पुस्तकं समर्पयामि / शोभना 'श्याम'

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जैसा कि नाम से ही छलक और झलक रहा है, ये अक्षर समाज सेवा और राष्ट्र-समर्पण की उदात्त भावना के वशीभूत होकर लिखे गए है। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति या घटना से इनकी साम्यता होना न होना मात्र संयोग हो सकता है।

हमारे समाज में सबसे अधिक समर्पित कृत्य पुस्तक-लोकार्पण की मार्किट वेल्यू न लगाए जाने के कारण देश की अर्थव्यवस्था में इसके योगदान को कभी आंका ही नहीं गया और इसे मात्र लेखकीय खुजली मान लिया गया। हालाँकि हमारे समाज में लेखक को ही सबसे फालतू जीव माना गया है लेकिन यही अपने फालतूपने में अपनी जर्जर जेब को बार-बार कटा कर असंख्य लोगों को रोजगार का अवसर देकर देश की अर्थव्यवस्था में अपना निर्मूल्य योगदान देता है। हालिया वर्षों में लोकार्पण उद्योग तेजी से विकसित होकर नए-नए मानदंड प्रस्तुत कर रहा है।

अगर शुरू से शुरू करें तो लेखक पहले तो लिखने के लिए रात-रात जाग कर बिजली, इन्वर्टर और लैम्पों आदि की खपत बढ़ाता है फिर टाइपिंग से लेकर पाण्डुलिपि तैयार होने की प्रक्रिया में स्टेशनरी, पैन, पैन-ड्राइव आदि की बिक्री में इज़ाफ़ा होता है। इस पाण्डुलिपि के पुस्तक रूपाकार ग्रहण करते-करते प्रकाशक की हलवा पूरी से लेकर प्रेस में काम करने वालों की रोटी का इंतजाम हो चुका होता है।

अब बारी आती है लोकर्पण की जिसके लिए पांच सौ रुपये से लेकर पांच लाख तक की वैराइटी उपलब्ध है। जितनी हलकी रचना, उतनी भारी होती है लोकार्पण की चेष्टा।

राजधानी में तो बाक़ायदा ऐसा मैदान है जहाँ एक छमाही मेले में हजारों लोकार्पण परगति को प्राप्त हो जाते हैं। आजकल जनसँख्या-विस्फोट की ही तरह पुस्तक विस्फोट भी हो रहा है। एक महाशय तो प्रतिवर्ष पांच से सात पृष्ठों की लगभग सौ पुस्तकें? छपवाते है और दस-दस पुस्तकों के सामूहिक लोकार्पण से जहाँ साहित्य और इस उद्योग दोनों में अपना घनात्मक योगदान दे रहे हैं वहीं लोकार्पण में ये पुस्तकें फ्री बांटकर इस उद्योग के परजीवी रद्दी-उद्योग में भी गुणात्मक योगदान दे रहे हैं।

जैसे आत्माएँ इस आसार संसार में आवागमन के चक्र में बंधी आती जाती रहती हैं इसी प्रकार लोकार्पण में 'तू मेरे में तो मैं तेरे में' के अनन्योनाश्रित क्रम में बंधे तो कुछ चायनाश्ते, खाने आदि की सुगंध से खिंचे आसपास के फुटकर लेखक और फुरसतिये वयोवृद्ध चले ही आते हैं। कुछ चतुर लोकार्पक इसी आयोजन में एक छोटी-सी काव्य-गोष्ठी रखकर काफी अतिरिक्त मछलियाँ फांस लेते हैं।

अब आप स्वयं हिसाब लगाइये कि यदि एक महीने में पांच सौ लोकार्पण हों तो इनमें से कम से कम आधे तो किराये के सभागारों में होते हैं फिर कम से कम पचास श्रोता प्रति लोकार्पण के हिसाब से लगभग पच्चीस हजार लोगों के चाय नाश्ते और कहीं-कहीं तो खाने के द्वारा कितने चाय वालों और केटरर्स को काम मिल जाता हैं।

मंच पर शहर के कुछ नामी-गरामी वक़्ता अवस्थित होते हैं जो अपनी बोलास के चलते पुस्तक के साथ-साथ लगे हाथ अपनी महानता के झंडे भी गाड़ लेते हैं। मंच से लोकर्पक की रचनाओं पर इतने क़सीदे पढ़े जाते हैं कि गोलोक में विष्णु भगवान भी भ्रमित होकर स्वयं को चिकोटी काटकर देखते हैं कि अपने लेटेस्ट अवतार में 'यदा यदा ही ...' कहकर आया था तो कहीं 'साहित्यस्य ग्लानिर्भवति लेखके ...' से द्रवित होकर इस लेखक या कवि के रूप में अवतार तो नहीं ले चुका हूँ? पुस्तक लोकर्पक भी आत्मविमुग्ध चेहरे से मानों ऐलान करता हुआ कि अब मैं आ गया / गयी हूँ सो साहित्य के अच्छे दिन आ गए समझो, अपने मन की सवा मन भारी बात करता अपनी रचनाओं के एक के बाद एक स्वतः उदभूत पाठन से कार्यक्रम को इतना लम्बा कर देता हैं सिर दर्द की गोलियों की अतिरिक्त खपत से दवा उद्योग भी निहाल हो जाता हैं।

कुछ अक्लमंद श्रोता इससे बचने के लिए बीच-बीच में अपनी नींद पूरी कर लेते हैं तो इसे सिरदर्द की गोलियों का नुकसान कदापि न समझे बल्कि ये तो चक्रवर्ती ब्याज के समान इसी लोक हितकारी उद्योग में पूँजी निवेश की तरह हैं क्योंकि यहाँ नींद पूरी कर वह रात्रि जागरण कर लिखने के लिए तैयार हो जाता हैं परिणाम-एक और पुस्तक, एक और लोकार्पण!

इन लोकार्पणों में अभी तक वक्ताओं को मानदेय प्रदान करने की तुच्छ मानसिकता विकसित नहीं हो पायी हैं सो इसके 'सम-मान' स्वरूप शाल या शॉलनुमा दो गजी कपड़े के टुकड़े, पटके आदि से काम चलाया जाता हैं, अब च्यूंकि ये घर में तो उगते नहीं, बाज़ार से ही खरीदे जाते हैं। इन लोकार्पणों के चलते आजकल सबसे ज़्यादा जोर शोर से जो व्यवसाय दूधो नहा रहा हैं वह हैं लकड़ी, टिन, प्लास्टिक या अलॉय के बने सम्मान पत्र और स्मृति चिन्हों का। 100 रुपये से लेकर 100 रुपये तक के किसी भी स्मृति चिह्न पर अपना और सम्माननीय का नाम छपवाइये और फिर जिसे चाहे सम्मानिये।

सम्मान से याद आया कि अगर आयोजन के फोटू न खिंचे तो मोर जंगल में नाच कर रह जायेगा। शादियों के ऑफ सीजन में ये लोकार्पण ही फोटोग्राफरों के चूल्हे में आग जलाये रखते हैं अन्यथा 'जेबे जेबे मोबाइल' के युग में बेचारे फोटोग्राफर भूखे ही भजन करते रह जाते।

इसी तरह टैंट, लाइट, माइक, बैनर, पुष्पगुच्छ, फूलमाला, निमंत्रण-पत्र आदि आदि। ये तुच्छदर्शी लेखक कितने व्यवसायों का पालक-पोषक सिद्ध होता हैं, यह गणित 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की भांति अगणित हुआ जाता हैं।

इस आयोजनोपरांत साहित्य के क्षेत्र में हुए इस अभूतपूर्व अनुष्ठान की समीक्षाएँ और रिपोर्ट आदि छाप कर कतिपय छोटे मोटे अखबार भी अपनी चार जून की रोटी और चाय कमा लेते हैं। इस प्रकार गोबर से गैस और गैस से खाना बनाने की प्रक्रिया चलती रहती हैं।

हमने भी पिछले दिनों कई लोकार्पणों में श्रोता बन कर अपनी पुस्तक तैयार कर ली हैं सो शीघ्र ही हम भी आप सब की उपस्थिति में बड़ी शान से लोकार्पण के महायज्ञ में अपनी समिधा डालते हुए-हुए कहेंगे-

अहं पुस्तकं समर्पयामि, इदं त्वं इदं न मम!