पिछली सदी की अंतिम प्रेमकथा / प्रताप दीक्षित

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(इस कहानी में पात्र, स्थान, घटनाओं के अतिरिक्त कुछ भी कल्पित नहीं है)

बात तब की है जब उस धूल और धुएँ से भरे शहर में शनि का सातवाँ मंदिर और सत्रहवां ब्यटी पार्लर एक ही दिन खुले थे। मंदिर एक पौश कॉलोनी मेए और ब्यटी पार्लर फट्टेवाली गली में। मंदिर तो कॉलोनी के बाशिंदों के लिए तो आश्चर्य का सबब नहीं था। रातो-रात अकूत संपत्ति बढ़ने के साथ लाजिमी तौर पर बढ़ती असुरक्षा की भावना पर शनिदेव स्पीड्ब्रेकर का काम करते। लेकिन उस पुराने मुहल्ले की गली में खुला ब्यूटी पार्लर लोगों के बीच चर्चा का विषय बना रहा। मोहल्ले वालो ने सक्सेना साहब के घर के बाहरी हिस्से में, कई दिनो से, कुछ मरम्मत।निर्माण जैसा काम चलते देखा था। शहर का पुराना हिस्सा था। कई घरों में पढ़े लिखे बेरोजगार लड़कों को नीचे के हिस्से में दुकाने खुलवा दी गई थीं। दुकानो में रोजमर्रे की ज़रूरतों की थोडी बहुत चीजें रहतीं। हिल्ले रोज़ी का बहाना तो था ही। कल शाम जब सक्सेना साहब की दूसरे नम्बर की लड़की । माधुरी ने पार्लर के उद्घाटन सम्बंधी कार्ड पड़ोस के घरों में बांटे तब लोगों को पता चला। अगले दिन मकान के बाहरी दरवाजे पर बाकायदा ‘ला-बोहीम ब्यूटी पार्लर’ का बोर्ड भी टंग गया था।

पिछले दिनो से शहर में जो परिवर्तन आए थे उन्हे देखते हुए ब्यूटी पार्लर का खुलना आश्चर्य की बात नहीं थी। सिविल लाइन्स और मुख्य बाज़ार वाली सड़क पर तो पहले से ही कितने ब्यूटी पार्लर, इण्टरनेट कैफ़े जैसी दुकाने जाने कब से थीं। परन्तु फट्टे वाली गली जैसे पुराने, पिछड़े मोहल्ले में यह चल सकेगा, इसमें लोगों को संदेह था। घरों के नलों में प्रेसर की कमी से पानी तक तो आता नहीं था। कुछ घरों में पानी खींचने के मोटर अवश्य लग गए थे, बाक़ी लोग सुबह शाम गली के मुहाने पर सरकारी हैण्डपम्प से पानी भरते नज़र आते। बिजली की कटौती भी नियमित होती ही। लेकिन मोहल्ले के युवाओं ने ज़रूर नए ज़माने की दस्तक महसूस की थी।

यह कस्बाई मानसिकता वाला, वर्षों से एक तरह की ज़िन्दगी गुजारते हुए भी, न ऊबने वाला शहर था। बुजुर्गो ने जो परिवर्तन शायद पूरी उम्र नहीं देखे होंगे, वह बीतती सदी के अंतिम दिनो में, न केवल महसूस कर रहे थे बल्कि एक तरह से आत्मसात भी। ऐसे में जनार्दन शास्त्री द्वारा मेरा दरवाज़ा खटखटा कर अपनी चिंता व्यक्त करना अवश्य मुझे आश्चर्यजनक लगा।

सुबह सुबह मेरी नींद उनके पुकारने से खुली थी। बाहर जनार्दन शास्त्री थे। उन्होने गम्भीर स्वर में कहा, ‘प्रदीप जी आपको नहीं मालूम नहीं, सक्सेना साहब की लड़की ने मोहल्ले में ब्यूटी पार्लर खोला है!’

रात की ड्यूटी से लौट कर नींद टूटने से वस्तुस्थिति समझने में मुझे देर लगी। जनार्दन जी आगे बोले, ‘आप तो अख़बार में हैं। क्या आपका कर्तव्य नहीं इस पर कुछ लिखें। हमारी संस्कृति का प्रश्न है। आख़िर मोहल्ले में बहू बेटियाँ हैं या नही?’

मुझे हंसी आ गई, ‘उन्ही के लिए तो खुला है।‘

ऐश्वर्या राय, सुस्मिता सेन, प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता युक्तामुखी आदि की भुवन-विजय ने लड़कियों में सोया हुआ सौन्दर्य बोध एकाएक जगा दिया था। फिर फट्टे वाली गली अप्रभावित कैसे रह जाती। यहाँ के लोगों की इच्छाएँ, सपने, समस्याएँ, संघर्ष उन लोगों से अलग तो नहीं थीं जैसे मुल्क, सूबे अथवा शहर के अन्य हिस्सों में रहने वालों की।

सक्सेना साहब की तीनो लड़कियाँ विवाह की प्रतीक्षा में दो।दोए तीन।तीन विषयों में एम0ए0, कम्प्यूटर आदि में डिप्लोमा कर चुकी थीं। बाज़ार में सरकारी नौकरी वाले तो दूरए एम0आर0-सेल्समैनी करने वालो के जो रेट थे, बोली लगाने में असमर्थ सक्सेना साहब ने सब कुछ भाग्य सहारे छोड़ दिया था। उनकी बेटी माधुरी ने ऐसी ही किसी मांग पर, उसे देखने आए लड़के वालों को न केवल घर से निकाला था, पुलिस में रिपोर्ट की धमकी भी दी थी। उसने छह माह का ब्यूटिशियन का कोर्स कर बैंक से प्रधानमंत्री रोजगार योजना में ऋण लेकर घर के नीचे ब्यूटी पार्लर खोल लिया था।

टी0वी0 चैनलों द्वारा फैशन शो, सौन्दर्य प्रतियोगिताओं और प्रायोजको के सजीव प्रसारण वाले कार्यक्रमों के साथ साथ लुभावने विज्ञापनो ने आम लड़कियों में ही नहीं बल्कि उनके परिवार के सदस्यों में भी सजगता पैदा कर दी थी। गोरेपन की क्रीमें, लोशन, पाउडर, शैम्पू, रेशम जैसी त्वचा के लिए हेयर रिमूवर क्रीम आदि सौन्दर्य प्रसाधनो की मांग देखते देखते कई गुना बढ़ गई थी। अब तो दो से दस रुपए तक के पाउचों में यह उपलब्ध थीं। छोटे छोटे शहरों में भी फैशन शो में लड़कियाँ स्टेज पर कैटवाक करतीं। सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में तीज क्वीन, मिस सावन, मिस विंटर, मिस समर आदि चुनी जातीं।

ऐसे ही किसी आयोजन में बिट्टो और गुड्डन की प्रेमकथा का प्रारंभ हुआ था। बिट्टो स्थानीय महाविद्यालय में बी0ए0 की छात्रा थी। मॉं-बाप की लाडली बिट्टो भी अन्य लड़कियों की तरह धण्टों अपने को शीशे में कई कोणो से निहारती। भव्य विज्ञापनो ने उन्हे इतना तो सिखा ही दिया था कि फलां शैम्पू, फलां क्रीम, फलां कम्पनी की ब्रेजियर पहनने के बाद स्वयं को उस मॉडल के स्थान पर प्रतिस्थापित कर लेती। बिट्टो में तो बचपन से ही संकोच ऐसा कुछ नहीं था। पांच।छह साल की उम्र में ही, मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियाँ हैं, गाते हुए कमर मटकाती तो परिवार वाले निहाल हो जाते। उसमें ओर कुछ हो न हो, इतना तो उसके व्यक्तित्व में था ही कि जो मिलता, देखता आकृष्ट हो जाता। बोलती हुई आंखे और बोल्डनेस। बिजली।पानी का बकाया बिल वसूल करने वाला अमीन तेज आवाज़ में बोलता, घर के सामने किसी ने अपने घर का कचड़ा डाल दिया हो अथवा सरकारी राशन की दुकान पर चीनी ख़त्म हो जाने की नोटिस चस्पा होती, वह सीधे मोर्चा सम्हाल लेती। मॉं।पिता समझाने की कोशिश मात्र करते क्योंकि अपनी आज्ञा पालन का नतीजा वे पहले से ही जानते होते।

फट्टेवाली गली में खुले ब्यूटीपार्लर की सम्भवत: पहली ग्राहक वही थी। लायन्स, रोटरी की तर्ज पर बने एक नए नए क्लब और स्थानीय साड़ी के व्यापारी द्वारा प्रायोजित कालेज-क्वीन प्रतियोगिता में वह रनरअप रही थी। परन्तु उसके बोल्ड और बेबाक वक्तव्य ने उसे चर्चित कर दिया था। शहर के एक होटल में एक दिन पहले पुलिस ने कुछ कालगल्र्स और ग्राहकों की गिरफ्तारी की थी। अखबारों ने इसे प्रमुखता से छापा था। सौन्दर्य प्रतियोगिता के स्थल पर उपस्थित एक चलते।पुर्जे, घुटे हुए रिपोर्टर ने उस समाचार पर लड़कियों की टिप्पणी जाननी चाही थी।

बिट्टो ने अन्य प्रतिभागियों की तरह उन्हे समाज का कलंक ।अभिशाप जैसा कुछ नहीं कहा था। उसने यह उन लड़कियों का निजी निर्णय और मौलिक अधिकार बताया था – ‘सती बना कर जीवित जला दिए जाने की नियति को बिना प्रतिरोध स्वीकार करने, महिमामण्डित की जाने वाली सतियों से तो कम दर्जा उन्हे नहीं मिलना चाहिए।‘ आयोजन स्थल और पूरे शहर में हड़कम्प मच गया था। पर बिट्टो भी एक ही पागल! उसे क्या चिंता होती।

बिट्टो । गुड्डन का प्रेम और शहर में आने वाली तब्दीलियाँ लगभग एक ही समय में शुरू हुए थे। विकास की प्रक्रिया में एक ओर बहुमंजली इमारतें, दूसरी ओर अनधिकृत मलिन बस्तियों की वृद्धि हो रही थी। पुलिस और ठेकेदारों के गुर्गे अवैध तरीके से रहने की वसूली करते। बालू-मौरंग के ढेरों पर उनके बच्चे स्कूल-स्कूल खेलते। अधबने भवनो में, जिनमें दरवाजे-खिड़कियाँ लगना बाक़ी होता, खाली थे। रात में ठेकेदार, उनके मुंशी जवान कामगार औरतों ओर किशोर वय के लड़कों को वहाँ ले जाते। जो एपार्टमेण्ट्स बस गए थेए उनकी ऊपरी मंजिलों की खिड़कियों से सब कुछ दिखता। वहाँ रहने वाले नाक।भौं सिकोड़ते। नैतिकता के पतन पर ज़माने को कोस कर रह जाते। शनिवार को शनि के मंदिर में लाइन में लग कर तेल चढ़ाते, दान-पेटी में कुछ सिक्के डाल देते। टूटी फूटी सड़कों पर जमा मलबे, ईंट।रोडों के ढेर से मार्ग अवरुद्ध रहते। वाहनो, जेनरेटरों का धुआं और शोर कान फोड़ता। पतनोन्मुख विकास का अभिशाप को झेलने के लिए लोग अभिशप्त थे।

गुड्डन महाशय ग़ौर वर्ण, लम्बा।दुबला शरीर, आंखो पर मोटे लेन्सों का चश्मा। खादी का गहरे रंग का कुरता-पाजामा या जीन्स। कंधे पर झोले में कॉलेज से लेकर पब्लिक लायब्रेरी तक से जारी कराई गई पुस्तकें। वह उन दिनो इतिहास में एम0ए0 कर रहे थे। उनके शुभचिंतकों का कहना है कि गुड्डन ने प्रत्येक कार्य ग़लत समय पर प्रारम्भ किया। जब उनके पिता ने अपने एकलौते पुत्र से अपना ज्योतिष और पौरोहित्य का काम सम्हालने को कहा। उस समय वह इण्टर विज्ञान के छात्र थे। उन्हे इंजीनियर बनने की धुन सवार थी। अन्तत: पिता की विरासत एक चचेरे भाई ने सम्हाल ली। आज उस भाई के क्लाइण्ट्स में बड़े बडे उद्योगपति, व्यापारी, सरकारी अधिकारी और मन्त्री आदि हैं। उसका अधिकांश समय देश की राजधानी में बीतता है।

ऐन प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा पास कर लेने के बाद गुड्डन को इसकी निस्सारता समझ में आई। बेरोजगार इंजीनियरों की भीड़ और भ्रष्ट इंजीनियरों को देख कर उन्होने बी0ए0 करने का निर्णय लिया। पिता और मित्रो ने लाख समझाया। पर गुड्डन ही क्या जो अपनी ज़िद छोड़ते। वामपंथ की ओर भी उनका झुकाव तब हुआ जब लोगों ने संसार के मानचित्र से इसके प्रवर्तक दुर्ग को ढहते देखा।

कॉलेज के लम्बे सूने गलियारे, लायब्रेरी, शहर की धूल भरी सड़कें उनके प्रेम की साक्षी थीं। मालूम नहीं यह कैसा प्रेम था! उनमें बहसे होतीं, झगड़े की हद तक। फिर भी एक दिन भी एक दूसरे से अलग रहना मुश्किल हो जाता। बिट्टो आधुनिकता की पक्षधर थी। गुड्डन विकास के इन्हे विकसित देशों की साज़िश मानते। वे शहर से दूर नदी तट तक चले जाते। घाट की सीढ़ियों पर पानी में पांव दिए, मन्दिरों के खंडहरों में अथवा नदी के पार बालू के ढूहों में उगी कंटीली झाड़ियों के पीछे बैठे रहते। यहाँ बिट्टो की मुखरता समाप्त हो जाती। गुड्डन तो पहले ही कम बोलते। बिट्टो उनका चश्मा उतार लेती। गुड्डन को सब कुछ धुंधला दिखता। बिट्टो उनके होंठों पर उंगली रख देती, ‘श्श- -। ।कुछ कहना मत। मैं केवल तुम्हारा साथ महसूस करना चाहती हूँ।‘ बिट्टो का सिर गुड्डन के कंधे पर होता अथवा उनका सिर बिट्टो की गोद में। बंद आंखों से वह उसकी सांसो की छुअन अपने चेहरे, होठों पर महसूस करते। किसी प्रतीक्षा में अपनी सांस रोक लेते।

यह वह समय था जब परिवर्तन बाहर ही नहीं अंदर भी हो रहे थे। वस्तुओं के साथ साथ समय, सम्बंधएए खुशियाँ, यातनाएँ, आंसू, मनुष्य के प्रत्येक कार्य कलाप वस्तुओं में बदल रहे थे। मूल्य प्रतिफल पर निर्भर करता था। ऐसे में उनका प्रेम कैसे अप्रभावित रहता। समय बीतने के साथ बिट्टो को उनकी बाते किताबी, सुझाव उपदेश और प्रतिबंध लगने लगे थे। गुड्डन को अपना अध्ययन और मिशन छूट गया लगने लगता। फिर प्रेम होता भी तो चन्द्रमा की तरह है। यदि बढ़ता नहीं तो घटने लगता है। दोनों में ही शायद अपनी परिधि के अतिक्रमण का साहस और सामर्थ्य नहीं थी।

ऐसी ही एक देर शाम तेज बारिश के बीच सुनील गुप्ता ने उन्हे अपनी कार में लिफ्ट दी थी। बिट्टो और गुड्डन लगातार मौन थे। सुनील उनके साथ एक साल पढ़ चुका था। बीच में पढ़ाई छोड़ वह अपने पैतृक व्यवसाय में लग गया था। वह उनके सम्बंध में सब कुछ जानता था। उसमें संभावनाओं के आकलन की अपूर्व क्षमता थी। सुनील ने आकलन कर लिया। तीसरे दिन उसने बिट्टो को प्रपोज किया था। बिट्टो बिफर पड़ी। उसने इंकार कर दिया। सुनील ने धैर्य के साथ प्रतीक्षा की। अगले सप्ताह बिट्टो से, उसके माता-पिता के सामने, फिर मिला था। बिट्टो के पिता-मॉं ने सुखद आश्चर्य से अपना भाग्य सराहा था। अपनी जाति बिरादरी का उच्च, संपन्न परिवार का रिश्ता घर चल कर आया था। क्या रखा है उस नामुराद गुड्डन में। पिता बिट्टो के आगे कातर हो उठे थे। सुनील को सफलता मिलनी ही थी।

फिर इतनी जल्दी सब कुछ हुआ कि बिट्टो समझ में ही नहीं आया कि वह क्या करे। गुड्डन से बोलचाल बंद थी। कई दिनो से मुलाकात भी नहीं हुई थी। उसने माल रोड के बुक स्टाल, पब्लिक लायब्रेरी, नदी तट के चक्कर लगाए जहाँ उनसे मिलने की संभावना हो सकती थीए परन्तु वह कहीं नहीं थे। उनके कमरे में ताला लगा था। पहले भी अक्सर ऐसा होता। लेकिन वह कहीं न कही से उन्हे ढूढ़ निकालती थी। वह द्वंद्व में थी। एक ओर माता-पिता की अकेली संतान होने के नाते उनकी इच्छाओं की पूर्ति, सुनील का आकर्षक व्यक्तित्व, तेज जीवन शैली, उसके साथ आकाश छूने की महत्त्वकांक्षाएँ। दूसरी ओर उसके पहले और शायद आखिरी होने जा रहे प्रेम का मिथक और गुड्डन मिले तब, जब उसका वर्तमान अतीत हो चुका था।

इसके बाद समय में इतनी तेजी से परिवर्तन आए कि वर्तमान क्षण कब हाथ से निकल जाता, पता भी न चलता। लोगों की ही नहीं समाज की प्राथमिकताएँ बदल रही थीं। वैभव और भोग को सर्व स्वीकृति मिल चुकी थी। बाज़ार में सब कुछ उपलब्ध था। साधनों पर प्रश्न उठाना बेमानी हो गया था।

शादी के पांच वर्ष बाद की कल्पना तो स्वयं बिट्टो ने भी नहीं की थी। व्यस्तता के साथ गति बढ़ गई थी। क्योंकि समय कम था। वह तेज कार चलाती, पार्टियाँ अरेन्ज करती, बिजनेस डील भी। महत्त्वपूर्ण अतिथि होते। सजना-संवरना अब उसका शौक नहीं, ज़रूरत थी। पति का आग्रह था। उसे नियमित अंतराल पर शहर के मंहगे ब्यूटी-पार्लर जाना होता। पति का व्यवसाय कई स्तरों पर फैल गया था। प्रतिस्पर्धा भी कम नहीं थी। कल का कुछ निश्चित नहीं था। खर्चे बहुत बढ़ गए थे। नए फ्लैट, कार, फर्नीचर की किश्तें। क्लबों की मेम्बरशिप, पाटियों के बेइन्तिहा खर्चे। पाटिर्यो में मंहगे ड्रिंक्स होते ही। नृत्य और तेज स्वर में पाश्चात्य संगीत भी। उसके सिर में दर्द हो जाता। वह पार्टी छोड़ कर आराम करना चाहती। परन्तु सुनील भी तो कम व्यस्त नहीं था। अक्सर पार्टी चलती होती, सुनील का मोबाइल बजता और वह अतिथि से क्षमा मांग कर चला जाता। वह होस्ट थी। अतिथि का ध्यान रखना उसका कर्तव्य था। ऐसे वक़्त कभी उसे सौन्दर्य प्रतियोगिता के समय रिपोर्टर को, दिए जवाब की याद आ जाती।

सुनील नींद के लिए डिंक्स लेता ही। बिट्टो को भी देर तक नींद न आती। वह किसी मेले में अकेले छूट गई बच्ची की तरह नितांत अकेला महसूस करती। अक्सर उसे भी एक दो पैग लेने पड़ जाते। एक रात सुनील के सोने के बाद उसे अपनी बचकानी हरकत याद आई थी। विवाह के एक दिन पहले वह गुड्डन के पास गई थी। बिट्टो ने उससे सीधे सीधे पूछा था, ‘क्या तुम मुझे, आज रात किसी ऐसी जगह, कमरे या होटल में ले चल सकते हो?’

‘लेकिन क्यों । ।कहाँ । ।’ गुड्डन हकबका गए थे।

‘मैं तुम्हारे बच्चे की मॉं बनना चाहती हूँ।‘ गुड्डन का चेहरा विवर्ण हो गया था। फिर तेज ठहाका लगाया था। वह तो उसके पागलपन की बाते सदा से जानते रहे थे। बिट्टो जानती थी कि यह हंसी कितनी नकली है। इसके पीछे कितनी यातना छिपी है। वह लौट आई थी।

गुड्डन से यदा कदा मुलाकात हो जाती। एक ही शहर था। उनकी एक कॉलेज में अस्थायी पद पर नियुक्ति हो गई थी। उनके चश्में का नम्बर बढ़ गया लगता था। दुबले और हो गए थे। कंधे के झोले में किताबों के साथ तमाम अन्तर्राष्ट्रीय बुलेटिने रहने लगी थीं। प्रो0 प्रेम भूषण उर्फ गुड्डन अब इतिहास और वर्तमान की तिथियों के बीच साम्य ढूढ़ा करते थे। बी0ए0 प्रथम वर्ष के बैच में छात्रों से परिचय के बाद प्रश्न पूछा था, ‘आप इस वर्ष चुनी गई मिस यूनिवर्स की फीगर्स जानते हैं?’

छात्राएँ कुछ संकुचित हो गई थीं। परन्तु छात्र उत्साहित हो उठे। एक ने कहा था, ’36-26-34’

‘यह प्रतियोगिताएँ स्त्री को वस्तु बनाती है। बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा सौन्दर्य प्रसाधन बाज़ार के दोहन के लिए आयोजित की जाती हैं।‘ प्रो0 गुड्डन कहते। प्रो0 गुड्डन कॉलेज में छात्रों के बीच लोकप्रिय हो गए थे। नई सत्ता ने पद-ग्रहण किया था। वह देर तक शून्य में देखते रहे थे फिर कहा था, ‘क्लाइव ने आज ही के दिन 1757 में मीर जाफ़र को गद्दी पर बैठाया था। जिसने इतिहास की गति विलोम कर दिया।‘

एक दिन उन्होने इतिहास की कक्षा में कहा, ‘अजब संयोग है कि सिएटल में विश्व व्यापार संगठन द्वारा जिस दिन एण्टी डम्पिंग कानून पास करके भारत के कृषि उपज निर्यात को सीमित किया गया ठीक इसी दिन 1762 में मुंगेर संन्धि द्वारा अंग्रेज व्यापारियों पर नौ प्रतिशत और भारतीय व्यापारियों पर तीस प्रतिशत महसूल लगाया गया था।‘

वह तारीखों के बीच जीते थे। एनरॉन, दभोल, उद्योगों का विनिवेश सबके समानान्तर इतिहास की काली तारीखें, जिनमे ‘ईस्ट इंण्डिया कम्पनी’ने देश को विपन्न करने के कानून पारित किए या सन्धियाँ कीं, सब उन्हे जुबानी याद थीं। एक दिन उन्हे प्रधानाचार्य ने बुलाया था, ‘मि0 त्रिवेदी, मुझे रिपोर्ट मिली है कि आप बच्चों को अनर्गल बाते बता रहे हैं। आपको अपने विषय तक सीमित रहना चाहिए और अभी आप कन्फर्म भी नहीं हुए है।‘

‘मैं अपना विषय और सीमाएँ जानता हूँ। परन्तु क्या आप जानते हैं कि बिसलेरी को प्याऊ क्यों नहीं पसंद हैं?’ प्रधानाचार्य को असमंजस में छोड़ उन्होने दूसरा प्रश्न किया, अच्छा इसे छोड़िए, इतिहास के विषय में अलबरूनी ने क्या कहा है?’

प्रधानाचार्य उन्हे मौन घूरते रहे। गुड्डन ने आगे कहा, ‘अलबरूनी कहता है किए इतिहास अपनी प्रवृतित्यों से कितनी तरह की भ्रांतियाँ पैदा करता हैए जिनसे बचना आवश्यक है।‘ कह कर गुड्डन उठ गए थे।

उस दिन बिट्टो की कार फट्टेवाली गली के बाहर रुकी थी। शाम को सुनील ने एक पार्टी आयोजित की थी। उसने एक शीतल पेय कम्पनी की स्थानीय डीलरशिप के लिए आवेदन किया था। कम्पनी के भारत स्थित, क्षेत्रीय कार्यालय के उप-प्रमुख को, नगर में सर्वेक्षण हेतु आना था। पार्टी उनके स्वागत में दी जा रही थी। नगर के अन्य पार्लर बंद होने के कारण उसे यहाँ आना पड़ा था। गली से निकल कर कार तक जाते हुए उसे गुड्डन मिले थे।

‘कैसे हो?’ उसने पूछा था। पूछने के साथ ही उसके दिल में हूक-सी उठी थी। गुड्डन हड्डियों का ढांचा मात्र रह गए थे। कपड़े न जाने कब से नहीं बदले होंगे। गुड्डन गंभीर थे, ‘जानती हो आज कौन-सी तारीख है?’

वह मुस्कराई। उसे देर हो रही थी। घड़ी की ओर देखते हुए उसने याद करने की कोशिश की, फिर बोली, ‘मैं सोचती हूँ कि मुझे कॉलेज में इतिहास चाहिए था।‘

‘आज ही के दिन क्लियोपेट्रा को सीजर ने प्राप्त किया था, जो कालान्तर में रोम के पतन का कारण बना।‘ गुड्डन ने कहा था।

उसके पास गुड्डन से करने को बहुत-सी बाते थीं। उनकी छूट गयी नौकरी, उनका स्वास्थ्य और बहुत कुछ जिसे वह स्वयं नहीं जानती थी। लेकिन गुड्डन नहीं रुके थे। बिट्टो को पार्टी के बाद देर रात याद आया था उस दिन उसके विवाह की वर्षगांठ थी, न उसे याद रहा, न सुनील को।

उसी दिन शाम को मुख्य चौराहे पर कोल्ड ड्रिंक की बड़ी-सी दुकान के सामने गुड्डन चीख रहे थे। कार से उतर कर एक सभ्रांत से दिखने वाले परिवार के हाथों में शीतल पेय की बोतलें थीं। गुड्डन की आवाज़ भर्रा गई थी, ‘आप जानते हैं कि आप क्या पी रहे हैं? यह उन किसानो का खून है जिन्होने आत्महत्याएँ की हैं। उन्हे अपनी फसलों के लिए पानी नहीं मिल पा रहा था। वहीं इस शीतल पेय कम्पनी को पानी पचास पैसे गैलेन दिया जा रहा है। इसमें उन किसानो का रक्त मिला है। आप इन हत्याओं में शामिल हैं।‘

परिवार की औरतें, बच्चे सहम कर अपनी कार की ओर बढ़ने लगे थे। तभी दुकानदार ने उतर कर उन्हे धकियाया था। वह गिर पड़े, उनका चश्मा टूट गया था। पास खड़े लोगों ने ठहाका लगाया था। दूसरे दिन सुबह फ़ोन आया था। सुनील को कम्पनी की डीलरशिप नहीं मिल सकी थी। उसको पूरी उम्मीद थी। उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वह तो पार्टी में नहीं था। लेकिन बिट्टों से तो अतिथि का ख़्याल रखने को कह ही गया था। फ़ोन रख कर उसने तिक्त स्वर में कहा, ‘डीलरशिप अरोड़ा ले मरा! जानती हो उसकी बीवी कितनी स्मार्ट है! बिहाइण्ड एवरी ग्रेट मैन देयर इज़ अ वोमेन’ फिर हैंगओवर की चिड़चिड़ाहट में वह देर तक बड़बड़ाता रहा। पूरे दिन सोता, जागता रहा।

शाम को नहाने के बाद बिट्टो ने हल्का-सा मेकअप किया। उसने ढेर सारी चूड़ियाँ पहनी थीं। उसने सुनील से कहा, ‘अब सोचो मत। तुम्हारा कांट्रेक्ट वाला काम तो है न। बहुत होगा मैं भी कहीं नौकरी कर लूंगी। आज शाम हम घर पर ही रहेंगे।‘ उसने मोहक नज़रों से सुनील को निहारा था, ‘शादी के कितने दिन हो गए। अब मैं मॉं बनना । । ॥‘ उसने बात पूरी नहीं की। शरमा कर नीचे देखने लगी।

सुनील ने इंपीरियल ब्ल्यू की बोतल खोल ली थी। वे देर रात तक पैग पर पैग पीते रहे थे। नशे के तेज होने पर बिट्टो को विवाह उपरांत हनीमून के मदिर दिन और मादक रातें याद हो आईं। उसने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा था, ‘तुमने मुझे कब से प्यार नहीं किया है!’

उसे बार बार आज सुनील का उन्मुक्त और बहु आयामी प्रेम याद आ रहा था। बाज़ार में उपलब्ध बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा निर्मित, प्रचारित कण्डोम के विज्ञापनो, पोस्टरों और रैपर्स पर उत्तेजक रति-मुद्राओं वाले चित्रों कल्पना को निस्सीम आयामों तक मुक्त कर दिया था। एक पारिवारिक पत्रिका के तीसरे कवर पर एक कण्डोम का विज्ञापन पूरी गरिमा से छपा था - खुले गगन तले ऊँचे पेड़ से लटकती झूलेनुमा रस्सी पर एक निर्वस्त्र प्राय: युवक-युवती रतिमुद्रा में पेंग लेते हुए आकाश छूने का आभास दे रहे थे। उसने सुनील की आँखों में झाँका। जाने कितनी आदिम-अतृप्त कामनाएँ थी वहाँ। नशे के तेज असर में सुनील की उस मुद्रा में प्रेम की याचना ने उसे द्रवित कर दिया। किसी तरह सुनील अपनी कुंठाओं से बाहर आ सके। उनकी सांसे भारी और उखड़ी हुई थीं। उन्होने कहीं से रस्सी ढूढ़ी थी। लड़खड़ाते कदमों से सुनील ने विज्ञापन की भांति रस्सी का झूलेनुमा सिरा मेज पर चढ़ कर छत के कुण्डे से डलने का उपक्रम किया था।

अगले दिन सुबह जब काम वाली आई तो सुनील नशे में धुत फर्स पर औंधा पड़ा हुआ था। छत से लटकती रस्सी में बिट्टो की निर्वस्त्र लाश झूल रही थी।

ठीक उस समय जब पुलिस एम्बूलेन्स में बिट्टो की लाश पोस्टमार्टम के लिए ले जा रही थीए उसी समय गुड्डन के बूढ़े पिता उसेए पागलखाने में भर्ती कराने के लिएए उसके साथ ट्रेन में बैठ रहे थे। अगले दिन समाचार पत्रों में बिट्टो की ख़बर प्रमुखता से छपी थी। परन्तु गुड्डन के विषय में किसी को पता भी नहीं चला था।