पुनर्भव / भाग-13 / कमलेश पुण्यार्क

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काश! आज कौशल्या होती, और सिर पर सेहरा बाँधे रामचन्द्र उसकी गोद में इठला पाते। बेचारे विमल की कौशल्या तो कब की जा चुकी है- अपने राम को त्याग कर। घूम जाता है एक काल्पनिक दृश्य विमल की आंखों के सामने। हाँ, काल्पनिक ही। क्यों कि जिस काल में माँ का देहान्त हुआ था, बेचारा विमल विस्तर पर पड़े हाथ-पांव ही तो चला सकता था सिर्फ। माँ की ममता के रिक्त स्थान को यथासम्भव भरने का प्रयास किया था बड़ी भाभी ने। थी भी वह इसी पद के योग्य। मंझली यानी छोटी तो मात्र एक साल ही बड़ी थी-विमल से सिर्फ। वह तो निरी-छूंछी भाभी ही है। दिन-रात हँसी मजाक के पटाखों में उलझा रखती हैं जब से आयी हैं। इनका स्नेह और लाढ़ अपने आप में बेमिशाल है। यही कारण कि विमल की इच्छा नहीं होती कि वे कभी लम्बे समय के लिए मैके भी जाय।

मजाक में एक दिन छोटी ने कहा था-‘ क्यों विमल बाबू! बीबी के आने के बाद भी क्या इसी तरह भाभी का....? ’

‘क्यों नहीं...क्यों नहीं। इसमें भी संदेह है क्या? बीबी तो बीबी रहेगी। प्यारी भाभी - मिश्री की डली का मुकाबला थोड़े जो कर सकती है? ’-हँसते हुए विमल ने कहा था, और भाभी के गाल पर चिकोटी काट दिया था।

आज वही प्रश्न छोटी ने फिर दुहराया- ‘क्यों विमल बाबू! मीना रानी को पाकर तो सारी दुनियाँ को ही भूल जाओगे? ’

सही में विमल की कल्पनायें उलझने लगी मीना के चंचरीक सदृश काले कुंतलों में। बहुत दिनों बाद आज मौका मिला था उसे लिपटा पाने का अपनी बेसब्र बाहों में, जो विगत वर्षों से विकल थी। अब तो उसके सर्वस्व का स्वामी हो जायेगा वह।

इसी प्रकार की बातें विमल सोचने लगा। भावी कल्पनाओं का महल ऊँचा, और ऊँचा होता गया।

बाहर बैठे दोनों भावी समधी पोथी-पतरा में उलझ पड़े। । काफी तर्क-वितर्क, सोच-विचार के बाद इसी माह के अन्त का शुभ लग्न- मुहूर्त निकाला गया। तिवारी जी की स्थिति का ध्यान रखते हुए निर्मलजी ने साफ शब्दों में कहा- ‘देखिये तिवारी जी, मैं स्थिति से पूरी तरह वाकिफ हूँ। वैसे भी मुझे सिर्फ शास्त्रीय कर्मकाण्ड-विधानों से मतलब है केवल; न कि फिजूल के आडम्बरों से। नाच, बाजा, शहनाई, शमियाना...यह सब सिर्फ दिखावा है। झूठी शान का प्रदर्शन है, जो खास कर गलत संदेश ही दे जाता है समाज में। और फिर जाहिल समाज भी इसी में उलझा रह जाता है- आवश्यकता और वास्तविकता से कोसों दूर। एक का प्रदर्शन दूसरे के लिए बोझ बन जाता है। ’

‘जैसा आप कहें, आपके आदेशानुसार ही सारी व्यवस्था की जायेगी। ’-पंचांग समेटते हुए कहा तिवारी जी ने।

‘व्यवस्था क्या? समझिये तो कुछ नहीं। सामान्य वस्त्र सहित चन्दन, पान, सुपारी, कुछ प्रसाद- फल-फूल-मिष्टान्न, और मात्र ग्यारह रूपये लेकर, आप तिलक के दिन आयें, और वर-वरण कर जायें। एक दो मित्र जो भी आयें, विशेष आडम्बर का कोई काम नहीं अत्याधुनिक, आदर्श शास्त्रीय विवाह का ढंग सुझाया निर्मलजी ने- ‘उसी प्रकार मैं भी मात्र चार-पांच की संख्या में ही बारात लेकर आऊँगा। उतने के लिए ही आप सामान्य नास्ता-भोजन- विश्राम की व्यवस्था रखेंगे। कन्या-दान हेतु वस्त्र-अलंकार तो आपको व्यवस्था करनी है। लड़के के लिए किसी बात की चिन्ता की जरूरत नहीं है। लड़का मेरा है। बहू मेरी होगी। अतः उनके लिए कपड़े और आभूषण की चिन्ता आपको जरा भी नहीं करनी है।

‘फिर भी....। ’- संकोच पूर्वक कहा तिवारीजी ने- ‘पिता के नाते मेरा भी तो कुछ कर्तव्य बनता है। बेटी-दामाद के लिए....। ’

‘ठीक है। ’-बीच में ही बोल पड़े उपाध्यायजी- ‘आप अपने शौक और स्थिति के अनुसार थोड़ा बहुत जो बन पावे, व्यवस्था कर लीजियेगा। किसी चीज के लिए चिन्ता और परेशानी की बात नहीं। जो भी कमी होगी, मेरे ऊपर छोड़ देंगे। ’

विठुआ बाजार से ढेर सारी मिठाई ले आया। पूरे परिवार में मिठाई बाँटी गयी। छोटी का तो विचार हुआ- आस-पड़ोस का भी मुंह मीठा कर देने का। किन्तु निर्मल जी ने कहा-‘ क्या जरूरत इस दिखावे का? एक ही बार तिलक-समारोह में छक कर खिला देना लोगों को। आज तो खिलाओ सिर्फ तिवारी जी को, जितना खा सकें। ’ और हँसते हुए निर्मलजी ने तिवारी जी के हाथ में एक पैकेट धर दिया, भीतर से लाकर।

‘तो क्या इस पूरे पैकेट को ही खा जाना है? ’- पैकेट पकड़ते हुए तिवारीजी ने हँस कर कहा।

‘खा तो जाना ही है, मगर सिर्फ इसके अन्दर की चीजें। पैकेट भी संकोच या लालच में मत खा जाइयेगा। ’

उपाध्यायजी की बात पर दोनों मित्र ठहाका लगा कर हँस पड़े। काफी देर तक दोनों बुजुर्ग बच्चों सा हँसते-खिलखिलाते रहे। उनकी हँसी तो तब रूकी जब हाथ में ट्रे लिये, जिसमें मिठाइयों से भरे दो प्लेट थे- लाकर सामने रख दिया मेज पर बिठुआ ने।

‘यह क्या? ’-चौंक कर ऊपर देखने लगे तिवारीजी, बिठुआ के चेहरे को- ‘मुझे तो पूरा पैकेट ही मिल चुका है। अब यह किस लिए? ’

‘जी!...जी!...वह तो...जी....। ’- बिठुआ के जी...जी का आशय तिवारी जी समझ न सके, और उपाध्याय जी का मुंह देखने लगे।

‘इसे लेते जाइयेगा। यह मीना बेटी के लिए है। पैकेट की ओर इशारा करते हुए उपाध्याय जी ने कहा, और ट्रे में से एक प्लेट उठाकर तिवारीजी के सामने मेज पर सरका दिये, दूसरा स्वयं लिए।

हँसी मजाक के दौर में मिठाइयाँ चट की गयीं। घड़ी ने पांच का घंटा बजाया। उधर वालक्लॉक का हैमर घंटा बजा कर स्थिर हुआ और इधर कुर्सी छोड़ कर तिवारी जी अस्थिर हो गये।

‘ओफ! काफी देर हो गयी। गप-शप में ध्यान ही न रहा। ’-कहते हुए तिवारी जी हाथ जोड़कर मुखातिब हुए निर्मल जी की ओर- ‘अब आज्ञा दें। ’

‘शाम के वक्त किसी को वापस जाने की आज्ञा देना तो शिष्टाचार के विरूद्ध है किन्तु मीना बेटी अकेली होगी, इस कारण आपका जाना भी आवश्यक है। ’- कहते हुए निर्मलजी भी कुर्सी छोड़ उठ खड़े हो गये। भीतर कमरे से निकल कर विमल भी बाहर आ गया।

‘जा रहे हैं बापू? पैदल जाने में तो रात हो जायेगी घर पहुँचने में। चलिये, मैं छोड़ आता हूँ आपको। ’-कहता हुआ विमल वरामदे से नीचे उतर कर पोर्टिको की ओर बढ़ चला। मन ही मन सोचा- चलो आज फिर मौका मिलेगा रात गुजारने का। देर रात क्या उधर से आने देगी मीना।

तब तक निर्मल जी ने बिठुआ को आवाज लगायी- ‘मेरा धोती- कुर्ता ले आना। ’ फिर तिवारीजी की ओर देखते हुए बोले- ‘चलिये मैं ही छोड़ आता हूँ

आपको। मीना बेटी को देखे बहुत दिन हो गये हैं। आज अपने हाथों ही मिठाई

खिलाऊँगा उसे। ’

विमल गाड़ी निकाल कर गेट पर ला खड़ा किया। तब तक निर्मलजी भी तैयार हो गये थे। उन्हें तैयार देख, विमल समझ गया कि उसकी आशा को निराशा मिलने वाली है।

‘क्यों आप जा रहे हैं क्या पापाजी? ’-अन्तर भावों को छिपाते हुए विमल ने पूछा, और उत्तर की प्रतीक्षा किये वगैर मन मसोसता, गाड़ी से नीचे उतर आया।

‘हाँ, मैं ही पहुँचा आता हूँ तिवारीजी को। ’- कहते हुए निर्मलजी आगे बढ़कर गाड़ी में बैठ गये। तिवारी जी भी बायां गेट खोल कर आ बैठे।

गाड़ी चल पड़ी। मिठाइयों का पैकेट चला गया। विमल खड़ा रह गया, वरामदे में कुर्सी के हत्थे का सहारा लिए, मन मसोसता हुआ।

गाड़ी निकली गेट से। और साथ ही निकल गयी बात विवाह समारोह की। भावी तूल-फितूल की। उसकी कटौती की। काफी देर तक कीचड़ उलीचा जाता रहा- आधुनिक विवाह-शैली और रस्मो-रिवाजों पर। इसी क्रम में प्यारेपुर के निर्मल ओझा की याद आ गयी, और शुरू हो गयी उन जैसे पाखंड़ी तथा कथित समाज-सेवी महानुभाव पर टीका-टिप्पणी। रामदीन पंडित के प्रलोभन का भी परिमार्जन हुआ। फिर इसी क्रम में पदारथ ओझा को घसीट लाना पड़ा, क्यों कि ऐसे चर्चों में वैसे महानुभाव का आना स्वाभविक है।

खेद प्रकट करते हुए कहा उपाध्यायजी ने- ‘स्वार्थ मानव को कितना अंधा बना देता है, इसका जीवन्त उदाहरण है- लम्पट ओझा। ’

‘लम्पट ओझा? ’- तिवारी जी जरा चौंके।

‘मित्रता का स्वांग भरने वाला पदारथ ओझा कितना लम्पट है, क्या यह भी

छिपा है मुझसे? क्या उसे जानकारी न होगी- रामदीन पंडित की सुपुत्री के बारे में? जानबूझ कर धन का प्रलोभन देकर मेरे विमल की जीवन-ग्रीवा घोंटने चला था। वो तो कहिये कि समय पर मुझे जानकारी हो गयी, अन्यथा मैं स्वयं को कभी माफ न कर पाता। ’

‘क्या कहा जाय। हैं ही कुछ अजीब स्वभाव के। मित्रता तो मुझसे काफी है। पर ‘करकट-दमनक’ वाली। सिर्फ मतलबी यार है। उस बार इन्हीं रामदीन पंडित के चक्कर में व्यर्थ ही सात-आठ हजार का फेरा हो गया। मुझ सरीखे व्यक्ति के लिये इतनी रकम कोई मायने रखती है। पर उन्हें तो मेरे बगीचे से मतलब था, मेरी सन्तान से क्या वास्ता? इधर न जाने क्यों तीन-चार महीनों से मुलाकात भी नहीं किये हैं। ’-ओझाजी की बखिया उघेड़ते हुये तिवारीजी ने कहा।

नाक-भौं सिकोड़ते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘मैंने कहा न- वह लम्पट है बिलकुल। शिक्षक है। बुजुर्ग है। पर अभी भी आशिक मिजाजी का भूत नहीं उतरा है सिर से। पत्नी मर गयी कब की। लोग कहते-समझाते रहे। पर दूसरी शादी न की। विरक्ति दिखलाते रहे। किन्तु कितना विरक्त है-क्या मुझसे भी छिपा है? पापी... नीच...कमीना...विधवा भाभी को ही....। ’

आँखें विस्फारित हो गयीं तिवारीजी की, निर्मलजी की बात सुन कर।

‘क्या कहा आपने- विधवा भाभी को ही पत्नीवत रखे हुए हैं पदारथ भाई? ऊँऽह...छीः छीः। यह तो बड़ी शर्मनाक बात है। पर आपको कैसे मालूम हुआ? मैं इतना नजदीक हूँ , फिर भी...। ’

‘दूर-नजदीक की बात नहीं। बात है नजरों की। आप जानते ही हैं- पुलिस की निगाहें कितनी पैनी होती हैं। हमलोग को इसी बारीकी का प्रशिक्षण ही दिया जाता है। पल भर में ही ‘प्रौपर डाग्नोसिस’ न कर लिया तो फिर पुलिस अफसर ही क्या? आपको यह सुन कर तो और भी आश्चर्य होगा कि स्वयं लगाये हुए कितने ही पौधों को विधवा की गर्भ-वाटिका से उखाड़ फेंका कुटिल पदारथ ने। ’

उपाध्यायजी का रहस्योद्घाटन पल भर के लिए झकझोर गया तिवारी जी को। गहन सोच के गलियारे में भटक गये--‘ओफ! कितना अनर्थ है! परायी खेती में बर्बरता पूर्वक फसल लगाना और फिर उसे तैयार होने से पहले ही काट फेंकना; जब कि कितने निरीह तरस रहे हैं- दाने-दाने के लिए। ’

‘क्या सोचने लगे तिवारी जी? दुनियाँ अभी देखी ही कहाँ है आपने? ’- व्यंग्यात्मक मुस्कान विखेरते हुए कहा उपाध्यायजी ने, और तेज हॉर्न बजाते हुए गाड़ी खड़ी कर दी तिवारी जी के मकान के सामने।

तीव्र ध्वनि-तरंगों ने विचारों की श्रृंखला को तोड़ डाला। संकुचित, अपने आप में लज्जित से, तिवारीजी गाड़ी से नीचे उतर आये। उपाध्याय जी भी साथ में आ गये।

किवाड़ यूँ ही भिड़काया हुआ था। देर से प्रतीक्षा रत मीना अभी-अभी रसोई में गयी थी। गाड़ी की आवाज सुन झट बाहर आ गयी।

‘आ गए बापू? ’-चहक उठी गौरैया सी। पीछे खड़ें उपाध्यायजी को देखते ही शरमा कर ठिठक गयी, क्षणभर के लिए। फिर आगे बढ़कर उनका चरण स्पर्श की।

मीना पर निगाह पड़ते ही निर्मल जी प्रफ्फुलित हो उठे। अपरिमित वात्सल्य और हर्षातिरेक से उनकी वाणी अवरूद्ध सी हो गयी। पैरों की ओर झुकी मीना को उपर उठाते हुए लपक कर उसके माथे को चूम लिये, और बिहंसतते हुए पूछे -‘कैसी हो मीना बेटी? ’ और हाथों में मिठाई का पैकेट पकड़ाते हुए बोले-‘ये लो मेरी ओर से बधाई। ’

मुस्कुराती हुयी मीना आरक्त हो आए कपोलों पर शर्म की परत को समेटती भीतर चली गयी। पीछे से दोनों मित्र या कहें भावी समधी, कमरे में चौकी पर आ विराजे।

‘चाय बनाओ मीनू। ’- बैठते हुए तिवारीजी ने कहा।

‘नहीं...नहीं, चाय वाय की जरुरत नहीं। देर हो जायेगी। मैं सिर्फ अपने हाथों मीना को मिठाई देने आया था। बहुत दिन हो गये थे मिले हुए भी। ’

‘यह कैसे हो सकता है, वगैर चाय पीये चले जायेंगे? ’-कहते हुए तिवारीजी कुर्ता उतार खूंटी पर टांग, हाथ में ताड़ का खूबसूरत पंखा लेकर झलने लगे।

‘चाय बना रही हूँ पापाजी। पीकर जाना होगा। ’-चूल्हे पर केटली चढ़ाती हुयी, भीतर से मीना ने आवाज लगायी।

तिवारीजी के हाथ से पंखा लेते हुए उपाध्यायजी बोले- ‘पंखा बड़ा ही सुन्दर है। कितने में लिये हैं? ’

‘लिया नहीं हूँ। मीना ने बनाया है। फुरसत के समय कुछ न कुछ हस्त-लाघव दिखाते रहती है। ’- मुस्कुराते हुए तिवारीजी ने कहा।

हाथ में पंखा लिये उपाध्यायजी उलट-पलट कर देखते रहे कुछ देर तक- साधारण वस्तु पर असाधारण हस्तकला। उनके भीतर कुछ अजीब सा तरंगित हो रहा था, जो अवगुण्ठित हो चेहरे पर झलकने लगा था। रोम-रोम कुछ कहने को व्याकुल हो उठा।

मीना चाय ले आयी, साथ में कुछ नमकीन भी- केले और आलू की छोटी-छोटी बड़ियाँ। आज ही बड़े शौक से बनायी थी इसे। उसे पूरी उम्मीद थी कि शाम को विमल जरूर आयेगा, बापू को छोड़ने के लिए। किन्तु विमल को आज यह सौभाग्य न मिल सका।

चाय-नमकीन से निवृत्त हो उपाध्यायजी वापस चल दिए। रास्ते भर केले और आलू की बडि़याँ, और ताड़ के पंखे पर नकली मोती की लडि़याँ-याद आती रहीं उन्हें।


कहने को तो उपाध्यायजी ने कह दिया था- ‘कुछ भी तूल- फतूल नहीं करना है मुझे भी। ’ परन्तु दूसरे दिन से ही घर का रौनक बदलने लगा। झाड़-बुहार, पेन्ट-पोचारा होने लगा। बहुओं का कहना था-‘छोटे देवर की शादी है-इस पीढ़ी की अन्तिम शादी, सादा-सादी कैसे रहेगा? कुछ तो होना ही चाहिये। ’

....और होने भी लगा। निर्मल उपाध्याय की गाड़ी प्रीतमपुर की संकीर्ण गलियों को छोड़, प्रसस्त चौड़ी सड़कों पर दौड़ने लगी। वनारसी और बंगलोरी साडि़याँ, फिरोजावादी चूडि़याँ, कोल्हापुरी चप्पल, बीकानेरी जेवर....न जाने क्या- क्या...एक से एक सामग्रियों की सूची बनायी जाने लगी; और यथासम्भव उनका जुटान भी होने लगा। बाजार का प्रायः काम दोनों भाभियों को साथ लेकर विमल ही किया करता। दोनों भाइयों को टेलीग्राम द्वारा सूचना भेज दी गयी। कुछ संक्षिप्त क्रम में निमन्त्रण-पत्र भी छपने का आदेश दे दिया गया प्रेस को।

इधर मधुसूदन तिवारी भी जुट गये वैवाहिक व्यवस्था में। घर का लिपाई-पुताई कर दिया गया। हस्तलिखित पत्र नापित द्वारा, निकटवर्तियों को भेज दिया गया। हालांकि आने वाले ही कितने हैं- एक-दो भांजे, दो बहनें, एक-दो और कोई। श्रीहीनों के कुटुम्ब भी तो प्रायः सीमित ही हुआ करते हैं। तेल रहित ‘अलसी’ जैसे सूखी, अलसायी सी रहती है, वैसा ही होता है अर्थहीनों का सम्पर्क भी। नापित द्वारा ही परम मित्र पदारथ ओझा को खास तौर पर अग्रिम बुलावा भेजा गया- राय-मशविरा के लिए। किन्तु मालूम हुआ कि वे किसी अर्थ-सुपुष्ट यजमान की अन्त्येष्ठि क्रिया में महानिर्वाण की नगरी- काशीजी गये हुए हैं। श्राद्धादि सम्पन्न कराकर, पूरे पन्द्रह दिनों बाद ही शायद लौट पायें।


सेवा-निवृत्ति के पश्चात प्राप्त रकम का अधिकांश तो खर्च ही हो चुका था। अल्प शेष राशि को भी डाकघर-बचत-खाते से निकाल, मीना के कन्यादान हेतु आवश्यक वस्त्रालंकार आदि की व्यवस्था स्वयं ही बाजार जाकर कर लिये। संक्षिप्त वराती एवं अन्य आमन्त्रितों के लिये दस-पन्द्रह दिनों की भोजन व्यवस्था भी लगभग पूरी हो गयी।


तिलकोत्सव के दो दिन पूर्व स्वयं गये उधमपुर- मीना के विद्यालय के शिक्षक समुदाय को आमन्त्रित करने। उधर से निबट कर पहुँचे पदारथ ओझा के घर। किन्तु आज भी मुलाकात न हो सकी। उनका प्रतिनिधित्व की विधवा भाभी।

किवाड़ की आड़ में खड़ी- तृण धरि ओट कहत वैदेही को चरितार्थ करती, आंचल के छोर को चेहरे पर रखती हुयी बोली- ‘पदारथ बाबू तो बाबा बैजनाथ धाम गये हुए हैं, किसी यजमान के काम से। उधर से ही वद्रीकाश्रम जाने का विचार है उनका। लगता है अब बारात के दिन ही पहुँच सकेंगे। ’

फिर थोड़ा संकोच पूर्वक बोली- ‘बुरा न माने तो एक बात कहूँ। ’

‘कहिये...कहिये...बुरा मानने की क्या बात है। ’- नकारात्मक सिर हिलाते हुए प्रसन्नता पूर्वक तिवारीजी बोले।


‘बहुत दिनों से लालसा थी, मीना बेटी को देखने की। इनसे कई बार कही मैंने, पर ये तो सुनते ही नहीं। कम से कम उसके विवाह में मुझे भी शामिल होने का सौभाग्य....। ’-कहती हुयी प्रौढ़ा के झुर्रीदार रसहीन कपोलों पर अश्रुधार चू पड़े। आगे के शब्द उसके गले में ही अटके रह गये।

‘यह तो बड़ी खुशी की बात है। आप मेरे यहाँ चलना चाहती हैं- मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है। मैं तो स्वयं ही सोच रहा था आपसे निवेदन करने को कि आपने ही प्रस्ताव रख दिया। आप तो मीना की माँ के समान हैं। निःसंकोच, जब कहें मैं ले चल सकता हूँ। काश! आज उसकी माँ होती...। ’-कहते हुए तिवारी जी का गला भर आया।

‘मीना की माँ वाक्यांश उस सहृदया प्रमदा के किसी ‘अज्ञात अभिज्ञा’ को झकझोर गया, और फफक कर रो पड़ी। उसके इस करूण रूदन का अर्थ बेचारे तिवारीजी क्या लगा पाते! नारी-उर की अन्तर्वेदना सिर्फ नारी ही समझ सकती है। पुरूष में क्या शक्ति है, जो स्वयं स्वज्ञा विहीन है।

‘ठीक है। कल दोपहर में किसी को भेज देंगे आप। मैं साथ में चली आऊँगी। ’ - सिसकते, रूंधे गले से आवाज आयी।

‘ठीक है। अवश्य भेज दूँगा। ’- कह कर तिवारी जी चल पड़े लम्बे-लम्बे डग भरते माधोपुर की ओर, कारण कि शाम के साथ अंधकार भी दौड़ते हुये चला आ रहा था।

‘परसों तिलक जाना है। अभी ढेर सारा काम बाकी है। काम कितना हूँ कम हो, है तो आखिर शादी ही। वह भी लड़की की। इसी बीच नोटिस भी मिल चुकी है। धमकी भी दे ही चुका है चौधरी। सरकारी जमीन पर बनी झोपड़ी- लगता है, अब छोड़ना ही पड़ेगा। इस बला के निवारण का कोई रास्ता भी तो नजर नहीं

आता। ’- इन्हीं विचारों में उलझे, चलते रहे अपने गन्तव्य की ओर परिचित पगडंडियों पर पांव धरते बेचारे मधुसूदन।

समय पर तिलकोत्सव सम्पन्न हो गया। नापित के अलावे स्वयं, दोनों भांजे एवं एक बहनोई- मात्र पांच व्यक्ति उपस्थित हुये उनकी ओर से।

उपाध्यायजी ने दिल खोल कर स्वागत किया। उनके सुझावानुसार मात्र चन्दन, पान, सुपारी, चाँदी के खानदानी कटोरे में ले कर उपस्थित हुए थे तिवारी जी।

मंगल सामग्रियों के साथ कुछ नगदी का न होना अमंगल-सा माना जाता है। फलतः मात्र ग्यारह रूपये रख दिये- रजत पात्र में। पर रूपये ‘रूपये’ थे- चाँदी के सिक्के, न कि जनता को भुलावे में रखने वाली, रिजर्व बैंक के गवर्नर द्वारा हस्ताक्षरित, कागजी हुण्डी। हालाकि इससे कोई खास फर्क नह° पड़ता; क्यों कि जनता अभ्यस्त हो गयी है- लुढ़कती अर्थव्यवस्था के मृयमाण हुण्डियों को सहेजते- सहेजते।

विदाई के समय उपाध्यायजी ने कहा-‘मेरे कथन से कुछ अधिक ही आडम्बर कर दिया है इन लोगों ने। आप इसे अन्यथा न मानेंगे। आप स्वयं यथासम्भव संक्षिप्त व्यवस्था ही रखेंगे। सही में वारात हम पांच से ज्यादा न लायेंगे।

तिलक के चौथे दिन ही विवाह की बात तय थी। फिर चार दिन गुजरने में दिन ही कितने लगने थे। एक...दो...तीन...के बाद आ गया चार।

सब के सब हो गये तैयार।

इस दिन की तैयारी सिर्फ तिवारीजी के यहाँ ही नहीं बल्कि अन्य कई घरों

में हो रही थी, बड़े धूमधाम के साथ। क्यों कि वे सब बड़े लोग थे। संभ्रांत लोग। शायद ‘संस्कृत’ भी।

कड़ाह बाल्टा से लेकर दरी, चादर, मसनद तक का बयाना पहले ही हो चुका है। गांव के मजदूर वर्ग, हलवाई, खानसामा, सबके सब ‘रिजर्व’ हो गये हैं। बेचारे तिवारी जी के हिस्से- नापित के एक ‘पॉकेट एडीशन’ के सिवा कुछ भी नहीं आया। कुछ की तो इन्हें जरूरत भी न थी।

किन्तु सच कहें तो आये ही कौन इनके यहाँ? कौन कहें कि पंचरंगी मिठाइयों का पेड़ गिरना है, जलेबियों के रस की बाढ़ आनी है? बहुत होगा तो प्रीतमपुर के मंगरू साव की दुकान से एक-दो किलो ‘मोतीचूर’ आ जायेगा, दालमोट का एकाध पैकेट होगा, कुछ थोड़े बहुत केले-संतरे...और क्या? न तो यहाँ नाच होना है। न शहनाइयाँ बजनी है। आतिबाजियों के धूमधड़ाके का तो सवाल ही नहीं।

और उधर...गांव में?

मत पूछो, बहुत कुछ...। बहुत कुछ। कलकत्ते से ग्रैंडहोटल का खानसामा और बैरा आया है। सिंगापुर का केला...कश्मीरी सेव...दार्जिलिंगी संतरे... नेतरहाट का नाशपाती...मुज्जफ्फरपुर का लीची...कितना गिनाऊँ? चाय पत्ती तक सीधे आसाम के चाय बागान से चुन कर मंगवाया गया है। चौधरी ने तो वृन्दावन से राशलीला मण्डली भी बुलवा ली है। पन्द्रह दिन पहले से ही उसके दरवाजे पर भीड़ लगी है।

ये सब तो चौधरी की अपनी व्यवस्था है। वारात के तरफ से बम्बई की नामी-गिरामी झबेरी बाई आ रही है। यही कारण है कि युवा वर्ग की जेबों में हफ्तों पूर्व से ही कन्नौजी और लखनौआ हीना, मोतिया, मजमुआं धमधमाने लगा है।

‘नौचेड़े’ आपस में बातें करते नहीं अघाते- ‘साली बनारस की रंडियाँ तो सब बूढ़ी हो गयी, कौन पूछता है अब उनको? अरे यार मारो न मजा....इस बार तो सीधे फिल्मिस्तान से झबेरी और गुलेरी आ रही है...जिसे परदे पर देखने के लिये मार होती है...अब सामने स्टेज पर देखेंगे...चौधरी काका ने गांव को ‘इन्दर का सुअर्ग’ बना दिया है...ससुरी बिजूलिया कट कट जाती है...अबकी तो बड़का ‘जिनरेटरवा’ चलेगा...। ’

किसी ने गेंहू का बोझा बेंचा, किसी ने काका का कम्बल। किसी ने माँ का जेवर बेच डाला तो किसी ने बीबी का....कुछ न कुछ बेंच-बांच कर, किसी ने कुछ उधार-पैंच लेकर झबेरी बाई के लिए उपहार की व्यवस्था कर रखी है। विष्णु प्रदत्त नारद का मरकट का सा रूप रचा रखा है नवयुवक मंडली ने। सबको पूरा भरोसा है कि उसके गले में जरूर बाहें डालेगी झबेरी बाई।

ग्रामिणों की जमात देखने लायक है-एक ओर लौंड्री के धुले लकदक कपड़े- लखनौआ परिमल से गमागम- रइसों के वदन पर; तो दूसरी ओर सोडा और ‘रेह’ में मलमल कर परिमार्जित परिधान-धारी भोले गरीब ग्रामीण। कुछ ने तो वस्त्र प्रक्षालन की आवश्यकता भी नहीं समझी इस असामान्य से ‘सामान्य’ अवसर के लिए। कुछ ने दादा और काका के कुरते को ही अंगरखे का रूप दे, मानों भैंसे के भय से फसल भरे खेतों में मानवी सृष्टि का मानव खड़ा हो, सड़ासड़ नाक सुड़कते- कुरते के आस्तीन को ही रूमाल का कार्यभार सौंप, किसी ने केवल कुरता पहन, किसी ने सिर्फ जांघिया ही, किसी ने तो ‘दिगम्बर’ का झंडा लिए, यथाशीघ्र उपस्थित हो जाना ही अपना कर्तव्य समझा।

इसी तरह, शामियाने के इर्द-गिर्द कोउ मुख हीन विपुल मुख काहू....का दिगदर्शन कराता भूतभावन भोलेनाथ के वारात की तरह जा जुटा ग्रामीण बच्चों का समूह।

धर्मावतार चौधरी के चार-चार नौकर कनात के चारों ओर इसी कार्य के लिए मुस्तैद रखे गये थे कि कोई अभद्र बालक तवायफ दर्शन के क्रम में शामियाना वासियों के किसी सामग्री का विदर्शन न कर जाय। वे दो टके के नौकर मोटे-मोटे लट्ठ लेकर डांट-डांट कर उन्हें खदेड़ रहे थे-‘जाओ भागो, तुम्हें क्या देखना है यहाँ? ’

व्यवस्था उचित ही थी। रोज-रोज तो उन्हें यह सब देखने को मिलना नहीं है। फिर एक दिन देखने से क्या...? किन्तु बेवकूफ बच्चे इस गूढ़ रहस्य को समझें तब न! काले-कलूटे, नंग-धड़ंग निरीह बच्चे नाक पांछते, आंखें मटकाते खेतों के मेढ़ की आड़ में जा छिपते उन मुछैलों के भय से, और मौका देख फिर घेर लेते दूर से ही इन्द्र की अप्सरा- झबेरी बाई को। और यही क्रम लगभग रात भर जारी रहा।

लगभग सारा गांव ही जा चुका था- उन्हीं बड़े शामियानों की ओर।

इधर मधुसूदन का द्वार तो सूना पड़ा था। न गोपियां थीं न ग्वाल- वाल, और न उद्धव ही। फिर संदेशा कौन ले जाये? यहाँ तो जेठ की तपती दोपहरी और पूस की रात सा गहरा सन्नाटा था। अभागे कुत्तों का भी भाव बढ़ गया है- वे भी शायद उधर ही नाच देखने चले गये हैं। कई कुत्ते जूझते नजर आये- सांसदों की तरह- सूखे पत्तलों और बिलखते कुल्हड़ों पर ही, मानों ‘सस्ती रोटी’ की दुकान हो। उन्हें शायद नीरस नाच में अभिरूचि नहीं। वैसे भी जब दोपाये ही चौपाया बनने को बेताब हों, फिर बेचारे ये चौपाये करें तो क्या करें? जायें तो कहाँ जायें?

बाहर द्वार पर चौकी निकाल, एक साधारण सा विस्तर डाल दिया था तिवारी जी ने। उसके बगल में तीन खाट भी बिछा दिये, और वहीं पास में ही आम के पेड़ के नीचे खाटों के अगल-बगल बिछा दी गयी- छोटी- छोटी दो-तीन दरियाँ। उन्हीं में एक पर शान्त शरीर, अशान्त चित्त मधुसूदन तिवारी बैठ कर वारातियों के आगतन की प्रतीक्षा कर रहे थे। मस्तिष्क में अभी कल की बातें- चौधरी की धमकी, लम्बे अतीत की परछाइयाँ बारी- बारी से आ-जा रही थी। तभी दूर से आते हुए पदारथ ओझा नजर आये थे हांफते- कांपते। लम्बे समय के बाद राम को सुग्रीव से मुलाकात हुयी थी। और उनसे बातों का क्रम जारी ही था कि वाराती गण आ धमके। विचारों का सिलसिला बरबस ही टूट गया। उठ खडे़ हुये उनके स्वागत हेतु।


द्वार-पूजा, पाद-प्रक्षालन, मंगलाचरण, जलपानादि के बाद सभी विराजे प्रकृति के शामियाने- आम्रतल की शैय्याओं पर।

‘क्यों ओझाजी!आप तो हम पर बहुत नाराज होंगे? ’-अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए निर्मल उपाध्यायजी ने पदारथ ओझा को सम्बोधित किया।

‘नाराजगी की क्या बात है? आप बड़े लोगों के...। ’-तपाक से कहा पदारथ ओझा ने और जिराफ सा गर्दन घुमा कर इधर-उधर देखने लगे।

‘मैं बड़ा कितना भी क्यों न होंऊँ, पर आपके परम मित्र रामदीन जी का मुकाबला तो नहीं ही कर सकता। ’- इस बार उपाध्याय जी की दबी मुस्कान बाहर आ गयी होठों पर। उनके साथ ही बगल की खाट पर बैठे दोनों लड़के भी हँस पड़े। रामदीन पंडित की काली कानी पदारथ ओझा के पलकों पर शर्म बन कर आ बैठी, फलतः बोझ से सिर नीचे झुक गया।

‘ओह! मधुसूदन भाई ने बतलाया भी नहीं कि विवाह का लग्न कब है। ’-प्रसंग बदलते, दांत निपोर कर पदारथ ओझा ने कहा।

तिवारीजी ने कहा- ‘चिन्ता की बात नहीं। अभी दो घंटे की देरी है। तब तक आप चाहें तो दो-चार घर से बुंदिया-पूड़ी तसील कर आ सकते हैं। ’

तिवारीजी की बात पर सभी हँसने लगे। ओझाजी ने अपना पोथी-पतरा समेटा और लाठी टेकते हुये चल दिये- ‘आता हूँ थोड़ी देर में, एक घर में द्वार पूजा कराना अभी बाकी ही रह गया है। ’-यह कहते हुये।

उधर गये ओझाजी बुंछिया-पूड़ी के चक्कर में और इधर तिवारी जी चल दिये अपने वारात की भोजन व्यवस्था देखने।

घर के पिछवाड़े, ताड़ की पत्तियों से घेर-घार कर भोजन निर्माण का कार्य चल रहा था। किन्तु वहाँ पहुँचने पर कनात बिलकुल खाली मिला। था ही कौन जो मिलता? दोनों बहनें शायद चली गयी थी ग्राम देवी की पूजा करने। अतः थोड़ा आगे बढ़े। पिछले दरवाजे से आंगन में प्रवेश किये, और बढ़ चले कमरे की ओर। घर के एक कोने में पूजा स्थल बना हुआ था। वहीं बैठ कर रस्म के मुताबिक वारात आगमन के बाद कन्या द्वारा माता सहित गौरी पूजन का विधान है-मुंह में सुपारी रखकर, बिलकुल मौन होकर- सो किया जा रहा था, किंचित परिवर्तित रूप से...


माँ का अभाव, आज सर्वाधिक खला था- मीना को। सर्व सम्मत्ति से आज माँ का ओहदा मिला- इस रस्मोअदायगी के लिये- पदारथ ओझा की भाभी- सविता देवी को।

उस दिन उधमपुर से आने के दूसरे दिन ही छोटे भांजे को भेज कर सविता भाभी को बुलवा लिया था तिवारी जी ने। सविता देवी वास्तव में सविता ही हैं। सुघड़ नैन-नक्श, गौर शरीर- इस ढलती उम्र में भी इस बात की साक्षी है कि अपनी युवत्यावस्था में सविता ‘सविता’ तुल्य ही तेजस्वी रही होंगी।

आते के साथ ही मीना को लपक कर सीने से लगा ली थी, और काफी देर तक लिपटाये रखी थी। उनकी आँखों से अविरल अश्रुधार प्रवाहित होता रहा था, मानों वनवास के बाद राम घर लौटे हों, और कौशल्या की आँखें मिलन के जल से पुत्राभिषेक कर रही हों। वहाँ उपस्थित लोगों के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा था- ‘यह तो बिलकुल ही मीना की माँ जैसी हैं। सही में भगवान ने एक सा चेहरा दिया है दोनों को। लगता है- एक ही प्रकाशक द्वारा एक पुस्तक की दो प्रतियाँ दो आकारों में दो समय में प्रकाशित की गयी हों।

आने के दिन से ही घर का सारा काम ‘घरनी’ जैसी सम्हाल ली सविता। एक क्षण भी मीना को स्वयं से अलग न होने दी। किन्तु हर पल उन्हें लगता मानों उनके अन्तः के मंच पर कोई काल वैशाखी का नृत्य चल रहा हो। वास्तव में बात भी कुछ ऐसी ही है। किन्तु अभी तक अवसर न मिल पाया था बेचारी को कुछ कह सकने का।

अभी देवी पूजन के कारण पूरा घर जब शान्त हो गया, तब उनके अशान्त अन्तस के उद्गारों को भी निकलने का मौका मिला।

उनके जीवन की एक लम्बी कहानी है। उस कहानी को वे सुनाना चाहती हैं-किसी योग्य अत्याधिकारी स्रोता को; किन्तु अति गोपनीय रीति से।

क्यों कि कोई जान जायेगा तो क्या कहेगा! वैसे कहने को तो नहीं ही आयेगा, पर सोचेगा जरूर। और तब व्यक्तित्त्व के धवल चादर में धब्बा ही नहीं लगेगा, बल्कि बड़ा सा छेद हो जायेगा, जिसकी खुली खिड़की से ऐरागैरा भी झांकने लगेगा। मगर परिणाम की परिकल्पना वगैर ही वे जताना भी चाहती हैं, क्यों कि न जताने से भी कोमल नारी उर के विदीर्ण हो जाने का खतरा है।

लम्बी प्रतीक्षा के बाद उस कहानी का उचित स्रोता भी आज मिल गया है। आज काकभुशुण्डी को गरुड़ से भेंट हो गयी है, फिर क्यों चूके ‘राम कथा’ सुनाने में?

सविता आज सुना डालना चाहती है- अपनी पूरी रामकहानी को, परम शक्ति मातेश्वरी गोबर-गौरी, और विघ्न-नाशक गोबर-गणेश की साक्षी में- परम स्रोता मीना को। हाँ मीना को ही। क्यों कि सम्पूर्ण सृष्टि में मात्र वही एक उचित अधिकारिणी है- सुन सकने की, इस करूण कथा को- सीता परित्याग से राम जन्म तक। हाँ इस विपरीत क्रम में ही, चूँकि यह कथा ही ऐसी है। सविता सुना रही थी। मीना सुन रही थी। गोबर-गौरी-गणेश समक्ष साक्षी स्वरूप उपस्थित थे ही। उधर दीवार की ओट में खड़े मधुसूदन तिवारी भी सुनते जा रहे थे-

‘......इसी तरह हमारा समय गुजरने लगा। किसी तरह उनका श्राद्धादि कार्य सम्पन्न हुआ। दूसरे दिन ही बड़े भाईजी लड़झगड़ कर, बांट-बखरा अलग कर दिये। अल्प वया, अनाथ विधवा, यौवन के दुष्ट दुस्सह भार से नत, कहाँ जाती! क्या करती! कोई सहारा नजर न आ रहा था। किन्तु दयावान भगवान ने पदारथ बाबू को सुबुद्धि दी। एक और लक्ष्मण का अवतार हुआ-घोर कलिकाल में, जो परिवार परित्यक्ता सीता को लेकर निकल पड़े अलग घर बसाने। साथ में उर्मिला भी थी। बेचारे पदारथ ने मुझ डूबते को उबार लिया। हम तीनों चैन से रहने लगे....