पापा के लिए चिट्ठी / सविता पाठक

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रात 2:20

तारीख: हर दिन / हर रोज़

पापा नमस्ते,

उस दिन अस्पताल में तीस दिन हो गए थे। मुझे एक नर्स ने पेन और कागज़ दिया था। वह कहने लगी — जो मन में आए, लिख डालो। पापा, अस्पताल में जब आप कभी बाहर जाते थे तो वो अक्सर मुझसे बात करती थी । आपको याद होगा कि एक साँवली सी मलयाली नर्स थी राज नर्सिंग होम में, वो हमारे कमरे में कभी - कभी फूल रख जाती थी। पापा, पेन और पेपर दिल की बात लिखने के लिए होते हैं, यह सोचकर एक रोमांच से भर गई थी मैं। अब तक मैंने इससे सिर्फ़ स्कूली इम्तिहान पास किए थे। पापा, लेकिन मन की बात लिखने का ख़याल जितना सुन्दर था, उतना ही मुश्किल था ये जानना कि मेरे मन में क्या है। कैसे लिखती — वहाँ तो घुप्प अन्धेरा था, फिसलन भरे रास्ते थे। उसमें हवा भी बहुत कम थी, आक्सीजन बहुत कम थी, उसके भीतर घुसते ही बाहर निकलने की तड़प होने लगती। वहाँ डरावनी चमगादड़ें थीं, जो दीवारों पर चिपकी रहती थी और जैसे ही कोई वहाँ घुसता, वो उस पर हमला कर देती थीं। मैं कुछ नहीं लिख सकी । कागज़ को पकड़ कर गोजती रही। आड़ी - तिरछी ढेरों रेखाएँ बन गईं । फिर एक फूल बनाया, जो कभी बचपन में सीखा था। फिर उस फूल को भी गोज दिया । फिर पेन घिसने लगी और काग़ज़ फट गया। पापा, मैं मन में आई बाते लिखना चाह रही थी, लेकिन मुझे डर लग रहा था। लग रहा था कि अगर किसी ने पढ़ लिया तब क्या होगा । उससे भी ज़्यादा लग रहा था कि अगर मैंने पढ़ लिया, तब क्या होगा। पापा, जब बातें अलग से लिखी जाती हैं तो वो गवाही देने लगती हैं। मुझे अपने मन के गवाह से डर लगता था।

पापा उस दिन मैंने उस कागज़ को कई बार छुआ उस पेन को कई बार पकड़ा और कुछ भी नहीं लिख सकी।

मेरे भीतर का अंधेरा मेरे सीने के भीतर से फेफड़ों तक आ गया था, टीबी से मेरे फेफड़े गल रहे थे। अस्पताल में तीसवां दिन था।.. आपके मेरे बीच का पहला संवाद तब था जब उस रोज बाउन्ड्री में गुलाब खिले थे। हमारी कालोनी में कई मकान एक लाइन से थे हमारा घर सबसे किनारे दो कमरों का घर था। पीछे आंगन आगे बाउन्ड्री और गेट। हमारे घर के सामने जमीन खाली पड़ी थी और पीछे भी। सामने वाली जगह पर गुलमोहर का पेड़ था। लाल फूलों से लदा गुलमोहर उसकी सारी पखुंड़िया लाल थी लेकिन एक थोड़ी मोटी और चितकबरी। मैं उसके घनें पत्तो पर निछावर रहती थी। पापा मैं अपनी कालोनी की सुन्दर लड़कियों में शामिल नहीं थी लेकिन वह गुलमोहर का पेड़ मुझे भी खास बनाता था जब कोई कहता था वो वाला क्वाटर्र बी 32 जिसके सामने गुलमोहर लगा है, मैं हल्की सी लाल हो जाती थी। उन दिनों हम इतने बड़े नहीं थे कि सिर्फ फूलों को देखते हम उसकी चितकबरी पंखुड़ी का निचला हिस्सा खाते थे। वो खाने में ऐसे लगता था जैसे इमली के पत्ते खा रहे हैं। उसी के बगल में पुलिया थी। एक तरह का हमारी लाइन का चौराहा। रात का खाना खाकर हम सब अक्सर ही बाहर निकलते थे और टहलने जाते थे। हमारी पुलिया पर शाम से लड़कों की भीड़ लग जाती थी। हमलोग शाम को पुलिया पर नहीं बैठते थे।

पापा पांच दिवसीय टेस्ट मैच शुरू हो गया था। कालोनी के लड़कों को पता था कि आपको क्रिकेट का खूब शौक है। हमारे घर से चौके-छक्के से लेकर आउट का शोर आता था आप चिल्लाते हुए बाहर निकल जाते थे,लड़के आप से कहते अंकल अब तो मिठाई खिलाना पड़ेगा। आप दो-तीन दिन छुट्टी लेकर मैच देखते थे, सिद्धु ज्यादा गेंद पर कम रन बनाता था, आप चिल्लाने लगते- इसको किसने रखा है टुक टुक करता है इसको टीम की परवाह नहीं है ये बस खुद की परवाह करता है। कई बार तो आप गालियां देने लगते थे। बाहर लड़के हंसने लगते। घर का माहौल थोड़ा हल्का हो जाता था जब भारत मैच जीतता। अगर भारत मैच हार जाता तो हमारी शामत आ जाती, घर में लड़ाई झगड़ा शुरू हो जाता। पापा आपकी खुशियों और गुस्से की घुरी पर पूरा घर टिका था। हमलोग बचते हुए फिरते थे।

वो सर्दियों की एक सुबह थी पापा बाउन्ड्री में कोने में लगा गुलाब अपने महक से भरा था वो देसी गुलाब था एक साथ कम से कम पन्द्रह फूल खिले थे। गेट के पास एक गुड़हल के फूलों की झाड़ थी उसको मोड़ कर हमने बंदनवार की तरह सजा दिया था हमारे गेट के ऊपर फूलों से लदा गोलाई लिए बंदनवार हर किसी को आकर्षित करता था। पापा मैं बढ़ती उम्र के साथ समझ गयी थी आकर्षण शब्द अच्छा नहीं है। हमें रोड पर राम राम करना था लेकिन पापा हम दोस्ती कर बैठते थे। महज़बी अपने भाई के साथ हमारे घर आयी थी उसके भतीजे का जन्मदिन था हम लोगों को बुलाने। पापा वो थोड़ा दूर से आयी थी आपने कहा कि इसी वक्त उससे कहो कि हमारे यहां आने की जरूरत नहीं है। पापा मैं सोलह साल की थी ग्यारवीं में पढ़ती थी किसी को कैसे ये बात कहती। फिर भी पापा मैंने अपने भीतर के एक और आक्सीजन के दरवाज़े को बंद किया और उसको बाउन्ड्री में बुला कर कहा कि प्लीज हमारे घर बाहरी लोगों का आना मना है। उसे क्या लगा होगा वो कैसे अपने भाई को कहकर हमारे घर लायी होगी। लेकिन पापा मुझे तो आपकी नज़र में अच्छा बनना था।

पापा, मैंने अच्छा बनने के लिए बहुत कुछ किया। मेरा बस चलता तो मैं अपने बढ़ते शरीर को रोक देती मेरा बस चलता तो मुझे पीरियडस् कभी नहीं होते। मेरा बढ़ना आपकी नज़र में गिरना था.. मैंने बड़े बड़े गुनाह किये पता है आपको, जब मां ने किसी को सिल सिर्फ पीसने के लिए दिया था मैं बहुत छोटी थी आपसे बस तारीफ पाना चाहती थी। मैं रास्ते में बैठकर इस बात का इंतज़ार कर रही थी कि आप आयेंगे और मैं कहूंगी कि मां ने सिलबट्टा बेच दिया। पापा आपने मेरी बात पर यकीन कर लिया और घर आते ही मां पर चिल्लाने लगे। पापा मां उस दिन रोई। वो आंसू भी ठंडे नमक बन कर मेरे दिल में जम चुके हैं। पापा वह तो बचपन की बात थी। पापा लोग जब किस्सा कहते थे कि फलां की शादी में तुम बहुत छोटी थी और ताई के लड़के ने तुम्हें मारा तो माथे से खून निकलने लगा और आपने अपनी भाभी को सबके बीच जाकर कहा कि अपने लड़के को इतना मारो कि खून निकल जाय नहीं तो मैं मारूंगा। पापा ताई ने बेटे की खूब पिटाई की। इस किस्से के साथ यह भी जुड़ा था कि आपने मेरा मन बढ़ाया। लेकिन मेरा मन कहां बढ़ पाया पापा वो तो मेरी उम्र बढ़ने के साथ कमज़ोर और कमज़ोर होता गया। क्यों कि वक्त के साथ वो जान गया कि कौन सी चोट पापा को बतानी है और कौन सी नहीं। पापा मैं दिल में घाव लेकर घुटती गयी…।

पापा, मैं बता रही थी अपने कालोनी वाले घर के बारे में। वैसे पापा, हम लोग बहुत कोशिश करते थे कि हमारे घर पर किसी का ध्यान न जाए, लेकिन ग़लती गुलमोहर, गुलाब और गुड़हल की थी। हम उनका खिलना नहीं रोक पाए। ऊपर से बगल वाली बाउण्ड्री के अमरूद की डाल की भी ग़लती थी। वह साल में दो बार फूलता था। सफ़ेद, सुन्दर फूलों पर काले भौरे लोटते रहते थे। बड़े बड़े अमरूद होते थे। वो सर्दियों की सुबह थी हवा में खुनक थी । मैंने हल्का सा शाल ओढ़ रखा था । तभी बाउण्ड्री में गुलाब के पास लिफ़ाफ़े में पड़ा कुछ दिखा । मैंने लिफ़ाफ़ा खोला तो उसके अन्दर ग्रिटिंग कार्ड जैसा कुछ था । मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा । ये धड़कन पहले ग्रिटिंग कार्ड के पाने की नहीं थी, ये कुछ और ही थी। उस कार्ड में मेरा घर का नाम लिखा था, इसका मतलब ज़रूर कोई कालोनी का ही लड़का होगा। मेरा हाथ काँप रहा था। ‘पापा, ये है यहीं गिरा था’ आपने उसे देखा और कहा —फाड़कर नाली में डाल दो। मैंने कार्ड को दुबारा खोलकर नहीं देखा। सच तो ये है कि पहली बार भी मैंने कार्ड को खोलकर नहीं देखा था । बस, अपना नाम दिख गया था। मैंने जल्दी से कार्ड फाड़ा और नाली में डाल दिया । आपने कहा कि घर में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। मेरा मन आपके प्रति एहसान से भर गया । न मालूम, क्यों लगा कि आपने मुझे कोई सज़ा नहीं दी। आप समझ गए कि मेरी कोई ग़लती नहीं । वैसे, पापा, मैं बगैर ग़लती के बहुत बार डाँट खा चुकी थी और पिटाई भी। लेकिन आपने मेरे ऊपर भरोसा किया तो मेरा मन स्नेह से भर गया। दिल किया कि आपके गले लग जाऊँ।

मौसम बीत रहा था मेरी मेज़ खिड़की के ठीक सामने थी। जब हमारी कालोनी की लड़कियां तरह तरह के खेलों में भाग लेती थी तरह तरह की प्रतियोगिताओं में भाग लेती थी मेरा भी मन उनकी तरह रहने का करता था। पापा, उस दिन के बाद से आप लगातार बदल रहे थे । हमारे ऊपर तरह तरह के प्रतिबंध लग रहे थे। बाहर क्यों खड़ी हो,इतनी देर तक लाइट क्यों जली है से लेकर एक सख्त निगाह लगता था कि मेरे साथ ही मेरे ऊपर तनी रहती है। मेरे चेहरे पर अब एक उदासी तैरने लगी थी। अक्सर ही बुखार रहने लगा और सिरदर्द आम बात हो गयी। फिर भी, पापा, आपकी एक मुस्कुराहट के लिए मैं आतुर रहती थी। लेकिन उस मुस्कुराहट को पाने के लिए मेरी हंसी गायब होती जा रही थी।

पापा, तभी एक बात हुई अपने घर के सामने कोई अलग तरह का लड़का रहने आया। उसकी खिड़की और हमारी खिड़की आमने सामने थी। उसके यहां बानू और रानू कभी कभी पढ़ने जाने लगे उनसे पता चला कि वो बहुत अच्छी ड्राइंग बनाता है। एक दिन वो हमारे घर भी आया था पता चला कि पहाड़ों से है वो आप लोगों से पहाड़ों की बातें बता रहा था वो एक ट्रेनी इंजीनियर था। एकदिन मैंने भी मां से पूछ कर अपनी प्रैक्टिकल कापी में चित्र बनाने के लिए उसके यहां कापी भेज दी। उसने सिलाई मशीन का बहुत सुन्दर चित्र बनाया लेकिन उसी कापी में एक अन्तरदेशी भी थी। पापा वैसे तो मैं किसी की चिट्ठी नहीं पढ़ती हूं पर न मालूम क्यों लगा कि वो चिट्ठी मेरे लिए है वो चिट्ठी खुली हुई थी उसमें लिखी हर बात मैं एक सांस में पढ गयी इसके पहले किसी ने मुझे केन्द्र में रखकर इतना कुछ नहीं लिखा था। ये चिट्ठी उस लड़के ने अपनी बहन के नाम लिखी थी उसमें लिखा था कि उसके घर के सामने बहुत सुन्दर उदास लड़की रहती है। वो उदास लड़की गुलमोहर के पेड़ के नीचे कभी कभी खड़े होकर फूल चुनती है कभी कभी अपने गेट के पास खड़ी होकर एकटक कुछ देखती रहती है। इतनी सी उम्र में वो उदास क्यों रहती है जैसे कूल के किनारे खिले फूल को किसी ने उखाड़ कर फेंक दिया हो,अब वो धीरे धीरे सूख रहा हो। पापा मैंने अपने बारे में ये सब बातें पहले कभी नहीं पढ़ी थी। उसमें लिखा था कि वो उस लड़की से बात करना चाहता है लेकिन वो लड़की बिलकुल भी उसकी ओर नहीं देखती है उसके घर जाओ तो भी दूसरे कमरे में चली जाती है। उसी चिट्ठी में उसने लिखा था कि वो कभी कभी सिगरेट पीने लगा है उसे अपने घर की याद आती है। पापा मैंने वो अन्तरदेशी वैसे ही बानू के हाथ भिजवा दी कि गलती से ये इसमें रह गया है। पर पापा मेरी उदासी बढ़ती जा रही थी और मेरा सिरदर्द भी। एक दिन बानू की किताब में मुझे दो तस्वीरों मिली दोनों ही पहाड़ों की थी नीले रंग के पहाड़ों के बीच से सफेद रंग की नदी बह रही थी। तस्वीर के पीछे लिखा था कि इन्ही पहाड़ों की टेड़ी-मेड़ी पगदंडियों से होता हमारा घर आता है। मेरे घर मैं तुम्हें याद करता हूं। मैंने इसके पहले पहाड़ों की असली तस्वीर नहीं देखी थी। मेरे सपनें में ये पहाड़ नीले रंग के आसमान जैसे हो गये। एक दिन पापा मैं बाउन्ड्री में झाड़ू लगा रही थी गुलाब की झाड़ में फंसा बहुत परतों में मुड़ा एक कागज़ मिला। बहुत ही सुन्दर हैंडराइटिंग थी। सीधे गोल गोल अक्षर। उसमें बड़ी ही अजीबोगरीब बातें लिखी थी जैसे मेरी संस्कृत की किताब में कभी सुभाषितानि में लिखी थी। गन्नें में फूल नहीं खिलते, सोने में सुगंध नहीं होती वगैरह। लेकिन ये बात इस बात से जुड़ी थी कि ये सब मेरे बारे में था। मैंने चिट्ठी अबकी दफा दो बार पढ़ी। लेकिन अचानक मेरे वादे ने मुझे घेर लिया मेरा दिल घबराने लगा जैसे कोई बड़ा अपराध हो गया हो मैंने जल्दी जल्दी कागज़ के छोटे छोटे टुकड़े किये और नाली में फेंक दिया लेकिन हड़बड़ी में कुछ टुकड़े उड़कर गुलाब की झाड़ तक आ गये। तभी किसी ने घर के अंदर बुलाया मैं भाग कर चली गयी। पूरा दिन ग्लानि और डर के मारे बाउन्ड्री में नहीं आयी। लगा कि जाली वाले दरवाजे से सामने की बाउन्ड्री से कोई देख रहा होगा कहीं उसको मेरे चेहरे के भाव से कुछ अलग न समझ आ जाय कि मैं उसके बारे में सोच रही हूं दूसरे इस बात की भी ग्लानि थी कि कहीं आप मुझे न देख रहे हो कि मैं क्या कर रही हूं।

सर्दियां बढ़ रही थीं। मेरे भीतर भी ठंड मार गयी थी। मेरी नींद में दीदिया कागज़ खाते हुए दिखती थी। उसकी फैली लाल आंखें, आपकी हांफती आवाज। पापा मैं अक्सर ही खिड़की पर बैठती थी लगता था कि देख लूं सच तो ये है कि उस दिन चिट्ठी फाड़ने के बाद मैं दुबारा नाली के पास तक गयी थी ओस से उड़े हुए टुकड़े गीले होकर बहुत कमजोर पड़ गये थे जैसे कि मैं होती जा रही थी। कमज़ोर और सफेद। पहाड़ों का नीलापन गीला होकर बह गया था।

दीपावली नजदीक आ रही थी। सबके घर के सामने रंगोली बन रही थी मैंने भी बनाई। सबसे अच्छी रंगोली नंदू के घर पर बनी थी वो लोग हमेशा अपना घर बहुत सुंदर सजाते थे। लेकिन सामने वाले घर में कोई रौनक नहीं थी अकसर ही अंधेरा रहता था। मैं देखना चाहती थी कि वहां सबकुछ ठीक है या नहीं। उसी रात हम लोग प्रसाद देने आगे की लाइन में जा रहे थे। रास्ते में एक बड़ा पीपल का पेड़ पड़ता था वहां कुछ अंधेरा भी रहता था मुझे थोड़ा डर भी लग रहा था तभी पीछे से हीरो रेंजर साइकिल से कोई नजदीक आया मेरा दिल जोरो से घबराने लगा। उसने साइकिल रोकी और कहा कैसी हो मेरा पूरा शरीर कांप रहा था लेकिन दीवाली की उस रात मैंने पहली बार उससे आंखे उठाकर बात की थी। मैंने कहा- मैं ठीक हूं, आप कैसे हैं? सब ठीक है ना? बस इतनी सी बात बोल कर मैं आगे बढ़ गयी। उसने भी नहीं रोका। मैं प्रसाद देने आगे की लाइन में गयी थी वापस लौटी तो देखा कि सामने के घर में पचीसों दिये और मोमबत्ती झिलझिल कर रहे हैं। तब तक कई घरों की मोमबत्ती बुझने की हालत में पहुंच गयी थी। थोड़ी देर बाद सामने वाले घर से मिठाई और लाई एक प्लेट में आयी उसको बहुत ही सुन्दर रूमाल से ढ़का हुआ था। रूमाल से किसी इत्र की खुशबू आ रही थी। मैंने देर तक वो रूमाल थाम कर रखा। भीतर एक बदलाव हो रहा था किसी दिन बहुत खुश। किसी दिन गहरी उदासी में डूबा मन। समझ नहीं आ रहा था लग रहा था किसी अपराध के रास्ते पर आगे बढ़ रही हूं अपने पिता से धोखा कर रही हूं। लेकिन दूसरी तरफ लगता था कि मैं कोई धोखा नहीं दे रही हूं वही कर रही हूं जो सहज है सुन्दर है। इसी उपापोह में दिन बीत रहे थे। नया साल आने वाला था पूरी कालोनी में लड़के लड़कियों ने मिलकर नया साल मनाने का कार्यक्रम रखा था। आपने कहा था मुझसे पूछने किसी को नहीं आने देना है। तुम उन्हें पहले ही टरका दो। मुझसे कालोनी की दो दीदियों ने पूछा मैंने कहा मेरा कोई इनट्रेस्ट नहीं है। उन्हें मेरा जवाब बहुत खराब लगा उन्होंने बात करना ही बंद कर दिया। वो तीस तारीख थी मैंने अपने जीवन का पहला ग्रिटिंग कार्ड खरीदा था। बिलकुल सादा। इतना कि उसपर अगर उस पर रेस्ट इन पीस लिख देती तो भी अटपटा न लगता। कागज़ पर एक रजनीगंधा के फूलों की डंठल ब्लर होकर छपी थी और छोटा छोटा लिखा था-हैप्पी न्यु इयर। मैंने कांपते हाथों से लिखा कि ईश्वर आपको वो सब दे जो आप चाहते हैं,नीचे एक नोट लिखा- आप प्लीज हमारे घर के सामने से चले जाइये। पहली दफा मैने अपनी बाउन्ड्री पार की। दूसरे की बाउन्ड्री तक गयी थी और जल्दी से कार्ड नीचे गिरा दिया। मैं पूरी रात रोती रही।

अगली सुबह बीती। उसके बाद की सुबह बीती। चारो तरफ कुहरे के बादल थे दिन में अंधेरा सा रह रहा था। मैं डर के मारे कालेज से घर। घर से कालेज ही करती थी। कोशिश करती थी कि भीड़ में ही रहूं। एक दिन मैंने देखा कि सामने का घर खाली हो रहा है। सामान तो ज्यादा था नहीं एक जीप में आ गया था। मैं सूनी सूनी आंखों से देखकर भी नहीं देख रही थी। दोपहर तक घर खाली हो गया। उस रात मैं पूरी रात खिड़की पर बैठी रही और सामने का घर देखती रही। सबकुछ खाली। मौसम बदल रहा था। हमारे स्वेटर उतर गये मैं और कमज़ोर हड्डी का ढ़ाचा लगने लगी थी। लेकिन हमारा गुलमोहर फिर से हरा हो उठा था। उसे न मालूम क्या हुआ उसमें काठ का जिल्द लपेटे कीड़े पड़ गये। वो कीड़े उड़ कर हमारे घर में आ जाते थे हमारे कपड़ों से चिपक जाते थे। आप मेरा इलाज करवा रहे थे। दूसरी तरफ दूसरा इलाज भी कर रहे थे कि मुझे भी जल्दी से जल्दी घर से ऐसी जगह पहुंचा दें जहां से मैं कोई चिट्ठी न लिख पाऊं। गुलमोहर इस बार नहीं खिला। तेज धूप में ऐंठ गया था जैसे किसी बड़े कीड़े ने छोटे छोटे कीड़ों का रूप धर कर उसको निगल लिया हो और वह गुलमोहर का पेड़ न बल्कि काठ का जिल्द लपेटे कोई कीड़ा खड़ा हो। आपने केमिकल डलवाया फिर उस पर आरी चलवा दी। हमारा पेड़ कट गया। अब उस पर न तो फूल आयेंगे न ही चिड़िया शोर मचायेगी न ही किसी का ध्यान हमारे घर की ओर जायेगा। पापा मैं कोशिश करती थी कि घर के रंग की हो जाऊं उसी में मिल जाऊं। बिलकुल कैमोफ्लाज होकर।

पापा, इस खालीपन ने मेरे भीतर से बहुत कुछ सोख लिया। मैं ज़िन्दगी के बहुत से मौक़ों पर बहुत शुष्क हो जाती हूँ । पापा, अब जब मैं आपको चिट्ठी लिख रही हूँ, तब भी कुछ नहीं कह पा रही हूँ। मैं आपसे कहना चाहती हूँ कि पापा, अब भी मेरी नींद टूट जाती है, पापा, मुझे आज की रात भी सपना आ रहा है। मैं उठकर बैठ गयी हूँ, कोशिश कर रही हूँ कि याद कर पाऊंँ, नीले पहाड़ों की वो तस्वीर, जिस पर नदी के किनारे सेब के छोटे - छोटे पेड़ों पर हल्के गुलाबी फूल खिले थे। लेकिन मेरे सामने दीदिया दिख रही है । उसने मन में आई बातें लिखी थी किसी को। पापा, उसके बाद क्या हुआ ? हमने अपने घर को क्या से क्या बनते देखा ? हमने उसकी सारी किताबों के जिल्द उतार दिये, उसके हर कपड़े की तलाशी ली। उसका स्कूल जाना बन्द हो गया । उसका इण्टर फ़ाइनल का इम्तिहान छुड़वा दिया गया। मैं उस वक़्त आपके साथ - साथ लगी रही, किसी कारकून के माफ़िक। जब उसकी कापी में वो कागज़ पाया तो दौड़कर आपको दिया। पापा, दीदिया ने वो पत्र किसी को लिखा था। उसमें उसने अपने भीतर की बात लिखी थी। पापा, आपने दीदिया के मुँह में वो काग़ज़ भर दिया और कहा कि खा जाओ, फिर नहीं हिम्मत करना ये लिखने की। पापा, दीदिया की आँखें फैलकर फटने को थीं। पापा, दीदिया ने वो काग़ज़ खा लिया या आपने उसके मुँह में ठूस दिया था, तब भी आपने उसे माफ नहीं किया। उसे सज़ा के तौर ऐसी जगह ब्याह दिया, जहाँ से वो किसी को चिट्ठी नहीं लिख सकती थी। वह हमारी ज़िन्दगी से दूर हो गई।

पापा, अब जबकि मेरे अंधेरे घने हो गए हैं, तब मुझे ज़िन्दगी और मौत में से किसी एक को चुनना है। आज मैंने वसुधारा के इन्द्रधनुष को देखा। पापा, जब ऊँचे पहाड़ों से झरने गिरते हैं तो वो ख़ामोशी में अलग ही शोर मचाते हैं । उनकी हर बून्द में इन्द्रधनुष के रंग होते हैं। मैंने सोचा कि इन झरनों के साथ मैं भी बह जाऊँ, लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। उसने कहा — दो पल रुको, एक नज़र डालो इन पहाड़ों पर, इनकी तलहटी पर। एक रात और रुक जाओ और जाकर यह देख लो कि क़रीब के पुल को गंगा कैसे नहलाती है। आज की रात चान्द बहुत नज़दीक है धरती के। फिर उसने मुझे मठ्ठी भर बेला के फूल दिए। कहा — इसे लेकर रात पुल पर जाना उसे फिर देखने का मन न हो तो छलाँग लगा लेना और मन करे तो पूरी रात देखना और उससे फिर - फिर मिलना।

पापा, आज फिर से उसने मुझसे मेरे भीतर की बात लिखने को कहा है। मुझे मेरा गुलमोहर का पेड़ याद आ रहा है। मेरी मुठ्ठी में बिंधा बेला मुझ तक जीने की आस लेकर आ रहा है। गंगा के सफ़ेद दूधिया पानी ने पुल को भिगो दिया है। एक सुनहरा चान्द पानी में भीग रहा है। गंगा के सफेद दूधिया पानी ने पुल को भिगो दिया है। मैं इस ख़ामोशी में ख़ुद को सुन रही हूँ। उसी मलयाली नर्स ने मुझसे ये कहा करने को। मेरे हाथ में काग़ज़ - क़लम थमाकर वो दूसरा मरीज़ देखने चली गई शायद।

फिर से हाथ में काग़ज़ और क़लम है। मेरे फेफड़ों को आक्सीजन की ज़रूरत है। उसके बन्द सीलन भरे दरवाज़ों को एक - एक करके खोलना है । मैं उसके भीतर उतर रही हूँ। मेरे हाथ काँप रहे हैं — मेरे पांव थर्रा रहे हैं । पापा, बाहर के अन्धेरे तो दिख ही जाते हैं, लेकिन भीतर पैठा अन्धेरा बहुत ताक़तवर होता है। पापा, आज मैंने पहली खिड़की खोली है, आपको पहला पत्र लिखा है। ये मेरे भीतर की बात है। पापा, मैं इस कागज़ को खा नहीं सकती। बिलकुल भी खा नहीं सकती। मैं दूर से ख़ुद को देख रही हूँ, पाती हूं कि उसी गुलमोहर के पेड़ के नीचे खड़ी हूँ। कभी पत्ते बटोर रही हूं तो कभी उसकी चितकबरी पँखुड़ियाँ इकठ्ठा कर रही हूँ। मेरे साथ मेरे गुलाब, गुलमोहर और गुलहड़ की ख़ुशबू लिपटी है। और मेरे भीतर उस ख़ुशबू को लेकर कोई अपराध बोध नहीं।

आपकी बिगड़ती बेटी