पुरबियों के अथक परिश्रम, असीम धैर्य, साहस और आस्था का प्रतीक: ट्रिनिडाड / कमल कुमार

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दो दिन न्यूयॉर्क में रुक कर हम ट्रिनिडाड पहुँचे थे। विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन समारोह शाम को आयोजित था। सबके रहने की व्यवस्था अलग-अलग स्थानों पर की गई थी। सुरेश ऋतुपर्ण, उसकी पत्नी मधु, अरुणा गुप्ता और मैं हिंदी निधि के अध्यक्ष श्री चनका सीताराम और उनकी पत्नी इंदिरा के घर पर ही रुके थे।

तीन स्तरों पर बना उसका घर महलनुमा था। पहले स्तर पर तैराकी के लिए तालाब था, दूसरे स्तर पर हरियाली के बीच खुला स्थान था जहाँ पार्टियाँ आयोजित की जा सकती थीं। तीसरे स्तर पर रहने की व्यवस्था थी। रहने, सोने, बैठने के कमरे, बड़ा गलियारा, उद्यान, किचन वगैरह। हरियाली से घिरा यह घर पहाड़ी पर स्थित था। घर के कार्यों के लिए पूरा स्टाफ था। किचन के काम के लिए दो औरतें थीं। स्टाफ में सभी के पास अपनी कारें थीं। सब अपने समय पर अपना काम करते और चले जाते। एक आत्मीय और सम्मानजनक अनुशासन था। घर में मालकिन इंदिरा को कभी किसी काम करने वाले को आवाज लगाते नहीं सुना था। अपने निजी काम सब खुद करते। हम भी किचन में जाते। चीजें सब यथास्थान रखी रहतीं। सुबह की अपनी चाय बनाते और अपने कमरे में या खुले लॉन में, जहाँ मन हो, पी लेते। लंच, ब्रेकफास्ट और डिनर का भी सिलसिला ऐसा ही था। सब कुछ रखा जाता। हम स्वयं अपनी जरूरत के अनुसार अपनी प्लेट में डालते। भारतीय परिवारों में अलग-एकदम अलग वातावरण और मालिक और कामवालों के बीच का रिश्ता। सिर्फ पार्टियों के समय स्टाफ सर्विस पर रहता था।

ट्रिनिडाड में चनका सीताराम एक बड़ी हस्ती हैं। प्रोफेशन से चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं। इंदिरा उनकी पत्नी, बिजनेस सँभालती हैं। उनके कई मॉल (शॉपिंग सेंटर) हैं, सिनेमा हॉल हैं। एक अपना हावर क्राफ्ट भी हैं। लेकिन इंदिरा जैसी समृद्ध लेकिन विनम्र स्त्री से मिलना एक अनुभव था। कॉन्फ्रेंस में आए सदस्यों को वह स्वयं कर्मचारियों के साथ खड़ी होकर खाना परोसती थीं। जब भी कोई चीज कम हाती या किसी सदस्य की विशेष आावश्यकता होती, वह अपने घर से उसे मँगवा देतीं। उनके व्यवहार में एक विशेष तरह की आत्मीयता, विनम्रता और जुड़ाव था। कभी अपने बारें में, अपने संपत्तियाँ, समृद्धि के बारे में एक शब्द भी नहीं। मुझे याद है कुछ लोग जो सिर्फ अपने लिए सोचते हैं, छोटी-छोटी चीजों से परेशान होते हैं और करते हैं। नहीं समझते कि एक साथ सौ-दो सौ लोगों की संतुष्ट या निजी तौर पर खुश नहीं रखा जा सकता। इंदिरा को बुरा-भला कहा, एक सदस्य ने। इंदिरा मेरे पास आई थीं। महिला दिल्ली की थीं। 'कमल, जानती हो तो बताओ इसकी समस्या क्या है? समाधान किया जा सकता पर पर बदतमीजी नहीं करनी चाहिए।'

मैंने मॉफी माँगी थी। उस महिला को भी समझाया था। सम्मेलन वेस्टइडीज की लॉ फैकल्टी में विश्वविद्यालय में आयोजित किया गया था। मैंने अपना पर्चा पढ़ा था, 'भाषा हमारी अस्मिता की पहचान है।' पर्चे का मैंने अँग्रेजी में अनुवाद नहीं किया था। उस सत्र के अध्यक्ष डॉ. केदारनाथ सिंह थे। जहाँ जरूरत महसूस हो रही थी अँग्रेजी में मैं अपनी बात स्पष्ट कर रही थी। पर्चे के बाद संवाद का सिलसिला चला। शायद भाषा ही टिनिड्राड की दुखती रग है। वे अपनी भाषा को नहीं बचा सके। कमरा श्रोताओं से भरा था। विषय उनके भीतर के जख्मों को छू रहा था। भारतीय संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाजों, व्रतों, उत्सवों-होली, दिवाली, लोहड़ी-आस्थाओं, मूल्यों, धर्म और इतिहास से गहरे जुड़े ये लोग अपनी भाषा को सुरक्षित नहीं रख पाए। वहाँ पर 31 प्रतिशत भारतीय हैं। कुछ परिवारों में थोड़ी-बहुत हिंदी बोली-समझी जाती है। बाकी सभी अँग्रेजी भाषा का ही प्रयोग करते हैं। यों वहाँ अफ्रीकी, भारतीय प्रमुख हैं परंतु चीनी, लबनीज, यूरोपियन और अमरेडियन भी टिनिड्राड के वासी हैं जो एक इंद्रधनुष सा बनाते हैं। शुरू में सत्ता में फ्रेंच, डच और ब्रिटिश थे। उनकी सत्ता और वे अब नहीं हैं।

सम्मेलन के बाद जो भी समय मुझे मिलता, मैं वहाँ पर बसे, विशेष रूप से पुरबियों से, उनके पुरखों, उनके जीवन, महत्वांकाक्षाओं और उनकी सफलता के बारे में चर्चाएँ करती थीं। एक भारतीय परिवार जिसकी चौथी पीढ़ी ट्रिनिडाड में रह रही थी, के घर में सत्यनारायण की कथा थी। वहाँ गई थी। उस परिवार में सबसे बुजुर्ग रामधन थे, लगभग 100 वर्ष की उम्र के थे। प्रवीणा घर की बहू थी जो किसी शॉपिंग सेंटर में मैनेजर थी। उसके दो लड़कियाँ और एक लड़का ट्रिनिडाड से बाहर विदेशों में पढ़ रहे थे। उनके घर में एक छोटा मंदिर था जिसमें हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ थीं। घर बहुत बड़ा और सजा हुआ था। प्रवीणा ने बताया, अब सब एक सपना लगता है लेकिन हमारे परिवार से कुछ लोग सन् 1917 में आए थे। सन् 1845 और 1917 में लगभग 1,43,939 पुरबिए अपने गाँवों और कस्बों को छोड़कर एक अच्छे, सुखी जीवन का सपना लेकर पानी के जहाज पर सवार हुए थे। उन्हें तब नहीं पता था कि वे बंधक मजदूर बनकर जा रहे थे, जिन्हें गन्ने के खेतों में काम करने के लिए ले जाया जा रहा था। उनको यहाँ ट्रिनिडाड तक पहुँचने में तीन महीने का समय लगा था। उनकी यात्रा की यंत्रणा कल्पना से परे थी। जहाज पर कँपकँपाती ठंडी हवाएँ, बीमारी और दुर्व्यवहार से बहुत से लोग मर गए थे। कुछ ने आत्महत्या कर ली थी। प्रवीणा ने बताया, उनके कस्बे से 18-20 लोग थे जिनमें से 11 ही यहाँ तक पहुँच सके थे। तीन महीने बाद जब उन्होंने नेल्सन टापू की चट्टानों और ऊबड़-खाबड़ जमीन पर पैर रखे तब भी उन्हें नहीं पता था कि उनके साथ क्या होगा। तो भी धरती का पैरों के नीचे स्पर्श उन्हें आनंदित कर रहा था। पर वहाँ उन्हें थोड़ी ही देर रुकना था। छोटी किश्तियों और छोटे-छोटे जहाजों में उन्हें आस-पास की इस्टेट में भेज दिया गया था। कॉर्रानथ, फिलिपाइन, कन्कॉर्ड, सेजर हिल।

'जनवाणी' की संपादक सविता बुद्धु से मिली थीं। कई पुस्तकों की लेखिका, भारतीय परंपराओं रीति-रिवाजों की प्रवक्ता और स्त्री अधिकारों को लेकर सजग। मारीशस की महत्वपूर्ण हस्ती हैं। वह कह रही थीं - ट्रिनिडाड दक्षिण में स्थित एक करेबियन टापू है जो वैजुलियन टापू पर स्थित है। भौगोलिक दृष्टि से इसे दक्षिणी अमेरिका का विस्तार भी कहा जा सकता है। यहाँ की प्रकृति उदार है। एक तरफ घने जंगल हैं, दूसरी ओर पर्वत श्रृंखलाएँ हैं जो उत्तरी कोस्ट तक चली जाती हैं। यहाँ की सबसे ऊँची पहाड़ी 940 मीटर के लगभग है। केंद्र में भूमि समतल है। इसकी राजधानी पोर्ट ऑफ स्पेन है जिसे वे पोओपी भी कहते हैं। जहाँ इन्हें लाया गया था, वह जगह सुनसान, निर्जन थी। मीलों तक कुछ नहीं था। खेतों के पास ही बैरकनुमा-सी जगह थी जो हमारे रहने की जगह थी। परिवारों को इकट्ठे रहने की अनुमति थी। यों एक छोटे कमरे में एक साथ चार-पाँच लोगों को रखा गया था। बाहर खुले में खाना पकाया जाता था। खुले तालाब से पानी लिया जाता। यह जगह मनुष्यों के रहने योग्य नहीं थी। लोग मलेरिया, हैजा, पेट की बीमारियों से मर रहे थे। सात घंटे की कड़ी मजदूरी के बाद उन्हें 13 से 25 सेंट मिलते थे। काम सुबह छह बजे शुरू होता। स्वस्थ पुरुषों को खुदाई आदि के कड़े काम दिए जाते और औरतों तथा कमजोर बीमारों को जंगली उग आई घास और पौधों को उखाड़ने का काम था। औरतों को पुरुषों से आधी मजदूरी दी जाती थी। औरतें सफाई वगैरह के काम भी करतीं, उनके छोटे बच्चे वहीं पास में खेलते, सोते रहते।

फिर भी जीवन अपनी गति से चल रहा था। तीन महीनों की यात्रा में परिवारों में और लोगों में आपस में मित्रता और रिश्ते भी बन गए थे। सारी विपरीतताओं और रहने की कुव्यवस्था, बीमारियाँ और मालिकों के दुर्व्यवहार के बाद भी उनके मन में उम्मीदें मरी नहीं थी। कुछ लोगों ने वहाँ जमीन के अनुदान को स्वीकार किया। बदले में पाँच पौंड और भारत न जाने दिए जाने का मुआवजा था।

मजदूरों का काम सख्त था। पहले गन्ने की फसल उगाने का, फिर कटाई और ढुलाई का। फसल को रेलवे स्टेशन तक लाना होता या सीधे फैक्टरियों तक पहुँचाना होता था। कुछ ने कम खाकर, अधिक समय तक काम करके एक-एक पैसा बचाया जिससे बैल और खच्चर खरीदे ताकि गन्ने की फसल को उनके गंतव्य तक आसानी से पहुँचाया जा सके। बारिश से पहले फसल काटनी होती। उस समय कोई मशीनें नहीं थी। सब कुछ मजदूर अपने हाथों से ही करते थे। खेतों से गन्नों को तुलवाने के लिए ले जाया जाता। तौलने का तरीका कोई बहुत प्रमाणिक नहीं था। यों भी वहाँ पर मैनेजर जो कहता, वही सच माना जाता। गन्नों को छोटी-छोटी किश्तियों और जहाजों में पोर्ट ऑफ स्पेन लाया जाता था। बाद में सड़कों और रेलवे लाइन को इस्टेट के साथ जोड़ा गया था।

बुजुर्ग की आँखों में चमक कौंधी थी। कुछ देर वह सीधा बैठ गया था। फसलों का काम खत्म होने पर चार दिन की छुट्टी होती। पुरबिए अपनी तरह से खुशी मनाते। अपने रीति-रिवाजों के अनुसार भगवान कृष्ण को अपनी खुशियों में शामिल करते।

ट्रिनिडाड में घूमने का ही कार्यक्रम था। गाइड ट्रिनिडाड के कुछ समुद्री किनारों और दर्शनीय स्थलों पर ले गया था। कुछ जगह पर उतरे, घूमे, वहाँ पर दिखाई दिए लोगों से बातचीत की और दुबारा कोच में बैठकर आगे चल पड़ते। 'असा राइट नेचर सेंटर', 'लॉ वेगा गार्डन सेंटर', 'माकर्स वे', 'मार्कस वॉटरफॉल', 'वुडफोर्ड स्क्वेयर' और वाटर पार्क। गाइड ने ट्रिनिडाड के इतिहास की जानकारी भी दी थी। इस घूमने के कार्यक्रम में प्रवीणा भी मेरे ही साथ बैठी थी। ट्रिनिडाड में 1869 में जमीन समझौता हुआ था। अब पुरबिए बंधक भी नहीं थे। पाँच साल पूरे हो चुके थे। कुछ ने वहाँ जमीन खरीदी। कुछ लोग अपने गाँव-कस्बे में लौट भी गए। पर लौटे लोगों में कुछ फिर से लौट आए थे। कुछ ने अपनी जमीन पर कोको और कॉफी उगानी शुरू की। बाद में नारियल के पेड़ भी लगाए। कुछ ने लकड़ी के कुंदों से नौकाएँ बनाईं और मछलियाँ पकड़ना शुरू किया। अपने-अपने काम में लगे लोगों की हालत बदल चुकी थी। जब वे आए थे, उनके तन पर कपड़े नहीं थे, जेब में पैसे नहीं थे, परंतु अपनी मेहनत और धैर्य से उन्होंने जमीनें खरीदीं। धीरे-धीरे स्कूल खुले, दुकानें बनीं, मंदिर-मस्जिदें बनीं। एक समाजिक ढाँचा तैयार हुआ।

प्रवीणा ने बताया था कि उसने अपने बुजुर्गो से सुना था कि शादी का निमंत्रण वे बिना लिखे कैसे भेजते थे। एक व्यक्ति एक तश्तरी में फूल-पत्तियाँ और कपूर सजाकर जाता और उनसे शादी में आने का आग्रह करता। बदले में जिसे एक सिक्का दिया जाता था। हमारी पहली पीढ़ी में निमंत्रण इसी तरह भेजे जाते थे। 1892 तक 40,000 एकड़ भूमि पुरबियों के पास आ गई थी। 1897 में पूर्वी भारतीय राष्ट्रीय समिति गठन भी हुआ ताकि विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व हो सके। 1868 में पहला मिशन स्कूल खुला था। जिसमें प्रवीणा के पति के दादा पढ़े थे। शुरू में वहाँ तीन बच्चे थे। साल भर बाद 31 बच्चे हुए। हर वर्ष नए स्कूल खुलने लगे। 1893 में पचास स्कूल हो गए थे। इन स्कूलों में पढ़ने वाले कई बच्चों ने धर्मांतरण भी किया। कुछ पढ़-लिखकर वहीं पढ़ाने भी लगे थे। नई पीढ़ी पढ़-लिख गई। उनकी जीवनशैली बदली। अंतर्जातीय विवाह भी हुए। सन 1909 में राजनीति में भारतीयों का प्रवेश हुआ। शिक्षित लोगों ने अध्ययन का कार्य सँभाला जिससे वे लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागृति ला सकें। राजनीतिक चेतना जगा सकें। 1987 में पूर्वी भारतीय राष्ट्रीय एसोसिएशन और 1909 में पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। उन्होंने विधानसभा में अपना प्रतिनिधि रखने की माँग उठाई। नई पीढ़ी के बच्चे शिक्षा के लिए विदेशों में जाने लगे थे। जैसे गहरी काली रात के बाद सूरज उगता है वैसे ही एक शताब्दी से अधिक के बाद भारतीय सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों शिक्षा, डॉक्टरी, कानून, राजनीति इत्यादि में आ चुके थे। स्त्रियों ने भी यहाँ तक पहुँचने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शुरू से ही औरतों की स्थिति वहाँ भारत से बेहतर रही। मजदूरी उन्हें पुरुषों से आधी मिलती थी पर उन्हें हलका काम दिया जाता। घर में पति उनसे अच्छा व्यवहार करते। गर्भवती होने पर आखिरी महीनों में छुट्टी मिलती। बच्चे के जन्म के बाद उनकी इच्छा होती कि काम करें या न करें। औरतों ने अपने देसी तरीकों से भी पैसा कमाया ताकि घर और बच्चों की सुविधाएँ मिलें, जमीन खरीदी जा सकें। खेतों में काम करने के बाद औरतें घास बेचतीं। गाय, बकरियों का दूध, दही, घी और अपनी जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों पर सब्जियाँ उगातीं। ये सब वे स्वयं जाकर बड़े धनी घरों में बेचकर आतीं। दूध में लाभ ज्यादा था। दूध अनिवार्य था। मिठाइयाँ वगैरह भी दूध से ही बनाई जाती थीं। यह कार्य क्षेत्र स्त्रियों का था इससे उन्हें अच्छी आमदनी हो जाती थी।

9 और 10 अप्रैल, रामधन जी कह रहे थे, समय के साथ बहुत कुछ बदलता है। रामधन जी कुछ कहते हुए बीच-बीच में रुकते, अतीत में डूबते... फिर वर्तमान में लौट आते। पूरबी औरतों की आभूषणप्रियता जानी-मानी है। साथ ही, उनकी गहने बनाने की कला, जिसमें असीम धैर्य, अति सूक्ष्म पच्चीकारी और गढ़ाई अपना सानी नहीं रखती। धीरे-धीरे जैसे घरों में आमदनी बढ़ी। वहाँ सुनार भी आए और औरतों ने खूबसूरत गहने पहनने शुरू किए। कलाई से कुहनियों तक पहना बेरा। हरे लाल धागों में गुँथे सोने के सिक्के, नाक के लोंग, अँगूठी, पैरों में बिछुए पहने ये औरतें खिलती हैं।

प्रवीणा ने बताया हमारे पूर्वजों ने बहुत कष्ट सहे। खेतों में, घरों में, सभी तरह का काम किया। धीर-धीरे अगली पीढ़ी स्कूल गई, लड़कियाँ पढ़ी-लिखीं। आज तो डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, कंप्यूटर इंजीनियर सभी क्षेत्रों में लड़कियाँ हैं।

रामधन का सबसे बड़ा बेटा था किशोर लाल वह भी 60-65 साल का था। कई एकड़ जमीन का मालिक था। उसकी चीनी फैक्टरी थी। उसने बताया था कि एक नाम और जोड़ लीजिए ट्रिनिडाड के इतिहास में - रूद्रनाथ कैपीलिडो, जो एक पुरबिए मजदूर कपिल का बेटा था। सन् 1920 में जन्मा यह लड़का राजनीतिशास्त्र, फीजिक्स, मैथमेटिक्स का विशेषज्ञ था। वह लेखक और शिक्षाशास्त्री भी था। उसने कॉलेज के छात्रों के लिए विज्ञान की पुस्तकें लिखीं। उसकी पहली पुस्तक 'थियरी ऑॅफ रोटेशन एंड ग्रेविटी', अपने समय से आगे की पुस्तक थी। सन् 1960 में यह बात प्रमाणित हुई जब अमेरिका ने अपना स्पेस रॉकेट भेजा था।

प्रवीणा का लड़का था। जॉयस कॉलेज का छात्र था। डॉक्टरी कर रहा था। उसने बताया था, जहाँ आजकल ऐस्टर है, वहाँ सन 1911, फरवरी में पहला सिनेमा बना था। वहाँ स्टेज पर एक बड़ा-सा पियानो रखा रहता संगीत देने के लिए और श्वेत-श्याम छाया चित्र दिखाए जाते। उस समय टिकट 116 सेंटस था। उस सिनेमा का मालिक एक बिजनेस व्यक्ति था वह सेन फ्रेनडो का मेयर था और विधानसभा का सदस्य भी था। उसने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया, हिंदू विवाह को कानूनी दर्जा दिलाया।

यह कहानी मनुष्य के परिश्रम, धैर्य, साहस और आशावाद तथा उसकी आस्थाओं और विश्वास की है। गन्ने के खेतों से स्टील फैक्टरियों तक पहुँचने की हैं। इस समय ट्रिनिडाड और टुबैगो करेबियन बड़ा तेल उत्पादक केंद्र है। यहाँ स्टील और तेल रसायन उद्योग है। यहाँ के पर्यटन विभाग का अपना महत्व है क्योंकि यह कॉस्मोपॉलिटन देश है जहाँ विभिन्न देश और जाति के लोगों में आपसी समझ और सहनशीलता है। 30 प्रतिशत रोमन कैथेलिक हैं। 31 प्रतिशत हिंदू हैं, इतने ही अफ्रीकी हैं और लगभग 6 प्रतिशत मुस्लिम हैं। सभी आपस में मिल-जुल कर रहते हैं।

प्रवीणा ने बताया था ट्रिनिडाड के करेबियन कार्निवाल विश्व भर में प्रसिद्ध है। फरवरी-मार्च में इनका विशेष कार्निवाल होता है जिस पर अलग से चर्चा की जा सकती है। नृत्य और संगीत इसकी खूबी है। यह इनकी राष्ट्रीय संस्कृति है। यहाँ के म्यूजिकल ग्रुप दुनिया भर में जाते हैं और अपने संगीत के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ पर रंगमंच भी बहुत प्रगतिशील है। नोबेल पुरस्कार विजेता ड्रेक वालकॉट ड्रेक वालकॉट का शिक्षण भी यही हुआ था। बी.एस. नॉयपॉल जैसा लेखक, चित्रकार और डिजाइनर भी यहीं का है जिस पर ट्रिनिडाड के वासियों को गर्व है।

जिंदगी को जीना, खुशियाँ मनाना, त्योहारों और उत्सवों में उनका उत्साह, यहाँ के लोगों की विशेषता हैं। मुस्लिम अगर ईद-उल-फितर मनाते हैं तो हिंदू फाग, होली, दीवाली, उसी चाव से मनाते हैं। यों भी शाम ढले काम से लौटकर परिवार के सदस्य छोटे-बड़े इकट्ठे होते हैं, अपने बच्चों को अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों के बारे में बताते हैं। यहाँ पर बड़े-बड़े शॉपिंग सेंटर हैं। इनकी अपनी दुनियाभर में जानी-पहचानी फैशन इंडस्ट्री है। यहाँ की पौटरी, हस्त-कलाशिल्प की वस्तुएँ, चमड़े का सामान और आभूषण विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।

यहाँ के पानी के खेल सेलिंग, पानी और हवा सर्फिग तो लोकप्रिय हैं ही, साथ ही, गोल्फ, स्काव, घुड़सवारी, बास्केटबॉल, क्रिकेट, फुटबॉल इत्यादि भी खेले जाते हैं। ट्रिनिडाड-टुबैगो की बात करें तो समुद्र तटों को भी नहीं भूला जा सकता। मीलों तक फैला सफेद रेत, पीजन, पॉअट और स्टोर वे के समुद्री तटों पर मोहक है। ट्रिनिडाड का माराकॉस वे और लॉस कुवेस समुद्री तट तीस-चालीस मिनट पर पहुँचा जा सकता है। पूर्वी तरफ मंजनीला और मॉपरो समुद्री तट हैं। यों इसके चारों तरफ समुद्री तट हैं जहाँ लोग जाते हैं।

आखिर में 'नाइट क्लबों' में विश्व-स्तर का संगीत बजता है। खासतौर पर कार्निवालों में इसका विशेष आनंद उठाया जा सकता है। यहाँ कई नाइट क्लब हैं जहाँ संगीत और नृत्य के कार्यक्रम दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। साथ ही, खाना भी उनका स्वादिष्ट और कई तरह का होता है। अंतर्राष्ट्रीय मेन्यू से लेकर राष्ट्रीय और वहाँ की कुछ विशेष मेन्यू रहती है। चुनाव करना भी कई बार कठिन हो जाता है। हमारे जीवन में संगीत, नाटक, नृत्य सभी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यों भी पुरबियों के लिए धर्म और संस्कृति पर्वो की संस्कृति रही है। जब हमें जहाज पर लाया गया था, तब विपरीत समय में भी हमारे वाद्य हमारे साथ थे। शाम ढलते ही हम बजाते, गाते, नाचते और सब दुख और कष्ट भूल जाते। आज भी ट्रिनिडाड में संगीत की कक्षाओं में बच्चो और युवा छात्रों की संख्या बहुत अधिक हैं। 11 अप्रैल की फ्लाइट से न्यूयॉर्क आई थी और वहाँ दो दिन रुक, भारत लौटी थी।