पिघलती हुई बर्फ़ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
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वे दोनों इतनी ऊँची आवाज़ों में बोलने लगे, जैसे अभी एक–दूसरे का खून कर देंगे।

"मैं अब इस घर में एक पल नहीं रहूँगी।" पत्नी चीखी–"बहुत रह चुकी इस नरक में!" क्रोध से उसके नथुने फड़क रहे थे, टाँगें काँप रही थी। आँखों से आँसू बहने लगे थे।

"यह निर्णय तुम्हें बहुत पहले कर लेना था, अल्पना!" पति ने घाव पर नमक छिड़का।

"अभी कौन–सी देर हो गई है!"

"जो देर हो गई है, मैं उसका प्रायश्चित कर लूँगा।" वह एक–एक शब्द चबाकर बोला।

"…"

उसने सिगरेट सुलगाई. पैर मेज पर टिकाए. धुएँ के छल्ले अल्पना की ओर उड़ाकर लापवाही से घूरने लगा।

"तुमने कहा था न कि मेज पर पाँव टिकाकर नहीं बैठूँगा।" अल्पना ने आग्नेय दृष्टि से पति की ओर घूरा।

"कहा था।" और उसने पैर नीचे उतार लिए.

"और सिगरेट! इतनी खाँसी उठती है फिर भी सिगरेट पीने से बाज नहीं आते।" वह आगे बढ़कर पति के मुँह से सिगरेट झपटने को हुई तो उसने स्वयं ही सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।

"और कुछ!" वह गुर्राया।

"हाँ–हाँ जो–जो भी मन में हो, तुम भी कह डालो।" वह अपने कपड़े अटैची में ठूँसती जा रही थी और सुबक रही थी।

वह एकटक देखता रहा। चुपचाप। उसके होंठ कुछ कहने को फड़कने लगे।

"क्या तुम मुझे कुछ भी नहीं कह सकते?" वह भरभरा उठी। शिकायती लहजे में बोली–"मैंने मेज से पाँव हटाने के लिए कहा, आपने हटा लिए. मैंने सिगरेट पीने से मना किया, आपने सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।"

"किसी की सुनो तो कोई कुछ कहे भी। तुमने सुनना सीखा ही नहीं। मैं कहकर और तूफान खड़ा करूँ?"

"ठीक है। मैं जा रही हूँ।" वह भरे गले से बोली और पल्लू से आँखें पोंछने लगीं।

"इतनी आसानी से जाने दूँगा तुम्हें?" पति ने आगे बढ़कर अटैची उसके हाथ से छीन ली–"जाओ खाना बनाओ, जल्दी। मुझे बहुत भूख लगी है।"

अल्पना गीली आँखों से मुस्कराई और रसोईघर में चली गई।