पुलिस की सीटी / अज्ञेय

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सीटी बजी।

सत्य सड़क पर चलता-चलता एकाएक रुक गया, स्तब्ध, बिलकुल निश्चेष्ट होकर खड़ा रह गया।

सीटी फिर बजी।

सत्य के हाथ-पैर काँपने लगे, टाँगें लड़खड़ा-सी गयीं, उसे जान पड़ा, मानो अभी संसार में अँधेरा हो जाएगा, पृथ्वी स्थानच्युत हो जाएगी - उसने सहारे के लिए हाथ आगे बढ़ाया। हाथ कुछ थाम नहीं सका, मुट्ठी-भर उड़ती हुई हवा को अँगुलियों में से फिसल जाने देकर खाली ही रह गया, तब सत्य ने समझ लिया कि वह गिरेगा, गिरकर ही रहेगा। उसने आँखें बन्द कर लीं...

एक साल पहले-

पार्क में सत्य धीरे-धीरे टहल रहा था। उसके हृदय में जो व्यग्रता भर रही थी उसे किसी तरह वह छिपा लेना चाहता था, लेकिन वह छिपती नहीं थी। इस पर उसका मन एकाएक झल्ला उठता था, क्योंकि वह तो क्रान्तिकारी है, उसकी तो पहली सीख ही यह है कि अपने उद्वेगों को प्रकट मत होने दो। जो आत्मिक शक्ति उद्वेग पैदा करना चाहती है उसे क्रिया-शक्ति में, कठोर कर्मठता में परिवर्तित कर दो। फिर उसी झल्लाहट से वह उद्वेग और भी प्रकट हो गया-सा जान पड़ता, और सत्य ज़रा तेज़ी से टहलने लग जाता...

विस्तृत हरियाली के परले पार से एक आदमी निकलकर सत्य की ओर जा रहा था। जब वह सत्य के बिलकुल निकट आ गया, तब सत्य ने धीरे से कहा, “कहिए-” और फिर दोनों बाँह में बाँह डाले एक घने छायादार वृक्ष की ओर चल पड़े।

“क्या-क्या समाचार हैं?”

सत्य जल्दी-जल्दी अपनी बात कहने लगा। समाचार उसके पास अधिक नहीं थे, लेकिन इस मितभाषी, प्रचंडकर्मी नेता चूड़ामणि के प्रति उसमें इतनी श्रद्धा थी कि उसके प्रत्येक आदर्श को वह एक साँस में ही पूरा कर डालना चाहता था। अभी उसकी कोई बात पूरी नहीं हुई थी कि चूड़ामणि ने उसे टोककर शान्त किया, किन्तु फिर भी न जाने क्यों, अधिकार-भरे स्वर में कहा, “अच्छा, मेरे पीछे पुलिस है। मेरे यहाँ होने का तो पता था ही, आज एक आदमी ने शायद पहचान भी लिया है। पुराना दोस्त था। कुछ गड़बड़ हो सकती है।”

सत्य ने अचानक कहा, “तो-?”

“मैं उसके लिए तैयार हूँ। तुम हो कि नहीं? तुम्हें अभी यहाँ से निकल जाने के लिए तैयार होना चाहिए।”

एकाएक सत्य को लगा कि पार्क में कहीं कुछ शंकनीय बात है। अकारण ही उसके मन में घिर गये होने का, थोड़ी-सी घबराहट का भाव उदित हुआ। जो लोग खतरे में रहते हैं वही इस तर्कातीत भावना को समझ सकते हैं - बल्कि वे भी सदा नहीं समझते। सत्य भी नहीं समझ सका कि वह ऐसा शंकित और कंटकित क्यों हो उठा है। उसने अनिश्चित स्वर में कहा, “मुझे शक होता है, कुछ गड़बड़ है-”

चूड़ामणि स्थिर दृष्टि से हरियाली के पार तीव्र गति से पेड़ों के झुरमुट की ओर जाते हुए एक मानवी आकार की ओर देख रहे थे। आँखें उधर गड़ाये हुए ही बोले, “तुम्हें शक है, मुझे निश्चय। उस आदमी को मैं जानता हूँ। अभी पाँच मिनट के अन्दर कुछ होगा। इधर आओ।”

चूड़ामणि उठकर पेड़ के तने की ओट हो गये। सत्य भी पीछे-पीछे हो लिया। इस तरफ़ पेड़ के पीछे एक पत्थरों की दीवार थी, दीवार के दूसरी ओर एक खाई जिसमें बरसाती पानी भरा हुआ था।

चूड़ामणि ने कहा, “अभी जो कुछ होनेवाला है उससे चौंकना मत। उसका सम्बन्ध मुझसे है - मुझसे है - मुझी से है। तुम सुनो, तुम्हें क्या करना है और सुनकर जाओ यहाँ से-”

तभी सीटी बजी। एक बार, दूसरी बार कुछ अधिक तीखी, फिर एक साथ सीटियाँ-वातावरण मानो अनेक साँपों की फुफकार से सजीव होकर चीख उठा हो।

चूड़ामणि ने अपने कपड़ों के भीतर से दो रिवाल्वर निकाले और दोनों के चेम्बर जाँचकर सन्नद्ध होकर बैठ गये।

सत्य ने देखा, सामने एक झुरमुट की आड़ में तीन-चार व्यक्ति-छिपी-छिपी, दीख न सकनेवाली, किसी छठी इन्द्रिय से जानी जानेवाली गति-फिर इस्पात की नीली-सी चमक...

“मेरे ठीक पीछे खड़े रहो-पेड़ के इधर-उधर न होना।”

सत्य ने आज्ञा का पालन किया। सर्राती हुई एक गोली उसके पास से निकल गयी।

“ठीक। शुरू है।”

एक और गोली। फिर एक साथ सनसनाती हुई कई गोलियाँ।

“अब मेरी बारी है।

एक!

दो!

तीन!

दूसरी ओर से कराहने की आवाज़ें, और उसके बाद गोलियों की तीव्र बौछार।

“लो और!” चूड़ामणि ने भी तीन-चार फ़ायर और किये।

“लो, इसे, भरो।” रिवाल्वर सत्य को थमाकर वह दूसरे रिवाल्वर से निशाना साधने लगे।

“हाँ सुनो। तुम्हें यहाँ से सीधे कानपुर जाना होगा। वहाँ विश्वनाथ से मिलो। उसे एक पत्र देना है - मेरी बायीं जेब से निकाल लो और कहना है कि इसमें दी हुई हिदायतों के अनुसार वह काम करे। पते भी इसी पत्र में दिये हुए हैं। पढ़ने की विधि वह जानता है।”

दो-एक गोलियाँ चलाकर वे फिर कहने लगे, “वहाँ से फिर यहाँ लौटकर आना - पर बहुत जल्दी नहीं, और गरिमा से मिलना। उसे मैं कह आया था कि जब तक मेरा आदेश न हो, वहाँ से टले नहीं। और अब - मैं आदेश देने नहीं जा सकूँगा।” उनकी हँसी बिलकुल खोखली थी। “उसे कहना कि यहाँ से टल जाए - लेकिन तुम उसे पहचान तो लोगे न? एक ही बार देखा है-”

“हाँ!” सत्य को याद आ गया। गरिमा चूड़ामणि की बहन थी और विधवा थी। उसका पति चूड़ामणि के क्रान्तिकारी दल की ओर से किसी आक्रमण की तैयारी में अकस्मात् विस्फोट हो जाने से मर गया था। वही उस आक्रमण का नेता था, इसलिए उसकी आकस्मिक मृत्यु से सबके हौसले पस्त हो गये थे। लेकिन गरिमा ने कहा, “उनका काम मैं पूरा करूँगी। और अगर उनके चले जाने से लोगों के हौसले टूट जाएँगे, तो - तो मैं उनकी मृत्यु को अत्यन्त गुप्त रखूँगी। उसका किसी को पता भी नहीं लगेगा। मैं अपने मन, वचन और कर्म के ज़ोर से लोगों के सामने उन्हें जीवित रखूँगी। आप लोग इसमें मेरी सहायता करें।” सत्य ने गरिमा को केवल एक बार देखा था - पति के देहान्त के अगले दिन प्रातःकाल के समय। उस समय वह स्नान के उपरान्त एक ऐसा काम कर रही थी, जिसके एक क्रान्तिकारिणी द्वारा किए जा सकने की बात सत्य ने कल्पना में भी नहीं देखी थी - वह मांग में सिन्दूर भर रही थी। सत्य ने जब जाकर उससे अपना सन्देश कहा था तब वह मुस्करा भी सकी थी...

“पहचान लूँगा।’ एक ही बार देखा है, वह वैसे दो बार दीखता कौन है?

“लेकिन-”

“क्या?”

“लेकिन यदि मैं पहुँच न सका तो?”

“सकना क्या होता है? मैं कहता हूँ कि पहुँचना होगा, तो पहुँचना होगा। तुम्हें नहीं, मेरे सन्देश को। होना, न होना, सम्भव होना, यह आदमियों के साथ, जीवन के साथ है कर्त्तव्य के साथ एक ही बात होती है - होना। चाहे किसी तरह, किसी के हाथ।”

गोलियों की बौछार फिर हुई।

“अच्छी बात; तो गरिमा से कह देना। यदि वह न माने कि तुम मेरा सन्देश लेकर आये हो, तो उसे याद दिलाना कि हरनौटा गाँव के पास उसने मेरी बाँह पर पट्टी बाँधी थी तो उसमें एक फूल भी बाँध दिया था। और वह फूल-”

फिर गोलियों में तीखी बौछार हुई। चूड़ामणि ने धीरे-धीरे निशाना साधकर उत्तर दिया। दूसरी ओर से फिर बौछार हुई। लेकिन गोलियों का शोर कराहने की आवाज़ों को छिपा न सका।

“इसे भरो - वह मुझे दो।”

सत्य चुपचाप दूसरे रिवाल्वर में कारतूस भरने लगा।

“और कितने राउंड हैं?”

“बाईस।”

“दस अलग करो।”

अनैच्छिक क्रिया से चलती हुई गोलियों में धमाके गिनते हुए सत्य ने चूड़ामणि की आज्ञा का पालन किया। गोलियाँ चलती रहीं। दूसरी ओर से फिर कराहने का स्वर आया और फिर उसके बाद एकाएक गोलियों की तीखी उत्क्रुद्ध बौछार...

“हूँ। किसी अफ़सर के गोली लगी है।”

“कैसे?”

“देखते नहीं, कैसा क्रुद्ध और बेअन्दाज़ फ़ायरिंग हो रहा है?”

“हूँ।”

क्षण-भर की नीरवता, जिसे एकाध गोली ने ज़रा-सा कँपा-सा दिया।

“इसे भरो। बाक़ी चार राउंड अपनी जेब में डाल लो।”

सत्य ने वैसा ही किया।

“बाक़ी बारह मेरे आगे रख दो।”

यन्त्रचालित-से सत्य ने यह आदेश भी पूरा किया।

“अब तुम्हारे जाने का वक़्त आ गया - जाओ! उफ़...!”

एक गोली चूड़ामणि की दाहिनी बाँह में कलाई से कुछ ऊपर लगी थी।

“यह तो ठीक नहीं हुआ। ख़ैर।” उन्होंने दूसरा हाथ सत्य की ओर बढ़ाया “वह भरा रिवाल्वर मुझे दो - और यह खाली कारतूस तुम ले जाओ - भागते-भागते भर लेना।”

“पर-”

इसकी अनसुनी करते हुए चूड़ामणि ने कहा, “‘यहाँ से पेड़ की आड़ रखते हुए ही दीवार के पास जाओ - वहाँ झाड़ी के पीछे झुककर गोली की मार से बाहर हो जाना। बस, फिर दौड़ना-निकल जाओगे।”

“पर आपको छोड़कर-”

“जाओ! कारतूस थोड़े हैं और मेरा बायाँ हाथ है। जाओ - मैं कहता हूँ - चले जाओ!”

सत्य अत्यन्त अनिच्छापूर्वक हटने लगा। झाड़ी के पास पहुँचकर उसने लौटकर देखा। रिवाल्वर में कारतूस भरते समय चूड़ामणि के एक और गोली लगी थी।

“भइया, प्रणाम।” भर्रायी हुई आवाज़ में सत्य ने पुकारा।

“हूँ। अभी यहीं हो? मेरी आख़िरी फ़िल है।”

सत्य दीवार के नीचे पहुँच गया। अब दौड़कर गोलियों की मार से बाहर निकल जाना ही शेष था। दौड़ने से पहले उसने एक बार फिर लौटकर देखा।

“गये?” चूड़ामणि एकाएक पेड़ की आड़ में से निकलकर खुले में आ गये थे, निशाना साधकर गोली चलाते हुए आगे बढ़े जा रहे थे।

कराहने की आवाज़ें - उसके ऊपर चूड़ामणि का कृत निश्चय से गूँजता हुआ स्वर - “और लो! और लो! और यह लो! सिर्फ़ आखिरी राउंड मेरा है।”

चीखें। कराहने का स्वर। फिर और तीखी दर्द-भरी चीखें।

सत्य दौड़ा।

“और गरिमा से कहना, वह फूल अभी तक मेरे पास है।”

भागते हुए सत्य ने गोली का एक दबा हुआ-सा स्वर सुना, मानो नली शरीर के बहुत नज़दीक रखकर रिवाल्वर चलाया गया हो। उसके बाद गोलियों की लगातार कई मिनट की तीखी बौछार...

फिर सीटियाँ, तीखी, कर्कश सीटियाँ... और खाई का एक छोटा-सा पुल, फिर सड़क का एक मोड़, और फिर नीरवता!

एकदम अखंड नीरवता-केवल उसके पैरों का ‘धम्-धम्’ और उसके हृदय का ‘धक्-धक्’-स्पन्दन...

सीटी फिर बजी, तीखी और कर्कश।

जितना ही सत्य का शरीर अवश जड़ित होता जाता था, उतना ही उसका मन अवश गति से दौड़ रहा था...

गरिमा की आँखें कैसी थीं? गति नहीं थी, ज्योंति नहीं थी - थी एक भीषण जड़ता, एक साहस रोमांचित कर देनेवाली प्राणहीन स्थिरता। और वह वैसे ही निष्प्राण स्वर से सत्य की कही हुई बात का एक-एक वाक्य उसके पीछे दोहराती जा रही थी - एक अबोध पक्षी की तरह जिसे बोलने को ज़बान तो है लेकिन समझने को मस्तिष्क नहीं। “पट्टी बाँधी थी, तो एक फूल भी बांध दिया था।’ ‘हाँ, बांध दिया था।’ ‘कहा था, मेरे आदेश के बिना कहीं मत जाना।’ ‘हाँ, कहा था।’ ‘उससे कहना, वह फूल अभी तक मेरे पास है।’ ‘आखिरी राउण्ड...”

हाँ, जब सत्य को जान पड़ा था कि गरिमा कुछ देर भी और ऐसे रही, तो वह या तो अपना सिर फोड़ लेगा या उसे मार डालेगा - इतना अमानुषी थी वह परिस्थिति - तभी उसकी आँखों में एक आँसू आया था। एक ही आँसू - दूसरा नहीं आया था, और पहला आँख से टपका नहीं था। लेकिन दुबारा उसने कहना चाहा था, ‘राउण्ड मेरा है’ तब उसकी आवाज़ बदल गयी थी, टूट गयी थी-

आज एक साल बाद भी क्यों वह आँसू भरी आँख - सीटी फिर बजी। अबकी बार सत्य के बहुत ही निकट। इतने निकट कि उसकी घबराहट दूर हो गयी, हाथ-पैर काँपने बन्द हो गये, उसने आँखें खोलीं कि अब तो वह घिर ही गया। उसकी बारी आ ही गयी, क्या हुआ एक साल बाद आयी तो - क्या हुआ ऐसा घटना - पूर्ण खिंचाव-भरे एक साल बाद आयी तो!

लेकिन आज एक साल भी बाद क्यों वह आँसू-भरी आँख-

एक छोटा-सा लड़का सत्य के आगे खड़ा था। उसके हाथ में चमकता-सा कुछ था-

सत्य को एकाएक लगा कि वह बेवकूफ़ है - परले दर्जे का बेवकूफ़, वज्र-मूर्ख है - उसने हँसना चाहा लेकिन हँसी उसके गले के भीतर ही सूख गयी। अपने-आपको और भी अधिक बेवक़ूफ अनुभव करते हुए अटकती हुई ज़बान से उसने किसी तरह कहा, “ओ बच्चे, तुम-तुम...”

बच्चे ने सीटी मुँह में डालते हुए सन्देह-भरे स्वर में पूछा, “क्या तुम-तुम?”

(कलकत्ता, मार्च 1938)