पुष्पा मेहरा का सागर -मन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
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मात्सुओ बाशो (1644-1694) से लगभग 500 साल पहले से हाइकु haiku प्रचलन में था, लेकिन इस नाम 1-sagar manसे न होकर होक्कु (Hokku) के नाम से अभिहित किया जाता था। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में मासाओका शिकि ने इसे हाइकु नाम दिया। इसके महत्त्वपूर्ण होने का मुख्य कारण है-शृंखलाबद्ध कविता में इसका प्रमुख स्थान। दूसरे रूप में कहें तो प्रमुख कवि के द्वारा जो आरम्भ की तीन पक्तियाँ प्रस्तुत की जाती थी, वे अपने आप में पूर्ण एवं संश्लिष्ट होती थीं। इस भाग को होक्कु कहा जाता था। शृंखला का आधार प्रथम 'वाक्य भाग' 5-7-5 कामि नो कू (KAMI NO KU) होता था न कि अवर वाक्य भाग 7-7 शिमो नो कू (SHIMO NO KU) । बाशो ने हाइकु के लिए व्यापक दृष्टिकोण अपनाया। हाइकु का विषय कुछ भी हो सकता था। लेकिन एक बात बताना अप्रासंगिक न होगा कि अच्छा काव्य सायास नहीं होता; बल्कि स्वत: स्फूर्त होता है।

हाइकु काव्य का बीज-मन्त्र है। हाइकु में विषय की व्याख्या या विस्तार की आवश्यकता नहीं है, जो भी अभिव्यक्ति हो, उसमें अनावश्यक शब्दावली का अवकाश नहीं होना चाहिए। सांकेतिकता और ध्वन्यात्मकता, भावप्रवणता और नूतन कल्पना हाइकु को महत्त्वपूर्ण बनाते हैं, अन्तर्दृष्टि का अभाव, सपाटबयानी, कल्पना शून्यता, और वैचारिक दुरूहता उसे काव्य के दायरे से बाहर करते हैं। इधर कुछ लोगों ने सपाटबयानी के साथ 5-7-5 के संयोजन को ही हाइकु समझ लिया है। रातों–रात बिना किसी साधना के कुछ ने और आगे बढ़कर भाव, कल्पना और विचारशून्य बेदम शब्दावली का नीरस तूमार खड़ा करके उसको गीत का नाम देना शुरू कर दिया। गीत में जिस स्थायी और अन्तरा का संयोजन होना चाहिए, उसका दूर–दूर तक नामोनिशान नहीं। भाव और कल्पना तो बहुत दूर की बात है। अगर हाइकु में केवल 5-7-5 का गठनमात्र है, उसमें काव्य नहीं है; तो वह हाइकु भी नहीं है। हिन्दी में कुछ ऐसे छन्दपोषक भी उग आए हैं, जिन्होंने अखबारी रोजनामचे को हाइकु में तब्दील कर दिया।

किसी समय प्रकृति हाइकु का प्राण हुआ करती थी। अब हालत यहाँ तक पहुँच गई है कि पूरा संग्रह फटकने पर भी प्रकृति विषयक दो चार हाइकु भी दुर्लभ हो जाएँगे। मनुष्य से परे साहित्य नहीं, यह जगत् सत्य है, लेकिन एक सत्य यह भी है कि प्रकृति ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। मनुष्य इस प्रकृति के बिना नहीं रह सकता। प्रकृति, मनुष्य के बिना भी अपना अस्तित्त्व और नैसर्गिक सौन्दर्य बनाए रख सकती है। । ये मौसम, नदी, झरने, पर्वत, हरी–भरी धरती, खूबसूरत पशु–पक्षी मनुष्य को अपनी ओर खींचते रहे हैं। हाइकुकारों में एक नया वर्ग उभरकर आया है, जो मूलत: काव्य-वैभव से सम्पन्न है। वरिष्ठ कवयित्री डॉ0 सुधा गुप्ता के बाद डॉ0 भावना कुँअर, डॉ0 हरदीप सन्धु, कमला निखुर्पा, रचना श्रीवास्तव, डॉ0 ज्योत्स्ना शर्मा, ज्योत्स्ना प्रदीप, सुदर्शन रत्नाकर, डॉ0 जेनी शबनम, अनिता ललित, कृष्णा वर्मा, शशि पाधा आदि के हाइकु में प्रकृति का नित्य परिवर्तनशील नूतन सौन्दर्य बहुतायत में मिलता है। इसी कड़ी में वरिष्ठ कवयित्री पुष्पा मेहरा का हाइकु में प्रवेश प्रकृति की गम्भीर धारा को लेकर हुआ है। इनके 'सागर–मन' हाइकु-संग्रह में पूरी प्रकृति नए–निखरे रूप में पूरे विस्तार के साथ विद्यमान है।

पक्षिगण का कुलकुल भोर की वाणी हैं, तो कमल उस पुण्य वाणी के साथ समर्पित भावांजलि। कलियों की मन्द मुस्कान धूप के सौन्दर्य में और अभिवृद्धि कर देती है-

मुखर भोर / चहके पक्षी–दल / खिले कमल।

मंद–मुस्कान / बिखेरती कलियाँ / धूप पर हँसी।

यह सौन्दर्य इतना उद्दाम है कि आँख भर देखने पर भी प्यास नहीं बुझती। ऐसा वही रचनाकार कह सकता है, जो मन-प्राण से प्रकृति से गर्भनाल की तरह जुड़ा हो।

छटा ललाम / भर आँख देखूँ मैं / प्यास न बुझे।

सूर्य और शाम का शाश्वत गठबन्धन प्रकृति में व्याप्त प्रेम के अटूट रिश्ते की व्यंजना से सिंचित है। सिन्दूरी शाम की सिन्दूरी आभा इस साहचर्य की साक्षी बन जाती है

सूर्य ने डाला / मन-भर सिन्दूर / साँझ की माँग।

चाँद की अनुपस्थिति में अमावस की बेसुधी नए अन्दाज़ में प्रस्तुत हुई है-

मावस रात / उदास, तारों–तीर / बेसुध सोई।

पुष्पा मेहरा के हाइकु में वसन्त केवल ॠतु ही नहीं है, वरन् एक संस्कृति का भी सूचक है। जो हाइकु विरोधी इस विधा को कोसते नहीं थकते; उन्हें 'द्वारचार' कभी जापानी हाइकु में नज़र आ जाएगा क्या? वसन्त का इससे उत्कृष्ट भारतीय बिम्ब और क्या हो सकता है! धरा–नागरी 'पीत वसन' बाँटकर वसन्त के रूप की व्यापकता को प्रस्तुत कर देती है। 'बँधेज' की चुनरी भारत की पहचान है, न कि किसी विदेशी परिधान की–

है द्वारचार / उद्यान लिये खड़ा / कुंभ-पलाश।

आया बसंत- / धरा-नागरी बाँटे / पीत-वसन।

फूलों ने ओढ़ी / चुनरी बँधेज की / हवा मचली।

वसन्त काल की हवा की चपलता का मानवीकरण इसलिए वास्तविक बन गया; क्योंकि उसकी चेष्टाओं में शरारत भरी हुई है। वह हवा तो अपनी शतानियों से आकाश को भी चकित कर देती है कि अरे! अरे! ये क्या कर दिया! उधर सूर्य की स्वर्णिम किरणें भी अपनी रंग-भरी पिचकारी लेकर सबको रँगने पर उतारू है-

हवा चपल / आँचल खींच उड़े / विस्मित–नभ।

स्वर्ण-किरण / रंग पिचकारी ले / सबको रँगे।

फागुन की हवा तो और भी शैतान है। चाँटे जड़ देती है और भाग खड़ी होती है। किसी के हाथ तक नहीं आती-

सरसराती / हवा–चाँटे मारती / हाथ न आती।

ग्रीष्म ॠतु के चित्रण को पुष्पा मेहरा की लेखनी ने जीवन्त कर दिया है। भाषिक सौन्दर्य–'धधके धू-धू' अपनी अनुप्रासिकता औत ध्वन्यात्मकता के कारण गर्मी के बिम्ब को और गहराई से उकेर देता है। कमज़ोर भाषा कभी सशक्त हाइकु का आधार नहीं बन सकती। भावानुकूल शब्द-चयन में कवयित्री का कौशल स्पृहणीय है। इस मौसम में भी दिल खोलकर हँसने वाला जीवट गुलमोहर है, सूरज केवल उजाला ही नहीं करता; बल्कि वह धूप के बीज बोता है। उसी बीज से पल्लवित–पुष्पित होकर धरती हास बिखेरती है। इस धूप से आक्रान्त होने वाले बहुत होंगे; लेकिन कैक्टस जी जिजीविषा अद्भुत है। उसने काँटों-भरा ताज पहना है, तो किसी धूल-भरी आँधी-तूफ़ान की चिन्ता क्यों जाए!

धधके धू-धू / जेठ दोपहरिया / बेहाल–तन।

पुष्प-थाल ले / गुलमोहर–हँसे / दिल खोलके।

धूप के बीज / सूरज ने बो दिये / हँसी धरती।

आँधी रेतीली / ताज ले काँटों–भरा / खड़ा कैक्टस।

वर्षा ॠतु का अलग ही जलवा है। एक तरफ़ सूखा रुलाता है, तो दूसरी ओर अतिवृष्टि में सड़कें डूब जाती हैं। वर्षा का मौसम बच्चों के लिए सबसे बड़ा उत्सव बन जाता है। काग़ज़ की नन्ही नौकाएँ उनका सर्वप्रिय खेल बन जाता है। अब अम्मा उनको लाख रोकना चाहे तो वे कहाँ रुकने वाले हैं। बिजली कभी दुन्दुभी बजाती है, कभी नंगी कटारें दिखाकर आतंकित करती है। वर्षा के बाद नदी-नाले तेजी से बहने लगते हैं। कवयित्री को लगता है-जैसे कोई ख़ूब पिटाई होने के बाद फूट-फूटकर रो रहा हो।

सड़कें गुम / जल ही जल भरा / डूबे चौंतरे।

बना ली नाव / तैराने चले बच्चे / रोकती अम्मा।

श्यामल–मेघ / काली कमली ओढ़े / बेढंगे चलें।

दिखा कटारें / चिंघाड़ें–दिग्गज से / बादल–काले।

वर्षा से पिटे / पहाड़ों के दिल भी / फूट के रोए।

वर्षा रुकते ही बीरबहूटी (एक बरसाती कीड़ा) का मूँगे की तरह बिछना इस ॠतु के सौन्दर्य को बढ़ा देता है। आकाश का गुण है उच्चता का भाव अपने को बड़ा समझना और धरती का गुण है-धैर्य और विनम्रता। आकाश सूखा रह गया और धरती भीग गई–

भीगी धरती / लाल-बीरबहूटी / मूँगे—सी बिछी।

आकाश-ऊँचा / सूखा ही रह गया / नहा ली धरा।

वर्षा ॠतु के समाप्त होते ही पूरा वातावरण बदल जाता है। मेघों से रहित आकाश की निर्मलता, धुले-पुँछे पात, उसी निर्मलता में खिला चन्द्रमा, धूल-भरा मौसम तो बरसात में धुल ही गया था। शरद् कालीन निर्मलता पूरी सृष्टि का शृंगार बनी दृष्टिगोचर होती है। लगता रात दूधों नहाई हो। भाषा की प्रौढ़ता के बिना गहरा भाव बिम्ब नहीं उकेरा जा सकता। 'दिठौना' जैसी लोक धारणा इन हाइकु को भारतीय लोकरंग में रँग देती है। प्रकृति का ऐसा दुर्लभ सौन्दर्य हाइकु में उतारना व्यापक काव्यदृष्टि और गहन अनुभव के बिना असम्भव है-

निरभ्र–नभ / धुली-धुली है हवा / पत्ते भी खुश।

चाँद की हँसी / खिली रातरानी–सी / लजाए मोती।

दूधों नहाई / लिपट गयी रात / माँ वसुधा से।

दूधिया चाँद / माथे दिठौना लगा / खड़ा छौना-सा।

शीत काल जब आता है तो सबको अपनी शक्ति का आभास कराता है। शीतल पाटी (चटाई) बिछाकर कोहरा लेट जाता है, जिसके आगे रौशनी भी हार मान बैठती है। शिराएँ जमने पर नदी भी रुक–सी गई है। चारों तरफ़ पाला पसरा हुआ है। लगता है शीत रूपी धुनकी से ढेरों रूई धुनकर फैला दी हो–

हारी रोशनी / बिछा शीतल पाटी / लेटा कोहरा।

बेसुध-नदी / शिराएँ जम रहीं / गति ही भूली।

शीत–धुनकी / फैलाती धरा पर / पाले की रूई।

शीत ॠतु में शूलों की नोक पर सजी बूँद का सौन्दर्य हीरे–सा आभामय लागता है। ठण्ड के मारे नन्हे पंछी चहचहाना भी भूल गए हैं। नीला आकाश अब नीला कहाँ रहा। वह तो कोहरे की शराब पीकर औंधा पड़ा हुआ है। चारों तरफ़ सन्नाटा छाया है। इस सन्नाटे की उद्भावना कवयित्री ने कोहरे नदी में आकण्ठ डूबे भवनों से की है-

शूलों की नोक / ओस-बूँद आ रुकी / हीरे-सी सजी।

नन्हे से पंछी / पेड़ों में छिपे बैठे / चूँ-चूँ भी भूले।

नीला आकाश / कोहरा-शराब पी / औंधा हो पड़ा।

मौन-भवन / कोहरे की नदी में / आकंठ डूबे।

पतझर आता है तो उसका अन्दाज़ ही निराला होता है। पत्ते क्या झड़े, पक्षियों का ठिकाना ही छिन जाता है। जाते-जाते ये पत्ते फिर से आने का आश्वासन देकर गए। हाइकु में आशावाद की यह गूँज बहुत आश्वस्त करती है। पतझर के बाद यही आशावाद मानवीकरण के माध्यम से कोंपलों के किलकने की मधुर कल्पना भी करता है।

'किलकेंगी कोंपलें'-जैसे प्रयोग चित्रण को और अधिक ग्राह्य और अनुभवजन्य बनाते हैं-

पाखी ढूँढ़ते। पेड़ों का झुरमुट / पत्तों की छाँव।

पत्ते जो गए / ये कह के गये थे- / 'आएँगे फिर!'

डालों के काँधे / किलकेंगी कोंपलें / नव-शिशु-सी।

प्रकृति के अन्य शाश्वत रूपों में भी पुष्पा मेहरा का मन ख़ूब रमा है। पंच तत्त्वों के रूपों-हवा और धरती को देखिए-

हवा चपल / आँचल खींच उड़े / विस्मित-नभ।

फूल ख़ामोश / ख़ुशबू उड़ा चली / हवा उद्दंड।

निखारे रूप / लगा के अंगराग / धरा-नागरी।

पर्यावरण की चिन्ता हाइकुकार के जागरूक चिन्तन की प्रतीक है। नदियों का गिरता जलस्तर आज पूरे देश की चिन्ता है। नदियों की तृषा न बुझना संकटापन्न स्थिति का संकेत करता है। प्रदूषण रूपी मछेरा अपना जाल फैलाए हुए है। नन्ही-गौरैया को कहीं ठौर ठिकाना नहीं मिल पा रहा है। पहाड़ों के टूटने से रास्ते दरक गए। नदी सिसक उठी; क्योंकि पानी की जगह उसे सिर्फ़ रेत मिली है। इस सारे दु: ख–दर्द को कवयित्री इस प्रकार रूपायित करती है-

तृषित नदी / द्रवित-हिमशैल / बुझी न तृषा।

फैलाये जाल / प्रदूषण–मछेरा / आकुल-जन।

नन्ही-गौरैया / बेचैन फुदकती / ढूँढ़ती शाखा।

टूटे पहाड़ / दरक गईं राहें / खोई मंज़िल।

सिसकी नदी / रुँधे कंठ से बोली- / 'रेत क्यों मिली!'

प्रकृति से इतर विषयों तथा जीवन की विद्रूपताओं पर भी आपका गहन चिन्तन है। ईर्ष्या के दुष्परिणाम मानव को सदा हानि पहुँचाते हैं। मानव मुट्ठी में बन्द करके कितने अंगारे लाता है, उसे मुट्ठी खुलने पर ही पता चल पाता है-

फुँके सम्बन्ध / धधकी बन शोला / आग ईर्ष्या की।

मुट्ठी में बंद / भर लाया अंगारे / खुली तो जाना।

जीवन में हम बहुत सुन्दर सपने देखते हैं; लेकिन ये सभी स्वप्न भ्रमित करते हैं। जीवन का यथार्थ कठोर होता है। आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है कि हम हार के आगे आत्मसर्पण न करें; तभी हम जीत सकते हैं-

जगा गये जो / सजीले थे सपने / भरमा गए।

छू लिया नभ / मान के चली जीत / हार को सदा।

मन जहाँ असफल हो जाता है, नयन वहाँ सब कुछ पढ़ लेते हैं। प्रेम आस्था का नाम है, उस विश्वास का नाम है; जो प्रेम करने वाले की आशाओं को सच करके दिखा देता है। फिर इस जीवन कि सच्चाई क्या है? मिलने वाले सुखों की अवधि कितनी हो सकती है! कवयित्री ने गौरैया की उड़ान से साम्य स्थापित करके नन्हे से हाइकु में अर्थ की गहन छटा समाविष्ट कर दी है-

पढ़ा न मन / पढ़ गये नयन / भाव प्रेम के।

स्वप्न जो देखे / सच तुमने किये / यही है सच।

उड़ ही गया / सुख, हाथ लगाते / गौरैया सा-था।

सुख हाथ लगे भी तो कैसे! इस जीवन का कोई ओर-छोर नहीं है। यह तो ऐसा सुनसान पथ है, जिसमें भीड़ में घिरा होने पर भी आदमी नितान्त अकेला है–

देखा प्रकाश / चलती गयी कोसों / मिला ना छोर।

भीड़ में चली / बटोर लाई मौन / एकाकी हूँ मैं।

यादों पर केन्द्रित आपके हाइकु नए प्रतीकों और बिम्बों की योजना के कारण अपनी छाप छोड़ जाते है। किताब खुलने पर मुरझाया गुलाब पुरानी स्मृतियों को ताज़ा कर जाता है और झर भी जाता है। सचमुच इस तरह के हाइकु अपनी धमक और चमक बनाए रखते है–

यादें शैवाल / मन-सरोवर में / फैलीं घनेरी।

हिली जो डाल / यादों की पंखुरियाँ / झरने लगीं।

डूबा जहाज़ / रोती रहीं स्मृतियाँ / छाया सन्नाटा।

खोली किताब / मुरझाया गुलाब / ताज़ा हो झरा।

आपके हाइकु जिजीविषा से भरे हैं। उदासियों को ठेलकर आगे बढ़ने की ही प्रेरणा देते हैं।

करो विश्वास / है भोर, शाम बाद / न हो उदास।

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हिन्दी हाइकु–जगत् की इस विनम्र साधिका ने सात दशक पूरे करने के बाद हाइकु रचना शुरू किया। इन्होंने बहुत अल्प समय में हाइकु को साध लिया है। जो हाइकु–रचना नहीं कर पाते, केवल हाइकुकारों को कोसते रहते हैं, वे इनके हाइकु ज़रूर पढ़ें तो उनको इस स्तर का काव्य न रच पाने का बोध ज़रूर हो जाएगा। जो बरसों से लिखकर काग़ज़ काले कर रहे हैं, वे भी यह संग्रह 'सागर मन' ' पढ़ें ताकि जान सकें कि वे कहाँ खड़े हैं?

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16 जुलाई, 2014