पुरानी कहानी दोबारा / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान

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इसके बाद जिस किताब का जिक्र जरूरी है वह छपी तो बहुत पहले थी लेकिन 2008 में अकार बुक्स ने फिर से छापा है। किताब का नाम है 'हाउ टु रीड कार्ल मार्क्स' और लेखक अर्न्स्ट फिशर हैं। एक लंबी और बेहद उपयोगी भूमिका जान बेलामी फास्टर ने लिखी है। इस भूमिका का वैसे तो स्वतंत्र महत्व है लेकिन पूरी भूमिका के अनुवाद के बजाय हम उसका सार प्रस्तुत करने तक अपने को सीमित रखेंगे। फास्टर बताते हैं कि फिशर दूसरे विश्व युद्ध के बाद गठित आस्ट्रिया की अस्थायी सरकार के शिक्षा मंत्री रहे और अनेक वर्षों तक आस्ट्रिया की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं में से एक रहे थे। इसके बावजूद वे एक स्वतंत्र मार्क्सवादी बुद्धिजीवी की तरह ही रहे। अनेक बार तो पार्टी अनुशासन की सीमा से बाहर निकल कर भी अपनी राय व्यक्त करते रहे थे। 1968 में जब सोवियत संघ ने चेकोस्लोवाकिया पर हमला किया तो उसका विरोध करने के चलते उन्हें पार्टी से 1969 में निकाल दिया गया था। फिशर की यह किताब सबसे पहले वियेना में छपी थी। इस भूमिका में वे मार्क्स के विचारों के साथ उनके जमाने से अब तक जो बरताव किया गया है उसकी झाँकी भी प्रस्तुत करते हैं ताकि इस माहौल के भीतर रख कर इस किताब के महत्व को समझा जा सके।

सबसे पहले वे मार्क्स को पढ़ने की दिक्कतों का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि मार्क्स के लेखन की जटिलता के अलावा अगर आप वर्तमान समाज के तर्कों को स्वीकार कर लेते हैं तो उनकी मान्यताओं को समझना मुश्किल होगा। दूसरी कठिनाई यह है कि मार्क्स के विचारों के बारे में अधिकांश लेखन उनके विचारों को न केवल विकृत करता है बल्कि तमाम तरह के दुष्प्रचार से प्रभावित भी है। वे मार्क्स के विरोधियों के लिए सार्त्र का एक वाक्य उद्धृत करते हैं जिसके मुताबिक ज्यादातर आलोचना बात को आगे ले जाने के बदले मार्क्स से पहले के विचारों को ही दोहराती है।

आलोचनाओं का इतिहास वे शीत युद्ध से शुरू करते हैं जिस दौरान उनके अनुसार सोवियत सत्ताओं और पश्चिमी दुनिया द्वारा एक ही तरह से मार्क्स के विचारों को विकृत किया गया। पश्चिमी दुनिया के विकारों के उदाहरण के बतौर वे 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' के दो संस्करणों की भूमिकाओं का जिक्र करते हैं जो क्रमशः 1955 में क्रोफ्ट के क्लासिक संस्करण की सैमुएल बीअर द्वारा तथा 1967 में पेंगुइन बुक्स संस्करण की एपीजे टेलर द्वारा लिखी हुई हैं। टेलर ने इस भूमिका से पहले भी एक किताब में मार्क्स के बारे में लिखा था कि उनका सिद्धांत सामाजिक हितों के टकराव का समाधान सोच-विचार के बजाय हिंसा के जरिए निकालने की वकालत करता है और कि मार्क्स के अनुसार आदमी का दिमाग सिर्फ बाहर के तथ्यों को दर्ज करता है। दोनों ने भूमिकाओं के लेखन से पहले ही अपने मार्क्सवाद विरोधी विचारों को जाहिर कर चुके थे। दोनों ही अपनी भूमिकाओं की शुरुआत इस दावे से करते हैं कि मार्क्सवाद धर्म है। इसके बाद उनके तर्क जुदा हो जाते हैं लेकिन वे दोनों ऐतिहासिक भौतिकवाद का ऐसा रूप तैयार करते हैं जिसे आसानी से खारिज किया जा सके। बीअर अपने पाठकों को सूचित करते हैं कि मार्क्स के विचार दो मान्यताओं पर आधारित हैं - (1) आर्थिक निर्धारणवाद या यह विचार कि 'समाज की आर्थिक संरचना मानव इच्छा और चिंतन से स्वतंत्र हो कर विकसित होती है ---(और) सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में घटनेवाली घटनाओं को निर्धारित करती है'। (2) यह विचार कि 'इतिहास का क्रम अनिवार्यतः हिंसक क्रांतियों से भरा हुआ है'। बीअर के अनुसार मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक अस्तित्व को 'अलंघनीय नियमों' में बाँध देता है। वे द्वंद्ववाद को 'थीसिस - एंटी थीसिस - सिंथीसिस' के त्रिक में समझने का आग्रह करते हैं। मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों की बुनियाद उनके अनुसार 'मूल्य का श्रम सिद्धांत' है जो कीमत के बारे में कुछ भी नहीं बताता। वे 'शोषण' को नैतिक शब्दावली मान कर इसकी जगह पर 'डकैती' का विकल्प सुझाते हैं। सबसे अधिक उनका गुस्सा मार्क्स के 'गरीबी की बढ़ोत्तरी के सिद्धांत' पर उतरता है। वे कहते हैं कि इसका मतलब मार्क्स के मुताबिक मजदूर 'अधिक वेतन और काम के कम घंटों की लड़ाई जीतने में अक्षम' हैं। बीअर की आपत्ति यह है कि पूँजीवादी निजाम के पिछले सौ सालों में मजदूर यह लड़ाई कई बार जीत चुके हैं। बेरोजगारी के बढ़ने के मार्क्स के अंदेशे को बीअर युद्धोत्तर आर्थिक उछाल का हवाला दे कर खारिज करते हैं हालाँकि बीअर के मुकाबले मार्क्स ही सही साबित हो रहे हैं।

बीअर की भूमिका के बाद वे टेलर की भूमिका के बारे में बताते हैं जो बीअर की भूमिका के बारह साल बाद आई और इसकी आलोचना और भी निर्बंध है। टेलर मार्क्स को महत्वोन्मादी बताते हैं क्योंकि उनके अनुसार मार्क्स हमेशा ही अपने आप को दुनिया का बौद्धिक स्वामी समझते थे तब भी जब उन्हें कोई जानता नहीं था। इसके लिए वे द्वंद्ववादी पद्धति में उनके विश्वास का हवाला देते हैं जो उनकी नजर में भी 'थीसिस-एंटीथीसिस-सिंथीसिस' का सरल त्रिस्तरीय ढाँचा था। इसके अनुसार अंत में समाज ऐसी स्थिति में पहुँचेगा जहाँ बिना किसी टकराव के सभी लोग राजी-खुशी रहेंगे। उनका कहना है कि बगैर एक भी खोज किए मार्क्स अपने आप को 'वैज्ञानिक' कहते हैं। मार्क्स उनकी नजर में समाज के विकास के बजाय महज क्रांति की बात करते हैं जो 'तीक्ष्ण और तुरंत' होगी। इतिहास का यह आलम है तो आर्थिक मामलात में तो और भी गड़बड़ी है। उनके अनुसार मार्क्स अतिउत्पादन से पैदा संकट को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे लेकिन यह तो उस जमाने में सर्वमान्य 'मूल्य के श्रम-सिद्धांत' की उपज था। अब यह मान्यता शैक्षिक जगत में अमान्य हो गई है। पूँजीवादी व्यवस्था के आर्थिक अंतर्विरोधों के बढ़ने की 'भविष्यवाणी' टेलर के अनुसार गलत साबित हो गई है। पूँजीपतियों की समृद्धि की बढ़त के साथ ही सर्वहारा की समृद्धि भी बढ़ी है। आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था मार्क्स के बताए पूँजीवाद की तरह नहीं रह गई है क्योंकि स्वामित्व और नियंत्रण में अलगाव आया है। टेलर के मुताबिक मुनाफा पूँजीवाद का एकमात्र चालक तो नहीं ही रह गया है, प्रमुख चालक शक्ति भी नहीं है। टेलर कहते हैं कि मार्क्स ने शांतिपूर्ण समाजवादी क्रांति की संभावना जताई थी लेकिन बाद में इसे छोड़ दिया। असल में तो मार्क्स की असली प्रवृत्ति न केवल स्तालिन तक बल्कि हिटलर और मुसोलिनी तक ले जानेवाली है।

फास्टर के अनुसार दुखद यह है कि सोवियत संघ द्वारा प्रचारित मार्क्सवाद भी इसी तरह मार्क्स की आर्थिक-तकनीकी निर्धारणवादी छवि पेश करता है। इसके विरोध में पश्चिमी जगत के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों द्वारा जो मार्क्सवाद विकसित किया गया वह वर्ग संघर्ष और ऐतिहासिक विकास की वास्तविक दुनिया से दूर होने के कारण ज्यादा संरचनावादी था। लुई अल्थूसर ने क्लाड लेवी-स्त्रास के संरचनावाद से प्रेरणा ले कर 'आधार अधिरचना' को ऐसी संरचना में बदल दिया जिसमें मनुष्य की कर्ता के बतौर कोई भूमिका ही नहीं रही। इसी को विश्लेषणात्मक मार्क्सवादियों ने आगे बढ़ाया है और सीए कोहेन ने दावा किया है कि विश्लेषणात्मक दर्शन के औजारों का इस्तेमाल कर के आधार-अधिरचना के मुहावरे के विश्लेषण के जरिए मार्क्स के समूचे लेखन को व्याख्यायित किया जा सकता है। अल्थूसर और कोहेन ने मार्क्स की रक्षा के नाम पर लिखी किताबों में ये ढाँचे प्रस्तावित किए हैं। उत्तर मार्क्सवादी के नाम से जो आलोचक सामने आए हैं उनका दावा तो मार्क्स के पार जाने का है लेकिन उनके तर्क उतने ही पुराने हैं जितना खुद मार्क्सवाद। जब भी मार्क्सवादी आंदोलन में भाटा आया है ऐसे विचार कुकुरमुत्ते की तरह प्रकट हो जाते हैं।

असल में मार्क्स का निर्धारणवादी पाठ प्रथम विश्व युद्ध से पहले ही दूसरे इंटरनेशनल में सामने आ चुका था। तब तक मार्क्स के लेखन का आधा भी प्रकाशित नहीं हुआ था। बाद में प्रकाशित लेखन को असल में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है जो 1960-70 के दशकों में ही अंग्रेजी में आ सका। इन्हीं में मार्क्स का मानवतावादी रूप उभर कर आया। इस लेखन का असर 1968 में चरम पर पहुँच गया। संयोग से उसी साल फिशर की यह किताब भी छपी। किताब के इस संस्करण के परिशिष्ट में मार्क्स के दो लेखों 'थीसिस आन फायरबाख' और 'ए कंट्रीब्यूशन टु द क्रिटीक आफ पालिटिकल इकोनामी' की भूमिका से आधार-अधिरचना के मुहावरे के अलावा उनकी पद्धति के बारे में पाल स्वीजी का एक लेख भी छापा गया है जो उनकी किताब 'द थियरी आफ कैपिटलिस्ट डेवलपमेंट' का एक हिस्सा है और बेहद उपयोगी है।

इधर के दिनों में मार्क्सवाद पर जो भी सोच-विचार हो रहा है उसकी एक विशेषता मार्क्स के नजरिए में उनके मानववाद पर जोर को रेखांकित करना है। रणधीर सिंह ने भी इस पहलू को उभारा। फिशर की इस किताब में मार्क्स के ही लेखन से महत्वपूर्ण अंशों को चुन कर उनकी व्याख्या की गई है। पुस्तक का पहला अध्याय ही है - द ड्रीम आफ द होल मैन। स्पष्ट है कि मार्क्स के लेखन के उस हिस्से पर बल दिया गया है जिसमें वे आधुनिक पूँजीवादी खंडित मनुष्य के बरक्स संपूर्ण मनुष्य के सपने को समाजवादी समाज का लक्ष्य घोषित करते हैं। उनके मुताबिक अठारहवीं सदी में मनुष्य का अपने आप से अलगाव समूचे यूरोप का बुनियादी अनुभव था। इसलिए अपने आप से, अपनी प्रजाति से, आसपास की प्रकृति से मनुष्य के इस अलगाव का खात्मा उस समय के सभी मानववादियों की साझी चिंता थी। उनमें रोमांटिक लोग भी शामिल थे लेकिन समय बीतने के साथ कुछ लोग अतीत को चरम मुक्ति का समय मान कर उसका गुणगान करने लगे जबकि अन्य भविष्य में मनुष्य के इस अलगाव के खात्मे का सपना सँजोए रहे।

उनके अनुसार मनुष्य श्रम के जरिए ही अपने सार को साकार करता है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में यही श्रम, श्रम विभाजन के हवाले हो जाता है। मार्क्स सामाजिक श्रम विभाजन और मैनुफैक्चरिंग के श्रम विभाजन में फर्क करते हैं। सामाजिक श्रम विभाजन कृषि या उद्योग जैसा विभाजन है। इसी के भीतर लिंग या आयु के हिसाब से हुआ विभाजन भी आता है। कबीलों के बीच युद्ध में पराजित कबीले के लोगों को गुलाम बना कर उनसे मेहनत कराने के चलते भी एक तरह का विभाजन हो जाता है। इसी दौर में वस्तु विनिमय की प्रथा सामने आती है। इसके बाद मानसिक और शारीरिक श्रम का अंतर आता है जिसका सबसे बड़ा रूप गाँव और शहर का विभाजन है। ये दोनों ही श्रम विभाजन न सिर्फ मनुष्य के भीतर छिपी हुई संभावनाओं को साकार करते हैं बल्कि खास तरह की मानसिक और शारीरिक अपंगता को भी जन्म देते हैं। शहर में उत्पादकों के गिल्ड में भी अलग-अलग गिल्डों के बीच का विभाजन बहुत कुछ प्राकृतिक ही होता है। शिल्पी जो कुछ बनाता है उससे उसका अलगाव नहीं होता। वह कोई भी चीज पूरी ही बनाता है। लेकिन मैनुफैक्चरिंग के आगे बढ़ने पर आधुनिक श्रम विभाजन नजर आना शुरू होता है। इसके पहले तक औजार मनुष्य के आदेश मानता था लेकिन आधुनिक उद्योग तो मनुष्य को औजार का गुलाम बना देता है।

यहीं फिशर मार्क्स की एक और बात को रेखांकित करते हैं। उनके मुताबिक भौतिक जीवन मानव अस्तित्व का आधार है न कि उसका उद्देश्य। श्रम अगर आनंद के बजाय भरण पोषण का ही साधन बन कर रह जाता है तो यह मनुष्य की प्रकृति का विरोध है। जब मार्क्स कहते हैं कि मनुष्य के समक्ष आर्थिक स्थितियाँ ऐतिहासिक विकास के एक चरण के बजाय शाश्वत नियम की तरह पेश आती हैं तो वे इन पर विजय पाने की माँग कर रहे होते हैं। वे चाहते हैं कि आर्थिक नियमों के अधीन मनुष्य न रहे बल्कि ये नियम ही परस्पर संबद्ध व्यक्तियों से बनी हुई मानवता के अधीन लाए जाने चाहिए। इस तरह श्रम विभाजन से उत्पादन के साधनों और उत्पाद पर निजी मालिकाना, उत्पादक पर उत्पाद की बरतरी, राज्य, चर्च, कानून जैसी संस्थाओं से व्यक्ति का पराई चीजों की तरह सामना होना आदि पैदा होते हैं और फिर ये ही मिल कर अलगाव नामक स्थिति को जन्म देते हैं। अलगाव के समाज में मनुष्य का अन्य व्यक्तियों के साथ वैसा रिश्ता नहीं रह जाता जैसा दो मनुष्यों के बीच होता है बल्कि उनके बीच मालिक मजदूर, शोषक शोषित, मातहत कमांडर, भिखारी दयावान जैसा आपसी रिश्ता बन जाता है। काम की प्रक्रिया में होनेवाला श्रम विभाजन मनुष्य को उसकी मनुष्यता से विलग कर देता है। सब से आगे बढ़ कर सामाजिक श्रम विभाजन में एक व्यक्ति तो वस्तुओं, औजारों, उत्पाद आदि का मालिक बन जाता है जबकि दूसरा इतना अकिंचन हो जाता है कि अपना शरीर छोड़ कर उसके पास कुछ नहीं रह जाता और उसे भी बेचना पड़ता है। ऐसा माहौल व्यक्तियों की प्रतिभा को विकास का अवसर देनेवाले किसी भी उत्पादक समाज के बनने की संभावना खत्म कर देता है। फिशर के मुताबिक अलगाव की समस्या जीवन भर मार्क्स के सोच विचार का विषय बनी रही। अपने अंतिम ग्रंथ 'पूँजी' के तीसरे खंड में मार्क्स अलगाव के खात्मे की संभावना ऐसी स्थिति में देखते हैं जहाँ मनुष्य जरूरत के लिए उत्पादन के फंदे से बाहर निकल जाए।

वस्तुओं के संसार की कीमत बढ़ने के साथ साथ मानव संसार की कीमत घटने लगती है। वस्तु आखिर है क्या ? वह जो हमारी किसी जरूरत को पूरा करती हो। यही चीज उसका उपयोग मूल्य है। उसका उपयोग मूल्य तभी साकार होता है जब उसका उपभोग हो। यह मूल्य ही विनिमय मूल्य का भी आधार होता है। उपयोग मूल्य के बतौर वस्तुएँ अतुलनीय होती हैं। लेकिन माल के बतौर, उनका विनिमय मूल्य उनमें एक साझी चीज की माँग करता है। विनिमय की दुनिया में वस्तु अपनी गुणवत्ता खो देती है और महज मात्रा में बदल जाती है। वस्तुएँ निश्चित मात्रा की श्रमशक्ति का साकार रूप हो जाती हैं, उनके भीतर मानव श्रम अमूर्त रहता है। माल के भीतर उत्पादन की सामाजिक प्रकृति और उत्पादक की आभासी 'स्वतंत्रता' मूर्तिमान रहती है क्योंकि वह चाहे या न चाहे उसे कच्चे माल और मजदूर, मजदूर की औसत उत्पादकता, माँग और पूर्ति, उपभोक्ता की जरूरतों और उसकी क्रय क्षमता - संक्षेप में सब कुछ के लिए समग्र समाज पर निर्भर रहना पड़ता है। इस तरह माल सर्वावेशी सामाजिक उत्पादन की दुनिया में 'निजी अर्थतंत्र' के आंतरिक अंतर्विरोध का साकारीकरण हो जाता है। जैसे धार्मिक जगत में मनुष्य के दिमाग से पैदा हुई चीजें उससे आजाद हो कर सजीव हो जाती हैं, एक दूसरे से और मानव जाति से रिश्ता बनाने लगती हैं उसी तरह माल की दुनिया में मनुष्य के हाथ से बनी चीजें भी हो जाती हैं। विनिमय की दुनिया में मनुष्यों के बीच तो भौतिक संबंध बनते हैं लेकिन वस्तुओं में सामाजिक संबंध बनते हैं। कोई एक वस्तु अपने मालिक के अनजाने ही सामाजिक हो जाती है। आज मुनाफा कमाती है तो कल घाटा उठाती है, इसकी कीमत में चढ़ाव उतार आता है, कहीं और काम की कोई नई उत्पादक पद्धति लागू होने से इसका मूल्य कम हो जाता है, जब इसके मुकाबले कोई नहीं होता तो इसको फुसलाया जाता है और जब बहुत हो तो खारिज हो जाती है, संकट या युद्ध को जन्म देना तो इसके बाएँ हाथ का खेल है, जिसके पास यह होती है उसे इसका नशा रहता है।

फिशर ने वर्ग और वर्ग संघर्ष की धारणा के सिलसिले में कुछ नई बातें कहने की कोशिश की। इस मसले पर वे अपनी बात यहाँ से शुरू करते हैं कि मार्क्स वर्ग या वर्ग संघर्ष की धारणा के खोजकर्ता या आविष्कारक नहीं थे। वे इस सिद्धांत में मार्क्स के योगदान को निम्नलिखित बातों में देखते हैं :

1. किसी वर्ग की विशेषताओं को निर्धारित करने की कोशिश।

2. वर्गों की उत्पत्ति का विश्लेषण।

3. इस तथ्य की पहचान कि किसी निश्चित समय पर किसी वर्ग के हित उत्पादक शक्तियों के विकास और नई सामाजिक संरचना के प्रति उसके रुझान के मेल में होते हैं जबकि अन्य वर्ग स्थापित पारंपरिक व्यवस्था की रक्षा इसलिए करते हैं क्योंकि वह उनके हितों के मेल में होती है।

4. यह यकीन कि सर्वहारा अंतिम वर्ग है और उसकी मुक्ति के लिए जरूरी है कि सभी वर्गों का खात्मा हो और वर्गविहीन समाज की स्थापना हो।

सामाजिक श्रम विभाजन के चलते तमाम तरह के पेशा आधारित समूहों का जन्म हुआ और फिर लंबे दौर में जटिल प्रक्रिया के तहत इन समूहों से वर्गों का विकास हुआ। वे कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में इस सवाल पर थोड़ी सरलता दिखाई पड़ती है जिसमें आगे चल कर परिष्कार किया गया ताकि समाज की जटिलता को समेटा जा सके और सर्वाधिक महत्वपूर्ण वर्गों की विशेषताओं को परिभाषित किया जा सके। वर्ग कठोर या अपरिवर्तनीय नहीं होते न ही अनादि हैं बल्कि ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज होते हैं। वर्ग साझा विशेष हितों के लिए, जिन्हें 'सामान्य' हित के रूप में स्थापित किया जा चुका होता है, अपने विरोधी साझा विशेष हितों के विरुद्ध लड़ाई के क्रम में पैदा होते हैं, वर्ग के रूप में उनके गठन के लिए यह जरूरी होता है, इसी लड़ाई के क्रम में जनता के विभिन्न तबके गठित हो रहे उस वर्ग की ओर खिंच आते हैं और उसमें समाहित हो जाते हैं, इस प्रक्रिया में बने वर्ग निरंतर गतिमान रहते, अनेक टुकड़ों में बँटते रहते और नई स्थितियों में फिर एकताबद्ध होते रहते हैं, वर्गीय हित व्यक्तियों से कमोबेश स्वतंत्र हैसियत बना लेते हैं, विरोधी हित से उनकी शत्रुता बार बार बनती बिगड़ती रहती है। इस तरह वर्ग लगातार गतिमान, संगठित और पुनर्संगठित होते रहते हैं। पूँजीपति और सर्वहारा इसी तरह लंबी प्रक्रिया में गठित वर्ग हैं। मार्क्स पूँजी के तीसरे खंड के बावनवें अध्याय में इस समस्या को उठाते हैं लेकिन उसे पूरा करने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई लेकिन इस अधूरी पांडुलिपि में भी मार्क्स दो नहीं. तीन बड़े सामाजिक वर्गों की उपस्थिति चिह्नित करते हैं : पगारजीवी श्रमिक, पूँजीपति और जमींदार जो आय और आय के स्रोतों के मुताबिक एक दूसरे से अलग होते हैं अर्थात पगार, मुनाफा और जमीन का किराया।

इसके बाद फिशर लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर में मार्क्स द्वारा राजनीतिक हलचल के बीच प्रकट होनेवाली वर्ग की विशेषताओं का चित्रण करते हैं जिसमें सिर्फ विरोधी ही नहीं मध्यवर्ती तबकों की भी भूमिका को रेखांकित किया गया है। इसी किताब में मार्क्स ने लिखा था कि वर्ग संघर्ष का सर्वोच्च रूप राजनीतिक पार्टियों के बीच का संघर्ष है। वे बताते हैं कि मार्क्स के विश्लेषण के मुताबिक किसी व्यक्ति की आय या जीवन पद्धति सिर्फ उसका 'क्लास इन इटसेल्फ' बताती है। महत्वपूर्ण बात है कि वर्गों का निर्माण वर्ग संघर्ष के दौरान होता है। इस संघर्ष के जरिए ही वह समाजैतिहासिक ताकत बनता है। साफ है कि दो विशाल वर्गों में समाज का अधिकाधिक विभाजन एक प्रक्रिया है लेकिन इसका मतलब मध्यवर्ती वर्गों की अनुपस्थिति नहीं है। यहाँ तक कि मार्क्स पूँजीपति वर्ग में भी बौद्धिकों को अलगाते हैं तभी उनके एक हिस्से के टूट कर मजदूर वर्ग के साथ खड़ा होने की संभावना देखते हैं।

इसके बाद ऐतिहासिक भौतिकवाद संबंधी अध्याय में वे सबसे पहले व्यक्तियों की संपत्ति (इंडिविडुअल प्रापर्टी) और व्यक्तिगत संपत्ति (प्राइवेट प्रापर्टी) में मार्क्स द्वारा किए हुए भेद का उल्लेख करते हैं। इसमें पहले का मतलब व्यक्तिगत उपभोग के लिए उपलब्ध संपत्ति है तो दूसरे का मतलब ऐसी संपत्ति को निजी बनाना है जो सारत: सामाजिक होती है। यह भेद वे इस बात पर जोर देने के लिए करते हैं कि पूँजीवाद लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति से उन्हें बेदखल करके निजी संपत्ति का निर्माण करता है। इसी आधार पर क्रांति के बाद की स्थिति के लिए उनका यह कथन जायज सिद्ध होता है 'बेदखल करनेवालों को बेदखल कर दिया जाता है (एक्सप्राप्रिएटर्स आर एक्सप्राप्रिएटेड)।'

इसी प्रसंग में 'राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान' की प्रसिद्ध भूमिका को उद्धृत करने के बाद वे स्वीकार करते हैं कि इसके यांत्रिक अतिसरलीकरण की गुंजाइश है और ऐसा हुआ भी है। अपूर्व द्वंद्ववादी होने के बावजूद मार्क्स कहीं कहीं यह भ्रम पैदा करने का मौका देते हैं कि मानो इतिहास की संचालक शक्ति मनुष्य नहीं बल्कि श्रम के औजार, मशीन और वस्तुओं की दुनिया है। यही आलोचना आगे चल कर हम टेरी ईगलटन के लेखन में पाएँगे। इस तरह की धारणाओं को वे हेगेल और डार्विन का असर मानते हैं। हालाँकि वे 'पावर्टी आफ फिलासफी' से यह भी उद्धृत करते हैं कि 'उत्पादन के सभी औजारों में सबसे शक्तिशाली उत्पादक शक्ति खुद क्रांतिकारी वर्ग होता है।' साथ ही 'होली फैमिली' से उद्धरण दे कर साबित करते हैं कि मार्क्स के लिए इतिहास और कुछ नहीं जीवित मनुष्यों द्वारा अपने मकसद को पाने के लिए किया गया काम है। आखिरकार मार्क्स महज चिंतक नहीं, मजदूर आंदोलन के नेता भी थे इसलिए वे समाजवाद के लिए सामाजिक ताकतों को संगठित करने का महत्व भी जानते थे। इसीलिए मार्क्स जब नियमों की बात करते हैं तो उन्हें प्रवृत्तियों की तरह समझा जाना चाहिए।

फिशर का कहना है कि विकास के तथाकथित नियमों की तरह ही आधार अधिरचना का संबंध भी यांत्रिक तरीके से समझा गया है। असल में बौद्धिक उत्पाद भौतिक उत्पादन की तरह नहीं होता बल्कि उसके साथ और उससे निरंतर अंत:क्रिया में होता है। किसी भी समय शासकों के विचार उस समय के प्रभावी विचार होते हैं लेकिन वे ही एकमात्र विचार नहीं होते। मार्क्स बार बार इस बात पर जोर देते हैं कि किसी भी समाज में उसके नाश के बीज निहित रहते हैं। नया समाज पुराने के नकार के बतौर ही पैदा होता है। प्रभावी विचारों के साथ ही साथ विरोधी प्रतिगामी या अग्रगामी विचार भी मौजूद होते हैं और वर्ग संघर्ष केवल आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक और बौद्धिक लड़ाई भी होता है। चेतना भी सही, गलत और भ्रामक होती है। ठोस स्थितियों के विश्लेषण में हमेशा ही मार्क्स चेतना और सामाजिक अस्तित्व की अंत:क्रिया का चित्रण करते हैं। मार्क्स के मुताबिक 'लोग अपने इतिहास का निर्माण करते हैं, लेकिन वे अपनी मर्जी के अनुसार उसका निर्माण नहीं करते; वे अपनी चुनी हुई परिस्थितियों में उसका निर्माण नहीं करते, बल्कि ऐसा उन्हें अतीत से प्राप्त, प्रदत्त और मौजूद स्थितियों से सीधे टकराते हुए करना पड़ता है।'

किताब के अंत में फिशर भविष्य के लिए मार्क्सवाद की चार रोचक धाराओं का जिक्र करते हैं :

1. मार्क्सवाद को ऐसा वैज्ञानिक विश्व दृष्टिकोण समझना जिसे इतिहास की द्वंद्वात्मक व्याख्या के लिए लागू किया जा सकता है। यह धारणा मार्क्स की बनिस्बत एंगेल्स के विचारों से ज्यादा प्रभावित है लेकिन एंगेल्स इस बात को भी ध्यान में रखते हैं कि हरेक नई खोज के साथ भौतिकवाद को भी बदलना होगा। इसके चलते एंगेल्स के भी विचारों की फिर से परीक्षा हो रही है, उनकी सामान्यताओं को दुरुस्त किया जा रहा है और आधुनिक विज्ञान की कुछेक महत्वपूर्ण खोजों को गैरमार्क्सवादी साबित करनेवाले प्रतिबंधों को ढीला किया जा रहा है।

2. 'मनुष्य के दर्शन' के रूप में मार्क्सवाद की परिकल्पना जिसमें अलगाव को बुनियादी धारणा माना जाए। आजकल ज्यादातर मार्क्सवाद का विकास इसी दिशा में हो रहा है।

3. संरचनावाद से प्रभावित हो कर मार्क्स के लेखन को भाषा और मिथ के विश्लेषण के लायक बनाना। यह विकास मार्क्सवाद को अकादमिक बनाने की ओर ले गया।

4. इतिहास और राजनीतिक पहल के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक पद्धति के बतौर उसे विकसित करना। तीसरी दुनिया के देशों में अधिकतर मार्क्सवाद का विकास इसी लक्ष्य की ओर अग्रसर है।