पी.के. नायर के साथ परिचर्चा / दीप्ति गुप्ता

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फिल्म आर्काइव पुणे के संस्थापक पी.के. नायर के साथ परिचर्चा :

१) दीप्ति - सामाजिक दायित्व को आप किस तरह व्याख्यायित करेगे?

पी.के. नायर - आदि मानव ने पेट के लिए भोजन की और बारिश व तेज सूरज से बचने के लिए अपने सर पर एक छत की ज़रूरत पूरी हो जाने पर महसूस किया कि जीवन कुछ अधूरा है , सम्पूर्ण नहीं है. फिर शीघ्र ही उसने अपने भावों और विचारों को दूसरों के साथ बांटने की तीव्र इच्छा को महसूस किया. भावनात्मक और वैचारिक आदान प्रदान के बिना जीवन उसे सूना सूना लगा. इस इच्छा से भावनात्मक और वैचारिक आदान प्रदान की ज़रूरत जन्मी . उसके पास मात्र गले से निकलने वाली ध्वनियाँ और कुछ प्रकृति में विद्यमान पेड़, पत्तों पत्थरों पानी आदि की आवाजें थीं. धीरे-धीरे ये ध्वनियाँ खास अर्थों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयोग की जाने लगीं. अपने साथियों के मौजूद न होने पर, आदि मानव ने, इससे पहले कि वह भूल जाए, अपने साथियों को बताने के लिए, उन अभिव्यक्तयों को दर्ज करने की ज़रूरत महसूस की. अब दर्ज करने के लिए किसी मीश्यम कि आवश्यकता पडी. उस युग में उसके पास उपलब्ध उपादान ‘पत्थर’ याँ ‘चट्टान’ थी. फलत: उसने चारकोल से अपने विचारों और बातों को ‘चट्टान’ पे तरह तरह की आकृतियों के द्वारा दर्ज करना जाना. वस्तुत: ‘सिनेमा’ की उत्पत्ति प्रागैतिहासिक काल में सभ्यता की शुरुआत में, आदि मानव द्वारा गुफाओं में खीचें गए भित्ति चित्रों से ही मानी जाती है. वह चार के बजाय छ पैर वाले चलते और दौड़ते जानवरों के चित्र बनाता, तो कभी किसी और जंतु की आकृति उकेरता – अपने एक मात्र अभिव्यक्ति साधन ‘दृष्टि’ की मदद से. ‘सक्रियता’ और ‘क्रिया-कलाप’ जीवन का सार तत्व है. सभ्यता की शुरुआत से, क्रियाशीलता को दृश्य विधा में संजो लेने की ललक ने आदि मानव को जकड लिया था. उस काल में किसी भी तरह कि तकनीक उपलब्ध नहीं थी. अत: इस तरह के विकास के लिए मनुष्य को १८वी शताब्दी तक ‘सिनेमा’ के सच्चाई में रूपांतरित हो जाने की प्रतीक्षा करनी पडी. वास्तव में ‘सिनेमा’ शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन के ‘किनेमा’– जिसका अर्थ ‘क्रिया-कलाप या क्रियाशीलता’ होता है, जैसा कि हमने इसे ‘चलचित्र’ नाम दिया है - शब्द से हुई है. इसा संदात्भ में बस यह जानना ज़रूरी है कि पहले ‘चित्रों ’ ने करवट ली, बाद में ‘ध्वनियाँ यानी शब्द’ आए.

2) दीप्ति - क्या आपकी नज़र में फिल्मों का सामाजिक दायित्व है?

पी.के. नायर - हम सभी जानते है ‘मनुष्य’ एक ‘सामाजिक प्राणी’ है.जब आदि मानव ने अन्य लोगों के साथ रहना शुरू किया तो प्परिनाम स्वरूप ‘समूह’ और ‘समाज’ जन्मा. इन समूहों या समाज में रहन-सहन, खान-पान, सामान्य व्यवहार, रीति रिवाज परम्पराओं के रूप में व्यक्तियों में परस्पर एक सामान्य सामजिक आचार व्यवहार का आदान प्रदान हुआ. इन सामजिक आचार व्यवहार ने सुख व चैन से भरे जीवन और निरंतर प्रगति एवं विकास के लिए अपेक्षित ‘सामाजिक व्यवस्था व अनुशासन’ को विकसित करने में योगदान दिया. सभी व्यक्तियों के कर्तव्य और दायित्व निश्चित होते थे – सबसे पहले परिवार, पति, पत्नी, माता-पिता और बच्चों के लिए, तदनंतर पडौसी के प्रति, और उसके बाद समूचे समाज के लिए. यह दायित्व मात्र इस बात तक ही सिमित नहीं था कि व्यक्ति ‘क्या करता है’, अपितु वह ‘क्या और कैसी चीजों की रचना’ करता है. समाज का अंग होने के कारण व्यक्ति अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में समाज के प्रति जिन विशेष दायित्वों से सहज ही बंध जाता है, उन्हें वह नज़रांदाज़ नहीं कर सकता. खासतौर से जब आप ‘सिनेमा’ जैसे जनसंचार माध्यम से जुड़े हों.

३) दीप्ति - क्या फिल्म निर्माता और निर्देशक सच्चाई और इमानदारी के साथ अपने ‘सामाजिक दायित्व’ का निर्वाह कर रहें हैं ?

पी.के. नायर - ‘सिनेमा’ कामकाज से थके माँदे लोगों के लिए एक मनोरंजन के साधन के रूप में उभरा. ‘सिनेमा’ अपने प्राथमिक रूप में कमोबेश सर्वसम्मति से एक मनोरंजन का साधन या माध्यम माना गया. लेकिन इसके अस्तित्व में आने के पहले दो दशक के बाद ही, सिनेमा के संस्थापकों ने इसके सघन विस्तार और सम्भावनाओं को आंका और इसे मात्र कथा प्रस्तुति के माध्यम से उठाकर श्रेष्ठतम कला अभिव्यक्ति की ऊंचाईयों तक ले गए, जिसमें नृत्य, संगीत, रंगमंच, साहित्य, संरचना, चित्रकला, फोटोग्राफी आदि सभी कुछ शामिल था. इस ख़ूबसूरत विकास के लिए चैपलिन, Griffith, Eisenstein, Flaherty, Murnau, Pabst, Lang , Bunuel, Renoir, Welles, De Sica,Kurosawa, Bergman, Ray , घटक जैसे ‘प्राथमिक’ कलाकारों के रचनात्मक प्रयासों को नमन..! चूंकि सिनेमा २० वी शताब्दी की नवीनतम कला विधा थी, तो स्वभाविक रूप से इसने बहुत कुछ अपने से पहले की कला विधाओं से ग्रहण किया. परंतु यह जिस रूप में उभर कर आया, वह पहले की कलाओं से निश्चित रूप से भिन्न था और सिनेमा को उसके पैरों पर खडा करने के लिए सक्षम था. दुर्भाग्य से हमारे देश में अभी भी ‘फिल्म’ की परिकल्पना को पूर्णतया ‘कला - विधा ’ के रूप में नहीं आत्मसात नहीं किया गया है. क्योंकि हम आज भी मानव विकास की उस आदि मानसिकता से जकडे हुए हैं कि सिनेमा मात्र ‘एक मनोरंजन का ही साधन’ है. अधिकतम फिल्म निर्माता और उनके साथ, दर्शक भी इसे मनोरंजन के जारिए के रूप में ही देखते हैं और अपनी पूर्व निर्धारित अवधारणाओं के तहत ‘मनोरंजन’ के नाम पे खास तरह की चीजें ही सिनेमा में प्रस्तुत करना और देखना चाहते हैं. कोई भी अपनी इस अपरिपक्व मानसिकता को बदलना नहीं चाहता और यह एक तरफा दृष्टिकोण व्यर्थ के अजीबोगरीब फिल्मों के निर्माण का कारण बन जाता हैं.

4) दीप्ति - यदि कर रहे हैं तो उन फिल्मों के बारे बताइए, जिन्होंने समाज को सही दिशा देने में अपना दायित्व बखूबी निभाया है.

पी.के. नायर - मद्रास के जैमिनी स्टूडियो के श्री एस.स. वासन ने एक बार, एक राजनीतिज्ञ के इस व्यंग्य का कि ‘’ भारतीय फिल्म निर्माता सामाजिक दायित्व निर्वाह करने में अक्षम हैं ‘’ – जवाब देते हुए फिल्म निर्माताओं में फिल्मों को लेकर पसरी एक सामान्य धारणा के पक्ष में कहा था कि –

"लोगों में शिक्षा और सामाजिक चेतना जाग्रत करने का काम स्कूलों, कालिजों और विश्वविद्यालयों का है. फिल्म निर्माता के रूप में हमारा सबसे पहला दायित्व गेश के करोड़ों लोगों को ‘’पलायनवादी मनोरंजन’’ देने का है. दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद व्यक्ति संसारी झंझटों और चिंताओं से दूर होकर, इसा इच्छा से फिल्म का टिकिट खरीदता है कि स्वयं को मनोरंजन की दुनिया में डुबो कर, अदले दिन के लिए तरोताजा हो सके.’’ श्री वासन ने अपने और अपने अन्य फिल्म साथियों के फिल्म बनाने के लक्ष्य को अपने इस प्रिय उदघोष में समेटा – ‘’ प्यासे व तरसते किसानों का मनोरंजन उत्सव’’. वास्तव में श्री वासन के कहने का मतलब यह था कि फिल्म निर्माता वह समाज सेवा कर रहे हैं जो सरकार करने में असमर्थ है यानी कि काम-काजी देशवासियों को ऊर्जा और स्फूर्ति से भरने का कार्य. बहरहाल यह एक परिचर्चा का विषय है.


5) दीप्ति - पिछले कुछ वर्षों से निर्माता और निर्देशक सामाजिक सन्देश से रहित, उद्देश्यविहीन व ‘यथार्थ के घिसे-पिटे सांचे में ढली’ फ़िल्में दर्शकों को दे रहें हैं तो इसका कारण और निदान – दोंनो के बारे में आपका क्या कहना है ?

पी.के. नायर - क्या फिल्मों का सामाजिक दायित्व है ? फ़िल्में सच में समाज को प्रभावित करती हैं – इन मुद्दों के सन्दर्भ में सिमेमा और समाज के संबंध को आंकना अपेक्षित है. यदि हम एकबारगी इस बात को स्वीकार लें कि सिनेमा का उद्देश्य सिर्फ ‘मनोरंजन’ होता है या होना चाहिए, तो हम इस सच्चाई से इन्कार नहीं कर सकते कि ऎसी हल्की फुल्की मनोरंजक फिल्मों का समाज पर किसी भी तरह का प्रभाव नहीं पडता. इससे यह सवान सामने आता है कि ‘’किस तरह का प्रभाव"? फिल्म निर्माताओं के अनुसार – ‘’यह उनका काम नहीं है कि समाज को आदर्श भरा सन्देश दें या सामाजिक समस्याओं का हल प्रस्तुत करें.’’

एक बार हालिवुड फिल्म निर्माता ‘अलफ्रेड हिचकाक’ ने कीसी फिल्म समीक्षक से कहा – संदेशों के लिए आप वेस्टर्न यूनियन ( अमरीकन टेलीग्राफ आफिस) जाएँ.’’ यह उन लोगों के लिए एक तीखा सा उत्तर है जो फिल्म निर्माताओं को एक रूढ धरणा के साथ बांधना चाहते हैं. कुछ फिल्म निर्माताओं तर्क दे सकते है कि – ‘’ हमारी फिल्मों में बुराई हारती है और अच्छाई जीतती है’’ या ‘बुरे काम का नतीजा कभी भी अच्छा नहीं होता’, या ‘दूसरों की मदद करनी चाहिए, ख्याल करना चाहिए’ आदि आदि.यदि आप उनसे पूछेगें कि आप फिल्मों में ‘’साम्प्रदायिक सद्भाव, भ्रष्टाचार का नाश’’ क्यों नहीं दिखाते, तो वे पलट कर कहेंगे कि जो हम दिखा रहे हैं, वह हिंसा नहीं,बल्कि ‘महाभारत’ के दृश्य हैं. सामान्यत: सभी फिल्मों को एक संदेशपरक कथ्य के साथ बनाना लिसी लक्ष्य की पूर्ति नहीं करता, क्योंकि यदि समाज पर इन बातों का सीधा असर हुआ करता तो हमारा समाज अब तक बहुत साफ़ सुथरा हो गया होता. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं घटता.

6) दीप्ति - क्या निदेशन-कला कि यह खूबी नहीं होनी चाहिए कि यथार्थ जैसा कि हम सब जानते हैं – हमेशा से नंगा, कलुष और निकृष्ट होता है, - उसके कुपरिणामों को दर्शित कर, आदर्श रूप – जो हमेशा से उदात्त, स्वच्छ और उजला होता है – उसका सन्देश दर्शकों को दें ?

पी.के. नायर - वर्षों से ‘छुआछूत’ जैसे महत्वपूर्ण विषय को लेकर फिल्म निर्माताओं ने समाज के नज़रिए को बदलने का सराहनीय प्रयास किया. कलकत्ता के ‘न्यू थियेटर्स’ की १९३३ में बनी ‘चंडीदास’ फिल्म, उसके बाद १९३६ में निर्मित ‘अछूत कन्या’ – इन दोनों ही फिल्मों में ब्राह्मण एक अछूत औरत से प्यार करता दिखाया गया है. उस पुरातन पंथी ज़माने में ऐसे विषयों परा फिल्म बनाना आफत को न्यौता देने से कम नहीं था, लेकिन निर्माताओं ने समाज का ‘छुआछूत’ के प्रति नज़रिया बदलने का साहस दिखाया. इसके बाद १९५९ में बिमल राय कि बहुचर्चित फिल्म ‘सुजाता’, जो प्रेमचंद जी की कहानी पर आधारित थी, उसने सामाजिक रूढ धारणा को ध्वस्त करने की कोशिश की ० अछूत का खून उच्च जाति वाले के चढ़ा कर. उसी प्रकार ८० के दशक में बनी सत्यजित रे की टेलीफिल्म ‘सदगति‘ भी प्रेमचंद जी की कहानी से ही प्रेरित होकर बनाई गई थी, उसका दर्शकों पर बड़ा गहरा असर पड़ा. समाज को शर्म महसूस हुई कि वह ‘छुआछूत’ के चक्कर में इंसान को इंसान नहीं समझता.

इन फिल्मों में, फिल्म निर्माताओं के कड़े प्रयासों के बावजूद भी, यदि समाज इस तरह की समस्याओं के प्रति विचारशून्य बना रहता है और रूढियों से चिपका रहता है, कुप्रथाएं घटने के बजाय, बढ़तीं है तो ऐसे में हम फिल्म निर्माताओं पे किसी भी तरह का दोष कैसे मढ सकते हैं कि वे संदेश विहीन फिल्म बना रहे हैं. क्योकि इस तरह की असफलताओं के बाद वे समाज में जो घट रहा है, उसे ज्यों का त्यों दिखाने लगे. निदेशक मृणाल सेन ने अकाल पीड़ित गाँव की दुर्दशा पर बंगला फिल्म बनाई. (Akaler Sandhaney) जिसकी फिल्मोत्सव में बड़ी सराहना हुई. पर जब मृणाल सेन जब दो तीन साल बाद उत्सुकतावश उस गाँव में फिर से उनकी दशा काजायाजा लेने गए तो पाया कि बेचारे गरीब गाँव वाले पहले की तरह संघर्षरत थे. यह देख कर मृणाल सेन जैसे संवेदनशील इंसान को कैसा लगा होगा – इसे आप भलीभांति समझ सकते हैं.

6)समस्याओं को झेलने व अपने आप सुलझाने की, दर्शकों की व्यक्तिगत क्षमता को नहीं घटा रहें हैं ? समाज का एक बड़ा वर्ग अनपढ़ व अनभिज्ञ है. तो क्या यह फिल्म निर्माताओं की जिम्मेदारी नहीं है कि वे समाज को अपने विवेक का प्रयोग करने की छूट दें, उन पर काल्पनिक समाधान न थोपे. उन्हें आत्मनिर्भर बनने के अवसर दें. अपनी उलझनों से दुखी होकर वे फिल्मों की शरण में न जाएँ. कोई भी व्यवसाय दायित्व विहीन नहीं होता. यहाँ तक कि सिगरेट बनाने वालों को भी अनिवार्य रूप से सिगरेट के पैकेट पर प्रिंट करना होता है ‘’सेहत के लिए हानिकारक’’.

अब यह स्पष्ट है कि निर्माता - निदेशकों का कार्य जीवन की ज़मीनी समस्याओं के काल्पनिक या सजे धजे मीठे मीठे थोथे समाधान देना नहीं होता, उनका कार्य अधिक से अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे पर टिप्पणी करना, उसके हर पहलू का खुलासा करते हुए, समाज मैं जो चारों ओर घट रहा है, उसके प्रति दर्शकों को संवेदनशील बनाना, सचेत करना होता है. समय के साथ साथ, हमारे सर्श्क अधिक समझदार और विवेकशील हो रहें हैं. फ़िल्में उन्हें सब्ज़ बाग दिखा कर पूरे पूरे वर्ष मूर्ख नहीं बना सकती, भुलावे में नहीं रख सकतीं. अब समय आ गया है कि हमारे निर्माता – निदेशक दर्शकों की समझ-बूझ को कम न आंकें, उन्हें बुध्दिहीन न समझे, अपितु, अर्थोपार्जन पर ध्यान केंद्रित न करके, अपने सामाजिक दायित्व के प्रति जागें. वास्तव में हमारे पहले निर्माता – निदेशक सामाजिक दायित्व का बड़ी सहजता व खूबसूरती से निर्वाह करते थे , जो ३०वे, ४०वे, और ५०वे दशक की फिल्मों से प्रमाणित होता है. किन्तु बदलते समय व बदलते मूल्यों के साथ, वे उस ऊंची रेखा से नीचे आते गए और आज हालात नियंत्रण से बाहर हैं. निश्चित ही हमें अपना मनोरंजन करना चाहिए लेकिन यह मनोरंजन साथ ही साथ हमें जागरूक भी बनाए, सही दिशा भी दे – ऐसा हो तो समाज के विकास और उन्नति के लिए बेहतर होगा.