पिया तोरा कैसा अभिमान / नवल किशोर व्यास

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पिया तोरा कैसा अभिमान


रोजमर्रा के ही किसी साधारण दिन जैसे कोलकाता की एक भीगती हुई दोपहर। मुसलाधार। इसी मुसलाधार में कोलकाता की भीगी सडक पर कलकतियां हाथगाडी किसी घर के आगे रूकती है। रेनकोट पहने हुए एक सकुचाया प्रेमी उतरता है। अपनी उस प्रेमिका से मिलने उसके घर छह साल बाद आया है जो उसे छोडकर किसी और से शादी कर चुकी है। दोनो को ही नही पता कि अब दोनो कैसे है। दिलों में रंज तो है पर जख्म नही। दोनो पराये हुए है पर शायद प्रेम नही। वो अभी तक यही है। कही गया नही।

उसका अभी तक भी हरा होेना नीयत नही, नियति है।

लंबे संधिविच्छेद के बाद भी बीच -बीच में संभावनाओ का फिर से आकार लेना ही प्रेम की पगडंडी है। प्रेम बंद हुई किताब का वो मोडा हुआ, अटकाया हुआ पन्ना होता है जिसे कभी ना कभी फिर से खुलना होता ही है। ये घोषित पूर्ण विराम के बीच जमा अधोषित अल्पविराम जैसा होता है। प्रेम कहानियां कभी पूरी तरह से खत्म नही होती। प्रेम कहानियों के किरदार प्रेम को बिना सिफ्ट के साथ डिलीट करते है। प्रेम मन के किसी रिसाईकल बिन में मिलेगा ही मिलेगा। भीगे हाथ घर की बैल बजाते है। अंदर से आवाज आती है-कौन। जवाब- मनुज। भागलपुर से। मन्नू। रोशनदाने से दो ठंडी आंखे बिना किसी भाव को उतारे बाहर देखती है। दरवाजा खुलता है। मन्नू और नीरू की नजरें मिलती है और इस तरह समय के मोंटाज पर ठहरें दो साधारण किरदार छह साल बाद एक दूसरे की सुध लेने एक असाधारण दोपहर में फिर से मिलते है। 

ऋतुपर्णा घोष के निर्देशन में सन दो हजार चार में आई क्लासिक कल्ट फिल्म रेनकोट का ये एक दृश्य है जिसमें उस बरसाती दोपहर में मिले इन दो पूर्व प्रेमियों की बातचीत यहां से शुरू होती है। फिल्म में मन्नू बने थे अजय देवगण और नीरू ऐश्वर्या राय। ऐश्वर्या राय जैसे इस फिल्म में दर्ज है, और किसी भी फिल्म में नही। अजय तो हर फिल्म जैसे कमाल है ही। इस तरह के रोल में वोे सिद्वहस्त है। आधी रात को नींद से उठकर इस तरह से किरदार में घुस सकते है। तो नीरू और मन्नू काफी समय बाद मिलते है और दोनो ऐसे जता रहे है जैसे कि अपनी जिंदगी से बहुत खुश है। एवरीथिंग इज आॅलराइट जबकि हकीकत में दोनो ही पैसो की मारामारी में है। बातचीत खत्म होते होते दोनो को एक दूसरे के बारे मे ये सब पता लग जाता है कि सामने वाला किस हाल में है और फिर दोनो ही एक दूसरे को बिना बतायें एक दूसरे से छिपकर एक दूसरे की मदद करते है। ये कहते हुए कि माना कि हमारी शादी नही हुई पर इसका मतलब ये तो नही कि तुम्हे कोई तकलीफ हो और तुम मुझे बता ना सको। प्यार यहां अपने पुरे शुद्वतम स्वरूप में है। चैबीस कैरेट गोल्ड। आखिर प्यार का मतलब ही अपने प्रिय को बिना स्वार्थ सब कुछ देना होता है। उसकी खुशी के लिये अपने स्व को भूलना। अपने ईगो को दरकिनार करना। उसकी दबी इच्छा के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर देना। प्यार में ऐसी विनम्रता का होना लाजिमी है। प्रेम की ऐसी ही विनम्रता फिल्म के सबसे धारदार और मारक गाने में भी है। पिया तोरा कैसा अभिमान। निर्देशक ऋतुपर्णा का लिखा और देवज्याति मिश्रा का संगीत। गुलजार की पोएट्री का गाने के बीच में अभिनव प्रयोग। चार शब्दो की एक लाइन और उसमें छिपे प्रेम के ना जाने कितने रंग। दुख, मासूमियत, शिकायत, क्षोभ सब कुछ उतर आया इस एक लाइन में। दो वर्जन है। एक गाया है शोभा मृदुगल ने और दूसरा हरिहरन ने। फिल्म में जब मन्नू को नीरू की बिना बताई गरीबी का पता लगता है तब वो घर को फिर से देखना शुरू करता है। पीछे चलते गीत में ऋतुपर्णा ने जो दृश्य लिये है, वो लाजवाब है। गंदा बाथरूम, रसोई में क्राकराॅच, सूखते फटे हुए अन्र्तवस्त्र, मैले बरतन, कीडे लगा पुराना खाना। अपनी उस नायिका की गरीबी देखना बहुत मुश्किल, जिसने अपने लिये कुछ अच्छा सोचा था पर अच्छा हुआ नही। हिन्दी फिल्मों में ये सब बहुत सतहीपन से दिखता है। ऋतुपर्णा उस दबी छिपी गरीबी की तह तक अपने कैमरे को ले गए जहां जल्दी से झांकने की हिम्मत किसी की नही हुई। गीत के बीच गुलजार की मारक पंक्तियां आती है खुद गुलजार की आवाज में। रिसते दुख को और हरा करने। 

किसी मौसम का झोंका था, जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर को तिरछी कर गया है, गए सावन में ये दीवारें यूं सीली नही थी, ना जैसे क्यों इस दफा इनमें सीलन आ गई है/ दरारें पड गई है और सीलन इस तरह बहती है जैसे शुष्क रूखसारों पर आंसू चलते है

फिल्म का क्लाईमैक्स ओ हैनरी की प्रसिद्व कहानी ‘द गिफ्ट आॅफ द मगी‘ से प्रेरित होकर लिखा गया है और यकीन मानियें, यह क्लाईमैक्स हिन्दी सिनेमा के सबसे बेहतरीन क्लाईमैक्स में से एक है। वैसे भी ओ हैनरी की कहानियों के अंत ही उसकी कहानी को और ज्यादा आयाम देते है। कहने भर को इसे ओ हैनरी की कहानी माना गया पर ऋतुपर्णा ने कृष्ण-राधा को भी प्रतीको में कहानी का हिस्सा बनाया है। कृष्ण अपने पूरे जीवन में डिप्लोमेटिक परंतु टैक्लीकली राइट रहें पर राधा के प्रसंग मे कभी सही नही हो पाये। राधा के पूरे इंतजार में केवल कृष्ण थे पर कृष्ण के लिये राधा केवल याद के वातायन में खुलने वाली खिडकी भर रही। झांका तो देख लिया वरना कोई सुध ही नही। तभी तो धर्मवीर भारती की कनुप्रिया अपने कृष्ण से खीझकर कहती है- 

सुनो मेरे प्यार/प्रगाढ केलि-क्षणों में अपनी अंतरंग सखी को तुमने बांहो में गूंथा/ पर उसे इतिहास में गूंथने से क्यो हिचक गए/प्रभु 

तो वही ऋतुपर्णा की राधा कहती है- अपने नयन से नीर बहाये/अपनी जमुना खुद आप ही बनायें लाख बार उसमे ही नहाये/पूरा ना होई अस्नान  रूखें केष रूखे भेष/ मनवा बेजान

पिया तोरा कैसा अभिमान

अगर आपने रेनकोट नही देखी है और पिया तोरा कैसा अभिमान को नही सुना है तो यकीन मानियें कुछ खूबसूरत अहसासो से आपने मिलने से मना किया है। सिनेमा और संगीत इसलियें भी होने चाहिए कि वो आपको अपने में तरबतर कर दें। आपको रूलायें। कुछ अहसास जगायें। आपको उस दुनिया में ले जायें जिसका हिस्सा आप कभी थे ही नही। आप ऐसे व्याकुल और व्यथित हो जैसे ये सब आपके साथ हुआ हो और नही हुआ हो तो अफसोस करायें कि ऐसा क्यो नही हुआ।

सिनेमा सच में जादू है और ऋतुपर्णा घोष इस माध्यम के औेर जीवन की महीन संवेदनाओ के जादूगर