पितृत्व / सुकेश साहनी

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‘‘खाना बनाना तो कोई हमारी बहू से सीखे....’’ लाल साहब ने तृप्ति भरी डकार ली-‘‘वाह! खाने में मजा आ गया!’’

डाइनिंग टेबल पर उनकी पत्नी, पुत्र और बेटी बैठे हुए थे। पुत्रवधू किचन की सर्विस विण्डो से गर्मागर्म फुलके सरका रही थी।लाल साहब अजीब खुशी में बसे चम्मच बजाते हुए ‘एक बंगला बने न्यारा’ गुनगुना रहे थे।

‘‘आज बहुत खुश लग रहे हैं!’’ पत्नी ने पूछ लिया।

‘‘बात ही कुछ ऐसी है!’’

‘‘पापा, बताइए ना, जल्दी!’’ रजनी का उत्सुक स्वर।

‘‘जब फारेस्ट आफिसर ने रजनी की फोटो देखी तो बस देखता ही रह गया..’’ लाल साहब ने शरारत से रजनी की ओर देखते हुए कहा-‘‘और उसने फौरन हाँ कर दी। आखिर हमारी बेटी है ही लाखों में एक।’’

पापा की बात सुनकर रजनी शर्म से लाल हो गई और उसने नजरें झुका लीं।

‘‘मुझे तो विश्वास ही नहीं होता....’’ मिसेज लाल बोलीं।

‘‘इसमें विश्वास न करने की क्या बात है? अरे, तुम चिन्ता काहे की करती हो....सब कुछ एकदम फर्स्ट क्लास है। लड़के के ऊपर किसी तरह की कोई जिम्मेवारी नहीं है...माँ-बाप और छोटी बहन की मौत काफी पहले विमान दुर्घटना में हो गई थी...हमारी बेटी का एकछत्र राज रहेगा! फिर लड़का दहेज के भी तो खिलाफ है...’’ ‘‘पिता जी! आज मैंने आपका मनपसन्द गाजर का हलुआ बनाया है....’’ एकाएक रसोई की सर्विस विण्डो से झाँकते हुए उनकी पुत्रवधू ने कहा।

‘‘कितना ख्याल रखती है बहू हमारा!....’’ लाल साहब ने कहा और एकाएक गम्भीर हो गए। उन्हें लगा जैसे बहू सीधे उनकी आँखों में देखते हुए कह रही हो-‘अपनी बेटी के लिए एकछत्र राज चाहते हैं और मैं जो दिन-रात खुशी-खुशी आप सबके लिए खटती हूँ...’ एक दृश्य लाल साहब की आँखों के आगे फ्रीज हो गया, जिसमें उनकी पुत्रवधू खा जाने वाली नजरों से अपने सास-ससुर एवं ननद को घूर रही थी और उनके बेटे की आँखों में अपनी छोटी बहन के प्रति शत्रुता के भाव थे। वे सिहर उठे।

(हंस, अप्रैल, 1990)

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