पुनर्भव / भाग-21 / कमलेश पुण्यार्क

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‘हाँ-हाँ, तुम कह रही हो तो याद आगयी। उस बार तुम बतलायी जरूर थी- अपनी पुस्तैनी कहानी, किन्तु उसे तो मैं उस समय कोरी कहानी ही समझ लिया था, फलतः ध्यान न दिया। वैसे भी जरूरत ही क्या थी मुझे उस धरोहर की जिसकी मालकिन ही न हो? ’- मुस्कुराते हुये कहा कमल ने और पलट पड़ा उस कमरे की ओर जहाँ बैठे बाकी लोग गप्प लड़ा रहे थे। तन्त्र और विज्ञान की दुहाई दी जा रही थी।

भीतर वरामदे से होकर, मीना अन्य कमरों को खोलने का प्रयास करने लगी।

मकान बहुत दिनों से बन्द है। यूँ अकेली अन्दर जाना उचित नहीं है मीना। ’- कहा तिवारीजी ने और उठ कर उसके पीछे हो लिये।

‘उन सबकी अभी चिन्ता छोड़ो मीनू। जो है सो तो होगा ही। समयानुसार उनका उपयोग करना। अभी तो जरूरत है- स्नान वगैरह की। चौकी से उठकर, भीतर के वरामदे में झांकते हुये निर्मलजी ने कहा। फिर कमल की ओर मुखातिब हुये- ‘पानी-वानी की क्या व्यवस्था है यहाँ? ’

‘पाइपलाइन तो कब का कटा हुआ है। यहाँ ऊपर वरामदे में एक चापाकल है, वह भी बन्द पड़ा हुआ है। शायद ही काम दे। नीचे लॉन में एक कुआं है, जिससे जुड़ा है एक हैन्डपाइप- उसे तो कामयाब होना चाहिए। अभी परसों ही सुराही में पानी लाया था। ’-कहते हुये कमल नीचे की ओर चला गया सीढि़यां उतर कर- ‘मैं अभी आया देखकर। ’

उपाध्यायजी वरामदे के द्वार पर ही खड़े रहे। कमल के नीचे जाने के बाद डॉ.खन्ना भी उठकर वहाँ तक आये, और दोनों साथ चल पड़े भीतर, जिस ओर तिवारीजी और मीना गये थे। ऊपर के सभी कमरों को बारी-बारी से मीना खोलती जा रही थी। किसी में बक्से, किसी में फर्नीचर, किसी में अन्य टूटे-फूटे असबाब- सबके सब अस्त-व्यस्त स्थिति में विखरे पड़े थे, जिन पर धूल का मोटा आवरण चढ़ा हुआ था।


‘ओफ! इन सबकी सफाई में तो हफ्तों लग जायेंगे। ’-कहती हुयी मीना भीतर की छोटी सीढ़ी से नीचे तहखाने में ऊतर गयी। बाकी लोग भी पीछे-पीछे आ गये। वहाँ की स्थिति और भी बदतर थी। बामुश्किल चार आदमियों के खड़े होने भर छोटी सी जगह थी, जिसकी दीवारों में चारों ओर विचित्र तरह की तिजोरियाँ जड़ी हुयी थी। न कहीं ताली लगाने की जगह थी, और न कोई मुट्ठा ही नजर आ रहा था। वस लक्ष्मी-गणेश की उभरी हुयी एक जोड़ी थी। उपाध्याय जी की पुलिसिया आंखें खुशी से चमकीं - ‘बड़ी तिलिस्मी कारीगरी है। ’ फिर मीना की ओर देखते हुये बोले- ‘इन्हें खोलने की विधि भी मालूम है तुम्हें या कि...? ’

गणेश की सूंढ़ और लक्ष्मी के उल्लू पर एक साथ मीना ने अपने हाथ रखे, कसकर दबाया, और चरमरा कर पल्ला खुल गया। तिवारीजी की आँखें चौंधिया गयी- फूल के कटोरे में सिर्फ असर्फियाँ भरी हुयी थी। बगल में पीतल की एक संदूकड़ी भी थी, जिसे खोलकर मीना ने दिखाया- हीरे, जवाहिरातों से भरा हुआ था। दाहिनी ओर की तिजोरी पर इशारा करती हुयी मीना ने कहा- ‘इसमें मेरी दादी के असबाब हैं, और इसके बगल में मेरी परदादी के। इस पश्चिम वाली तिजोरी में सिर्फ जड़ाऊँ जेवर हैं, जिन्हें मम्मी ने खास मेरे विवाह के लिए रख छोड़ा था। ’

‘चलो देख लिया। अब आही गयी हो तो इत्मिनान से सफाई और व्यवस्था करती रहना। ’- उपाध्यायजी ने कहा। डॉ.खन्ना ने भी यही बात दुहराई।

‘बाकी काम तो होता ही रहेगा बाद में, अभी कम से कम बैठक की सफाई कर लूँ। आखिर इतने लोग रहेंगे कहाँ? ’- कहती हुयी मीना तहखाने से बाहर आ गयी। तब तक कमल भी आ चुका था, नीचे का मुआयना करके- ‘चलिये आपलोग स्नान कीजिये। नीचे का हैन्डपाइप दुरूस्त है। ’

कमल की बात सुन सभी चल पड़े नीचे स्नानादि के लिए। उदास, मन मारे विमल भी सबका साथ दिया। इधर मीना और कमल मिलकर पुराने कपड़े से ही झाड़बुहार कर बैठक को कुछ कामयाब बनाये। इसके बाद मीना ने भी स्नान किया। बदलने के लिए कुछ कपड़े शायद थे नहीं, पर मीना द्वारा जोर दिये जाने पर तौलिया पहन कर कमल ने भी स्नान किया। इसे ठीक से याद भी नहीं- आज कितने दिनों बाद स्नान किया है। इन सबसे निवृत्त हो सभी निकल पडे़ बाजार की ओर, कारण कि भोजन की व्यवस्था तो यहाँ अभी सम्भव न थी।

भोजनादि से निवृत्त हो, निर्मलजी ने कई आवश्यक सामान तात्कालिक उपयोग के लिए खरीदे, साथ ही कमल के लिए भी रेडीमेड कपड़े। हालाकि मीना ‘ना-ना’ कर रही थी, पर यह कह कर टाल दिया उपाध्यायजी ने-

‘तुम्हें जो करना है, बाद में करती रहना। आखिर इतना भी क्या मेरा हक नहीं बनता? ’

‘अधिकार तो बहुत कुछ है। ’-मुस्कुराते हुए कमल ने कहा।

तभी मीना बोली-‘अधिकार-कर्तव्य पर व्याख्यान आप बाद में देंगे। पहले यह तो कहिये योगी जी कि यह औघड़ी चोंगा अभी कब तक धारण किये रहियेगा? ’

मीना की बात पर सभी हँस दिये। कमल का हाथ पकड़, मीना एक सैलून में घुस गयी। फुटपाथ पर चलती निगाहें बरबस ही खिंच गयी उस नवोदित लैला-मजनू पर, जो मजनू का सिर मुड़ाने सैलून में घुस रही थी।


इन सबसे निपटकर दोपहर बाद सबकी बैठकी लगी बैठक में। तिवारीजी की ओर देखते हुये कहा उपाध्यायजी ने-‘क्यों तिवारीजी! अब क्या सोंच रहे हैं? ’ महात्माजी की बात तो बिलकुल सही उतरी। अतः उनकी वचनवद्धता के अनुसार क्या करना है अब आगे, खुद ही सोच सकते हैं। ’

मुस्कुराते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘सिर्फ महात्माजी की बात ही क्यों? मीना तो विज्ञान के लिए भी चुनौती ही बन गयी थी, जो कि अब सही उतरी है बिलकुल- हम चिकित्सकों की राय। इसी उत्सुकता ने मुझे यहाँ तक खींच लाया। अब रही बात आगे की। जैसा कि मीना ने कहा था, उस मुताबिक भी इस स्थिति में अब इसे वापस ले चलने या पुनर्चिकित्सा कराने का कोई तुक ही नहीं। वैसे भी चिकित्सा से लाभ नहीं के बराबर ही है। मान लें लाभ हो भी जाय, फिर भी तो एक के साथ महान अन्याय होगा। ’-डॉ.खन्ना का इशारा कमल की ओर था।

‘और बेचारे तिवारीजी, इनका क्या होगा, जिनकी आँखों की ज्योति है एक मात्र बच्ची? ’- उपाध्यायजी ने चिन्ता व्यक्त की।

‘मेरे विचार से इसका उपाय अति आसान है- कमल के रूप में मीना को पति मिल गया, किन्तु पापा तो अब रहे नहीं। आखिर इस रिक्त पद की पूर्ति तो होनी ही चाहिये न, जब कि पात्र मौजूद हो? ’-डॉ.खन्ना ने एक बार सबकी ओर निगाह डाली, और आ टिकी मीना पर।

‘इस विषय में मैं भी कुछ कहना चाहती हूँ। ’- अन्य लोग सोच ही रहे थे, कुछ कहने को कि मीना बोल उठी- ‘सच पूछिये तो इस जन्म की कहानी आपलोगों की जुबानी सुन कर, सर्वाधिक दया आयी तो वापू पर। बेचारे वृद्ध व्यक्ति को मानसिक क्लेश पहुँचाना मेरे लिए असह्य हो रहा था, फिर भी जानबूझ कर मैं कुछ कड़ा रूख किये रही, वरना यदि वहीं नरम हो गयी रहती तो निश्चित था कि यहाँ कमल तक पहुँच न पाती। यहाँ आकर अपने पुराने अधिकार को प्राप्त कर ली, अधूरे कर्त्तव्य को पूरा करने का मौका मिल गया, मगर अफसोस के साथ कि मेरी खुशियों को देखकर थिरकने वाले मम्मी-पापा अब रहे नहीं। अतः डॉ.अंकल इसमें मुझे क्योंकर एतराज हो सकता है? मेरे वापू अब भी वापू ही रहेंगे, और मैं उनकी मीना तिवारी ही रहूँगी। ’- कहती हुयी मीना लिपट पड़ी सामने बैठे तिवारीजी से।

निर्मलजी एवं डॉ.खन्ना करतल ध्वनि करने लगे। हर्षातिरेक से तिवारीजी की आँखों में आनन्द के मोती छलक आये। काफी देर तक लिपटे रहे, मीना को गोद में चिपकाये हुये। उन्हें अपना खोया हुआ साम्राज्य वापस मिल गया। कमल भी वाह-वाह कर उठा। पर बेचारा विमल? वह क्या करता उसके हृदय में हाहाकार मचा हुआ था। मस्तिष्क में हाईड्रोजन बम का विस्फोट हो रहा था। सारी दुनियाँ- ठोस दुनियाँ, तरल दुनियाँ गैस बनकर उड़ती नजर आ रही थी। जी में आया छलांग लगा जाये इस मकान से ही या दौड़कर गंगा में गोता लगा ले, या कि थोड़ा और आगे बढ़कर पटरियों पर ही सो रहे, और धड़धड़ाती हुयी रेलगाड़ी आये और विखेर जाय उसके लोथड़े को दुनियाँ-जहान में- अपमानाग्नि-दग्ध सती के लोथड़े की तरह। लोग जान जायें- एक प्रेमी ने आत्मदाह किया है- अपमान की ज्वाला में, विरह की अग्नि में....।

तिवारीजी के सीने से अलग होकर मीना मुखातिब हुयी उदास विमल की ओर। विमल की उदासी भी उससे देखी न जा रही थी, पर विकल्प भी सूझ न रहा था। अतः साहस जुटा कर उसे सान्त्वना देने का प्रयास करने लगी- ‘मिस्टर विमल! आपसे मेरी करवद्ध प्रार्थना है, मेरी धृष्टता को क्षमा करें। मैं मानती हूँ कि आपने मुझसे प्यार किया। मेरे दिल के दीये में प्यार के दीप जला कर अपने दिल के दीपाधार पर रखा आपने; यहाँ तक कि शादी की अंतिम मंजिल तक पहुंचाने का प्रयास किया- उस प्रेमदीप को। पर दैव को शायद स्वीकार न हुआ। दुर्घटना के वयार में आपका प्रेमदीप विध्वंस का मसाल बन गया। यदि यह आंधी कुछ ठहर कर चली होती, और मेरी चुनरी आपकी चादर से बन्ध चुकी होती, उस परिस्थिति में एक भारतीय नारी के विमल आदर्श का निर्वाह मुझे सिर पटक कर भी करना ही पड़ता, क्यों कि सप्तपदी के वचनों का निर्वाह ही भारतीय नारी का परम कर्त्तव्य है। मगर अफसोस, न तो वापू ने कन्यादान ही दिया, और न मैंने फेरे ही लगाये। यदि मेरे-आपके आपसी वाग्दान के विषय में कहा जाय तो वह भी निरर्थक ही साबित होगी....। ’

मीना कहती रही। विमल के मानस पटल पर कई छवियाँ उभरती रहीं-

बकरियों को मृगछौना कहने का रहस्य...गाड़ी में बैठी मीना का विमल को गौर से निहारे जाने का रहस्य...लिपट पड़ने का रहस्य...उस दिन प्रातः आंगन में खाट पर पड़ी मीना के अस्फुट प्रलाप का रहस्य...सबके सब आज विमल को बिन बतलाये ही समझ आते रहे, आते रहे।

मीना कहती जा रही थी- ‘....आप अभी युवा हैं। पढ़े लिखे समझदार हैं। अतः इस तथ्य को स्वयं अपने तर्क-तुला पर तौल कर, विवेक की कसौटी पर कस कर देख सकते हैं कि मेरा यह ‘कथन-कनक’ कितना खरा है। अतः मैं आपसे निवेदन करती हूँ कि आप अपने अल्पकालिक प्रेम को पानी के बुदबुदे सा, स्वप्न के महल सा समझकर, किसी दिव्यांगना से सुमधुर स्नेह-सूत्र जोड़ने का प्रयास करें, ताकि गमगीन स्थिति से मुक्ति पाकर स्वर्णिम भविष्य की सरणी में पदार्पण कर सकें। ’

‘विमल बेटे! तुम्हें इसके लिए बुरा नहीं मानना चहिए। मीना बेटी सही कह रही है। सच्चे प्रेम-प्रसून में स्वार्थ का कीट नहीं होता है। यदि मीना से तुम्हें सच्चा प्यार है, फिर उसके वास्तविक सुख से तुम्हें भी खुशी होनी चाहिए। यह सही है कि तुमने उससे प्यार किया। तुम्हारे प्यार का प्रत्युत्तर भी उससे मिलता रहा। पर वह स्थिति बदलद चुकी है। अतः इससे निराश नहीं होना चाहिए। विपरीत समय में धैर्य और विवेक का सहारा लेना चाहिए। कहा भी गया है- धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परीखिय चारी। ’- कहा उपाध्यायजी ने विमल को समझाते हुए और मन ही मन मीना की वौद्धिक प्रखरता की व्याख्या करने लगे। सोचने लगे- यह सच है कि सात साल की बच्ची गम्भीर दर्शन नहीं वघार सकती। सेक्सपीयर के सोनेट की व्याख्या नहीं कर सकती, और न ‘मानस’ का ज्ञान-भक्ति निरूपण ही उसके माथे में घुस सकता है। पिता की आर्थिकता का डायग्राम भी क्या वह खींच सकती है? वास्तव में इसके पीछे उसके पूर्व जन्म की धूमिल स्मृति ही कार्यरत थी- ‘शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे’ के अनुसार, जो इस दुर्घटना के पश्चात् पूर्ण स्वच्छ हो गयी।

तिवारीजी ने भी कहा, समझाया- ‘विमल बेटे! तुम इतना अधीर मत होओ। तुम विद्याधन सम्पन्न हो। सुन्दर रमणियों से जगती शून्य नहीं है। पाल-पोस कर बड़ी की गयी सन्तान कभी-कभी असमय में ही गुजर जाती है; किन्तु इससे सन्तति-प्रथा का निरोध नहीं हो जाता। तुम यही सोच कर संतोष करो कि मीना तुम्हारे जीवन के रंगमंच पर अल्पकालिक नटी की तरह आयी। प्रेम का वह रंगीन नाटक अब समाप्त हो गया। ’

डॉ.खन्ना ने भी काफी समझाने-बुझाने का प्रयास किया विमल को। किन्तु इन सबकी बातें तीखे तीर सी चुभती रही थी उसके हृदय में। फलतः वहाँ बैठे रहना उसे अच्छा न लगा। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ को कोसता हुआ, सीढि़यां

उतर, नीचे आ सूने लॉन में टहलने लगा, जो उसके सूने जीवन सा ही शून्य प्रतीत

हो रहा था।

वह सोचने लगा- ‘इस उजाड़ से विस्तृत लॉन में तो अब फिर से हरियाली छा जायेगी, कारण कि उसकी मालकिन अब चली आयी है- अपना धरोहर सहेजने किन्तु मेरी जीवन-वाटिका को अब कौन सींचेगा अपने प्यार के मधुर फुहार से? मीना को अपने मन-मन्दिर में बिठाकर देवी की तरह पूजा हूँ अब तक। एक से एक सुन्दर तारिकाओं का साहचर्य मिला, किन्तु मीना की तुलना में वे सब तुच्छ सी जान पड़ी। इन्हीं विचारों के क्रम में याद आ जाते हैं- रामदीन पंडित, और क्रोध से नथुने फड़कने लगते हैं ‘वह मक्कार ढोंगी तान्त्रिक! लगता है- उच्चाटन प्रयोग कर दिया है। मेरी सुख-शान्ति का उच्चाटन हो गया है। हाय मेरी मीना! मेरी शान्ति!! मेरा सुख! मेरा सुकून!!....’


इन्हीं विचारों में गुमसुम अभी वह टहल ही रहा था लॉन में, तभी बाहर गेट के पास एक टैक्सी आ खड़ी हुयी। उसमें से उतरे दो सज्जन- एक न्यून षोड़शी के साथ। विमल की निगाहें बरबस चिपक गयी उस बाला से। मुख से स्पष्ट स्वर फूट पड़े- ‘अरे यह कौन है? नैन-नक्श, रूप-लावण्य की साम्राज्ञी, एक ही कलाकार के हाथों निर्मित दूसरी प्रतिमा- यह तो हू-ब-हू मीना है। हाँ, मीना ही। कोई अन्तर नहीं। अन्तर है तो सिर्फ इतना ही कि उससे कुछ छोटी लग रही है, पर सौन्दर्य-साम्राज्य उससे भी विस्तृत। लगता है मानों उसकी ही जुड़वां बहन हो।

लड़की की ललचायी निगाह भी उसकी ओर थी, पर कुछ सशंकित। कारण कि उसके मानस के कैमरे में कोई और ही निगेटिव था- जिससे उस पोजेटिव का मिलान कर रही थी। हालाकि नेगेटिव की अपेक्षा पोजेटिव ज्यादा सुन्दर था। हुआ ही करता है सुन्दर, पर इससे उसे तुष्टि नहीं जान पड़ी।

तीनों व्यक्ति गेट के अन्दर आ विमल के समीप हो गये। प्रौढ़ व्यक्ति ने प्रश्न किया- ‘कमल भट्ट आप ही हैं? ’

‘जी नहीं। ’- संक्षिप्त सा उत्तर दिया और उसके मस्तिष्क में पल भर के लिए चंचला की चमक सी कौंध गयी कई बातें...

‘कहीं असली मीना यही न हो!’ सोचा विमल ने और क्षणभर के लिए उसे, उसकी मीना वापस मिल जाने की पूरी उम्मीद हो आयी।

‘वे इसी मकान में रहते हैं न? ’- आगन्तुक ने प्रश्न किया, और पीछे मुड़कर लड़की की ओर देखा, मानों सही जवाब वही दे सकती है।

दोनों ओर से एक ही जवाब मिला।

‘हाँ। ’- कहा विमल ने, और उस लड़की ने भी- ‘मकान तो यही है। ’

‘आइये मेरे साथ। ’- कहता हुआ विमल आगे बढ़ा। उसके पीछे ही सरक आये वे तीनों भी, ईंजन से जुड़े रेल के डब्बे की तरह।

‘मिस्टर कमल! आपको कुछ लोग याद कर रहे हैं। ’- ऊपर कमरे में पहुँच कर कहा विमल ने, और इसके साथ ही तीनों ने प्रवेश किया कमरे में। मीना भीतर कीचन में व्यस्त थी, चाय बनाने में।

आगन्तुका कमल को देखते के साथ ही लिपट पड़ी- ‘ओ मेरे कमल’ और चूम ली कमल की पंखुड़ी सदृश होठों को। किन्तु आवाक कमल उसके मधुर प्यार का प्रत्युत्तर न प्रदान कर सका। सीने से थोड़ा हटाते हुये पूछ बैठा- ‘कौन हो तुम? ’

घायल हिरणी सी कांपती हुयी वह बोली- ‘हाय मेरे कमल! कृष्ण ने मीरा

को भी नहीं पहचाना? ’- सीने से हट कर गौर से निहारने लगी कमल के मुखड़े को। उपस्थित अन्य लोगों का कौतूहल भी बढ़ गया।

कमल के आश्चर्य का क्या कहना। कंधा पकड़, ठुड्डी ऊपर करते हुये, चेहरे पर गौर किया- ‘अरे मीरा! तुम? क्या तुम्हारा भी....? ’-कमल कह ही रहा था कि आवाज सुन कर मीना आ पहुँची बगल कमरे से। पल भर के लिए दोनों के साश्चर्य विस्फारित नेत्र एक दूसरे से टकराये। फिर लपक कर लिपट पड़ी दोनों ही। मीरा तो भूल ही बैठी- मीना के न होने की बात।

‘मीना दीदी!’

‘ओ मेरी मीरा!’

‘आइये बैठिये। खड़े क्यों हैं? ’- कमल के कहने पर दोनों आगन्तुक बैठ गये, पुराने सोफे पर, जो अब तक आश्चर्य चकित थे- एक साथ दो मीरा को देखकर।

उपाध्यायजी वगैरह भी एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। उन्हें भी घोर आश्चर्य हो रहा था मीरा के रूप में मीना के हमशक्ल को देखकर। बेचारा विमल फिर उदास हो गया। कोने में रखे टूटी तिपायी पर जा बैठा। वह तो समझ रहा था कि यह भी कोई मीना ही होगी, जो अपने अधिकार को ढूढ़ने निकली होगी।

डॉ.खन्ना ने आगन्तुकों की ओर मुखातिब होते हुये पूछा- ‘आपलोगों का कहाँ से आना हुआ है? ’

चिर विरहिणियों के मिलन का ज्वार जब थमा तब संयत होकर दोनों ही बैठ गयी बगल में रखी बेंच पर। दोनों के अन्तस में इतने सारे प्रश्न घुमड़ रहे थे कि मुंह बन्द हो गया था।

‘हमलोग इलाहाबाद से आ रहे हैं। वहीं गुरूनानक नगर में मेरा मकान है। मैं वहीं राजकीय चिकित्सालय में चिकित्सक हूँ। आप हैं हमारे सहायक मिस्टर चोपड़ा। ’- डॉ.खन्ना के प्रश्न पर, नवागन्तुक ने अपना और अपने मित्र का परिचय दिया, और फिर लड़की की ओर इशारा करते हुये बोले- ‘ये है मेरी बेटी ममता। ’

‘मैं ममता थी कभी, पर अब तो मीरा हूँ, और आप हैं -डॉ.हिमांशु भट्टाचार्या, जो कभी मेरे यानी ममता के डैडी थे। ’

‘ये क्या दशकूटक बुझा रही हो बेटी? ’- आश्चर्य पूर्वक निर्मलजी ने पूछा।

‘मैं बतलाता हूँ इसका अर्थ। ’-कहा डॉ.भट्टाचार्या ने चश्मे के फ्रेम को नाक पर टिकाते हुये- ‘पहले आप पूरी कहानी जान लें। फिर स्वयं ही विचार करें। ’

‘आओ मीरू! हमलोग अन्दर चलें। सुनने दो इन्हें कहानी। मैं तो तुम्हारी कहानी तुम्हारी ही जुबानी सुनूंगी। ’-कहती हुयी मीना उठ खड़ी हुयी मीरा का हाथ खीचती।

‘मुझे भी तो सुननी है तुम्हारी कहानी। आह, कल्पनातीत मिलन हुआ है आज हमदोनों का। ’-कहती हुयी मीरा भी उठ खड़ी हुयी, और गलबहिंयां दिये दोनों बहनें भीतर की ओर चली गयी। तिपायी पर एकान्त में बैठा विमल दोनों रमणियों के पृष्ठ प्रदेश पर नजरें गड़ाये रहा, जब तक कि वे ओझल न हो गयीं।

कमल ने उपस्थित लोगों का परिचय दिया, नवागन्तुकों को। फिर बोला- ‘हाँ तो कहिये डॉक्टर साहब! आप क्या कह रहे थे। ’

डॉ.भट्टाचार्या ने फिर से थोड़ा ऊपर सरकाया अपने चश्मे को और कहना प्रारम्भ किया- ‘यह मेरी सबसे छोटी बेटी ममता है। हम दम्पति ने बड़ी ममता से पाला है इसे। मेरा कोई लड़का नहीं। अतः सोच रखा था कि विवाहोपरान्त भी इसे अपने पास रखूंगा बुढ़ापे का सहारा बनाकर; किन्तु इसके पूर्व ही मेरी ममता की डोर को तोड़कर दूर भागना चाहती है मेरी ममता। एकाएक इसके दिमाग में मीरा का भूत सवार हो गया, और अपने पुराने प्रेमी से मिलने को बेताब हो गयी। कहने लगी - ‘मैं आपकी बेटी नहीं। यह मेरा घर नहीं। मैं तो वाराणसी के देवान्शु बनर्जी की बेटी हूँ। पिता के निधन के बाद मैं अपने मौसा श्री वंकिंम चटर्जी के साथ कलकत्ते में रहने लगी थी। वहीं मौसा ने अपने अन्तिम समय में कमल भट्ट नामक एक लड़के से मेरी मौखिक सगाई कर दी थी। शादी का अवसर भी न आ पाया कि वे चल बसे....। ’

उनकी बातों के बीच में ही दखल देते हुये डॉ.खन्ना ने टोका-‘डॉ.भट्टाचार्या! क्या मैं जान सकता हूँ कि किन परिस्थितियों में आपकी ममता ने यह सब कहना प्रारम्भ किया? ’

‘क्यों नहीं। अवश्य जान सकते हैं। वही तो अब मैं बतलाने जा रहा था। ’-कहा डॉ.भट्टाचार्या ने- ‘एक दिन मेरे प्राइवेट क्लीनिक में एक पेसेन्ट आया, बड़ी ही संगीन स्थिति में- सिफलिश के फोर्थ स्टेज का पेसेन्ट। ममता अकसरहाँ क्लीनिक में आती-जाती रहती थी। रोगियों की सुश्रुषा में इसे बड़ी दिलचस्पी थी। वैसे भी मेरी इच्छा इसे डॉक्टर बनाने की है। पर यह तो मेरी सभी हरित आकांक्षाओं पर ओले बर्षा गयी....। ’

ट्रे में चाय के कई प्याले लिये मीना कमरे में आयी। सबको प्याला थमा, एक स्वयं भी लेकर बैठ गयी एक ओर बेंच पर। पीछे से मीरा भी चाय पीती हुयी आ पहुँची।

‘....तीन दिनों तक वह पेसेन्ट मेरे क्लीनिक में रहा। ’-चाय की चुस्की लेते हुये डॉ.हिमांशु ने आगे कहा- ‘और हर क्षण उसके साथ साये की तरह उपस्थित रही मेरी बेटी ममता। उन दिनों किसी अन्य रोगियों पर भी ध्यान न दी। चौथे दिन सबेरा होने से पूर्व ही जीवन-मृत्यु-संघर्ष-रत वह रूग्ण चला गया इस संसार से विदा होकर, और साथ ही लेता गया मेरी ममता को भी....। ’

बूढ़े डॉ.हिमांशु की आँखें बरस पड़ी। रूमाल से अपनी सजल आँखों को पोंछते हुये आगे कहा उन्होंने- ‘...मिस्टर चोपड़ा ने डेरे पर आकर मुझे सूचना दी- रोगी चल बसा, और ममता उसके शव से लिपट कर पछाड़ खा रही है। - मैं दौड़ा पहुँचा क्लीनिक। उसके अभिभावक तब तक ममता को किसी तरह हटाकर, लाश ले जा चुके थे। बेहोश ममता मेरे चेम्बर में पड़ी हुयी थी। काफी कोशिश के बाद इसे होश में लाया, पर बेहोश से भी बदतर स्थिति में...। ’

‘ओफ! घटनायें भी अजीब-अजीब हुआ करती हैं। ’- अचानक निकल पड़ा तिवारीजी के मुंह से। कुछ देर पूर्व तक की अपनी स्थिति नजर आने लगी उन्हें- डॉ.भट्टाचार्या में।

‘....होश में आने के बाद से इसका एक ही रट है..। ’-कह रहे थे- डॉ.हिमांशु - ‘मुझे कलकत्ता पहुँचा दो। वहाँ मेरा कमल है। ’ फिर अपनी पुरानी कहानी बहुत कुछ सुना गयी। घटना का सिलसिला जोड़ने के लिए हमलोगों ने काफी कोशिश की। इसकी पुरानी तस्वीरों को दिखाया, किन्तु सब नाकामयाब रहा। पुरानी कहानी के क्रम में भी इसे याद नहीं कि पिछली बार जब यह कलकत्ते में बीमार थी, इसके प्रेमी कमल ने इसे पानी पिलाया था। उसके बाद कब क्या हुआ इसे कुछ भी याद नहीं। ’- देर से पकड़े खाली प्याले को नीचे रख, नाक पर सरक आये चश्मे को ठीक करते हुये डॉ.हिमांशु ने आगे कहा- ‘एक चिकित्सक होने के नाते मुझे उत्सुकता जगी, इसके कथन के सत्य की परख की। इसी क्रम में यहाँ भागे

चला आ रहा हूँ। किन्तु यहाँ आकर मामला अजीब सा लग रहा है। लोग और स्थान सब चिरपरिचित सा जान पड़ता है। ’

‘आपका कथन सही है, डॉ.भट्टाचार्या! ऐसी ही परिस्थिति ने हमलोगों को भी खींच लाया है जशपुरनगर से इस सुदूर महानगरी में। यह जो मीना है, जिसे आपकी ममता अपनी बहन बतला रही है...। ’- -डॉ.खन्ना का इशारा मीना की ओर था।

डॉ.खन्ना की बात को बीच में ही काटते हुये कमल ने कहा- ‘बतला क्या रही है, है ही वह मीरा की बहन। मीना की मौसेरी बहन मीरा। मीना के निधन के बाद अपनी सूनी गृह-वाटिका में वंकिम चाचा ने लाया था मीरा को, और अन्त काल में इसे मेरे हाथों सौंपा था। मगर अफसोस कि यह मेरी भी न रह सकी। मीना के निधन के अठारह महीने बाद यह भी चल बसी मुझे एकाकी बनाकर। ’

‘अच्छा मिस्टर कमल! यह तो बतलाइये कि मीरा का निधन किन परिस्थितियों में हुआ था? ’-पूछा डॉ.खन्ना ने।

‘परिस्थितियाँ वही थी, जो अभी-अभी डॉ.भट्टाचार्या ने बतलायी। अन्तर इतना ही कि इनके क्लीनिक में रोगी कोई और था, और मेरे घर में मीरा स्वयं। यह मीरा की वंशानुगत बीमारी थी। यही कारण था कि मुझे जी-जान से चाहती हुयी भी मुझसे शादी करना न चाहती थी। अनजान, वंकिम चाचा ने तो जबरन ही मुझे सौंप दिया था इसे। ’- कहते हुये कमल ने मीरा की ओर देखा, मानों उससे अपने कथन की पुष्टि चाहता हो।

‘हाँ डॉ.अंकल! कमल जी ठीक ही कह रहे हैं। ’-मीरा ने सिर हिला कर स्वीकृति दी।


‘स्थिति बिलकुल स्पष्ट है, डॉ.भट्टाचार्या!’- कहा डॉ.खन्ना ने- ‘जिन परिस्थितियों में तिवारीजी की पुत्री मीना पड़ी है, उन्हीं हालात में आपकी ममता यानी मीरा भी है। ये दोनों ही पूर्वजन्म की स्मृतियों की गिरफ्त में आ गयी हैं। ’

‘तब आपलोगों ने क्या विचार किया मीनाजी के सम्बन्ध में ? ’-देर से मौन बैठे मिस्टर चोपड़ा ने पूछा।

‘विचार क्या करना है? इसकी तो शादी हो ही रही थी मेरे लड़के विमल से, विमल की ओर इशारा करते हुये कहा निर्मलजी ने- ‘किन्तु कन्यादान के पूर्व ही दुर्घटनाग्रस्त होकर, अपनी पुरानी स्मृतियों को ताजा कर ली, और पहुँचा दी हमलोगों को भी यहाँ अपने पूर्व प्रेमी कमल भट्ट के पास। ’

कमल और विमल, दोनों की निगाहें मीना और मीरा के मुख- सरोज पर भ्रमर सी मंड़रा रही थी। दोनों के दिमाग में अलग-अलग ढंग की बातें घूम रही थी। दोनों की समस्यायें अपने-अपने ढंग की थी।

कमल सोच रहा था- इस स्थिति में क्या किया जाय? मीना मेरी हृदयेश्वरी, जिसकी यादों के तपन में विगत सत्रह वर्षों से तप्त हो रहा हूँ। इसे कैसे त्याग सकता हूँ? पर बेचारी मीरा? मीना और शक्ति के अवसान के बाद मेरी समस्त शक्तियाँ- स्नेह-प्रेम-ममता की मूर्ति इस मीरा में ही तो समाहित हो गयी थी। मैंने ‘मीरामय’ बनने की आशा से नयी जिन्दगी प्रारम्भ की थी; किन्तु मुझे स्वीकारे बगैर, असमय में ही मीरा चली गयी, ‘निरामय’बनाकर, और ‘मीरामय’ बनने की चाह अन्तस्थल के चट्टान से दबी हुयी, कराहती ही रह गयी। परन्तु सत्रह वर्षों के महानिशा के पश्चात् भी महाशून्य की ओर कहाँ जा पाया? आज सौभाग्य से उस घोरनिशा का अन्त हो गया, साथ ही मेरे जीवन के गहन

अन्धकार का भी। स्वर्णिम प्रभात का संदेश देने एक साथ दो सूरज मेरे जीवन-

-प्रांगण में उदित हो आये हैं। ओह! इसमें किसको छोड़ूँ किसको.....? ’

दूसरी ओर बेचारा विमल दोनों के रूप-लावण्य की तुलना करता रहा। मीना की ओर से तो वह पूर्ण रूप से निराश हो ही चुका है। सोच रहा है कि क्या मीना की विकल्प हो सकेगी मीरा?

‘क्यों मीरा बेटी? ’-मीरा की ओर देखते हुये कहा उपाध्यायजी ने- ‘अब क्या विचार है तुम्हारा? तुम तो इस विचार से आयी होगी कि...। ’

बीच में ही बोल पड़ी मीरा- ‘नहीं अंकल! अब मेरा वह विचार नहीं रहा, जो था यहाँ आने से पहले। यह तो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है कि मेरी मीना दीदी मुझे वापस मिल गयी। जिस पद के लिए मैं यहाँ आयी थी, उसकी मूल अधिकारिणी तो उपस्थित है, फिर मैं उसके सुख में खलल क्यों डालूं? पर वापस इलाहाबाद भी जाकर मैं क्या करूंगी? ’

‘क्यों, जब तुम्हारा अपना कोई रहा ही नहीं यहाँ, फिर इन वृद्ध महाशय को क्लेश पहुँचाना क्या उचित है? ’-तिवारीजी ने कहा मीरा की ओर देख कर, कारण कि उन्हें अपने आसन्न व्यथा की याद हो आयी।

‘अपना क्यों नहीं? मीना दीदी क्या गैर है या कि कमल जीजा? अब तो इन्हें जीजा कहना ही उचित होगा। पहले भी जीजा ही थे। बस मेरा विचार अब यही है कि यहीं रहकर दीदी की सेविका बन जीवन गुजारूँ। ’

‘बुरा न माने तो मैं एक सुझाव दूँ डॉ.भट्टाचार्या। ’-मुस्कुराते हुये कहा डॉ.खन्ना ने।

‘निःसंकोच कहिये। आप हमसे बुजुर्ग हैं, वरिष्ठ भी। ’- डॉ.भट्टाचार्या ने कहा- ‘अब तो ‘भई गति सांप-छुछुन्दर केरी’ वाली मेरी स्थिति है। क्या उचित-अनुचित है, मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है। सोचा था कि ममता की बात सही निकली तो लाचार होकर इसकी बात माननी पड़ेगी। बात सही निकली भी, किन्तु....। ’

‘उसी का उपाय मैं बतला रहा हूँ। ’-कहा डॉ.खन्ना ने.और सबके कान खड़े हो गये, वरिष्ठ चिकित्सक की वाणी सुनने के लिए, मानों धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में योद्धा खड़े हों तुच्छ सम्पदा के लिए मर मिटने को, और गोविन्द उन्हें ज्ञानामृत पान कराने को प्रस्तुत हों।

‘कहिये...कहिये...क्या सुझाव है आपका? ’- एक साथ सबने कहा। मौन विमल कुछ कहा नहीं, बस देखा भर।

जरा ठहर कर डॉ.खन्ना ने कहा- ‘मीना का पूर्व प्रेमी कमल है, और इस जन्म का प्रेमी है विमल। कमल को अपनाकर मीना ने बेचारे विमल के प्रेम-प्रासाद को अधर में ही लटका दिया, अमेरिका के ‘स्काईलैब’ की तरह। अब विचारणीय यह है कि उस अमरीकी अन्तरिक्ष-प्रयोग्याला की तरह इस प्रेम-प्रासाद का पतन हुआ यदि, तो फिर विमल का तो सर्वनाश हो जायेगा। अतः मैं आपसे निवेदन करूंगा, साथ ही मीरा को भी सुझाव दूंगा कि उस प्रयोग्याला में भारतीय अन्तरिक्ष यात्री ‘राकेश शर्मा’ की तरह प्रवेश कर, अधःपतन से बचावें ताकि हम भूतलवासी....’- कमरे में उपस्थित लोगों पर इशारा करते हुये डॉ. खन्ना बोले- ‘...का कल्याण हो सके। साथ ही मैं विमल को भी परामर्श दूंगा कि मीना की हमशक्ल, बल्कि कुछ मायने में उससे भी अच्छी, मीरा को अपना कर हम सबका उद्धार करे इस मंझधार से। ’

डॉ.खन्ना की बात पर सभी एक साथ हँस पड़े। एक तो उनका सुझाव लगभग सभी को अच्छा लगा, दूसरी बात यह कि उनके कथन का ढंग और हाव-भाव बड़ा रोचक था। काफी देर से चली आरही गम और उदासी की घनेरी बदली लोगों के ठहाके के गर्जन से प्रसन्नता के पानी के रूप में बरस सी पड़ी। सभी एक साथ करतल ध्वनि करते हुये वाह! वाह! कर उठे।

डॉ.खन्ना की सम्मति का सभी ने समर्थन किया।

डॉ.भट्टाचार्या ने कहा- ‘मुझे इसमें जरा भी आपत्ति नहीं। अपनी ममता बेटी के सुख-सुकून के लिए मैं सब कुछ करने को राजी हूँ। ’

‘विमल बेटे को भी इस सुझाव से एतराज नहीं ही होना चाहिए। मीना और मीरा में सच पूछा जाय तो अन्तर नहीं के बराबर है। मीरा को पुत्र-वधु के रूप में पाकर मैं भी स्वयं को धन्य समझूंगा। ’- पान का बीड़ा मुंह में रखते हुये उपाध्यायजी ने कहा।

बेचारे तिवारीजी क्यों चूकते। उन्होंने कहा- ‘मीरा को पाकर विमल बेटे को मीना की कमी महसूस नहीं होनी चाहिये। ’

कमल ने कहा- ‘मुझे क्यों आपत्ति होगी? मैं तो यही चाहूंगा कि- मीना और मीरा दोनों ही प्रसन्न रहें। साथ ही यह भी चाहूंगा कि इस शुभ घड़ी में ही मीरा और विमल का परिणय-सूत्र बन्ध जाय। ’

विमल चुपचाप सिर झुकाये सबकी राय सुनता रहा।

सबके बाद अब बारी थी मीरा की। उसने कहा- ‘मेरी अब अपनी कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं है। मीना दीदी जो भी कहेगी, मुझे स्वीकार होगा। यदि वे जीवन भर अपने चरणों की दासी बना कर भी रखना चाहें तो भी कोई उज्र नहीं। ’

मीरा-प्रदत्त पद-गरिमा से मीना स्वयं को दबती हुयी सी महसूस की। अतः मुस्कुराती हुयी बोली-


‘मैं भी सबकी सहमति की सराहना करती हूँ। इसे मेरी राय मानों या आदेश मैं यह कहना चाहती हूँ कि विमलजी तुम्हारे लिए योग्य पति साबित होंगे। मीरा को इंगित कर मीना कह रही थी- ‘इस बात का मुझे खेद है कि विमल जी के प्यार की प्यास को मैं बुझा न सकी। अतः अपने से भी बढ़कर तुझ-सी मृदु सरिता के पावन जल से उन्हें तृप्त कराना चाहती हूँ। मेरे गुजरने के बाद कमलजी का भी अन्तिम लक्ष्य मीरा ही थी। मुझे विश्वास है कि विमलजी को भी मेरा सुझाव पसन्द आयेगा। ’

मीना विमल की ओर देखने लगी, जो अब भी चुप, कोने में बैठा हुआ था।

मीना के वक्तव्य के बाद मीरा कुछ कहे वगैर, चुपचाप सिर झुका ली। विमल की आँखें कभी मीना, कभी मीरा पर घूम रही थी।

घड़ी देखते हुये निर्मलजी ने कहा- ‘शाम हो गयी। छः बजने वाले हैं। क्यों न हमलोग थोड़ी देर घूम-फिर आवें बाहर से। तब तक ये लोग कुछ और विचार-विमर्श करलें। हम बुजुर्गों की मण्डली में हो सकता है स्पष्ट कहने में कोई हिचक हो। ’

‘भेरी गुड आइडिया। ’- कहते हुये डॉ.खन्ना उठ खड़े हुये। उनके साथ ही अन्य लोग भी उठकर कमरे से बाहर निकल गये।

सबके बाहर चले जाने के बाद, शेष चतुष्कोणीय मंडली में काफी देर तक तर्क-वितर्क, शिकवे-शिकायत का दौर चलता रहा। तीन दिनों से दबी चली आरही विमल के मन की भड़ास को भी खुलकर बाहर निकलने का मौका मिला। मीरा अपनी कहानी के साथ-साथ मौसा के निधन, उनके बाद एवं पहले कमल की विरहावस्था आदि का विस्तृत वर्णन कर गयी, जिसके परिणामस्वरूप मीना के हृदय में कमल के प्रति प्रेम की दरिया कुछ और अधिक उमड़ आयी।

गपशप में काफी देर हो गयी। इस बीच चाय का एक और दौर चला। फिर कमल-विमल बाहर निकल गये हवाखोरी के लिए। मीना और मीरा सांध्य कालीन कीचन कार्य में लग गयी।

रात दस बजे सभी वापस पहुँचे मीना निवास। उपाध्यायजी कुछ अन्य आवश्यक सामान भी लेते आये बाजार से। विमल और कमल कुछ पहले ही आ गये थे। मीना-मीरा भी रसोई से निपट चुकी। बैठक में ही र्फ्य पर दरी बिछा, ता्य की बाजी बिछी हुयी थी। आज लम्बे अरसे के बाद मीना निवास में फिर से मधुर कोलाहल कलरव करने लगा था, और आसपड़ोस अपनी खिड़कियों से ताकझांक कर, आश्चर्य चकित हो रहा था।

दरवाजा यूँही भिड़काया हुआ था। भीतर पहुँचा जब प्रौढ़ मंडली तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ। गम और कसक के बादल फट चुके थे, दो जोड़ी प्रेमियों के हँसी के वयार से, और फिर दोनों प्रौढ़ों ने भी साथ दिया हँसी के फौब्बारों में।

भोजनोपरान्त भी काफी देर तक ‘गपाष्टक’ चलता रहा। भावी कार्यक्रमों की सूची बनी। सर्वसम्मत्ति से तय हुआ कि तिवारीजी और डॉ.भट्टाचार्या मौजूद हैं ही। दोनों अपनी-अपनी पुत्री का कन्यादान करें। एक ही मंडप में दोनों बहनों की शादी सम्पन्न हो जाय। फिर तिवारी जी यहीं रह कर अपना जीवन गुजारें, आखिर घर जाकर करना ही क्या है? वहाँ तो कुटिल चौधरी का तम्बू गड़ ही चुका होगा। विमल ‘प्रियतमपुर’ जाय अपनी प्रियतमा को लेकर।

दबी जुबान डॉ.भट्टाचार्या ने कहा- ‘मेरा अधिकार क्या कन्यादान तक ही सीमित रह जायगा? ’

उनके कथन का आशय समझ, उपाध्यायजी ने कहा- ‘मुझे इसमें जरा भी एतराज नहीं। यदि मीरा चाहती हो तो आप भी अपना पूर्वपद सुरक्षित समझें। मेरे दो और भी लड़के हैं। विमल को चाहें तो आप अपने पास रख सकते हैं। वैसे भी कौन कहें कि बेटे को हमेशा मेरे पास ही रहना है। ’

उपाध्यायजी की बात पर फिर एक बार प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। डॉ.भट्टाचार्या स्वयं को रोक न सके। झपट कर उपाध्यायजी के चरणों में सिर रख दिये। तिवारी जी की आँखें नम हो आयी इस दृश्य की पुनरावृत्ति पर। डॉ.खन्ना एवं मिस्टर चोपड़ा हर्ष गदगद हो उठे निर्मलजी की उदारता पर।