पिघला है सोना / माया का मालकौंस / सुशोभित

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पिघला है सोना
सुशोभित


गुरुदत्त-देव आनंद की फिल्म 'जाल' (1952) का सबसे मशहूर गाना है- "ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ"- जो आज भी जब-तब बजता सुनाई दे जाता है। पर मेरी नज़र में उस फिल्म का सर्वश्रेष्ठ गाना जो था, उसे अब भुला दिया गया है। शायद ही उसे कोई बजाता है और बहुतेरों ने उसे कभी सुना भी न होगा।

यह है वो गाना : "पिघला है सोना, दूर गगन पर, फैल रहे हैं शाम के साये।"

इसकी धुन अनूठी है। लगभग अलौकिक है। यह इस धरती की धुन मालूम नहीं होती। याद नहीं आता इससे पहले या इसके बाद ऐसी धुन कभी सुनी हो। तिस पर गाने के विलक्षण बोलों और संवेदनशील फिल्मांकन से यह गीत अनिर्वचनीय बन जाता है। मैं कहूँगा, सुबह उठे, स्नान किया तो देह निर्मल हुई, और यह गीत सुना तो आत्मा का स्नान हो गया। यह साधारण कृति नहीं है।

सचिन देव बर्मन की देह में जिस आदिम आत्मा ने आकर शरण ली थी, उसको नमन, जिससे यह कृति उपजी। वास्तव में, उनका सम्पूर्ण रचनाकर्म ऐसी अनूठी धुनों से भरा हुआ है।

शाम का समय है, सूरज की किरनों का पिघला सोना क्षितिज पर फैल गया है, नायिका कश्ती में है और इस रागलीला को निहारती है। उसके अंतस् से जो गीत फूटता है, उसे साहिर लुधियानवी ने अपनी क़लम से पिरोया है :

"कोई भी उसका राज़ न जाने, एक हक़ीक़त लाख फ़साने

एक ही जलवा शाम-सबेरे भेस बदलकर सामने आये..."

गीत के ये बोल देखते हैं? एक ही जलवा शाम-सबेरे भेस बदलकर सामने आये- इस कोटि की कविता सिनेमा में साहिर जैसे वाक्-पुरुष ने सम्भव की थी। साहिर के यहाँ गहराते सायों, चाँदनियों, धूप की कनियों, झिलमिलाहटों और दीपकों की क़तारों के बिम्ब बारम्बार आते हैं।

परदे पर गीता बाली हैं- उजली, निखरी, स्वस्थ, सुकोमल... और एक अटूट प्रेमिका। जानती है कि फिल्म में प्रेमी उसका ठग है, उसे इस्तेमाल कर रहा है (देव आनंद), तब भी आवेश में उसके पास खिंची चली जाती है और अंत में उसका हृदय-परिवर्तन करवा के रहती है।

अंत में- लता- सन् 52 की किशोर-कंठी लता। इस कंठ में स्वयं भगवत्स्वरूप की अभिव्यंजना हुई थी- इसमें मुझे तो कोई संदेह नहीं है। मद्धम सरग़ोशियों से भरे इस गीत में तो लता का अनिंद्य, निष्कलुष स्वर प्रार्थना की-सी पवित्र-आकुलता से भर गया है।

यह गीत सुनें और उदात्त, महान कला के स्पर्श से स्वयं को धन्यभागी अनुभव करें, जैसे मैं करता हूँ- सचिन देव बर्मन, साहिर, गीता बाली और लता के समक्ष- विनत्, याचक, कृतज्ञ और उपकृत।