये मुझे खा डालेंगे, उसके बाद तुम्हारी बारी आएगी। फिर ये लोग आपस में भी एक-दूसरे को नहीं छोड़ेंगे। भैया, अगर तुम लोग आज ही यह रास्ता छोड़ दो तो सबको शांति मिल जाएगी। ठीक है, बहुत पुराने समय में ऐसा ही होता चला आया है कि आदमी आदमी को खाता आया है, पर अब, खासकर इस समय तो हम आपस में एक-दूसरे पर रहम कर सकते हैं और कह सकते हैं कि ऐसा नहीं होगा। भैया, मुझे विश्वास है कि तुम ऐसा करोगे। अभी उस दिन वह असामी लगान कम कर देने के लिए कह रहा था। तब भी तुमने कह दिया था ऐसा नहीं हो सकता।"

भैया पहले तो लापरवाही दिखाने के लिए मुस्कराते रहे, फिर उनकी आँखों में खून उतर आया और जब मैंने उनका पर्दाफाश कर दिया तो उनका चेहरा पीला पड़ गया। ड्योढी के बाहर कई लोग एकत्र थे। चाओ साहब भी अपना कुत्ता लिए खड़े थे। सब गर्दनें बढ़ा-चढ़ाकर बड़ी उत्सुकता से अंदर झाँक रहे थे। मैं उनके चेहरे नहीं देख पा रहा था। लगता था कई लोग कपड़े से चेहरे छुपाए हैं। कुछ के चेहरे पीले और डरावने लग रहे थे, कुछ अपनी हँसी दबाए थे। मैं जानता था, वे सब आदमखोर हैं और आपस में मिले हुए हैं। पर उनमें आपस में भी एका कहाँ था। कुछ का विचार था कि आदमखोरी हमेशा से होती आई है और यह बुरी बात नहीं है। कुछ मानते थे कि यह जुल्म है, पर अपना लालच दबा नहीं पाते थे। चाहते थे कि उनका राज न खुले। इसलिए मेरी बात सुनी, तो उन्हें गुस्सा आ गया। पर अपने गुस्से पर काबू कर वे होंठ दबाकर मुस्कराते रहे।

भैया एकदम ताव में आ गए और जोर से चिल्लाए, "चलो यहाँ से, भाग जाओ सब। किसी का दिमाग खराब हो गया है। तुम उसका तमाश देखने आए हो।"

मैं उन लोगों की चाल समझने लगा था। ये अपनी राह से टलने वाले नहीं, इन लोगों ने पूरी साजिश रच रखी है। सबने मिलकर मुझे पागल समझ लिया है। ये मुझे खत्म कर देंगे, तो कोई कुछ कहेगा भी नहीं। सब यही समझेंगे कि पागल था, उसे निबटा दिया। ठीक किया। जब शिशु-भेड़िया गाँव के असामी ने एक बदमाश को मारकर खा जाने की बात कही थी, तब भी किसी ने कुछ नहीं कहा था। तब भी इन लोगों यही चाल चली थी। यह इन लोगों की पुरानी तरकीब है।

छन भी भीतर चला आया। वह भी बहुत गर्म हो रहा था, पर वे मेरा मुँह बंद नही रख सके। मैं बोले बिना नहीं रहा, "यह ठीक नहीं है ऐसा मत करो। तुम्हें अपना दिल बदलना होगा।" मैंने कहा, "समझ लो, यह अन्याय नहीं चल सकेगा। भविष्य में दुनिया में आदमखोरी नहीं चल सकेगी।"

"अगर आदमखोरी नहीं छोड़ोगे तो तुम सब समाप्त हो जाओगे, एक-दूसरे को खा जाओगे। तुम्हारे घरों में चाहे जितनी संतानें पैदा हों। सभ्य लोग तुम्हें समाप्त कर देंगे। जैसे शिकारी जंगल में भेड़िया को समाप्त कर देते हैं। जैसे लोग साँपों को समाप्त कर देते हैं।"

छन दा ने सबको भगा दिया। भैया चले गए थे। छन ने मुझे कमरे में जाने को कहा। कमरे में घुप्प अँधेरा था। सिर के ऊपर की कड़िया थिरकती जान पड़ रही थीं। उनका आकार बढ़ता जा रहा था। कुछ पल ऐसे ही खड़खड़ाहट होती रही। फिर छत मेरे ऊपर आ गिरी।

छत के बोझ के नीचे हिल सकना संभव नहीं था। वे लोग तो चाहते ही थे कि मैं मर जाऊँ। मैं जानता था कि यह बोझ बस खयाली है। इसलिए हिम्मत बाँधी, कंधा लगाया और बाहर निकल आया। मैं पसीना-पसीना हो रहा था, पर फिर भी बोले बिना न रह सका, "तुम्हें फौरन बदलना होगा। अपना दिल बदलना होगा। याद रखो, भविष्य में दुनिया में आदमखोरी नहीं चल सकेगी ...."

ग्यारह

कोठरी का दरवाजा बंद रहता है। कभी धूप दिखाई नहीं देती। रोजाना दो बार खाना मिल जाता है। मैंने खाना खाने को चापस्टिकें उठाईं, तो भैया का खयाल आ गया, अपनी छोटी बहन की मौत की घटना याद आ गई। वह भैया की कारस्तानी थी। तब मेरी बहन केवल पाँच बरस की थी। वह कितनी प्यारी और मासूम थी। याद आती है तो चेहरा आँखों के सामने घूम जाता है। माँ रो-रोकर बेहाल हो रही थीं। भैया माँ को तसल्ली देकर समझा रहे थे। कारण शायद यह था कि खुद ही बेचारी को खा गए थे, इसलिए माँ को इस तरह रोते देखकर उन्हें शर्म आ रही थी। अगर उनमें शर्म होती तो...

भैया मेरी बहन को खा गए, पता नहीं माँ यह भेद जान सकीं थीं या नहीं। मेरा खयाल है कि माँ सब जानती थीं, पर जब माँ रो रही थीं, तो उन्होंने साफ-साफ कुछ भी नहीं कहा। शायद यह सोचकर चुप रहीं कि कहने की बात नहीं थी। एक घटना और याद है। तब मेरी आयु चार या पाँच बरस की रही होगी। मैं आँगन में छाँव में बैठा था। भैया ने कहा था, एक अच्छे बेटे का कर्तव्य है कि माता-पिता के बीमार होने पर उनकी दवाई के लिए यदि जरूरत हो, तो अपने शरीर का मांस भी काटकर और उबालकर सामने रख दें। माँ उनकी बात सुनकर समर्थन में चुप हो गई थीं। उन्होंने कोई विरोध नहीं किया था। अगर नर-मांस का एक टुकड़ा खाया जा सकता है, तो पूरे आदमी को भी खाया जा सकता है, और जब माँ के गम और विलाप की याद आती है, तो कलेजा टुकड़े-टुकड़े होने लगता है। कितने अनोखे तरीके हैं इन लोगों के।

बारह

उसे याद करते ही, सोचते ही, रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सिर चकराने लगता है। आखिर यह बात समझ में आई कि सारी उम्र ऐसे लोगों के बीच रह रहा हूँ जो चार हजार बरस से नर-मांस का भोजन करते आ रहे हैं। बड़े भैया ने अभी घर सँभाला ही था कि कुछ दिन बाद छोटी बहन की मौत हो गई। इन्होंने उसके मांस का इस्तेमाल किया ही होगा, पुलाव में या दूसरी जगह। और अनजाने में हम लोग भी खा गए होंगे।

संभव है अनजाने में मैंने अपनी बहन के मांस के कई टुकड़े खा लिए हों; और अब मेरी बारी है...

मैं भले ही अनजान हूँ, मेरे पुरखे चार हजार बरस से आदमखोर रहे हैं। मेरे जैसा आदमी किसी सभ्य, वास्तविक मनुष्य को अपना मुँह कैसे दिखा सकता है?

तेरह

संभव है, नई पीढ़ी के छोटे बच्चों ने अभी नर-मांस न खाया हो। उन बच्चों को तो बचा ही लें।