पीली आंधी / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1

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मारवाड़ी समाज के अनछुए पहलू खोलता उपन्यास
के.के. बिड़ला फाउण्डेशन के बिहारी पुरस्कार से सम्मानित

प्रभा खेतान ने देखा और भोगा हुआ सामाजिक सच मोतियों की भांति अपनी रचनाओं में पिरोया है। 'पीली आंधी` उपन्यास भी मारवाड़ी समाज के अनछुए पहलू पाठक के सामने पर्त-दर-पर्त खोलता है। सन् २००१ में राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित यह उपन्यास आगे चलकर के.के. बिड़ला फाउण्डेशन के बिहारी पुरस्कार से भी नवाजा गया।

उपन्यास की कथावस्तु की ओर बढ़ें तो सुजानगढ़ (राजस्थान) के सेठ गुरुमुखदासजी रूंगटा की हवेली से कथा शुरू होती हुई कोलकाता के 'रूंगटा हाउस` तक की यात्रा करती है।

आजादी से पूर्व वर्तमान राजस्थान अनेक रियासतो में बंटा हुआ था। रियासत का मुखिया राजा होता था। राजा के कुनबे को रजवाड़ा कहा जाता था। रजवाड़ों का आतंक कोने-कोने में पसरा हुआ था और ऐसे में आम जनता जहां शोषित होती हुई भी कहीं नहीं जा पाती थी; वहीं पूंजी कमाने वाले वणिक पुत्र देश के हर कोने में अपनी जगह बना लेते थे लेकिन अपनी मिट्टी की खुशबू को वे नहीं भूला पाते। अपने संस्कारों, खान-पान और पहनावे को बनाए रखते।

ऐसी परिस्थितियों में सूखे धोरों पर चलकर रात के अंधेरे को चिरता हुआ किशनलाल रूंगटा अपनी धरती को हमेशा के लिए छोड़कर जाता है। इस कहानी को प्रभा बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत करती हैं।

माधो पूर्ण निष्ठा के साथ रात-दिन पसीना बहाकर पैसा कमाता है और एक अदना-सी नौकरी से करोड़पति व्यापारी बनने तक की कठिनाईयों भरा सफर पूरा करता है। माधो का छोटा भाई सांवर आंकठ भोग में डूबा है और माधो का मुनीम पन्नालाल सुराणा मालिक (माधो) की मृत्यु के बाद भी पूर्ण इमानदारी से काम करता है। पद्मावती (माधो की पत्नी) अपनी औलाद न होते हुए भी देवर के बच्चों का पालन-पोषण करती है। घर की इज्जत को पति की इज्जत मानती हुई कभी उस पर आंच नहीं आने देती। कितने ही आवरणों से ढकी हुई पद्मावती के अन्तर्मन में क्या है कोई नहीं जान पाया। वह सुराणाजी से प्यार करती हुई भी आगे कदम नहीं बढ़ा पाती। घर में अनुशासन रखती। अपने मन की परतों में दबे हुए दु:ख को कभी प्रत्यक्ष नहीं होने देती। जीवन के अंत में हिम्मत करती है और घर की उसी मान-मर्यादा को जिसे वर्षों से बनाती, बचाती आई थी; को लांघ घर त्याग कर गई हुई बहु को वापिस बुलाती है, उसी के हाथ से अंतिम बार पानी की बूंद ग्रहण करती है।

रूंगटा हाउस की स्त्रियां महंगें वस्त्रों और आभुषणों के संग्रह में ही अपना परम् सुख समझती हैं। वहीं बहु सोमा अपने प्यार के लिए सुविधाभोगी जीवन को त्यागकर एक साधारण प्रोफेसर के घर ज्यादा सुखी महसूस करती है। इस उपन्यास की स्त्री अपनी जगह से न ही तो आगे बढ़ पाती है और न ही पीछे मुड़ पाती है। उसका अपना एक खांचा है और उसमें वो फिट हो चुकी है। सोमा जब इस खांचें को तोड़कर बाहर निकलती है तो पुरुष का अहम् तिलमिला उठता है। घर के लिए स्त्री का पूर्ण समर्पण चाहिए और यही बात लेखिका उपन्यास की पात्र पद्मावती के द्वारा कहलवाती है-

घर की नींव में ईंट नहीं होती, बेटा! हम स्त्रियों का त्याग होता है।``

अपनी शोहरत को बनाये रखने को प्रयास करता हुआ रूंगटा हाउस का हर सदस्य अपने मुखोटों को उतार फेंकना चाहता है लेकिन वो इतनी हिम्मत नहीं कर पाता।

संक्षेप में मूल्यांकन करें तो उपन्यास 'पीली आंधी` पारिवारिकता की धूरी विवाह नामक संस्था को कटघरे में खड़ा करता नजर आता है।

यह उपन्यास प्रभा ने अपनी नानी और मां से सुनी हुई कहानी के आधार पर शुरू किया। उपन्यास के पात्र माधो का जीवन के बाद का हिस्सा स्वयं द्वारा देखे हुए परिवेश का प्रकटीकरण है। प्रभा स्वयं के शब्दों में-

मारवाड़ी समाज को मैंने जैसा देखा और समझा बस उसे ही उकेरने की चेष्टा की।``