पुनर्भव / भाग-6 / कमलेश पुण्यार्क

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खैर जो भी हो, जिस प्रकार तत्रोपस्थित अन्य जन को मीना ने आकर्षित किया था, उसी प्रकार विमल भी बरबस आकृष्ट हो आया था- मीना के प्रति, साथ ही विद्यालय के अन्य छात्र-छात्राओं की अपेक्षा विमल को ही अधिक चाहने लगी थी, मीना भी।

कक्षा की दूरी के साथ, दोनों के शयन कक्ष भी बिलकुल ही अलग थे- दो भवनों में। फिर भी अवकाश का अधिकाधिक उपयोग साथ गुजारने में ही दोनों करते।

सप्ताह में दो बार मीना अपने गांव आती- माधोपुर- पिता के पास। ओझाजी स्कूल आते-जाते नित्य प्रति एक बार अवश्य उससे मिल लिया करते। कभी कभार तिवारी जी भी विद्यालय जाकर मीना से मुलाकात कर लिया करते।

उधमपुर, ओझाजी के गांव में मीना के स्थायी प्रवास से एक और बात सामने आयी- दैनिक मुलाकात ने ओझाजी के मन को विशेष रूप से खींच लिया मीना की ओर। वैसे तो पहले से ही वे उसे अपनी बेटी जैसा प्यार करते थे। क्यों न करते! था ही क्या बेचारे को! पत्नी तो विवाह के कुछ काल बाद ही चली गयी थी, सदा के लिए विधुर का तगमा पहना कर। घर में तीन बड़े भाई थे। एक विधवा भाभी भी थी। अन्य भाइयों का अपना-अपना छोटा- बड़ा संसार भी था। सब एक ही छत के नीचे थे। फिर भी अपना कह सकने जैसा कुछ नजर नहीं आता था।

कितनी बार कहा था मधुसूदन तिवारी ने -‘क्यों पदारथ भाई,

‘पुनर्भू’ के बन्धन में बँध कर अपने उजड़े नीड़ को संवार क्यों नहीं लेते? हँसी-खेल में जवानी तो गुजार लोगे-बाजारू दूध पी-पीकर, पर बुढ़ापा? ’

‘तुम भी मजाक करने से बाज न आते हो मधुसूदन। ’-हँसते हुए पदारथ कहते- ‘अब तो ‘ऑस्टर मिल्क’ का जमाना है, गाय पालने में बड़ा झंझट है। ’-फिर एकाएक उदास हो जाते पदारथ, और सूने आकाश में मण्डराते काले मेघों को निहारते हुए कहते, ऊपर अंगुली उठा कर- ‘वह देखो, ओ जो काली बदरिया है न, किस तरह चमकते-दमकते सूर्य को क्षण भर में ढक लेती है। उसी तरह की, बल्कि उससे भी घनेरी बदली मेरे जीवन-आकाश में छा गयी है। वयार के झोंको से आकाश की बदली तो छंट जाती है, परन्तु मेरे जीवन की बदली कभी छंटने-हटने वाली नहीं है। अब तक का वक्त जैसे गुजरा, आगे भी किसी तरह गुजर ही जायेगा। ’

परम मित्र तिवारी के अलावे अन्य लोग भी, यहाँ तक कि प्यारी भाभी भी कई बार कहती रही थी, किन्तु पदारथ- जड़भरत बने सबकी सुनते रहे।

समय गुजरता गया। काल की बलिष्ट श्रृंखला में एक ओर मीना और पदारथ, तो दूसरी ओर विमल और मीना बंधते गए, बंधते चले गए।

इसी बीच एक बार मीना काफी बीमार हो गयी। स्थानीय उपचार से लाभ न हो सका, अतः निर्मलजी ने अपनी देखरेख में उसे बाहर लेजाकर समुचित चिकित्सा का प्रबन्ध किया। उस समय दशहरे की छुट्टी थी- पूरे डेढ़ माह की; फलतः विमल भी बराबर साथ रहा, और मीना की सेवा-सुश्रुषा में सतत तत्पर रहा।

मीना की प्रतिभा-रश्मि उधमपुर विद्यालय से बाहर निकल कर प्रीतमपुर तक पहुँच चुकी थी। विद्यालय-सचिव होने के नाते प्रत्येक विद्यार्थियों का ‘प्रौग्रेस रिपोर्ट’ देखने का अवसर मिला ही करता था। किन्तु इस बार लम्बे समय तक

प्रीतमपुर प्रवास ने निर्मलजी को अत्यधिक अवसर दे दिया, मीना को परखने

का-करीब से देखने का।

मीना की प्रतिभा तो प्रतिभा थी, स्वभाव भी बरबस आकृष्ट करने वाला था, जिसने उपाध्याय जी को चुम्बक सा खींच लिया अपनी ओर। यदा-कदा विमल के मुंह से भी प्रसंसा सुनने को मिल ही जाता था।

मीना की अस्वस्थता-काल में तिवारी जी भी प्रायः आते-जातें रहते-मीना से मुलाकात करने। प्रारम्भ में तो लागातार पन्द्रह दिन साथ ही रहे। परन्तु बाद में निर्मलजी ने उन्हें आश्वस्त कर वापस भेज दिया-

‘आप चिन्ता न करें तिवारी जी, निश्चिन्त होकर जाँयें- अपनी ड्यूटी करें। मीना जैसी आपकी बच्ची है, वैसी ही मेरी भी। भगवान ने हमें सब कुछ दिया है, किन्तु एक चीज का अभाव हमेशा खटकता है- पुत्र तो तीन हैं, पर पुत्री के लिये मेरा मन मचलता ही रह गया। बड़ी लालसा थी- एक लड़की होती, धूम-धाम से उसकी शादी करता। सज-धज कर दरवाजे पर वारात आती, पर....। ’-कहते हुए निर्मलजी इतने भाउक हो उठते कि बलात् बरस पड़ते उनके नेत्र।

रूमाल निकाल आँखें पोंछते हुए फिर कहा था उन्होंने-‘.....सच पूछिये तिवारी जी, आपकी कोई और सन्तान होती तो मीना को मैं कतयी वापस आपके पास जाने न देता। इसे मैं अपनी बेटी बना कर अपने प्यासे अरमान को तृप्त करता...। ’

‘तो क्या फर्क पड़ता है? ’- बगल में बैठे पदारथ ओझा बोले- ‘मीना बेटी को आप रखें या मधुसूदन भाई। आपकी निष्ठा और स्नेह ने तो वास्तविक पालनकर्ता और जीवनदाता का पद प्रदान कर ही दिया। ’

निर्मल परिवार के निर्मल व्यवहार और परिचर्या से मीना धीरे-धीरे

शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य लाभ करने लगी। कोई महीने भर और वहाँ गुजार कर पूर्णतया स्वस्थ होकर वापस चली आयी विद्यालय-छात्रावास में; किन्तु दिल का एक बड़ा सा हिस्सा वहीं छोड़ आयी- प्रीतमपुर में ही, निर्मल परिवार के पास।

मधुसूदन तिवारी पिता थे। पदारथ ओझा पिता तुल्य स्नेहदायक मुंह बोले चाचा; किन्तु इन दोनों के अलावे एक और ने बाँध रख लिया उसके दिल को। वे थे- श्री निर्मल जी। वस्तुतः वे इसके कोई नहीं, पर ‘कोई न’ कहना भी कृतघ्नता ही होगी। विगत मासों में निर्मल परिवार ने जो स्नेह दिया मीना को वह तो अनमोल है।

इन्हीं विचारों में कभी-कभी खो सी जाती मीना और कभी पढ़ी गयी कविता याद आ जाती-

^^Sympathy is a similer fealling of heart… if we lay in sorrow greef and trouble…. Anybody come to sympathyes….”

पिता में सामर्थ्य कहाँ थी जो प्राथमिक से माध्यमिक विद्यालय में भेज सकते, और उससे भी महत्त्वपूर्ण हो गया था- अभी हाल की गम्भीर बीमारी। खुले तौर पर कहें तो कह सकते हैं कि मीना का पुनर्जन्म हुआ है- निर्मलजी की कृपा से।

समय सरकता गया। सप्तम की छात्रा हो गयी मीना, और विमल एकादश का। यानी विद्यालय प्रवास का अन्तिम वर्ष है विमल का। उसका विचार है- आगे

सामान्य स्नातक बन कर पिता का अनुशरण न करने का। उसे तो खींच रहा

है- उड्डयन।

वादलों को चीर कर नीले नभ-गर्भ में रौंदता फिरता वायुयान बरबस उसे अपनी ओर खींचता रहा। जब कभी भी ऊपर आकाश में घोर गर्जना करते हुये वायुयान गुजरते, उनके गुजरने के काफी देर बाद तक भी सूने शून्य को ललचायी नजरों से निहारता रहता भोला विमल। इसी तरह ‘रीशेस’ में एक दिन स्कूल लॉन में बैठा विमल नील नभ को निहार रहा था। शकुन्त चंचु सा उसका खुला मुंह ऊपर आकाश की ओर था, और विचित्र प्रकार से धड़क रहा कदली-पुष्प सा हृदय, जिसका नियन्त्रक- मस्तिष्क तो खोपड़े में कैद था, किन्तु मन कहीं सुदूर पहाड़ियों-वन प्रान्तरों में....तभी अचानक पीछे से चुपके-चुपके आकर मीना उसकी आँखें बन्द कर दी।

‘कौन है इस तरह बदतमीजी करने वाला? ’- झल्लाते हुये विमल ने दोनों हाथों से नोच फेंकना चाहा था, उन कोमल कलाइयों को, जो भूगत ‘सांडे’ सा चिपक गये तो चिपक गये; और विमल झल्लाता रहा- ‘कौन है? कौन है? ’

फिर उसे स्वतः ही भान हुआ- मीना के सिवा पूरे विद्यालय में इतनी धृष्टता करने वाला और हो ही कौन सकता है! पुनः उन्हें हटाने का प्रयास करते हुए बोला- ‘मीना! हाथ हटाओ न। जान तो गया कि तुम हो मेरे पापा की राजदुलारी- मीना तिवारी। अब क्या मेरी आखें ही फोड़ डालोगी? ’

‘बाप रे! इतनी नाजुक हैं इनकी आँखें जो हाथ रखने भर से फूट जायेंगी। ’- कहती हुयी मीना अपने हाथ हटा ली, और नीचे पड़ी किताब उठाकर एक ओर चलने को उद्यत हुयी।

‘क्यों बुरा मान गयी क्या? ’- विमल ने लपक कर मीना की कलाई पकड़ ली।

‘और नहीं तो क्या....बदतमीज भी बनाये, और आँखें फोड़ने का इलजाम भी लगाये....। ’-तुनकती हुयी मीना अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास करने लगी।

‘नहीं मीना, बुरा मत मानों, प्लीज। दरअसल मैं कुछ देख रहा था, तभी अचानक तुमने आँखें बंद कर दी मेरी। इसी कारण गुस्सा आ गया। ’- मीना की कलाई छोड़ते हुए विमल ने कहा।

‘क्या देख रहे थे? हवाई जहाज न? अजीब हो तुम भी। बच्चों जैसा मचल उठते हो- उड़ते जहाज को देख कर। ’- कहती हुयी मीना खिलखिला उठी।

‘तुम नहीं जानती हो मीना! इस कलयुगी गरुड़ से मुझे कितना लगाव है, कितना प्रेम है। जब भी देखता हूँ, जी चाहता है- मैं भी पंख लगा कर उड़ पड़ू उसी के साथ। ओफ! कितना ही अच्छा लगता होगा- ऊपर नीलगगन में पक्षियों की तरह उड़ते हुए। ऊपर आकाश में उड़ते हुए नीचे जमीन की हरीतिमा का विहंगावलोकन करते हुए.....। ’-कहता हुआ विमल चुप हो गया, मानों सही में उड़ गया हो उसका मन। क्षण भर बाद ही उसके मुंह से निकला-‘काश! मैं पायलट होता। ’

ऊपर शून्य में निहारते हुये विमल का मुंह कौवे के चोंच सा खुल गया। उसकी इस हरकत को देख कर मीना को कुछ शरारत सूझी-

‘काश मैं पायलट होती, और कौवे सा मुंह बाकर आकाश ताकती...। ’- बगल में पड़ी एक कंकड़ी उठाकर, विमल के खुले मुंह में डालती हुयी जोर से हँसने लगी।

‘धत्, यह क्या कर दी? ’-कंकड़ी थूकता हुआ विमल बोला।

तभी बैठक की घंटी हो गयी। दोनों अपने-अपने ‘बस्ते’ उठाकर अपनी-अपनी कक्षा की ओर चल पड़े।

‘चार बजे मुलाकात करना, छुट्टी के बाद। कुछ जरूरी बात करनी है। ’-कहा विमल ने।

‘उड्डयन-प्रशिक्षण हेतु आवेदन लिखवाना है क्या मुझसे? ’- मीना ने हँसते हुये कहा, और विमल की ओर बिना देखे अपनी कक्षा में घुस गयी।

संध्या चार बजे विद्यालय-प्रांगण में ही दोनों की पुनः मुलाकात हुयी। विमल ने कहा- ‘आज पापा आने वाले हैं। मैं उनके साथ घर चला जाऊँगा। मंझले भैया की शादी है। तुम भी चलोगी मेरे साथ? बड़ा मजा आता यदि तुम भी वहाँ रहती। ’

‘चलती तो। ’- मीना ने मुंह बिचकाते हुये कहा- ‘मगर वापू से फिर भेंट कैसे होगी? पिछले सप्ताह भी तुम जिद्द करके जाने न दिये थे। ’

बातें हो ही रही थी कि प्रांगण के प्रवेश द्वार से एक चमचमाती हुयी गाड़ी भीतर प्रवेश की। गाड़ी उपाध्याय जी की थी।

प्रधानाध्यापक सहित अन्य शिक्षक गण भी कार्यालय से बाहर निकल आये, उनकी आगवानी के लिए।

गाड़ी से उतर कर निर्मल जी प्रधानाध्यापक-कक्ष में प्रवेश किये। कुछ

देर तक अन्यान्य बातें होती रही, खास कर विद्यालय के विकास के सम्बन्ध में। फिर उठते हुये बोले- ‘निमंत्रण पत्र तो आपलोगों को डाक द्वारा भेजा ही जा चुका है। मौखिक तौर पर भी कह जा रहा हूँ- विवाहोत्सव में शामिल होने का


कष्ट करेंगे। दूसरी बात यह कि सप्ताह भर के लिए विमल और मीना को घर ले जाना चाहता हूँ। ’

‘ओह, तो इसमें अनुमति की क्या आवश्यकता है? आप तो स्वयं ही विद्यालय के .....। ’-नम्रतापूर्वक प्रधानाध्यापक ने कहा।

‘अनुमति क्यों नहीं? यह तो विद्यालय का नियम है, चाहे वह जिस किसी के लिये हो- सचिव हो या समाहर्ता। ’- कहते हुये निर्मल जी कक्ष से बाहर निकल आये।

वरामदे में खड़ा विमल मीना से बातें कर रहा था। पिता को आते देख बढ़ चला उसी ओर।

‘चलो न मीना, पापा से बात करते हैं- तुम्हारे बारे में। ’- विमल ने कहा।

विमल अपने पापा से कुछ कहता, कि इसके पूर्व ही निर्मल जी स्वयं ही बोल पड़े- ‘चलो मीना बेटी, तुम्हें भी चलना है आज मेरे यहाँ। तुम दोनों को छुट्टी मिल गयी है। जाओ जरूरी सामान लेकर जल्दी आजाओ। ’

किन्तु मीना ठिठकी खड़ी रही। उसे चुप खड़ी देख विमल ने कहा- ‘पापा! मीना को जाने की इच्छा तो है, पर कहती है कि वापू से भेंट कैसे हो पायेगी? ’

‘इसमें क्या लगा है, चलो माधोपुर होते ही चलेंगे। ’-निर्मल जी की बात सुन मीना और विमल चल पड़े दोनों छात्रावास की ओर अपना सामान सहेजने। गाड़ी में बैठे निर्मलजी चश्में की आँखों से निहारते रहे- मनमोहक दो कलियों को।

छात्रावास-कक्ष में जाकर मीना अपने कपड़े सहेजने लगी। तभी उसे ध्यान आया- उसके पास तो विद्यालय के स्कर्ट-गॉन के तीन- चार सेट के अलावे बाहर पहनने लायक कपड़े ही कहाँ हैं, जो वहाँ जाकर विवाहोत्सव में पहन पायेगी। फिर सोचने लगी- बेकार की बला कहाँ से सिर पर लाद ली...क्या बहाना बनाया जा सकता है- वहाँ न जाने का....? ’- इसी उहापोह में ठिठकी खड़ी रही, चिन्तित मुद्रा में- पल भर के लिये घर और पिता की दयनीय स्थिति, उसकी आँखों के सामने चलचित्र के समान घूम गयी। ध्यान तो तब भंग हुआ जब कंधे पर स्पर्श पायी।

‘खड़ी क्या देख रही हो? ’- हाथ में बैग लिये खड़े विमल ने मीना के कंधे पर हाथ रखकर पूछा।

‘ओ....ओ...ओ...हवाई जहाज उड़ा जा रहा था....। ’- हकलाती हुयी मीना ने वस्तुस्थिति से उसे अनवगत रखने का प्रयास किया।

‘हवाई जहाज नहीं था मेमसाहब! कहिये तो मैं बतला जाऊँ, कि आप क्या सोच रही थीं। ’- मुस्कुराते हुये विमल ने कहा।

‘तो क्या तुम ज्योतिषी हो या अन्तर्यामी? बतलाओ तो मैं क्या सोच रही थी? ’- झेंप मिटाती मीना पीछे पलट कर बोली।

अचानक निकला सम्बोधन ‘मेमसाहब’ विमल को स्वयं ही शरमा गया था। चौकी पर बैठते हुये बोला- ‘बता ही दूँ? ’

‘क्यों नहीं। जब जानते हो तो फिर कहने में संकोच क्यों? ’-धृष्टता पूर्वक मीना बोली, और नीचे पड़े सूने बक्से को निहारने लगी।

‘सोच रही थी तुम कि अच्छे कपड़ों के अभाव में मेरे यहाँ कैसे जाओगी- क्यों यही बात थी न? ’-मीना की ओर देख, मुस्कुरा दिया विमल। मीना आवाक रह गयी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि विमल उसके मन की बात जान कैसे गया। अभी वह कुछ कहना ही चाह रही थी कि चपरासी आ टपका कमरे में।

‘साब आपलोगों को जल्दी बुला रहे हैं। देर हो रही है, जाने के लिये। ’

उसकी बात सुन दोनों ही उठ खड़े हुए। उपलब्ध दो-तीन कपड़े एक छोटे से बैग में रख कर मीना, चल पड़ी विमल के साथ।

‘सोचने का तुम्हारा अन्दाज बड़ा अनोखा है मीना। ’-चपरासी के थोड़ा आगे बढ़ जाने पर विमल ने कहा।

‘सो कैसे? ’- आँखें तरेर मीना बोली।

‘इसलिए कि अगले को भी जानकारी मिल जाया करती है कि क्या सोचा जा रहा है। ’- हँसते हुए विमल ने कहा।

‘अच्छा-अच्छा। मैं समझी तुम्हारी कलावाजी। मैं बड़बड़ा रही थी, और तुम पीछे चुप खड़े मेरी बातें सुनते रहे थे। ’- मुंह बिचका कर मीना ने कहा और अपनी चाल स्वाभाविक रूप से कुछ धीमा कर दी ताकि विमल आगे निकल जाए।

कोई पन्द्रह-बीस कदम आगे, स्कूल गेट के बाहर गाड़ी में बैठे निर्मलजी इनलोगों की प्रतीक्षा कर रहे थे।

‘कहाँ इत्ती देर लगा दिए तुम लोग? ’- गाड़ी का गेट खोलते हुए निर्मलजी ने पूछा।

पीछे मुड़ कर विमल ने देखा- मीना कुछ पीछे ही रह गयी है। सिर झुकाए बैग लटकाए चली आ रही है।

‘मैं तो कब से तैयार बैठा था। यही देर लगा रही थी। ’- मीना की ओर ईंगित करते हुए विमल ने कहा, और भीतर घुस गाड़ी में बैठ गया। समीप आ, संकोच-भरी नजरों से एक बार पिता-पुत्र को निहार, मीना भी बैठ गयी विमल के बांयी ओर खाली सीट पर। मन ही मन घबड़ा रही थी- कहीं विमल खोल न दिया हो उसके संकोच और मनोमालिन्य का राज।

‘क्यों मीना बेटी! माधोपुर होते हुए ही चला जाए न? गाड़ी स्टार्ट करते हुए निर्मल जी ने पूछा।

‘चलते तो अच्छा होता। ’- संकुचित मीना संक्षिप्त सा उत्तर दे बाहर खिड़की से देखने लगी।

गाड़ी चल पड़ी, अगल-बगल के पेड़-पौधों को पीछे छोड़ती हुयी बढ़ती रही-कच्ची कंकरीली लाल सड़क पर, और मीना सोचती रही। उसके जीवन में पहला अवसर था- जब किसी मोटरकार में बैठने का अवसर मिला था। कुछ देर तक तो इस सोच में रही कि जमीन पर दौड़ने वाली गाड़ी में बैठने पर जब इतना आनन्द आता है, फिर ऊपर आसमान में उड़ने वाले जहाज में कितना आनन्द आता होगा! जहाज की बात याद आकर उसके चिन्तन ने भी उड़ान भरी। धीरे-धीरे रफ्तार बढ़ने लगा। यहाँ तक कि कई वर्ष भूत, और कितने ही भविष्य के चित्र घूम गये आँखों के सामने- माँ की कहानी से लेकर पिता की दयनीयता तक, पूँजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद, आशावाद, निराशावाद, धर्मवाद, अधर्मवाद न जाने कितने ही वाद- हैदरावाद, जहानावाद, औरंगावाद, फरीदावाद, हुसैनावाद.... और इन्हीं वादों के चक्कर में उसके मस्तिष्क में विवाद शुरू हो गये....

उसने देखा- बाहर सड़कों पर अगल-बगल से पीछे भागते हुए वगीचों में, झुरमुटों में- मृगशावक कुलांचे मार रहे हैं। उन्हें देख कर उसका मन मचल उठा- उन नन्हें भोले शावकों को पकड़ने के लिए। वह नन्हा है, अ-बल है, लाचार है। उसे आसानी से पकड़ा जा सकता है। हथिआया जा सकता है। पूँजीवादी सिद्धान्त की तरह- हथिया लो उसे, जो तुमसे छोटा है; जो तुम्हारी मुट्ठी में समा कर खो जा सके। छोटों को हथिआओगे, आत्मसात करोगे- तभी बड़ा बन सकोगे। वह तुम्हारा साधन होगा- मनबहलाव का। मनोरंजन का......।

‘देखो...देखो न, मृगछौने दौड़ लगा रहे हैं....। ’- बगल में बैठे विमल को कुरेदती हुयी बोली। उसके दिमाग में यह फितूल चल रहा था शायद कि छोटा छौना इतनी स्वतन्त्रता पूर्वक दौड़ क्यों लगा रहा है! उसे क्या अधिकार है कि स्वतन्त्र रहे? उसे तो किसी वलिष्ठ की बाहों में कैद होना चाहिए।

‘कहाँ हैं मृगछौने? ’- बाहर की ओर झांक कर देखते हुए विमल ने कहा- ‘अरे, वे तो बकरियाँ हैं। ’

‘बकरियाँ!’- मीना के माथे को एक झटका सा लगा। पूँजीवाद की अट्टालिका से बलात् च्युत होकर यथार्थवाद की धरा पर आ गिरी। फलतः निराशावाद से भी साक्षात्कार हो गया। अपनी भूल का अहसास हो आया- इस निरे देहाती क्षेत्र में वनवासी मृग भला क्यों आ सकते हैं? यह तो विवेकी मानवों की वस्ती है। अविवेकी मृग क्यों कर यहाँ हो सकते हैं? बकरियाँ हैं। हो सकती हैं यहाँ- इसलिए कि विवेकी मानव से समझौता कर ली हैं वे सब- दूध पिलाने का, या कहें अपने पोषित रक्त के एक खास अंश को देने का वायदा कर लिया है उन सबने। इतना ही नहीं, जरूरत पड़ने पर अपने आप को –अपनी सन्तानों को भी बलिवेदी पर चढ़ा सकती हैं- धर्म की वेदी पर, रस-लोलुप जिह्ना की वेदी पर, और इन सबके अन्तस में छिपे बैठे खटमली पूँजीवाद की वेदी पर। हो सकता है- कोई कहे- बलि तो सिर्फ छाग का ही नहीं, मगृ का भी होता है- उदर बलि भी और धर्म बलि भी। पर विचारणीय है कि सफेदपोश निरामिषों से मृग का समझौता क्यों कर हो सकता है? मांस खाना नहीं है, दूध मिलना नहीं है....।