पुनर्भव / भाग-17 / कमलेश पुण्यार्क

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उपाध्यायजी की बातों पर तिवारीजी निरूत्तर हो गये। उनका गला भर आया। मन ही मन सोचने लगे- ‘ओह! निर्मल जी साक्षात् देवता हैं। आसुरी सम्पदा युक्त चौधरी और दैवी सम्पदा-विभूषित उपाध्यायजी- दोनों के चरित्र मूर्तिमान हो उठे उनकी मानस-नेत्रों के समक्ष। उधर, पास खड़े पदारथ मन ही मन जलते-भुनते-कुंढ़ते रहे- ‘भाग्यवानों का भूत हल जोतता है...। ’अतः यह कहते हुए चल दिये-‘ठीक है, मधुसूदन भाई! चलता हूँ। कल समय मिला तो किसी समय मुलाकात करूँगा। ’

गाड़ी की आवाज सुन, तिवारीजी की दोनों बहनें किवाड़ की ओट में आ गयी- देखें कौन आया है।

छोटू बाहर निकल आया- ‘मीना दीदी कैसी हैं मामा जी? ’

‘ठीक है बाबू। ’- कहते हुए गाड़ी से उतर कर अन्दर आये तिवारीजी, साथ ही उपाध्यायजी भी।

चौकी पर बैठते हुए संक्षिप्त जानकारी दिये, दोनों बहनों को मीना के बारे में, फिर अन्दर रसोई की ओर बढ़ चले।

‘जो भी तैयार हो, हमलोगों को खिलाओ जल्दी से। ’-कह कर पुनः चौकी पर

आ बैठे तिवारीजी।

‘तब क्या सोच रहे हैं- रामदीन पंडित के दिशा-निर्देश पर? - पूछा निर्मलजी ने।

‘मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। दूध का जला, मट्ठा फूंकता है। एक बार इन्हीं पदारथ भाई की दलाली में पड़कर सात-आठ हजार गंवा चुका हूँ- सन्तति-साधना में। फिर वैसा ही फेरा लगा रहे हैं। ’-तिवारीजी ने अपना दर्द और अनुभव जाहिर किया।

‘मुझे समझ नहीं आता, इन सब बातों में कुछ तथ्य भी है या यूँ ही सिर्फ कमाने-खाने का ढोंग-ढकोसला? ’-जेब से खिलबट्टी निकाल, पान की गिलौरी मुंह में धरते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘ये आत्मा-परमात्मा की बातें मेरे पल्ले नहीं पड़ती। मैं तो सिर्फ यही जानता हूँ कि पंचभूतात्मक शरीर जल जाता है। व्यष्टि समाहित हो जाता है समष्टि में। फिर रह ही क्या गया जो भूत-प्रेत बन कर इधर-उधर भटकता फिरे? ’

उपाध्यायजी की बातें वृद्ध तिवारी जी की सुप्त दार्शनिकता को कुरेद कर जगा गयी। सिर हिलाते हुए बोले- ‘आपका कथन तो बिलकुल सही है भाईजी। किन्तु एक बात आती है दिमाग में- यदि इसे ही सही मान लिया जाय, फिर-

‘‘आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु....’’ का क्या अर्थ होगा? ’

थोड़ा झुक कर, बाहर की ओर पीक फेंका उपाध्यायजी ने। फिर धीरे से मुस्कुराते हुये बोले- ‘आपके कथन का तात्पर्य यही है न कि शरीर रूपी रथ मृत्योपरान्त नष्ट हो जाता है, फिर भी आत्मा रूपी रथी तो शेष ही रह जाता है। यह तो कोई नियम नहीं कि रथ के नाश के साथ ही रथी का भी नाश हो जाय? ’

‘बिलकुल ही सही समझा आपने। रथ नष्ट हो गया। रथी बचा रह गया। चूंकि यह उसका पेशा था अतः पुनः किसी रथ प्राप्ति का प्रयास वह करेगा ही। ’-तिवारीजी ने बात स्पष्ट की।

‘सो तो है। इससे यही स्पष्ट होता है कि आत्मा चूंकि ‘अछेद्योयं अदाह्योयं’ के अनुसार नाशवान नहीं है, फिर निश्चित है कि इधर-उधर कुछ काल तक भटकना पड़ सकता है, जैसे कि एक रथ के टूट जाने पर दूसरे रथ के लिए रथी को भटकना पड़ सकता है। किन्तु एक बात मुझे फिर भी समझ नहीं आती कि क्या गाड़ी की ‘स्टेपनी’ की तरह शरीर रूपी रथ का भी स्टेपनी होता है? ’- निर्मलजी ने जिज्ञासा व्यक्त की।

‘मतलब? ’-चौंकते हुए तिवारीजी ने पूछा और झांक कर रसोई की ओर देखने लगे।

‘मतलब यह कि आप भूत-प्रेत के अस्तित्त्व को स्वीकार रहे हैं? आपका कहना यह है कि मृत शरीर से निकली आत्मा पुनः किसी अनुकूल शरीर की खोज में रहती है। और इसी बीच मौका पाकर किसी अन्य शरीर में प्रवेश करती है। पर मैं यह नहीं कह रहा हूँ। मेरा कहना है कि एक आत्मा के रहते भर में दूसरी आत्मा प्रवेश कैसे कर सकती है? यदि नहीं तो इससे भी आपके कथन- आत्मानं रथिनं विद्धि...की स्पष्टी कहाँ हो पा रहा है? ’

निर्मलजी कह ही रहे थे कि तभी छोटू आ उपस्थित हुआ-एक हाथ में ‘झारी’ में जल और दूसरे हाथ में आसनी लिए हुए।

आसनी बिछाते हुए उसने कहा-‘मामाजी भोजन तैयार है। ’

‘आइये उपाध्यायजी। इधर दोनों रथियों को उलझने दीजिये। तब तक हमलोग

भोजन कर लें। ’

मुंह-हाथ धोकर दोनों ‘समधी’ भोजन प्रारम्भ किये। भोजनोपरान्त छोटू ने प्रस्ताव रखा-‘मामाजी! माँ और मौसी कह रही थी कि मीना दीदी को एक बार देख लेते, फिर गांव वापस जाते।

‘अभी एक-दो दिन रूको। फिर तुमलोग जाना। तब तक मैं भी इधर-उधर के कामों से निबट लूँ। ’-हाथ धोते हुए तिवारीजी ने कहा।

दोनों जन प्रस्थान किये पुनः अस्पताल के लिए। विमल के लिए भी साथ में खाना ले लिए।

गाड़ी में बैठते हुए फिर पूर्व विषय पर चर्चा छिड़ गयी। उपाध्यायजी के दिमाग में एक रथ के दो रथी वाली बात उतर न रही थी।

‘क्यों तिवारीजी! रथ का मालिक तो एक ही हो सकता है न? ’

गाड़ी चल पड़ी।

निर्मलजी की शंका का समाधान करते हुए तिवारीजी ने कहा- ‘आप अभी इस गाड़ी में बैठे हुए हैं। इस गाड़ी के मालिक भी हैं। ’

‘हाँ, हैं तो। ’-पान का बीड़ा मुंह में दबाते हुए कहा उपाध्यायजी ने।

‘मान लीजिये, जैसा कि अभी रात का समय है। रास्ते में सुनसान पाकर मौका देख कोई दुष्ट दस्यु धावा बोल दे सकता है आप पर? ’

‘हाँ, ऐसा हो सकता है। ’-स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाते हुए उपाध्यायजी ने कहा।

‘उस स्थिति में यथासम्भव संघर्ष भी करेंगे ही आप? ’

‘जरूर करेंगे। शक्ति और साहस रहते भर में गाड़ी छोड़ कर भाग थोड़े जो जायेंगे। ’

‘तो बस समझ लीजिये, यही है शरीर पर यानी आत्मा पर अन्य आत्मा का धावा बोलना। अधिक स्पष्टी के लिए इसे जीवात्मा कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। दूसरे शब्दों में इसे और भी स्पष्ट करें तो हम कहेंगे कि शरीर रूपी रथ से विहीन जीवात्मा, जिसे साधारण बोलचाल की भाषा में भूत-प्रेत कहते हैं, के द्वारा शरीरी जीवात्मा पर आक्रमण हुआ। इस प्रकार हमारा शरीर उन दो आत्माओं-एक जीवात्मा और दूसरे को सुविधा के लिये हम प्रेतात्मा कहेंगे, का युद्ध स्थल बन जाता है। ’- तिवारीजी ने इस दृष्टान्त द्वारा कथन की स्पष्टी दी। ‘इसका मतलब यह हुआ कि प्रेत-प्रभाव एक प्रकार का युद्ध है, न कि कब्जा? ’-उपाध्यायजी ने पुनः आशंका व्यक्त की।

‘नहीं, मात्र युद्ध नहीं है। इसे स्पष्ट करने हेतु आप पूर्व उदाहरण को ही लें- वह दस्यु आप पर घात करता है। आप उसका मुकाबला करते हैं। यदि आप युद्ध में पराजित हो जाते हैं तो उस स्थिति में वह आपकी गाड़ी पर अपना कब्जा भी जमा लेता है। गाड़ी जब तक उसके कब्जे में है, तब तक तो आप मालिक पद से च्युत ही कहे जायेंगे न? ’

‘लेकिन इससे भी हमारी मूल समस्या का निदान कहाँ हो पाया? ’

‘क्यों? ’-तिवारीजी आश्चर्य पूर्वक पूछे। क्यों कि बात बहुत साधारण सी थी, फिर भी उपाध्यायजी तर्क किये जा रहे थे।

‘एक शरीर में तो एक ही आत्मा रह सकती है- इस सिद्धान्त के अनुसार, तत्कालीन शरीर का स्वामी जीवात्मा कहाँ गयी, उतने समय के लिये जब तक कि उस पर किसी विजयी प्रेतात्मा का प्रभुत्त्व होता है? ’- नयी आशंका जतायी उपाध्यायजी ने।

‘ठीक उसी तरह, जिस तरह कि आपको अपनी गाड़ी से हटा कर वह दस्यु आ बैठा आपकी गाड़ी में, मूल जीवात्मा बाहर हो गयी परास्त होकर, एवं विजयी प्रेतात्मा का प्रभुत्त्व कायम हो गया। मगर युद्ध यहीं समाप्त नहीं हो गया। बल्कि सिर्फ ढंग बदल गया। पहले गाड़ी के बाहर वह था, और अब आप हैं। फिर भी आप प्रयास तो करेंगे ही पुनः अपने स्वामित्त्व हेतु? ’

‘हाँ, ऐसा तो होता ही है। हम झगड़ेंगे ही अपनी औकाद भर। ’

‘बस, तो समझ लें कि इसी प्रकार जीवात्मा और प्रेतात्मा का युद्ध भी चला करता है। व्यक्ति का शरीर युद्ध-क्षेत्र बन कर रह जाता है। यही कारण है कि प्रेत-ग्रस्त मानव परेशान रहता है। भटकती आत्मा एक स्थान पर जब अड्डा बना लेती है, फिर वहाँ से हटने का नाम नहीं लेती। ’-तिवारी जी ने स्पष्ट किया।

‘आखिर इसका हल क्या हो सकता है? ’- उपाध्यायजी ने पूछा।

‘हल वही है, जो प्रत्यक्ष दस्यु के लिये है, यानी पुलिस-अदालत...। ’

‘मतलब? ’

‘सुनिये, इसका भी तर्क स्पष्ट है। शत्रु को पराजित करने के लिए शाम, दाम, दण्ड, और भेद -चार प्रकार की नीतियाँ कही गयी हैं। प्रारम्भ में तो हम सामान्य अनुनय-विनय से उसे शान्त करने का प्रयास करते हैं। इससे काम नहीं बनने पर बड़ी शक्ति- देवी-देवता का शरण लेना पड़ता है। तन्त्र की क्रियाओं के क्रम में उभय पक्ष की दलीलें सुनी जाती हैं। पुलिस, प्रशासन, कारा, कचहरी आदि सभी व्यवस्था है। तदनुसार वकील, ताइद, मुन्शी, मजिस्ट्रेट आदि भी हैं। ओझा-गुनी, मुल्ला-तान्त्रिक अदालती कार्यकर्ता हैं। कैद और फांसी जैसी सजायें भी हैं-यानी बन्धन और मुक्ति की व्यवस्था है। ’

तिवारीजी के दृष्टान्त से उपाध्यायजी को सोचने पर विवश होना पड़ा।

कुछ देर मौन विचार-विमर्श में रहे। फिर बोले- ‘तब तो प्रेत-प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता? ’

‘नहीं। बिलकुल नहीं। प्रेत हैं ही। उनका प्रभाव है ही। तब रही बात शक्ति की। यहाँ शक्ति का अर्थ शारीरिक शक्ति मात्र तक ही सीमित नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शक्ति और सामर्थ्य से है। जो जितना शक्ति-सम्पन्न होगा, वह उतना ही सुरक्षित रहेगा, इन बाहरी चपेटों से। कारण कि भटकती आत्मायें सदा इस खोज में रहती हैं कि कब मौका मिले और धर दबोचें। ’

तिवारी का अकाट्य तर्क और अनूठा दृष्टान्त उपाध्यायजी को बरबस ही मौन बना दिया। हालांकि अभी भी उनके मस्तिष्क में अनेकानेक प्रश्न कुलबुला रहे थे। पर अधिक बहस उचित न समझ, प्रसंग बदल दिये।

‘रामदीन पंडित की बात यदि जंच रही है आपको, तब तो उपाय कुछ करना ही पड़ेगा। ’

‘मेरे इस तर्क का यह अर्थ नहीं कि आपकी राय को नजरअन्दाज कर, मैं उनकी बात मान ही लूँ। वे तो जालिया आदमी हैं। लोभ वश उल्टा सीधा जाल बुन जाते हैं। मेरा कहना सिर्फ इतना ही है कि यह सिद्धान्त गलत नहीं है। अतः पहले तो यह निश्चित होना चाहिये कि मीना सच में प्रेत-वाधा-ग्रसित है या मानसिक व्याधि से पीडि़त? ’-कहते हुए तिवारीजी, उपाध्यायजी की ओर देखने लगे।

‘आधि-व्याधि का निदान तो चिकित्सक कर ही रहे हैं। ’-रास्ते में सोये कुत्ते

को देख कर हॉर्न बजाते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘न हो तो कल ही डी.एम.ओ.साहब से भी बात कर ली जाए। वे एक अच्छे मनोचिकित्सक भी हैं। ’

‘सो तो होना ही चाहिए। सामान्य चिकित्सक के अलावे मनोचिकित्सक की राय जाननी भी आवश्यक है। किन्तु मेरा विचार है, एक बार किसी योग्य तान्त्रिक से भी परामर्श लिया जाता, तो अच्छा होता। ’

‘है कोई तान्त्रिक-गुनी आपकी जानकारी में? विचार है तो चला जा सकता है। राय-मशविरा करने में क्या हर्ज है? जहाँ तक तन्त्र शस्त्र का सवाल है, इस पर मुझे जरा भी अविश्वास नहीं है। यह तो सनातन विद्या है, पर, सवाल है योग्य तान्त्रिक का। आजकल तो ज्यादातर ठग-उचक्के ही मिलते हैं। धूनी रमा, दाढ़ी बढ़ा, रूद्राक्ष का बोझ गले में डाल, बन गये तान्त्रिक। उसमें भी कसर न रहे, इसके लिये कब्रगाह से खोपड़ी उखाड़ लाये। वह भी न मिला तो गाय-बैल की हड्डी ही रख लिये झोली में। एक दो बाजीगरी सीख लिये- मिश्री-छुहारा खिलाने का। इतने आडंबर के बाद, जाहिल जनता को उनके चक्कर में पड़ जाना आश्चर्य ही क्या? हाँ, यदि किसी सुख्यात, स्वनामधन्य राजनेता ‘भगवान’ की कृपा हो गयी, तो फिर उन्हें भी भगवान बनने में देर ही कितनी लगनी है। आप देख ही रहे हैं- आजकल कितने सारे भगवान अवतार ले लिये हैं। दुनियाँ में कोई काम न मिले तो सबसे आसान है- साधु बन जाना। आत्मा से महात्मा बन कर एकाएक उच्चपद प्राप्त कर लेना- जटिलो मुण्डी, लुंचित केशः, काषायाम्बर बहुकृत वेषः। पश्यन्नपि न च पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृत वेषः। । - के सिवा कुछ और तो नहीं? ’

उपाध्यायजी की उक्ति पल भर के लिये उदास मधुसूदन को गोपियों सी गुदगुदा गयी, मानों मधुसूदन का ही दर्शन हो गया हो। गाड़ी अस्पताल के प्रांगण में आ रूकी। विमल वरामदे में ही टहल रहा था। उन्हें आता देख आगे बढ़ आया।

‘क्या हाल है मीना का? ’- टिफिन बॉक्स विमल के हाथ में देते हुये, तिवारी जी बोले- ‘यह तुम्हारा खाना है। हमलोग घर से ही खा-पीकर आ रहे हैं। ’

विमल डब्बा लेकर आगे बढ़ गया वरामदे की ओर- ‘डी.एम.ओ.साहब आये हुये हैं। परीक्षण कक्ष में मीना को ले जाया गया है। ’

तिवारीजी के साथ-साथ उपाध्यायजी भी गाड़ी से उतर कर वरामदे में आ गये। बेंच पर बैठते हुये पूछे- ‘इस बीच उसके कमरे में नहीं गये तुम? ’

‘कहाँ जा पाया। आपलोग के जाने के बाद काफी देर बाद तक तो डॉक्टर ही पूछताछ करते रहे, एकान्त में। फिर वे जाने लगे तो मैंने उनसे मीना की स्थिति पूछा। बतलाये कि ठीक है, किन्तु अभी उसे बिलकुल ही एकान्त की आवश्कता है। मैं भी यहाँ अकेला बैठे बोर हो रहा था। अतः बाजार की ओर निकल गया। अभी दस मिनट पहले आया तो देखा कि उसका कमरा खाली है। सिस्टर से पूछने पर जानकारी मिली कि बड़े साहब आये हुये हैं, जाँच चल रही है। ’ -हाथ में खाने का डब्बा लिए, बेंच पर बैठते हुये विमल ने कहा। फिर डब्बे को रखते हुये तिवारी जी की ओर देख कर पूछा- ‘वहाँ रामदीन पंडित ने क्या कहा? ’

‘उनका तो अनुमान अजीब है। कहते हैं- प्रेत-वाधा ग्रसित हो गयी है। ’-उपाध्यायजी ने विमल की बातों का जवाब दिया।

‘प्रेत वाधा!’-चौंकते हुये विमल बोला- ‘तब इसका क्या उपाय है? मेरा अनुमान तो कुछ और ही था। मैंने कहा भी था आपलोगों से कि इसमें उन्हीं महानुभाव का कुछ कृत्य है। ’

‘खैर जो भी हो। अपना कुकृत्य कह थोड़े ही देता है कोई? अब तो जैसे नाच नचावें, नाचना ही पड़ेगा। ’-उपाध्यायजी ने कहा।

‘तुम जाकर पहले खाना खा लो बेटे। ’-तिवारीजी ने कहा ।

‘अभी तो आठ भी नहीं बजे हैं। ’-घड़ी देखते हुये विमल बोला- ‘बाद में खाया जायेगा। शाम में बाहर जाकर नास्ता कर आया हूँ। खैर, और कुछ सोचें-विचारें, आगे क्या करना है मीना के लिए। ’

‘तिवारीजी का विचार है- किसी अन्य योग्य गुनी से मिलने का। ’- विमल की बातों का जवाब देते हुये निर्मलजी ने तिवारीजी की ओर देखते हुये कहा-‘तब मधुसूदन भाई! योग्य तान्त्रिक आया आपके स्मरण में कोई? ’

‘मेरी नजर में तो कोई नहीं है। ’-मुंह बिचकाते हुये तिवारीजी बोले।

‘अच्छा पापा! उस बार की बात याद हो शायद आपको भी- हमलोग टांगीनाथ के दर्शन हेतु गये थे। वहाँ एक वयोवृद्ध सिद्ध योगी का भी दर्शन हुआ था। ’-सिर खुजलाते हुये विमल अपने स्मरण पर बल देते हुये बोला।

‘हाँ, हाँ, याद आयी। ’-प्रसन्न होकर उपाध्यायजी बोले-‘पहले तो हमारे दिमाग में यह बात न थी, किन्तु अभी तुमने कहा तो याद आ गयी। वे तो बहुत ही सिद्ध पुरुष हैं। प्रायः लोग आते-जाते रहते हैं उनके पास अपनी जटिल समस्याओं को लेकर। किन्तु मुश्किल है उनका दर्शन ही। हमेशा वे तो गर्भगत गुफा में तप-लीन रहते हैं। कभी कभार बाहर आते भी हैं तो जन- सम्पर्क से दूर ही रहना चाहते हैं। खैर, यदि विचार है तो प्रयास करने में क्या हर्ज? शायद मीना बेटी के भाग्य से दर्शन हो ही जाय। ’

‘सोचना क्या है। क्यों न हमलोग कल ही वहाँ चलें। ’-तिवारीजी ने प्रसन्नता पूर्वक कहा।

फिर थोड़ी देर इधर-उधर की बातें होती रही। ‘आया’ आकर निर्मलजी को

बुला ले गयी, जहाँ डॉक्टर लोग बैठे विचार-गोष्ठी कर रहे थे।

कक्ष में प्रवेश करते ही, बगल की एक खाली कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘मिस्टर उपाध्याय! इस प्रमाण के लिए कि मीना आपकी बच्ची है, आपके पास कुछ सबूत है? ’

डॉक्टर खन्ना की बात पर अचानक चौंक पड़े उपाध्यायजी। ऐसे प्रश्न के लिए वे उम्मीद भी न किये होंगे। मीना की स्थिति, एक वरिष्ठ पुलिस-पदाधिकारी से, उनकी बेटी को ‘बेटी’ होने का प्रमाण प्रस्तुत करने को वाध्य करेगी-स्वप्न में भी इसका गुमान न रहा होगा। पल भर के लिये मानसिक रूप से विचलित हो उठे। हृदय सिकुड़ता हुआ सा महसूस हुआ, मानों बरबरता पूर्वक उसे कस कर मुट्ठी में मींच लिया गया हो। धमनियों में एकाएक रक्त के स्थान पर लगा कि वर्फ के ठोस कण प्रवाहित होने लगे हों, या किसी यान्त्रिक अवयव के वाधा स्वरूप विटामीन ‘के’ की अचानक वृद्धि हो गयी हो, और तेजी से रक्त-स्कन्दन होने लगा हो। उन्हें समझ न आया कि क्या जवाब दिया जाय इस प्रश्न का। अतः कमरे में इधर-उधर दृष्टि दौड़ने लगे, किन्तु मीना वहाँ कहीं नजर न आयी। शायद किसी दूसरे कमरे में भेज दिया गया था उसे।

‘क्यों मिस्टर उपाध्याय! क्या सोचने लगे? ’-उनके चेहरे पर गौर करते हुए डॉ.सेन ने पूछा। प्रश्न की पुनरावृत्ति से तिलमिला से गये निर्मल जी, साथ ही इतने भाउक हो उठे कि बरबस ही उनकी आँखों के किनारे गीले हो आये। हकलाते हुये से बोले, मानों अपराधी का अपराध स्पष्ट हो गया हो-

‘मीना मेरे मित्र मधुसूदन तिवारी की बच्ची है। मैं इसे बचपन से ही प्यार करता हूँ। मेरी कोई बेटी नहीं है। मैं इसे अपनी बहू बनाने जा रहा था। इससे अधिक और क्या कहूँ? यदि इतने मात्र से मेरा जवाब पूरा न माना जायगा तो विशेष के लिए मुझे सोचना पड़ेगा। ’

‘घबराइये नहीं मिस्टर उपाध्याय। आप कोई मुजरिम नहीं हैं, और न यह कोई अदालत है। न आप पर कोई इलज़ाम ही है। किन्तु कभी कभी सत्य को भी सत्य सिद्ध करने के लिए सत्य की आवश्यकता होती है। हमलोगों के सामने भी कुछ ऐसी ही समस्या आ खड़ी हुयी है। यह सही है कि मीना तिवारी जी की बच्ची है। आप उसे बचपन से ही जानते ह®। उसे बहू बनाना चाहते हैं, किन्तु समस्या है कि वह आपलोग को अपना कहने से बिलकुल इनकार कर रही है। हमलोगों ने काफी प्रयास किया उसे समझाने का; किन्तु उसकी एक ही रट है- वह अपने मम्मी-पापा और पति को ढूढ़ रही है। किन्तु यह भी शत-प्रतिशत सत्य है कि उसके मस्तिष्क में भी किसी तरह का विकार नहीं हैं। ’- डॉ.खन्ना ने बात स्पष्ट की।

‘यदि कुछ भी विकृति नहीं है तो फिर ये सब क्या और क्यों हो रहा है? ’-साश्चर्य पूछा उपाध्यायजी ने।

‘इस सम्बन्ध में हमलोग पुनः बैठक करेंगे। अब तक के विचार- विमर्श से कुछ तथ्य सामने आये हैं। कल हमारे सहायक मिस्टर सेन ने एक पत्रिका दी थी उसे पढ़ने के लिए, जिस पर वर्तमान तारीख छपी थी। उसे देख कर मीना को आश्चर्य हुआ कि यह सत्रह वर्ष आगे की तारीख क्यों कर छपी है पत्रिका पर। वह अपनी समस्या को डॉ.सेन के सामने रखी। इसी क्रम में विगत सत्रह वर्ष पूर्व के पन्द्रह-सोलह वर्षों की बातें सुना गयी। यानी कि २५ मई १९६६ई.से लेकर पीछे की ओर लगभग १९५०-५२ई.तक की सभी घटनायें सिलसिलेवार ढंग से सुना

गयी। पर २५ मई १९६६ई. के बाद की बातें उसे कुछ भी याद नहीं है। यहाँ तक कि आज २५ मई १९८३ई. को भी वह १९६६ ई. ही समझ रही है। ’

‘आखिर आपलोग क्या अर्थ लगा रहे हैं डॉक्टर? ’-चिन्तित स्वर में पूछा उपाध्यायजी ने।

‘यह तो अभी विचाराधीन है। तदहेतु ही आपसे यथासम्भव कुछ प्रमाण प्रस्तुत करने को कहा जा रहा है। यदि उसके बचपन की तसवीर वगैरह कुछ उपलब्ध हो, जिससे उसे विगत सत्रह वर्षों की बात समझायी जा सके, विश्वास दिलाया जा सके तो हो सकता है कि कुछ काम बने। ’-डॉ.खन्ना ने स्पष्ट किया।

तसवीर की बात पर उपाध्यायजी के दिमाग में कई तसवीरें घूम गयी। पिछली बार मंझलू की शादी में बहुत सारी तसवीरें खीची गयी थी। उम्मीद है, उनमें मीना भी होगी ही। इसके अलावे स्कूल के वार्षिकोत्सव में मीना प्रायः हर वर्ष भाग लेती ही रही है -सोचते हुए कहा निर्मलजी ने- ‘ठीक है, इसके लिए मुझे मौका दिया जाय। घर जाकर देखता हूँ। एलबम में इसका चित्र अवश्य मिल जाना चाहिये। ’

‘ठीक है, आप जायें। कल ग्यारह बजे तक ये सब एकत्र कर हमसे मिलें। तब तक हमलोग भी विचार करेंगे इस सम्बन्ध में। ’-कहा डॉ.खन्ना ने।

‘अभी कहाँ है मीना ? ’ -खड़े होते हुये उपाध्यायजी ने पूछा।

‘बगल कमरे में है। अभी आपलोगों से उसका मिलना उचित नहीं जान पड़ता। ’-डॉ.खन्ना के कथन पर मायूस हुये उपाध्यायजी कक्ष से बाहर निकल गये।

तिवारीजी के पूछने पर सारी बात बतलायी उन्हें निर्मलजी ने। वहीं बैठा

विमल खाना खा रहा था। हाथ धोते हुए बोला- ‘पापाजी! मीना की तसवीरें तो बहुत सारी हैं। साथ ही एक और चीज की मुझे ध्यान आ रही है। ’

‘सो क्या? ’- उत्सुकता पूर्वक एक साथ तिवारीजी और उपाध्यायजी दोनों ही बोल पड़े।

विमल ने बतलाया- ‘मीना हमेशा डायरी लिखा करती है। सच पूछिये तो वह डायरी नहीं बल्कि एक मोटी पुस्तिका है- उसके जीवन-वृत्त की। ’

‘तुम कैसे जानते हो? ’-निर्मल जी ने पूछा।

‘रखती तो उसे वह बड़े यत्न से है। जी-जान से बढ़ कर उसकी हिफाजत करती है। किसी को छूने नहीं देती। पर एक बार मुझे कुछ शंका हुयी, तो उसके पीछे पड़ गया। बड़ी कठिनाई से हाथ लगी। विशेष पढ़ तो न पाया, पर यूँ ही जहाँ-तहाँ से पलट कर देखा। बहुत सी रहस्य मय बातें अंकित थी उसमें। यदि मिल जाय तो हो सकता है कि उसके जीवन की कुछ गुत्थियाँ सुलझ सकें। ’- कहता हुआ विमल तिवारी जी की ओर देखने लगा।

‘आखिर कहाँ ढूढ़ूँ उस पुस्तिका को? चार हाथ के घर में कौन सी ऐसी जगह है, जहाँ छिपा कर रख सकती है? ’-तिवारीजी ने असमर्थता जाहिर की।

‘कहीं दूर ढूढ़ने की जरूरत नहीं। एक दो अनुमानित स्थान बतला रहा हूँ। वहीं देखा जाय। ’-मुस्कुराते हुये विमल बोला।

‘बतलाओ, कौन सी जगह है वह? ’-उत्सुकता पूर्वक पूछा तिवारी जी ने।

‘सबसे पहले तो आप जिस चौकी पर सोते हैं, उसी के दराज में देखें। दूसरा स्थान है- उस बांस की चचरी पर रखा, उसकी माँ का बक्सा, जिसमें से अंगूठी निकालते समय वह नीचे गिरी। ’-विमल ने स्पष्ट किया। तिवारीजी थोड़े चकित भी हुये, विमल की सूक्ष्म परख पर।

‘लेकिन यह काम यथाशीघ्र हो जाना चाहिये। कल प्रातः दस-ग्यारह बजे तक डॉक्टर ने कहा है- इन सामानों को प्रस्तुत करने के लिये। ’- निर्मल जी ने समय का ध्यान दिलाया।

‘एक बात और- शीघ्र ही इधर से निवट कर टांगीनाथ के महात्माजी से मिल लेना भी आवश्यक है। ’- तिवारीजी ने याद दिलायी।

‘इसमें लगा ही क्या है। वैसे भी डॉक्टरों के कथनानुसार अभी हम लोगों का यहाँ रहना, न रहना बराबर है। क्यों न इसी समय चल कर यह काम निपटा लिया जाय? ’- घड़ी देखते हुये निर्मलजी ने कहा- ‘अभी तो मात्र नौ बज रहे हैं। यहाँ रह कर करना ही क्या है? सुबह ही आया जायेगा। ’

‘तो फिर चला जाय। ’-विमल ने कहा।

थोड़ी देर में सभी चल पड़े वापस। रात्रि के गहन अन्धकार को चीरती अपनी दोनों भयंकर आँखों से जंगल को निहारती हुयी उपाध्यायजी की गाड़ी चल पड़ी, सड़कों की धूल फांकती प्रीतमपुर की ओर।

कोई दस बजे ये लोग वहाँ पहुँच गये। पूर्व विवाह वाला एलबम निकाला गया, जिसमें लगे प्रायः हर फोटो में मीना उपस्थित थी- कहीं साड़ी में, कहीं सलवार में, कहीं घांघरा में, तो कहीं मैक्सी में....। विमल के भी फोटो थे कहीं-कहीं। चित्रों की भाव-भंगिमा, पल भर के लिए अतीत में झांकने को विवश कर गया विमल को, अन्य को भी। एक फोटो ऐसा भी मिला- मिला क्या, आतुरता में विमल ने स्वयं ही निकाल कर दिया- अपनी डायरी से-विमल और मीना की युगल छवि, जिसमें दोनों ही किसी बगीचे में गाड़ी के पास टेका लगाये खड़े थे। मुस्कुराते हुये विमल एक फूल दे रहा था मीना को। मुस्कुराती मीना हाथ बढ़ा कर उसे ले रही थी। तभी कैमरे की आँखों ने गुस्ताखी कर दी।

विमल ने बतलाया- ‘यह फोटो मैंने भैया की शादी के बाद ऑटोमेटिक कैमरे से लिया था, पीछे वाले बगीचे में। ’

इन सारे चित्रों से निर्मलजी को बहुत सारे हरित चित्र नजर आने लगे। आशालता, जो पिछले समय से कुम्लायी सी थी, सावन की फुहार से चुलबुलाने सी लगी।

चित्र-मंजूसा को सहेज कर गाड़ी फिर दौड़ पड़ी माधोपुर की ओर।

वहाँ पहुँचकर सी.बी.आई. की खोजी निगाहों से पल भर में ही पूरे कमरे का निरीक्षण कर डाला विमल ने; किन्तु पूर्व कथित दो स्थानों के सिवा तीसरा कोई स्थान नजर न आया, जहाँ वह पुस्तिका हो सकती थी।

पेशेवर तस्कर सा एक ही हाथ से उमेठ कर दराज का ताला तोड़ डाला, कारण कि उसकी चाभी मीना के पास रहा करती थी। परन्तु उसमें मिला कुछ भी नहीं।

अगली चढ़ाई थी चंचरी पर। वहाँ दो बक्से रखे हुये थे। एक की चाभी तो तिवारीजी के जनेऊ में सदा बंधी रहती थी, उसमें तो होने का सवाल ही नहीं था। दूसरे बक्से की मालकिन थी मीना। उसकी चाभी का भी पता नहीं था, फलतः ताला तोड़ना ही पड़ा।

बक्सा खोला गया। उसे देखने में तिवारीजी लम्बे-ठिगने अतीत की कई झांकियाँ देख गये। कुछ देर के लिए खो से गये उन्हीं झांकियों में। आम्रमूल पर पड़ी नवजात बालिका से लेकर वर्तमान मीना तक की छवि नजर आयी बक्से के कोने-कोने में।

विमल एक-एक कर बक्से से समान निकालता रहा। उलट-पुलट कर देखता भी रहा- कहीं कुछ और सबूत भी मिल जाय। तिवारी जी का ध्यान तो तब भंग हुआ, जब विमलके मुंह से उल्लास भरा स्वर निकला- ‘यह रहा बापू! ’- कहते हुये पीले कपड़े में बंधी एक मोटी सी पुस्तिका तिवारीजी के हाथ में दे दी।

निर्मलजी ने उसे तिवारीजी के हाथ से लेकर उलट-पुलट कर देखा-

‘वाह! क्या व्यवस्था है मीना बेटी की, किसी सामान को सहेज कर रखने की। ’

विमल अपनी उत्सुकता का संवरण नहीं कर पा रहा था। उसे तब से ही जिज्ञासा थी, उस डायरी को पढ़ने की, जब पहली बार मीना की आँख बचा कर निकाला था दराज से, किन्तु जल्दबाजी में पढ़ न पाया था।

‘पढ़ कर देखिये न पापा! क्या लिखी है इसमें। ’-विमल ने कहा।

‘छोड़ो अभी क्या हड़बड़ी है। पहले सारे प्रमाण तो जुटाओ। ’- कहते हुये निर्मलजी हाथ में पुस्तिका लिए बाहर निकल आये।

छोटू सो चुका था। उपाध्यायजी को आया देख तिवारीजी की दोनों बहनें भीतर आंगन की ओर चली गयी थी।

‘किवाड़ बन्द कर लेना। हमलोग जा रहे हैं। कुछ जरूरी कागजात के लिए आना पड़ा था। ’-कहते हुये तिवारीजी कमरे से निकल गये बाहर। साथ ही उत्कंठा दबाये विमल भी बाहर आ गया।

इन लोगों की अगली मंजिल थी- उधमपुर विद्यालय।

वहाँ पहुँचते-पहुँचते पूनम के चांद का मंझला भाई ‘शुक्र’ पूर्व क्षितिज पर झांकने चला आया था। उसे आश्चर्य हो रहा था कि आज अवकाश प्राप्त अधीक्षक इतने दिनों बाद मेरा साथ क्यों देने आया है।

हांफती हुयी गाड़ी पहुँच गयी उधमपुर विद्यालय के फाटक पर। गाड़ी का तेज हॉर्न सुन ऊँघता हुआ चौकीदार तन कर मूंछें फहराने लगा। भय के मारे शरीर से ओस की बूंदें टपक कर इस बात को प्रमाणित करने लगी कि बेचारा अब तक शीत में खड़ा रहा है। इतने दिनों से सेवा में है, पर कभी भी धोखा न हुआ- हरामखोरी का। आज अभागा पकड़ाया भी तो सीधे रंगे हाथ सेक्रेटरी साहब से ही। झेंपता हुआ दांत निपोर, पलटन सा पांव पटक सलामी दागा।

‘प्रधानाध्यापक को जानकारी दो, मेरे आने की। ’-गाड़ी में बैठे ही बैठे कहा उपाध्यायजी ने।

प्रहरी चल पड़ा विद्यालय के पीछे बने आवास की ओर। थोड़ी देर बाद हांफते हुये से प्रधानाध्यापक महोदय पधारे।

‘कहिये। इस असमय में याद किये? ’-हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुये कहा उन्होंने।

‘हाँ, कुछ ऐसी ही बात आ पड़ी। ’- कहते हुये गाड़ी से उतर कर निर्मलजी नीचे आये, साथ ही विमल और तिवारीजी भी।

‘प्रणाम गुरूजी। ’-विमल ने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया, तो चौंक पड़े प्रधानाध्यापक।

‘अरे विमल! तुम!! बहुत बड़ें हो गये हो। कहाँ रह रहे हो आजकल? ’- पूछा प्रधानाध्यापक महोदय ने। फिर बातें करते सभी चल पड़े विद्यालय भवन की ओर।

प्रधानाध्यापक ने पहले तो माफी मांगी- वैवाहिक कार्यक्रम में अनुपस्थित रहने के कारण, फिर पूछा आगमन का उद्देश्य। संक्षिप्त रूप से कुछ बातें बतलायी उपाध्यायजी ने और विद्यालय के वार्षिकोत्सव में लिये गये चित्रों की संचिका की मांग की।

‘यहाँ तो बहुत सारे फोटों हैं। प्रायः प्रत्येक समारोह में विमल और मीना भाग लेते ही रहे हैं। और मात्र चित्र ही नहीं, बल्कि जैसा कि आप जानते ही होंगे- मीना एक कुशल संगीतज्ञा भी है। अतः उसके द्वारा गाये भजन और अन्य गीतों के कैसेट भी मौजूद हैं। ’- दफ्तर में पहुँच, आलमारी खोलते हुये कहा प्रधानाध्यापक महोदय ने, जिसे जान कर सभी को काफी प्रसन्नता हुयी।

‘तब तो पर्याप्त प्रमाण हमलोगों को प्राप्त हो गये- लिखावट, चित्र और आवाज भी...। ’- प्रसन्न मुद्रा में कहा तिवारीजी ने। उन्हें विश्वास हो आया कि इन सारे पुष्ट प्रमाणों के बागडोर में बाँध कर मीना को निरापद वापस ला सकते हैं अपनी बेटी के रूप में।

कोई २०-२५ फोटो-फ्रेम, १०-१२ कैसेट, मोटी सी पुस्तिका और दो एलबम आदि सामग्री लेकर निर्मलजी पुनः अपने घर प्रीतमपुर पहुँच गये। यह सब काम निपटाते काफी रात बीत गयी। घड़ी देखते हुये उन्होंने कहा- ‘अब तो पौने तीन बज गये। क्या विचार है तिवारीजी! एक दो घंटे विश्राम कर लिया जाय? गत रात भी विश्राम न हो पाया था। ’

तिवारीजी ने हामी भरी। और थोड़ी ही देर में सभी विस्तर के मेहमान हो गये। परन्तु सिर्फ मेहमान ही बन पाये। नींद कोसों दूर थी। सबके दिमाग में अपनी-अपनी चिन्तायें थी।

सबेरा होने पर प्रातः कृत्य, जलपानादि से निवृत्त हो तीनों चल पड़े पुनः जशपुर नगर की ओर। चलते समय विमल अपना टेपरिकॉर्डर साथ ले लिया था।

गाड़ी चल पड़ी तो विमल ने भजनों का एक कैसेट, जो मीना और विमल की युगल बन्दी में गाया गया था, लगा दिया। संगीत की मदिर रागिनी वातावरण के आलस्य को दूर खदेड़ने लगी। काफी देर तक मधुर रागिनी की गूंज में सभी आप्लावित होते रहे। भावविभोर रहे।

विमल की उत्कंठा अभी भी बनी हुयी थी- मीना की रहस्यमयी पुस्तिका को पढ़ने की, किन्तु रात में भी उपाध्यायजी उसे अपने पास ही रखे रह गये। फलतः उसे मौका न मिला।

रास्ते भर विमल सोचता रहा- ‘अब निश्चित है कि इन सारे प्रमाणों से मीना अवश्य पहचान जायेगी। पुरानी बातें याद आ जायेंगी। मतलब आज का दिन उसके विरह-तड़पन और कसक का आखरी दिन है। ’

अस्पताल के प्रांगण में प्रवेश करते समय सबके चेहरे पर प्रफ्फुलता की चमक थी। साथ लाये सामानों को सहेज कर, तीनों जन चल पड़े कक्ष की ओर। हालाकि डॉक्टर के आने में अभी घंटे भर देर थी। पर उत्सुकता वश कोई ठहर न पाये बाहर। मगर अफसोस- वहाँ पहुँचने पर कुछ और ही ज्ञात हुआ।

इनके पूछे वगैर ही वार्डनर ने कहा- ‘रात आपलोगों के जाने के बाद फिर साहब लोगों ने मीटिंग की। उस समय आपकी मरीज भी वहीं थी। काफी समझाया-बुझाया गया। शुरू में तो वह सीधे तौर पर बात सुनती रही। किन्तु बाद में काफी हो हल्ला मचाने लगी। गुस्से में डॉक्टरों को ही उल्टा-पुल्टा सुनाने लगी। यहाँ तक कि पुलिस में रिपोर्ट लिखाने की धमकी देने लगी। इससे भी जी न माना तो आत्महत्या करने की बात करने लगी। अन्त में किसी तरह कुछ कह समझा कर या शायद नींद की सूई दे कर लोग ले गये हैं यहाँ से राँची। बड़े साहब भी साथ में गये हैं। ’

वार्डनर की बात सुन विमल को तो मानो गश आ गया।

‘हमलोग के बारे में कुछ नहीं कहा साहब ने? ’-उदास, मन मारे पूछा तिवारी जी ने।

‘बोले, उनलोगों को शाम में मिलने बोलना। तब तक आ जायेंगे राँची से लौट कर। ’-जवाब सुन तीनों एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।